• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्रस्तुत संकटों का कारण एवं निवारण
    • विचारों में क्रान्ति आए तो समस्याएं सुलझें
    • नवयुग की पृष्ठभूमि और मूलभूत आधार
    • क्रान्ति का सही अर्थ समझें
    • नैतिक एवं बौद्धिक परिवर्तन का आह्वान
    • बुद्धिवाद नीतिनिष्ठा का पक्षधर बने
    • मानवीय संवेदनाओं को पोषण दें— रौंदे नहीं
    • नवनिर्माण का उत्कृष्टतावादी जीवनदर्शन
    • समय की विषम बेला में वरिष्ठों का दायित्व
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्रस्तुत संकटों का कारण एवं निवारण
    • विचारों में क्रान्ति आए तो समस्याएं सुलझें
    • नवयुग की पृष्ठभूमि और मूलभूत आधार
    • क्रान्ति का सही अर्थ समझें
    • नैतिक एवं बौद्धिक परिवर्तन का आह्वान
    • बुद्धिवाद नीतिनिष्ठा का पक्षधर बने
    • मानवीय संवेदनाओं को पोषण दें— रौंदे नहीं
    • नवनिर्माण का उत्कृष्टतावादी जीवनदर्शन
    • समय की विषम बेला में वरिष्ठों का दायित्व
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


नवयुग की पृष्ठभूमि और मूलभूत आधार

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 2 4 Last
अपने समय के मूर्धन्य विश्व, विचारक बर्ट्रेण्ड रसेल ने युग विकृतियों के कारण और निवारण पर बहुत विचार किया है। इस सन्दर्भ में उनने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं, वे सभी के लिए विचारणीय हैं।

बर्ट्रेण्ड रसेल के अनुसार, इन दिनों यह पूंजीवादी मान्यता अत्यन्त घातक है कि हर सम्भव उपाय से उत्पादन की मात्रा बढ़ाई जानी चाहिये। नई तरह की मशीनों से, औरतों और बच्चों से काम लेकर, काम के घन्टे बढ़ाकर विविध प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि की जानी चाहिये। उपयोगी चीजों का उत्पादन होता रहना चाहिये अन्यथा अभावजन्य अनेकानेक समस्यायें उत्पन्न होंगी।

आधुनिक सुविकसित साधनों के सहारे संसार की पूरी जनसंख्या का एक हिस्सा बिना अधिक समय तक काम किये वह सारा काम निबटा सकता है जो उपयोग की वस्तुयें पैदा करने के लिए सचमुच ही आवश्यक है। जो समय ऐश्वर्य को अनावश्यक साधनों को पैदा करने में खर्च किया जाता है, उसका कुछ भाग स्वस्थ मनोरंजन और सैर-सपाटे में खर्च करके शारीरिक एवं मानसिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। शिक्षा वह सांस्कृतिक विकास कार्यों में भी उस महत्वपूर्ण समय का नियोजन हो सकता है। कला, साहित्य, गायन-वादन जैसे मनोविकास के साधनों का आविष्कार एवं विकास, अनुपयोगी वस्तुओं के उत्पादन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

संसार की मौजूदा औद्योगिक व्यवस्था इसी अदूरदर्शी नीति पर चल रही है कि वस्तुओं का बिना उपयोगी-अनुपयोगी में भेदभाव किये अधिक से अधिक उत्पादन हो। यह व्यवस्था इसी प्रकार ही चलती रही तो मानवी विकास का लक्ष्य अधूरा ही रह जायेगा। वर्तमान व्यवस्था में निरर्थक वस्तुओं के उत्पादन में क्षमता नियोजित होने से मानव बल का बहुत अपव्यय होता है।

कुछ व्यक्ति जी-तोड़ मेहनत करें और अपने स्वास्थ्य को गंवा बैठें, यह जितना अहितकर है, उतना ही अन्यायपूर्ण है कि कुछ लोगों की आय अधिक हो और उन्हें न्यूनतम घंटे काम करना पड़े। यह सच है कि शारीरिक श्रम की तुलना में बौद्धिक श्रम कम समय तक किया जा सकता है। पर, वह इतना भी कम नहीं होना चाहिये कि एक वर्ग आराम-तलब बन जाए।

