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Books - विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

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समय की विषम बेला में वरिष्ठों का दायित्व

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First 8 10 Last
व्यक्ति की आन्तरिक उत्कृष्टता की इस बात की गारन्टी है कि वह स्वयं सुखी रहेगा और अपने सम्पर्क क्षेत्र को शान्ति एवं प्रगति से लाभान्वित करेगा। परिस्थितियां मनःस्थिति की प्रतिक्रिया भर हैं। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस सनातन तथ्यों को कोई भी अपने चिन्तन और चरित्र के अनुरूप उत्थान और पतन का अवसर प्रस्तुत करते हुए देखकर यथार्थपरता परख सकता है। वर्तमान की विभीषिकाओं को निरस्त करने और भविष्य की उज्ज्वल संभावनाओं से भरा-पूरा देखने का जो सपना संजोया गया है उसके मूल में इसी प्रतिष्ठा को आधारभूत माना गया है कि जन-जन को उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत किया जायेगा, फलतः शालीनता और सद्भावना का वातावरण बनेगा। इतना बन पड़ने पर सामान्य सुविधा-साधनों के सहारे भी शान्ति और प्रगति की परिस्थितियां विनिर्मित होती चली जायेंगी। नव सृजन का, युग परिवर्तन का, उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा करने वाले तत्त्व इस तथ्य से पूर्णतया आश्वस्त हैं कि मनुष्य की अन्तरात्मा को जगाया जा सके तो वह सहज में ही शालीनता अंगीकार करेगी। इतनी बात बन सकी तो फिर सुख-शान्ति की समग्रता में कहीं कोई कमी न रहेगी।

इन्हीं विश्वासों के सहारे युगान्तरीय चेतना प्रकट और प्रखर होती चल रही है। वातावरण की विषाक्तता में सन्देह नहीं तो भी मानव अन्तरात्मा इतनी समर्थ है कि घेरे का दबाव उसे मूर्छित भर कर सकता है आत्यन्तिक हनन करने में सफल नहीं हो सकता। भयानक ग्रीष्म में धरती घास सर्वत्र सूख जाती है तो भी उसकी जड़ों में अमृतत्व विद्यमान रहता है। ज्यों ही बादल बरसते हैं, देखते-देखते सूखी जड़ें उगती और धरती पर मखमली कालीन की तरह फैलती चली जाती हैं। पतनोन्मुखी गुरुत्वाकर्षण निश्चित रूप से प्रबल है। वह उत्थान को पतन में परिणित करने के लिए सतत संलग्न रहता है। फिर भी ऊर्ध्वगमन की प्रक्रिया निराश नहीं होती। अग्नि की लपटें ऊपर ही उठती हैं। गर्मी हर वस्तु को फुलाती और उठाती है। पृथ्वी के आकर्षण से अग्नि के विकर्षण ने पराभूत होने से इन्कार कर दिया है।

इन शाश्वत सिद्धान्तों ने आज विषम बेला में अपनी प्रामाणिकता का परिचय देने कि लिए अग्नि परीक्षा में होकर गुजरना स्वीकार कर लिया है। प्रस्तुत विषाक्तता से जूझने के लिए सृजन शक्तियों ने समय की चुनौती स्वीकार की है और कहा है, ध्वंस नहीं सृजन जीवन्त है। असत्य नहीं, सत्य प्रबल है। नियन्ता का समर्थन पतन के नहीं, उत्थान के साथ है। अन्धकार कितना ही सघन या विस्तृत क्यों न हो, उसे दीपक की एक छोटी-सी बाती ललकारती रहती है। फिर परिस्थितियों की विषमता देखकर सृजन के मुख पर मलीनता लाने का कोई कारण नहीं।

