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Books - जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

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आत्म-ज्ञान की आवश्यकता क्यों?

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आत्मा को क्यों खोजना चाहिए और उसकी ही जिज्ञासा क्यों करनी चाहिए? इसका उत्तर यही है कि संसार की वास्तविक तत्त्व आत्मा ही है। जो जरा-मरण से रहित शोक से मुक्त, नित्य और अविनाशी है। उसका ज्ञान हो जाने से मनुष्य उसी की भांति ही भय, शोक, चिंता और मरण धर्म से मुक्त हो जाता है। अजर और अमर होकर संसार के लोगों एवं अनुभवों से ऊपर उठकर चिर अविनाशी पद प्राप्त कर लेता है। इस नाशवान मानव जीवन की इससे बड़ी और इससे ऊंची उपलब्धि अन्य क्या हो सकती है?

मनुष्य एक ऐसा आनंद प्राप्त करना चाहता है, जो सत्य, अपरिवर्तनशील और अविनाशी हो। संसार के क्षणभंगुर सुखों का उपभोग करने से उसकी यह प्यास पूरी नहीं होती। अपितु इन उपभोगों से उनकी प्यास और भी बढ़ जाती है। उसे अंत में अशांति और असंतोष का भागी बनना पड़ता है। इन्हीं नश्वर और मिथ्या भोगों में आनंद की खोज करता-करता, वह जरा को प्राप्त करता है और फिर मृत्यु को। सारा बहुमूल्य जीवन यों ही व्यर्थ में चला जाता है। इसी अवधि में वांछित आनंद की निधि ‘आत्मा’ की खोज कर ली जाए, तब न तो जरा का भय रहे और न मृत्यु का। मनुष्य जीवन में भी उस शाश्वत आनंद को पाता रहे और उसके बाद तो वह परमानंदस्वरूप ही हो जाए।

हम सब जीवन में नाना प्रकार की संपत्ति, नाना प्रकार के पदार्थ, ऐश्वर्य, साधन, उपकरण तथा वैभव आदि एकत्र करते हैं। इस संग्रह में निश्चय ही एक उद्देश्य होता है। यह पुरुषार्थ यों ही किसी पागलपन से प्रेरित होकर नहीं किया जाता और न यह सब संस्कार अथवा अभ्यासवश ही किया जाता है। इसके पीछे एक उद्देश्य, एक मंतव्य रहता है। वह मंतव्य क्या होता है? वह होता है आनंद की खोज। हम सबको यह भ्रम रहता है कि यदि हम किसी भांति वैभवशाली बन जाएं, हमारे पास धन-संपत्ति की बहुतायत हो जाए तो हम अवश्य सुखी हो जाएं। हमारे लिए आनंद की कमी न रहे। किंतु क्या हमारा यह उद्देश्य पूरा हो पाता है? नहीं, निश्चित रूप से नहीं।

यदि धन-संपत्ति और वैभव-विभूति से ही आनंद के उद्देश्य की पूर्ति हो सकी होती, तो इस विशाल संसार में न जाने कितने धन-कुबेर पड़े हैं। ऐसे-ऐसे धनवान इस धराधाम पर मौजूद हैं जिनके धन-वैभव की कोई गणना, कोई परिमाण नहीं है। जिनकी नित्यप्रति करोड़ों की आय है और जिनका आर्थिक साम्राज्य देश-देशांतरों में फैला पड़ा है। वे सभी सुखी और संतुष्ट होने चाहिए थे। पर देखने में ऐसा आता है कि वे भी अन्य जनसाधारण की भांति ही आनंद के लिए लालायित रहते हैं। उस विपुल वैभव के बीच भी रोते-कलपते और शोक मनाते दृष्टिगोचर होते हैं।

तथापि इस निरर्थकता को देख-सुनकर अनुभव करने के बाद भी मनुष्य इन्हीं वैभवों की ओर ही दौड़ता रहता है। अपने जीवन की लगभग सारी अवधि इन्हीं वंचनाओं की प्राप्ति में लगा देता है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि रात-दिन इन्हीं का चिंतन-व्यवहार करते रहने से इनके साथ मनुष्य की आसक्ति और ममता का भाव जुड़ जाता है। धीरे-धीरे यह अभ्यास इतना गूढ़ हो जाता है कि जीवन का एक अंग ही बन जाता है।