सम्पत्ति के उत्तराधिकार के विषय में बर्ट्रेण्ड रसेल का कहना है कि यह बात तो समझ में आती भी है कि जिस-जिस आदमी का काम असाधारण रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है। जैसे आविष्कर्त्ता का, उसे औसत नागरिक से थोड़ा अधिक आय का उपयोग करने दिया जाय, पर इसका कोई कारण समझ में नहीं आता कि सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बेटों, पोतों को मिलना चाहिये। इसका परिणाम यह होता है जो अपने पैसे के बल पर प्रभावशाली बन जाता है। विश्व में जहां भी यह उत्तराधिकार में धन मिलने की परंपरा विद्यमान हो, उसे अविलम्ब समाप्त किया जाना चाहिये।

वितरण की वर्तमान व्यवस्था किसी सिद्धान्त पर आधारित नहीं है। उसकी उत्पत्ति एक ऐसी व्यवस्था से हुई जो देश विजय द्वारा थोपी गई थी। विजेताओं ने जो व्यवस्था अपने हितों के लिए बनाई थी, उसे कानून का थोड़ा पजामा पहनकर ढाल दिया गया। तब से अब तक कोई बुनियादी परिवर्तन इसमें नहीं हुआ। यह पुनर्निर्माण किन सिद्धान्तों एवं आधारों पर आधारित हो, यह एक ऐसा विचारणीय प्रश्न है जिसके उत्तर में मानवजाति का भविष्य अवलम्बित है।

इस समय दो आन्दोलन ऐसे हैं जिनसे कुछ आशा बंधती है कि वे वर्तमान अव्यवस्था और टकराव को दूर करने में सहायक हो सकते हैं। उन में से एक है, ‘सहकारिता आन्दोलन’ तथा दूसरा है ‘संघाधिपत्यवाद’। सहकारिता आन्दोलन बहुत बड़े क्षेत्र में मजदूरी देकर काम लेने की पद्धति का स्थान हो सकता है एवं रेलवे जैसे क्षेत्रों में संघाधिपत्यवाद के सिद्धांतों को सबसे आसानी से लागू किया जा सकता है।

उपभोक्ता, उत्पादन और पूंजीपति के विभिन्न हितों के बीच जो अलगाव है— वही वर्तमान व्यवस्था की सारी बुराइयों की जड़ है। सहकारी व्यवस्था उपभोक्ता और पूंजीपति के हितों में सामंजस्य स्थापित करती है। संघाधिपत्यवाद उत्पादक के हितों में समन्वय स्थापित करता है, लेकिन इन दोनों में से कोई भी व्यवस्था अपने आप में परिपूर्ण नहीं है तो भी मौजूदा व्यवस्था से ये दोनों की व्यवस्थायें कहीं बेहतर सिद्ध होंगी। इन दोनों के सम्मिश्रण से एक तीसरी व्यवस्था भी निकल सकती है जो समस्त औद्योगिक समस्याओं को दूर कर सके।

बर्ट्रेण्ड रसेल लिखते हैं, यह बड़े आश्चर्य की बात है कि राजनैतिक क्षेत्र में लोकतन्त्र की स्थापना के लिए असंख्य नर-नारियों ने संघर्ष किया है, पर उद्योगों में लोकतन्त्र की स्थापना करने का प्रयास अत्यल्प हुआ है जबकि युग की प्रधान आवश्यकता वही है।

राजनैतिक संस्थायें सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यह पूरा कर सकती है कि वे व्यक्ति में सृजन की प्रवृत्ति, उमंग, उत्साह और जीवन का उल्लास बनाये रखें। लोगों में भरपूर उमंग बनाये रखने के लिए केवल सुरक्षा की ही नहीं बल्कि उत्साहवर्धक उल्लास भरे, सुअवसरों की भी आवश्यकता होती है। भय से मुक्ति का नाम सुरक्षा है। भय मुक्ति निषेधात्मक नहीं हैं, वरन् उस की पूर्णता, उत्साह, उमंग, आशा, सृजनशीलता और शालीनता के उदात्त अभिवर्द्धन के साथ जुड़ी है।