विलासी, लिप्सा और आधिपत्य की अहंता ने मनुष्य को व्यामोह के बन्धन में बांधा है। इसे वासना, तृष्णा के प्रपंच में जकड़ा और अपंग, असहायों की दयनीय स्थिति में ला पटका है। पतन का दांव चल गया, क्योंकि उसे अवरोध का सामना नहीं करना पड़ा। यदि आत्मा पर जागृतों जैसी तेजस्विता दृष्टिगोचर होती तो क्षुद्रता को ऐसा सिंहासनारूढ़ होती है। दुर्दैव का प्रकोप ही कहना चाहिए कि संसार भर को प्रकाश देने वाले सूर्य ने अन्धकार का आधिपत्य स्वीकार कर लिया और लम्बा समय उनींदी तमिस्रा में पड़े पड़े गंवा दिया। ग्रहण का कलंक देर तक सूर्य, चन्द्र को अपने चंगुल में ग्रसित किये नहीं रहता। प्रकाश की सत्ता है, अन्धकार की नहीं। प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है। उदीयमान प्रकाश का सामना नहीं करना पड़े तभी तक उसकी सत्ता है। आलोक के उदित होने पर उसका पलायन देखते ही बनता है।

उद्बोधन और आलोक न मिले तो व्यामोह और भटकाव की स्थिति देर तक भी बनी रह सकती है, पर प्रभात की जागरण वेला अपना शंखनाद करती रहे और तन्द्रा पर उसका कोई प्रभाव न पड़े ऐसा हो नहीं सकता। अरुणोदय के साथ अन्तरिक्ष से अवतरित होने वाली ऊर्जा जब वृक्ष वनस्पतियों से लेकर कीट-पतंगों और पशु-पक्षियों तक को जागरूकता एवं सक्रियता अपनाने के लिए उत्तेजित करती है तो कोई कारण नहीं कि मानवी अन्तःकरण रखने वालों पर उसका कोई असर नहीं पड़े। उनकी बात दूर है जो काया तो मनुष्य आकृति की पहने बैठे हैं, पर उसके भीतर निवास अभी भी पशु ही कर रहा है।

नव जागरण की इस प्रभात बेला में इन दिनों सर्वत्र नये ढंग से सोचने और नया क्रम अपनाने की हलचल दृष्टिगोचर हो रही है। सघन तमिस्रा में गहरी निद्रा बनी रहे और प्राणी मृतवत् पड़ा रहे तो आश्चर्य की बात नहीं, किन्तु जब दिनमान की प्रखरता बढ़ती ही चल रही हो और हलचलों में तूफानी गतिशीलता उछल रही हो तो फिर आलसी और प्रमादी भी लम्बी चादर तान कर सोए एवं निष्क्रिय पड़े नहीं रह सकते। स्वयं न जगें तो समय जगा देता है। कोई कुछ करना चाहे तो भी परिस्थितियां कुछ कराने के लिए विवश करती हैं। इन दिनों ऐसा हो भी रहा है। जागरण का दौर शरीरगत सक्रियता में ही नहीं मनोगत विचार मन्थन में भी प्रकट प्रखर हो रहा है। चिन्तन की नई दिशा मिली है। पिछले दिनों पेट भरना ही प्रमुख रहा है। लोभ को प्रमुखता मिली है और विलास एवं संचय को ही सौभाग्य का चिन्ह समझा जाता रहा है। पिछले दिनों लोभ की ही तरह मोह भी मनुष्य को निर्विवाद बन्धनों में बांधने के लिए बेड़ी की भूमिका निभाता रहा है। दोनों अभिन्न मित्र जो हैं। लोभ को हथकड़ी बनने का अवसर मिल रहा है तो मोह भी सहचरत्व का आनन्द क्यों न ले। वह बेड़ी बनकर साथ क्यों न रहा हो। जब किसी को जकड़ना, पकड़ना ही ठहरा तो दोनों अभिन्न मित्र समान पराक्रम क्यों न करें? समान लाभ क्यों न उठायें? समान श्रेय क्यों न पायें?