मनुष्य इन्हीं उपकरणों, साधनों और सामग्रियों को ही सर्वस्व मान बैठता है। युग-युग का, जन्म–जन्म का अभ्यास छूटना सरल नहीं होता। वह स्वभाव बन जाता है और तब मनुष्य उसकी निस्सारता और हानियों को जानता-मानता हुआ भी उन्हीं की ओर उत्सुक बना रहता है। दूसरी बात यह कि इस सबसे परे जो अविनाशी और चिदानंदमय आत्म–तत्त्व है, उससे उसका परिचय नहीं होता। जिसको वह जानता ही नहीं, उसके प्रति आकर्षित होने का प्रश्न ही नहीं। आकर्षण तो उसी के प्रति होता है, जिसका ज्ञान होता है और जिससे पहचान होती है। सांसारिक वैभव और भोगों से परे भी एक ऐसा सत्य तत्त्व जिसे आनंद का निवास माना गया है—यदि मनुष्य को यह ठीक-ठीक पता चल जाए, तो वह आनंद की प्राप्ति के लिए उसकी ओर भी आकर्षित हो। दो चीजें सामने होने पर ही तो कोई एक को छोड़कर दूसरी या एक के साथ अन्य का भी चुनाव कर सकता है और तब जो उसके लिए अधिक उपयोगी हो, उसे ही ग्रहण कर दूसरी को छोड़ सकता है।

केवल एक सांसारिक वैभव के सामने होने और संभव मानने के कारण मनुष्य उन्हीं को दौड़-दौड़कर पकड़ता है और उन्हीं में आनंद की खोज करने का प्रयत्न करता है। असफल होता है, लेकिन फिर उन्हीं को पकड़ता और फिर असफल होता है। आत्मा का ज्ञान न होने से यह प्रक्रिया उसके लिए एक विवशता बनी हुई है। यदि आत्म की प्राप्ति हो जाए तो निश्चय ही उसके इस स्वभाव में परिवर्तन हो जाए और तब उसका उद्देश्य भी पूरा हो जाए।

नश्वरता संसार का नियम है। इसकी कोई भी चीज स्थिर अथवा अविनाशी नहीं है। इस नियम के अनुसार उपार्जित किया हुआ वैभव भी संध्या की छाया की तरह नष्ट हो जाता है। आज है, कल नहीं रहता और यदि किसी के पास युक्ति के आधार पर कुछ अधिक समय तक बना भी रहता है, तो उसके नाश हो जाने का भय दुखी बनाता रहता है। भोग-विलास, जिनमें डूबकर मनुष्य बड़ा आनंद मनाता है, शीघ्र ही मनुष्य को नष्ट कर स्वयं भी नष्ट हो जाते हैं।

यौवन के ढलते और जरा के आते ही संसार के भोग दुर्बल हो जाते हैं। उनका झूठा आनंद भी ले सकने योग्य मनुष्य नहीं रह पाता। तब उनका ध्यान शूल की तरह सरलता है। यदि मनुष्य प्रारंभ में ही इनको निस्सार मानकर इनका व्यसन न पाल ले, इनमें आसक्ति न जोड़ ले, तो बहुत हद तक इस मानसिक दुःख से बच सकता है। पर अज्ञान के कारण वह स्वभावतः ऐसा कर नहीं पाता।

मनुष्य आनंद के लिए जिन सांसारिक संपदाओं का आधार लेता है, उनमें आनंद तो क्या पाता है, उलटे उनके वियोग, अस्थिरता और परिवर्तनशीलता के साथ उनके विनाश की संभावना से बेचैन और दुखी रहता है। सारा जीवन इन नष्ट हो जाने वाले पदार्थों को रोकने में ही समाप्त कर देता है और एक दिन स्वयं भी शरीर छोड़कर अनजान दिशा में चला जाता है। जिन पदार्थों को भोला मनुष्य सत्य समझकर पकड़ता है, वे सब स्वप्न की तरह असत्य सिद्ध होते हैं। सांसारिक भोगों में दीखने वाला आनंद कृत्रिम प्रकाश की तरह है और तब जीवन में विषाद का घना अंधकार छा जाता है, जिसमें भटकते हुए ठोकर खाने के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रह जाता।

यही कारण है कि मनीषियों ने सांसारिक सिद्धियों से परे अविनाशी एवं अपरिवर्तनशील आनंद की निधान आत्मा को खोजने और पाने के महत्त्व पर अपना मत दिया है। आत्मा सत्य है, नित्य है, ज्योतिस्वरूप और आनंदमय है। उसको पा लेने पर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता और जान लेने पर कुछ जानना नहीं रहता। मनुष्य के पुरुषार्थ की सार्थकता सांसारिक सुखों के उपकरण और उपादान संचय करने में नहीं है, अपितु आत्मा को प्राप्त करने के प्रयत्न में है।