‘मार्क्सवाद’ अर्थ को तो प्रधानता देता रहा है पर यह समझना एक भूल है कि समस्त समस्याओं का एकमात्र कारण आर्थिक विषमता है, जैसा कि प्रायः मार्क्सवाद के व्याख्याकार कहते हैं। मार्क्स का अभिन्न सहयोगी एंजेल्स स्वयं स्पष्ट करते हुए लिखता है, ‘‘नई पीढ़ी कभी-कभी आर्थिक पहलू पर जरूरत से अधिक जोर देती है, यह उचित नहीं है। यह उचित है कि वस्तुओं का उचित परिणाम में उत्पादन और सही रीति से उनका वितरण समाज की सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ ही एकमात्र मनुष्य जीवन का लक्ष्य है वरन् यह कहना चाहिये कि अर्थ भी जीवन के लिए प्रमुख कारक है। जो मार्क्स के सिद्धान्त की तोड़-मरोड़ करता है और यह कहता है कि अर्थ का अनुकूलन की समस्त समस्याओं को एकमात्र हल है, वे भारी गलती पर हैं। मनुष्य चिन्तन-आचरण दार्शनिक सिद्धान्तों, धार्मिक विचारों का भी समाज संरचना में असाधारण प्रभाव पड़ता है। ऐतिहासिक संघर्षों एवं परिवर्तनों में इनकी भी विशेष भूमिका होती है। अतएव समस्त इतिहास की अर्थ की भाषा में व्याख्या करना अनुचित ही नहीं हानिकारक भी है।’’

दार्शनिक राबर्ट ओवेन का जन्म इंग्लैण्ड में हुआ। मालिक व मजदूरी के बीच कैसा सम्बन्ध होना चाहिये। इसका एक प्रेरणास्पद उदाहरण उसने युवावस्था में एक मिल की व्यवस्था हाथ में लेते ही प्रस्तुत किया। वह चिन्तक और व्यवस्थापक दोनों ही था। मानचेस्टर की एक मिल में उस ने श्रमिकों के उत्थान के लिए जो भी कुछ किया, उसके लिए आज भी इंग्लैण्ड में उनका श्रद्धापूर्वक श्रमिक वर्ग द्वारा लिया जाता है। मजदूरों के लिए उसने समग्र शिक्षा व्यवस्था बनाई। स्वास्थ्य की सुविधायें उपलब्ध करायी। निकटवर्ती क्षेत्रों में शराब की दुकानें बन्द करा दीं। श्रमिकों को उनके उत्तम चरित्र और पदोन्नति के लिए पारितोषिक देने की व्यवस्था की। परिणाम यह हुआ कि स्वास्थ्य, स्वच्छता एवं शिक्षा का स्तर बढ़ते ही श्रमिकों की स्थिति दिन-प्रतिदिन सुधरती गई। बाद में चिन्तन और लेखन उसकी प्रिय अभिरुचि के विषय बन गये। अपनी पुस्तक ‘लाइफ आफ ओवेन’ में वे लिखते हैं कि समस्त मनुष्य जाति को ध्यान में रखकर प्रयास करने से ही स्थाई सुख-शान्ति सम्भव है। उसके लिए सामूहिक विकास से सम्बन्धित उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा।

वह कहते हैं कि आदमी का व्यक्तित्व उस परिस्थिति से निर्मित होता है जिसमें वह पैदा हुआ, जहां वह रहता है काम करता है। बुरी परिस्थितियां बुरे व्यक्तित्व पैदा करती हैं व अच्छी परिस्थितियां अच्छे व्यक्तित्व को। परिस्थिति को अच्छा बनाने के लिए ओवेन कुछ प्रमुख बातों पर जोर देते हैं—

(1) शिक्षा सार्वजनिक, सर्वसुलभ और हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य होनी चाहिये तथा सदुद्देश्यपूर्ण हो।

(2) सम्पत्ति इतनी होनी चाहिए कि हर व्यक्ति खुशहाली का जीवन जी सके।

(3) बेकारी का डर नहीं होना चाहिये। उसके लिए उद्योगों का संचालन दूरदर्शी, उदारमना और सर्व हितैषी के हाथों में सौंपा जाना आवश्यक है।