तमिस्रा भरी लम्बी काल रात्रि में निशाचरों की ही पांचों उंगलियां घी में रही हैं। हिंस्र पशु-पक्षी आक्रामक बनते रहे हैं। उल्लू और चमगादड़ स्वच्छन्द विचरे हैं। चोर-चांडालों ने निर्द्वन्द्व होकर बातें लगाई हैं। इसमें साधनों का अपव्यय, अपहरण तो हुआ ही है। सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह रही कि तन्द्रा ने आलस्य और प्रमाद बनकर स्वभाव पर आधिपत्य कर लिया और मनुष्य को अपंग जैसा बनाकर रख दिया। अपंग का अर्थ बाधित भी होता है—बाधित अर्थात् बन्दी। बन्दी अर्थात् जकड़ा हुआ। यह जकड़न थोपी गई या स्वेच्छापूर्ण अपनाई गई, यह बात दूसरी है। लोभ की हथकड़ी पहने हुए व्यक्ति हाथों के अवरुद्ध हो जाने पर कुछ कर नहीं सकता, इसी प्रकार मोह की बेड़ियों में कस जाने के उपरान्त किसी के लिए कुछ दूर चल सकना भी शक्य नहीं रहता। श्रेय पथ पर वे लोग चल नहीं सकते जिन्हें मात्र अपने छोटे-से कुटुम्ब को इन्द्रासन सौंपे जाने की बात सूझती है। ऐसों की लोक मंगल के लिए कुछ करने की इच्छा क्यों उठेगी? जिन्हें लालच के लिए खपना-खटकना है वे क्यों परमार्थ को प्रश्रय देंगे? उनके लिए संव्याप्त पीड़ा और पतन को हलके करने के लिए उपलब्धियों में से कुछ कारगर अंशदान कर सकना कठिन है। लम्बी तमिस्रा से पिछड़ों को निष्क्रिय और प्रगतिशीलों को संकीर्ण स्वार्थ परायण बनाकर रख दिया। लिप्सा और लालसा की ललक बढ़ती ही गई। वासना और तृष्णा में मन ऐसा रमा कि यह सूझना तक रुक गया कि जीवन क्रम में इससे आगे की भी कोई मंजिल या जिम्मेदारी है। बड़प्पन और विलास की वारुणी जब मनःतन्त्र पर पूरी तरह हावी हो रही हो तो दीन-दुनिया की समस्यायें, आवश्यकतायें सूझे भी कैसे? सूझें तो उनके समाधान का कोई उपचार कैसे बने?

यह है—उस भूत का पर्यवेक्षण जो अभी आधा-अधूरा ही विगत हो पाया है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि नव प्रभाव की ऊर्जा ने झकझोरे बिना छोड़ा किसी को नहीं। जीवन्तों में से हरेक को यह विचार करना पड़ रहा है कि परिवर्तन की इस पुण्य बेला में क्या उसे भी कुछ करना पड़ेगा? समय के साथ चलने के बिना क्या उसका भी काम नहीं चलेगा?

यह अन्तःमन्थन उन्हें खासतौर से बेचैन कर रहा है जिनमें मानवी आस्थायें अभी भी अपने जीवन्त होने का प्रमाण देतीं और कुछ सोचने-करने के लिए नोंचती-कचोटती रहती हैं। उन्हें सोचना पड़ रहा है कि परिवर्तन से भरी इस युग सन्धि में उसे तरह नहीं रहा जा सकता जैसा कि पिछले दिनों चलता रहा है। इन दिनों न समय की मांग अनसुनी की जा सकती है और न ही आत्मा की पुकार को देर तक दबाया जा सकता है। विनाश से जूझने और विकास को सींचने के लिए जब जागरुकों की सेना कमर कस कर अग्रगामी हो रही हो—प्रयाण की शंख ध्वनि में दिगन्त गूंज रहा हो तो मुंह छिपा कर बैठे रहना भी तो सरल नहीं है। उसमें भी भीतर का रुदन और बाहर का उपहास बाधक बनता है। संकीर्ण स्वार्थपरता में आबद्ध बने रहने की स्थिति तब तक तो अखरती नहीं थी जब अन्यत्र ही वैसा ही दौर चल रहा था। पर जब जागृति ने हर जगह सक्रियता उत्पन्न की है और आदर्शों को जीवन्त करने के लिए कुछ कर गुजरने की ठान ठानी है तो मुंह छिपा कर बैठे रहना भी कठिन है। लोक भर्त्सना से तो किसी बहाने बचा भी जा सकता है, पर आत्म-प्रताड़ना से छुटकारा कैसे मिले?

