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Books - अपने दीपक आप बनो तुम

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गलत प्रव्रज्या में रमण दुःखदायी है

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First 15 17 Last
      बसन्त की सुरम्यता प्रकृति में चहुँ ओर छायी थी। रंग- बिरंगे पुष्पों व नव पल्लवों ने मिलकर धरती को देवों के लिए भी आकर्षक बना दिया था। आम्रमञ्जरी पर विहार करते भ्रमर नित नए गीतों की सृष्टि रचाते थे। कोयल का कल कूजन तो जैसे देवलोकवासियों को धरा आगमन के लिए मुखर निमंत्रण देता था। इस प्राकृतिक आकर्षण में एक अलौकिक तत्त्व भी समाया हुआ था। भगवान् तथागत के पावन संस्पर्श से वैशाली का यह आम्रवन ही नहीं समूचा प्रकृति परिमण्डल आध्यात्मिक आभा से जगमगा उठा था।

       भगवान् इन दिनों अपने भिक्षु संघ के साथ वैशाली आये हुए थे। वह वैशाली नगर से थोड़ी दूर पर एक आम्रवन में ठहरे हुए थे। वज्जी संघ की राजधानी उन दिनों अपनी समृद्धि, वैभव एवं शोभा के लिए सम्पूर्ण भारत वर्ष में विख्यात थी। भगवान् के चरण रज की छुअन ने इसकी समृद्धि को पावनता के अनुदान दे डाले थे। जिनके भी अन्तःकरण में थोड़ी सी भी आध्यात्मिकता का अंकुर था, उन्हें भगवान् का आगमन प्राण संजीवनी की भाँति लगा। तथागत की भगवत्ता की निर्मल लहरें, जन- जन को पावन बनाने में पूर्ण समर्थ थीं।

प्रभु का सान्निध्य सभी के लिए सब भाँति अलौकिक था। मानव ही नहीं पशु- पक्षी, यहाँ तक जड़ प्रकृति भी अपने में एक अलौकिक परिवर्तन की अनुभूति कर रही थी। जिन्होंने अनुभव किया, उन्होंने कहा कि भगवान् का सुपास पाकर, सूखे वृक्ष पुनः हरे हो गए थे। जो जीवन वीणाएँ सूनी पड़ी थी, उनमें संगीत जाग पड़ा था। जो झरने बन्द हो गए थे, या मन्द पड़ गए थे, वे पुनः वेगपूर्वक बहने लगे। मरुस्थल अपने आप ही मरुद्यान में बदल गए। हालांकि यह सब देखा उन्होंने ही, जिनके पास अन्तर्दृष्टि थी, जो प्रकृति के अन्तराल में सरस धार की भाँति बह रहे परिवर्तनों को देख सकते थे।
    
 भगवान् का दिव्य स्वरूप मात्र चर्म चक्षुओं से समझ में आने वाला न था। बाहर के कानों के सहारे यह परम दिव्य संगीत नहीं सुना जा सकता था। प्रभु के सान्निध्य में प्रकृति जो परमोत्सव मना रही थी, वह तो परमात्म दशा का परम योग था। मात्र समाधि में ही इन स्वरों को सुना जा सकता था। समाधि की भावदशा में ही इस महोत्सव को देखा जा सकता था।

       जो इसे देख सकते थे, वे आह्लादित थे। जो सुन सकते थे वे मस्त हो रहे थे। जो आह्लादित थे, जो आनन्द उठा रहे थे, उनके लिए भगवान् के सान्निध्य का स्वर्ग रोज- रोज अपने नए द्वार खोल रहा था। पर सभी के भाग्य में यह महासुख नहीं था। कुछ ऐसे भी थे जिन्हें न कुछ दिखाई पड़ता था, न सुनायी पड़ता था। वे तृषित आए थे और प्रभु चेतना के क्षीर सागर के सामीप्य में भी तृषित ही थे। वे आकर भी नहीं आए थे। उन्हें मिलकर भी नहीं मिला था।

      भगवान् आते हैं- हर युग में आते हैं। उनका आगमन अपने भक्तों की भाव चेतना के उन्नयन के लिए होता है। वह अपने प्रेम के सरस सुधा की उन्मुक्त वर्षा करते हैं, पर इसमें भीगते वही हैं, जिन्होंने अपने अस्तित्त्व को प्रभु में विसर्जित कर दिया है। जो अभी भी अपने अहं की चादर ओढ़े हैं, जिन्हें अभी अपनी वासना की कीचड़ धोने में संकोच हो रहा है, वे कोरे के कोरे रह जाते हैं। भिक्षु वज्जीपुत्त इन्हीं अभागों में से एक था। भगवान् के महाबोधि सागर के किनारे पहुँच कर भी वह उनकी भावचेतना से अछूता था। उसकी आँखें देख रही थी, कान सुन रहे थे, पर वह नहीं जो अमृतमय था।