19वीं सदी के आरम्भ का ओवेन पहला व्यक्ति था जिसने अपने ही विचारों को क्रियात्मक रूप देना आरम्भ किया। ‘सोशल सिस्टम’ पुस्तक में उसने कम्यून व्यवस्था पर आधारित जिस समाज की परिकल्पना की थी उसे प्रायोगिक रूप 1824 में दिया। 30 हजार पौंड की राशि से उसने हार्मनी इण्डियाना में 30,000 एकड़ जमीन खरीदी तथा न्यू हार्मनी के नाम से एक साम्यवादी उपनिवेशन बसाया जिसके सदस्यों की संख्या क्रमशः हजारों से बढ़ते हुए कुछ ही वर्षों में लाख तक पहुंची।

उपनिवेश का उद्घाटन करते हुए ओवेन ने कहा था कि, ‘‘मैं एक बिल्कुल नई सामाजिक व्यवस्था—नये प्रयोग का शुभारम्भ कर रहा हूं ताकि दुनिया संकीर्णता के दलदल से निकले और समूह में भाई-भाई की भांति रहना सीखे।’’

‘बाबूफ’ फांस का एक साम्यवादी विचारक था। (जीवनकाल 1764 से 1797 तक) फ्रांस की क्रान्ति को उसने ही दिशा दी। कार्लमार्क्स के पूर्व ही उसने साम्यवादी विचारधारा का उद्घोष किया था। पूंजीवादी सरकार के विरोध में आवाज उठाने के कारण उसे अन्ततः मात्र 33 वर्ष की आयु में फांसी पर लटका दिया गया।

बाबूफ के अनुसार, मानवी विकास का लक्ष्य होना चाहिए एक ऐसे समाज की संरचना जिसमें हर व्यक्ति सुख-शान्ति से भरा-पूरा जीवन व्यतीत करे। पर यह तभी सम्भव है जब हर व्यक्ति समान हो। समान इस अर्थ में कि प्रत्येक को जीवनयापन की अनिवार्य सुविधायें मिलें।’’

समाज के पुनर्निर्माण का ‘‘बाबूफ’’ ने जो आधार दिया वह यह था कि प्रकृति प्रदत्त समस्त सम्पदा का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। व्यक्ति को निजी सम्पत्ति रखने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। विरासत में किसी भी व्यक्ति को पैतृक सम्पत्ति न मिले। मरने के बाद उसकी सम्पत्ति सरकारी ट्रस्ट के हाथों सौंप दी जाय। सरकार तथा सरकारी अधिकारी जनता द्वारा सीधे चुने जांय। चुने हुये अधिकारियों की देख रेख में सारी उत्पादित वस्तुओं का वितरण व्यक्ति की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाय न कि उसकी योग्यता को देखकर। प्रबन्धक और कर्मचारियों का स्थानान्तरण होते रहना आवश्यक है ताकि उसमें शक्ति के लोभ का भय नहीं रहे और भ्रष्टाचार पनपने की गुंजाइश कम रहे। वोट वही दे सकेंगे जो चरित्रवान हैं। तथा समाज के लिए उपयोगी काम करने में विश्वास रखते हों। बच्चों को संकीर्ण स्वार्थ परता से ऊंचे उठकर समाज परायण, कर्तव्य निष्ठ होने की शिक्षा आरम्भ से ही दी जानी चाहिए ताकि वे आगे चलकर सुयोग्य नागरिक सिद्ध हो सकें। फ्रांस के प्रसिद्ध समाजशास्त्री और प्रजातन्त्र सिद्धान्त के जन्मदाता ‘जीनजेक्स रूसो’ ने भावी प्रगति के लिये बाल शिक्षा को प्रधानता देने की बात कही है। वे कहते हैं कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना सुव्यवस्थित समाज से होगी। सुव्यवस्थित समाज के लिये नागरिकों को चरित्र निष्ठ और समाज निष्ठ बनना चाहिये। यह कार्य उपदेशों, परामर्शों, प्रदर्शनों से नहीं वरन् उस वातावरण के द्वारा सम्पन्न होना चाहिए जो व्यक्तित्व को अपने ढांचे से ढाल सके। यह ढलाई बड़ी आयु हो जाने पर बड़ी कठिनाइयों से ही हो सकती है इसलिये जैसे भी खिलौने ढालने हों उसका प्रयास तभी होना चाहिये जब मिट्टी गीली हो। सूख जाने पर, पक जाने पर परिवर्तन का प्रयास अत्यन्त कष्ट साध्य है।