जागृत आत्मा कहे जाने में रुचि और रुझान के अनुरूप ही समुदाय एकत्रित होते हैं। प्रकृति की अनुरूपता ही वर्ग बनाती और घनिष्ठता के सूत्र जोड़ती है। पठन और व्यसन—साहित्य की खरीद-बेच भर का ताना-बाना बुनता है और वह भी ऐसा होता है जो कच्चे धागे की तरह स्थायित्व पकड़ नहीं पाता। उससे अच्छी वस्तु दीखी कि पुरानी छूटी। लेखा-जोखा साक्षी है कि जो एक बार इस परिवार में प्रविष्ट हुआ वह सदा-सर्वदा के लिए उसी का परिजन होकर रह गया। अखण्ड-ज्योति को एक ऐसा सूत्र कह सकते हैं जिस में बहुमूल्य मणि-मुक्तकों की माला गुंथी हुई है। हम लोग जागृत जीवन्तों की तरह एक आदर्शवादी परिवार बनकर रह रहे हैं।

यह मिलन पठन-पाठन की सामग्री जुटाने या खपाने के लिए नहीं, वरन् उस महान् उद्देश्य के लिए हुआ है जिसमें व्यक्ति व समाज का समान रूप से हित-साधन सन्निहित है। जिसमें आत्मा और परमात्मा को समान रूप से संतुष्ट होने का अवसर है। महानता का रास्ता ऐसा है जिस पर वाहन के सहारे नहीं अपने पैरों से ही चलना पड़ता है। जो इतना साहस संजो लेते हैं उनके लिए मंजिल में हर विराम पर अपेक्षाकृत अधिकाधिक आनन्द की सामग्री मिलती जाती है। प्रगति के हर चरण पर पहले से अधिक प्रसन्नता की स्थिति उपलब्ध होती है।

व्यष्टि को क्षुद्र और समष्टि को महत् कहते हैं। विराट ही ब्रह्म है। संकीर्ण स्वार्थपरता की कीचड़ में सना हुआ व्यक्तिवाद ही भवबन्धन है। इसी में फंसा हुआ कुंभीपाक नरक में सड़ने का कष्ट उठाता है। कहते हैं कि नरकों में एक ऐसा भी है जिसमें घड़े में बन्द होकर रहने का कष्ट सहना पड़ता है। यह कुम्भीपाक व्यथा और कुछ नहीं व्यक्तिवादी संकीर्णता में आबद्ध रहने की घुटन भर है। पेट और प्रजनन में मनुष्य सोचता तो कुछ इसी प्रकार है कि वह दूसरों की तुलना में अधिक चतुर है। लेना सबसे देना किसी को कुछ नहीं की नीति आकर्षक भी लगती है, चतुर युक्त भी। किन्तु वास्तविकता कुछ दूसरी ही है। ऐसे मनुष्य अत्यधिक घाटे में रहते हैं। आत्म-सन्तोष लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह के तीनों ही महान लाभों से उन्हें सर्वथा वंचित रहना पड़ता है फिर प्रगति भी सीमित क्षेत्र में ही सम्भव होती है। ऐसे लोग जो भी पाते हैं अपव्यय में गंवाते हैं। साथ ही जन-सहयोग के अभाव में अपने बलबूते उतना कम जमा कर पाते हैं जिन पर कोई गये गुजरे स्तर वाला भी सन्तोष कर सकता है। यह संग्रह जिन्हें मुफ्त में मिलता है उनका चिन्तन और चरित्र उठता नहीं गिरता है। इस प्रकार यह हराम में मिला उत्तराधिकार उनके लिए भी अभिशाप ही सिद्ध होता है जिन्हें इच्छा या अनिच्छा के देना पड़ा।