      उसके कानों में आम्रवन से दूर वैशाली नगर में चल रहे राग- रंग के स्वर गूँज रहे थे। उसकी आँखें वैशाली की नर्तकियों के चर्म सौन्दर्य को देखने के लिए व्याकुल थी। वैशाली में इन दिनों मदनोत्सव की धूम थी। रास रंग की छटा वहाँ बिखरी थी। वासना के अनेक रंग- अनगिनत रूप वैशाली के आंगन में अठखेलियाँ कर रहे थे। युवक- युवतियों का उन्मुक्त विहार विलास क्रीड़ाओं को नित नए आयाम दे रहा था।

      भिक्षु वज्जीपुत्त की आँखें इसे देखने के लिए तरस रही थी। उसके कानों को इस विलास संगीत को सुनने की व्याकुलता थी। उसका अन्तःकरण विह्वल था इस रास- रंग में उन्मुक्त होकर भागीदार बनने के लिए। उस रात्रि में तो उसकी यह व्याकुलता- विह्वलता चरम पर जा पहुँची। यह मदनोत्सव की विलास रात्रि थी। फाल्गुन मास का चन्द्रमा जन- मन में अनेकों विचार तरंगें सम्प्रेषित कर रहा था।

        भगवान् तथागत के सान्निध्य में होते हुए भी वज्जीपुत्त विकल था। नगर से आती संगीत और नृत्य की स्वर लहरियाँ उसे बेचैन किए थी। वह अभागा भिक्षु भगवान् के पावन संगीत को अभी तक सुन नहीं सका था। उसकी आँखें भगवान् के अन्तस्तल से उठते हुए प्रकाश पुञ्ज को अब तक नहीं देख सकी थी। लेकिन वैशाली नगर में जल रहे दीयों की टिमटिमाहट उसे साफ नजर आ रही थी। राजधानी में हो रहे राग- रंग और उससे आती स्वर लहरियों को वह साफ- सुन रहा था। गाजे- बाजों की इन आवाजों ने उसे उदास कर दिया। वह दुःखी होकर सोचने लगा कि मैं बेकार ही भिक्षु बनकर जीवन गँवा रहा हूँ। सुख तो संसार के विलास में है। देखो तो सही लोग कैसे मजे में हैं। समूची वैशाली आज उत्सव मना रही है? मैं यहाँ पड़े- पड़े केवल दुःखी हो रहा हूँ। संन्यास लेकर मैंने केवल दुःखों को निमंत्रण दे दिया।

भिक्षु की विकृत भावदशा में भला मार कहाँ चूकने वाला था। वह वासना भरी कल्पनाओं के सहारे वज्जीपुत्त के मन में घुस गया। मार ने उसे भरपूर उकसाया, बहुतेरे सब्जबाग दिखाए। अनेकों मोहक सपनों का महल खड़ा किया। मार के बहकावे में आकर वह सोचने लगा, बहुत हो चुका, मैं कल सुबह ही भाग जाऊँगा। संसार ही सत्य है, मैं बेकार ही यहाँ पड़ा हुआ तड़फ रहा हूँ। यहाँ रखा भी क्या है।

       लेकिन सुबह वह चुपके से उठ कर भाग पाता, इससे पहले ही भगवान् ने उसे बुलवा लिया। भगवान् के संदेश को पाकर वह चौंक गया। यह पहला मौका था, जब तथागत ने उसे बुलाया था। वह थोड़ा डरा, मन में शंका उठी। मन में यह भी आया कि मैंने तो अपने मन की बात किसी को बतायी नहीं है। शायद उन्होंने ऐसे ही बुलाया होगा।

पर भगवान् ने जब उससे मन की सारी कथा कह सुनायी, तो उसे भरोसा ही न आया। एक- एक बात जो मार ने उसे सुझायी थी, एक- एक स्वप्नं जो उसने रात भर देखे थे और उसका भागने का निर्णय भगवान् ने सब कुछ कह सुनाया। भगवान् की करूणा ने उसके मन के मैल को पल भर में धो दिया। मन की निर्मलता को पाते ही उसे अपनी सोच पर भारी पछतावा हुआ। भगवान् के पास वैसे तो वह वर्षों से था, पर आज उसे सच्चा सत्संग मिला। उस दिन उसे भगवान् बुद्ध की वीणा के स्वर सुनायी दिए।

भगवान् ने उससे ये धम्मगाथाएँ कही-
दुप्पबज्जं दुरभिरमं दुरवासा धरः दुखा।
दुक्खो समान संवासो दुक्खानुपतितंद्धयू।
तस्मा न च अद्धग् सिया न च दुक्खानुपतितो सिया॥
सद्धो सीलेन समन्वो यसोभोग समपितो।
यं यं पदे सं भजति तत्य तत्येव पूजितो॥

गलत प्रव्रज्या में रमण करना दुष्कर है। न रहने योग्य घर में रहना दुःखद है। असमान या प्रतिकूल लोगों के साथ रहना दुखद है। इसलिए संसार के मार्ग का पथिक न बने और न दुःखी हो।

श्रद्धा और शील से सम्पन्न तथा यश और भोग से मुक्त पुरुष जहाँ कहीं जाता है, सर्वत्र पूजित होता है।
भगवान् की इन धम्म गाथाओं को आत्मसात कर भिक्षु वज्जीपुत्त के लिए उस दिन संसार झूठ हुआ, परिव्राजक जीवन सत्य हुआ।
First 15 17 Last


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