रूसो का इस सन्दर्भ में, लिखा है कि ‘इमिले’ विश्वविख्यात है। इसमें उसने बाल-विकास और बाल-विकास के लिये किस प्रकार का वातावरण आवश्यक है, यह बताया है। साथ ही यह भी सुझाया कि वैसा वातावरण बनाने के लिये न केवल अभिभावकों को वरन् समूचे समाज को क्या प्रयत्न करना चाहिये।

वे कहते हैं कि बालकों पर किताबी बोझ न लादा जाय। दस वर्ष तक, उनके शरीर को स्वास्थ्य और आदतों को शालीन बनाने पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया जाय। उन्हें आरम्भ से ही संगीत की शिक्षा दी जाये। भावनात्मक विकास के लिए यह नितान्त आवश्यक है। उनकी दृष्टि में खेलकूद के विभिन्न आयोजनों द्वारा, मनोविनोद के विभिन्न उपकरणों द्वारा व्यक्तित्ववान् बनाया जा सकता है। छोटी आयु में बालकों के बहुत पढ़ाने को वे अत्याचार कहते और बताते हैं कि इससे वे पढ़ाकू तो हो सकते हैं पर व्यक्तित्व की दृष्टि से बुरी तरह कुचल जायेंगे। डरा धमका कर सुधारने की अपेक्षा उनको उपयोगी कार्यों में लगा देने और चिन्तन को रचनात्मक दिशा देने की बात पर उनने अधिक जोर दिया है। जो जिस विषय का विशेषज्ञ बनना चाहे वह उसमें प्रवीणता प्राप्त करने की सुविधा उपलब्ध करे यह एक बात है। किन्तु सामान्य जीवन यापन करने और उन्हें व्यावहारिक ज्ञान से वंचित रखकर पुस्तकीय कीड़ा बना देने की वे अनुमति नहीं देते। नारी की प्रकृति की संरचना की ओर ध्यान दिलाते हुए उनका मत है कि नारी शिक्षा का लक्ष्य पुरुष शिक्षा से कुछ भिन्न रखना आवश्यक है। सामान्य ज्ञान दोनों एक जैसा प्राप्त करें पर साथ यह भी न भूला जाय कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान करना तथा सुख-शान्ति-प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना है।

रूसो ने भी मानवी भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए बालकों के व्यक्तित्व निर्माण को सर्वोपरि महत्व दिया और कहा है कि नवयुग की पृष्ठभूमि और आधारशिला उन्हीं के बलबूते विनिर्मित की जा सकती है।