चतुर लोगों की इन दिनों भरमार है। बुद्धिमानों के दर्शन दुर्लभ हो गये हैं। बुद्धिमत्ता का निर्धारण और निर्देशन एक है कि महानता का मार्ग अपनाया जाय। इसमें किसानों को बीज बोने, उद्योगों को कारखाना लगाने, विद्वान को अध्ययन करने के समय त्याग करना पड़ता है। लाभदायक प्रतिफल को देखते हुए यह आरम्भिक विनियोग किसी भी दृष्टि से घाटे का सौदा नहीं है। महानता का वृक्षारोपण कुछ ही समय में कल्पवृक्षों के नन्दन वन की तरह फूलता-फलता है। तत्काल होने की आतुरता हो तो फिर हथेली पर सरसों जमाकर दिखाने वाली बाजीगरी के कुचक्र में फंसने और जंजालों में भटकने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता नहीं है।

महानता का अवलम्बन करके असंख्य व्यक्ति क्षुद्र परिस्थितियों में जन्मने-पलने पर भी अपनी विशिष्टता के आधार पर उच्च स्थिति पर पहुंचे और यशस्वी हुए हैं। इन उदाहरणों में एक ही निष्कर्ष निकलता है कि महानता उस उद्यान को लगाने की तरह है जो आरम्भ में परिश्रम और साधन चाहता है, किन्तु समयानुसार सुरभि और सम्पदा के उभय पक्षीय अनुदान उत्साहवर्धक मात्रा में प्रदान करता है। वह महानता आखिर है क्या जिससे व्यक्तित्व विशिष्टता युक्त एवं वर्चस्व वैभव सम्पन्न बनता चला जाता है? उसका उत्तर एक ही है—समष्टि की साधना। लोकसेवा जनकल्याण इसे अपनाने का एक ही उपाय है, स्वार्थ को परमार्थ के निमित्त विसर्जित करना। इस दुस्साहस को जो जितनी मात्रा में क्रियान्वित कर पाता है वह उसी अनुपात में अपने को बुद्धिमान एवं भाग्यवान अनुभव करता है। परिणामों को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर सकने वाले अपने अनुभव एक स्वर में यही सुनाते रहे हैं कि समष्टि की सेवा-साधना से बढ़कर लाभदायक उद्योग इस संसार में और कोई है ही नहीं। इसे अपनाने का स्वार्थ और परमार्थ की उभयपक्षीय पूर्ति सहज ही होती है।

इस युगसन्धि की ऐतिहासिक बेलों में दूरदर्शिता और सदाशयता की संयुक्त मांग एक ही है कि इन दिनों संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाया जाय और जो बच सके उसे नवसृजन के पुण्य प्रयोजन में भावनापूर्वक लगाया जाय। धन का प्रभाव हो सकता है किन्तु श्रम, समय एवं मनोयोग की किसी के पास भी कमी नहीं हो सकती है। रुचि होने पर भी निरर्थक कामों में भी अत्यधिक व्यस्त समझे जाने वाले लोग भी ढेरों श्रम, समय व साधन लगाते रहते हैं। फिर इसमें तो निर्धनों को भी कठिनाई नहीं हो सकती। व्यस्तता का बहाना करके समय दान और तंगी की आड़ लेकर अंशदान न दे सकने का तर्क तो दिया जा सकता है पर औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। न बहानेबाजी को सचाई बताने का प्रयास सफल हो सकता है तथ्य में ‘अरुचि’ भी काम कर रही होती है। जागृतों के उत्तरदायित्व और समय की मांग की संगति बिठाई जा सके तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि इन दिनों वैयक्तिक जंजालों को थोड़ा हल्का किया जा सकता है और उस बचत को उन परमार्थ प्रयोजनों में लगाया जा सकता है जो युगसन्धि के इस पर्व पर मानवी सभ्यता के विकास या विनाश में से एक का चुनाव करने के साथ संबद्ध हैं। लिप्सा-लालसा में ही तो 84 लाख योनियों में भटकते हुए लम्बा समय बीता है। अब यदि इस जीवन के बचे-खुचे समय का कहने लायक अंश युग धर्म के निर्वाह में लगा दिया जाय तो कोई बड़ा घाटा पड़ने वाला नहीं है। पेट प्रजनन की प्रक्रिया तो अगले दिनों हेय योनियों के कुचक्र में फंसे रहने पर भी भली प्रकार चलती रह सकती है।
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