यह जड़ चेतनमय जितना भी जगत दृष्टिगोचर होता है, इसका अपना अस्तित्व कुछ भी नहीं है। आत्मा के आधार पर ही इसका अस्तित्व निर्भर है। आत्मा ही मानव जीवन का चरम सत्य है। आत्मा के प्रकाश में ही बाह्य संसार और मानव जीवन का अस्तित्व प्रतिभासित होता है। आत्मा के पटल पर ही संसार और दृश्य जीवन का छाया नाटक बनता-बिगड़ता रहता है। संसार और कुछ भी तो नहीं, केवल आत्मा की अभिव्यक्ति और उसका ही विस्तार है। आत्मा एक चिरंतन सत्य है। इससे पृथक जो कुछ है वह असत्य है, भ्रमपूर्ण है और अग्राह्य है। वेदों ने जिस ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय’ का घोष किया है। उसका संकेत सांसारिकता से ऊपर उठकर आत्मा की ओर ही अभियान करने का है, क्योंकि आत्मा ही ज्योतिरूप है, शिव रूप है और वही अमृत रूप भी है। निश्चय ही मनुष्य को ऐसी कल्याणकारी आत्मा को पाने का प्रयत्न करते ही रहना चाहिए।

आत्म जिज्ञासा से रहित जीवन भर स्वरूप ही बना रहता है। आत्म-जिज्ञासा से रहित मनुष्य को भय की कल्पनाएं और पाप की भावनाएं कभी चैन से नहीं रहने देतीं। यदि सुखी, शांत और संतुष्ट जीवन बिताने की कामना है, तो जीवन में आत्म–जिज्ञासा को स्थान देना ही होगा, उसकी खोज करनी ही होगी। जितना समय मनुष्य अहंकार के पोषण में लगाता है, सांसारिक उपलब्धियों की लालसा में व्यतीत करता है, यदि उसमें से कुछ समय निकालकर आत्मा की खोज में लगाएं, तो मंगल मार्ग पर बहुत कुछ आगे बढ़ सकता है।

अहंकार के वशीभूत होकर शारीरिक संतुष्टि तक सीमित रहने वाले अपनी भूल को तब समझ पाते हैं, जब जीवन में पतझड़ का समय आ जाता है और शरीर पीले पत्ते की तरह गिर जाने की स्थिति में होता है। उस पटाक्षेप के समय उसे निश्चय ही संसार की असारता, असत्यता और भंगुरता का ज्ञान और आत्मा की चिरंतनता एवं अविनश्वरता की प्रतीति होती है। तब समय निकल चुका होता है। उस अंतिम समय में कुछ भी कर सकने का अवसर नहीं रहता। उस समय हाथ मल-मलकर पछताने के सिवाय और कुछ भी शेष नहीं रह जाता। उस समय इस पश्चात्ताप के साथ संसार छोड़ने पर विवश होना पड़ता है कि जिस सत्य की खोज के लिए सुरदुर्लभ मानव जीवन मिला था, उसकी उपेक्षा कर, हाय, हम संसार की तुच्छ बातों में ही लगे रहे। हमने वह सब कुछ किया, जो नहीं करना था और वह सब कुछ भी नहीं किया जो कर्त्तव्य था। उस घड़ी उस आत्मा की उपेक्षा करने वाले व्यक्ति की क्या दशा होती होगी? उसके हृदय में किस भयानक पछतावे और विवशता की आग जलती होगी, इसे तो वही बतला सकते हैं, जिन्होंने उस स्थिति का भोग किया है अथवा जो आगे चलकर एक दिन करेंगे।

कितना अच्छा हो कि मनुष्य आवश्यकता भर अपने सांसारिक कर्तव्य करता रहे और बाकी का समय अध्यात्म मार्ग से आत्मा की खोज करने में भी लगाता रहे, तो उसके लोक-परलोक एक साथ बनते चलें। इस द्विमुखी साधना में जरा भी कठिनाई नहीं है। आत्म-जिज्ञासु व्यक्ति संसार में रहता हुआ भी उसकी अंधेरी वीथियों में नहीं भटकने पाता। उसकी वह जिज्ञासा उसके साथ रहकर प्रकाश का काम करती रहती है। सांसारिक कर्तव्यों के बाद वह उसको उसी प्रकार मार्ग पर लौटा लाती है, जिसका अनुसरण इस वेद वाक्य को चरितार्थ कर देता है—

‘‘असतो मा सद्गमय’’
‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’
‘‘मृत्योर्माऽमृतं गमय’’

और तब मनुष्य का न केवल वर्तमान जीवन अपितु भूत-भविष्यत् के भी सारे जीवन धन्य हो जाते हैं।

***

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