पर विश्व इतिहास पर दृष्टिपात करने से एक बात और भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है कि संसार में जितने भी परिवर्तन हुये हैं, भले ही वे व्यक्तित्व स्तर पर सम्पन्न हुये हों अथवा सामाजिक रूप से इन परिवर्तनों का आधार केवल विचारों का परिवर्तन, आस्थाओं का परिष्कार और जन-मानस का शोधन ही रहा है। बाहरी नियम बना कर अथवा सामाजिक दबाव डाल कर कुछ कार्य पूरे भले ही कर लिये गये हों परन्तु ऐसे प्रयास समय पाकर विफल ही सिद्ध होते आये हैं। किसी युग में बाहरी दबावों के कारण लोगों को लम्बे समय तक दबाये रहना भले ही संभव हो गया परन्तु अब दिनों दिन शिक्षा का प्रसार होता जा रहा है, फल स्वरूप लोगों में जागृति भी आई और वे ऐसी मनःस्थिति में नहीं हैं कि बाहरी प्रभाव या नियमों के दबाव को लम्बे समय तक सहन कर सकें। वैसे भी बाहरी दबाव केवल हाथ पैरों को बांध देने जैसे ही सिद्ध हो सकते हैं, यदि उन्हें अधिक से अधिक प्रभावशाली बनाया जाय तो लोग नियमों, पाबन्दियों को तोड़ने और इन के लिये निर्धारित, दंड से बच निकलने का उपाय ढूंढ़ ही लेते हैं। कारण कि बाहरी दबाव या नियम कानूनों से व्यक्ति की आंतरिक स्थिति में तो कोई परिवर्तन होता नहीं। इसलिये दमन, दबाव और दंड का भय प्रायः असफल ही सिद्ध होता आया है। परिवर्तन जो भी स्थाई और प्रभावशाली सिद्ध हुये उनकी सफलता का रहस्य विचारों में परिवर्तन लाने वाले वे प्रयत्न हैं जिनसे लोगों की आन्तरिक स्थिति बदली जा सकी। इन दिनों जिस व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है, वह पिछले सभी परिवर्तनों और क्रान्तियों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य लेकर चलने वाले प्रत्येक लोक सेवी को यह दृष्टिकोण अपनाना और समझना चाहिए। इसी मूल नीति के आधार पर अपने निकटवर्ती जनों को प्रेरणा प्रोत्साहन देने से लेकर व्यापक स्तर पर इन प्रवृत्तियों का विकास करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये। विचार क्रान्ति, दृष्टिकोण का सुधार, भावनात्मक परिष्कार या आस्थाओं का शोधन, नाम चाहे जो भी रख लिया जाय उससे आशय एक ही है। और वह यह कि मनुष्य को नियन्त्रित और संचालित करने वाली चेतना को प्रभावित कर उसे अभीष्ट दिशा दी जाय। यह करने पर ही समाज में सुख शान्ति की स्थापना हो सकती है। इस तरह के परिवर्तन राज दंड या कानून बनाने से नहीं हो सकते और नहीं केवल दोष दुष्प्रवृत्तियों की बुराई आलोचना या निन्दा करने भर से काम चल सकता है। राजदंड, राजनियम और सामूहिक निन्दा आवश्यक तो है फिर भी वह समाज में व्याप्त विकृतियों का सम्पूर्ण उपचार नहीं है। उपचार और समाज का नव-निर्माण तो तभी संभव है जब उसमें रहने वाले मनुष्यों का आंतरिक स्तर सद्विचारों और सद्भावनाओं से भरा हुआ हो। राजनियमों के प्रति सम्मान, निन्दा और भय और समाज के प्रति निष्ठा भी तो ऐसे व्यक्तियों में ही होती है जिनके हृदय उदार और विचार उज्ज्वल हैं, जिनके मन में आदर्श वादिता के आस्था और सिद्धान्तों के प्रति रुझान या लगाव हो।

लोक सेवियों को व्यापक परिवर्तनों के लिए प्रयास करते समय यह स्मरण रखना चाहिये कि बुरे विचार ही बुरे कर्म के रूप में परिणत होते हैं और अच्छे कर्म सद्विचारों का ही प्रकटीकरण व्यक्त स्वरूप होते हैं। जिस प्रकार हवा में पानी हो तो ही हिमपात या वर्षा होती है। यदि हवा में पानी का अंश न रहे तो न बर्फ गिर सकती है और न ही वर्षा हो सकती है। इसी प्रकार विचारों में बुराई का अंश ही कुकर्म बनकर प्रकट होता है और अच्छे विचार ही सत्कर्मों के रूप में सामने आते हैं।

प्रश्न उठता है कि किस प्रकार लोक मानस के परिष्कार का प्रयास किया जाय? किस आधार पर व्यापक परिवर्तन प्रस्तुत किये जायें? मनुष्य के सोचने और विचारने के तरीके में आई गिरावट को किस प्रकार मिटाया जाय? तथा उसे कैसे उत्थान की ओर अग्रसर किया जाय? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि विचारणाओं और भावनाओं में, आस्थाओं और मान्यताओं में आयी विकृतियों का निराकरण सद्विचारों की स्थापना आदर्श वादिता की प्रतिष्ठापना द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए विचार क्रान्ति की प्रक्रिया, भावनात्मक परिष्कार का उपक्रम व्यापक स्तर पर चलना चाहिए तथा उत्कृष्ट और प्रगतिशील विचारों को जन-जन तक पहुंचाना चाहिए। प्राचीनकाल में किसी भी महापुरुष के विचार, कोई भी अच्छा सिद्धान्त बड़े प्रयत्नों के बाद एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच पाता था। फलतः अभीष्ट परिवर्तन के लिये एक कठिनाई यह भी थी कि परिवर्तन प्रक्रिया काफी लम्बे समय में सम्पन्न हो पाती थी। विज्ञान ने अब यह कठिनाई दूर कर दी है। अब पर्याप्त संचार-साधन और सुविधाएं उपलब्ध हैं। प्रेस और प्रकाशन के साधनों की बहुलता है। प्रचार के पुराने तरीकों में भी सुधार हो चुका है। इन सब कारणों से सद्विचारों का प्रचार कोई बहुत अधिक श्रम साध्य या पहले जैसे कष्ट साध्य कार्य नहीं रह गया है।

सद्विचारों का प्रचार और उन्हें जन-मानस में प्रतिष्ठित करना तब भी दुस्साध्य था, जब कि विचारशीलता का अभाव था। लेकिन आधुनिक युग में शिक्षा के प्रसार और हर क्षेत्र में लोगों की विकसित रुचि के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि लोगों में किसी विचार को ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं है। विचारशीलता का पहले जैसा अभाव नहीं है। सभ्यता के विभिन्न क्षेत्रों में विकास करने के साथ-साथ आज का मनुष्य इतना विचारशील भी बना है कि यदि उसे तथ्य समझाया जाए, विचारों को दिशा दी जाय तो वह उन्हें समझने और मानने के लिये तैयार हो जाता है। लोक सेवियों को चाहिए कि आदर्शवादिता की प्रतिष्ठापना के लिये, उत्कृष्ट सिद्धान्तों का आरोपण करने के लिये वे जन-जन के पास जायें और लोगों की आस्थाओं, मान्यताओं तथा विचारणाओं को परिष्कृत करने के लिए आवश्यक प्रयास करें।

आवश्यक नहीं है कि इस प्रयोजन के लिये वही लोग प्रयत्न करें जिनमें ऐसी सामर्थ्य हो। युद्ध के मोर्चे पर लड़ने वाले हथियार बनाते हैं और हजारों लाखों सिपाही उनसे लड़ाई हैं। विचारक्रान्ति के लिए भी ज्ञान अस्त्रों, पुस्तकों को लेकर हजारों लोग निकल सकते हैं और प्रेरक तथा दिशा प्रदान करने वाले विचारों का साधन कर कुविचारों, निकृष्ट मान्यताओं का हनन कर सकते हैं। इसके लिए सुलझी विचारधारा का साहित्य लेकर निकलना चाहिए, लोगों को उसे पढ़ने तथा विचार करने की प्रेरणा देनी चाहिए, उसके साथ ही अशिक्षित व्यक्तियों के लिए पढ़ कर सुनाने या परामर्श द्वारा देने की प्रक्रिया चलानी चाहिए।

व्यापक परिवर्तन के लिए विचारक्रान्ति ही एक मात्र उपाय है और यह उपाय सद्विचारों के प्रचार द्वारा आस्थाओं के निर्माण के रूप में क्रियान्वित करना चाहिये।
First 2 4 Last


Other Version of this book



विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप
Type: TEXT
Language: HINDI
...

विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युग सृजन का आरम्भ परिवार निर्माण से
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
Type: SCAN
Language: EN
...

मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
...

मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
...

प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: EN
...

प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया
Type: SCAN
Language: EN
...

अमर वाणी - १
Type: SCAN
Language: HINDI
...

अमर वाणी - १
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा परिजनों में नव जीवन संचार
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा परिजनों में नव जीवन संचार
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा परिजनों में नव जीवन संचार
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा परिजनों में नव जीवन संचार
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा परिजनों में नव जीवन संचार
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा परिजनों में नव जीवन संचार
Type: SCAN
Language: HINDI
...

शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता
Type: SCAN
Language: HINDI
...

शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता
Type: SCAN
Language: HINDI
...

राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें ?
Type: SCAN
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Articles of Books

  • प्रस्तुत संकटों का कारण एवं निवारण
  • विचारों में क्रान्ति आए तो समस्याएं सुलझें
  • नवयुग की पृष्ठभूमि और मूलभूत आधार
  • क्रान्ति का सही अर्थ समझें
  • नैतिक एवं बौद्धिक परिवर्तन का आह्वान
  • बुद्धिवाद नीतिनिष्ठा का पक्षधर बने
  • मानवीय संवेदनाओं को पोषण दें— रौंदे नहीं
  • नवनिर्माण का उत्कृष्टतावादी जीवनदर्शन
  • समय की विषम बेला में वरिष्ठों का दायित्व
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj