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Books - जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

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हमारा जीवन लक्ष्य, आत्म-दर्शन

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मनुष्य जीवन का भी अपना एक लक्ष्य है। खाने-कमाने और मौज-मजा करने तक ही उसका जीवन सीमित नहीं। सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, राजनैतिक सीमा बन्धनों तक ही उसका जीवन बंधा नहीं है। जन्म से मृत्यु तक की एक निश्चित अवधि, सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान की परिस्थितियां यह सोचने को विवश करती हैं कि मनुष्य जिस दिशा में चल रहा है यही उसकी दिशा नहीं है। उसकी सूक्ष्म बौद्धिक क्षमता यह बताती है कि मनुष्य कोई विशेष लक्ष्य लेकर इस धरती में अवतरित हुआ है। विशाल अन्तरिक्ष, गगनस्पर्शी पर्वत, सुदूर तक विस्तृत सागर, सूर्य-चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र सभी इंगित करते हैं कि इस जीवन से भी आगे कुछ है। अशान्ति, दुःख और क्षोभ का कारण यही है कि हमें आत्मज्ञान नहीं, अपने लक्ष्य का भान नहीं है। यह अस्थिरता तब तक बनी रहती है जब तक मनुष्य अपना लक्ष्य नहीं जानता, अपने मौलिक स्वरूप को नहीं पहचानता।

इस संसार में अनेकों प्रकार के जीव-जन्तु, कीट-पतंगे, पशु-पक्षी और मनुष्येत्तर प्राणी विद्यमान हैं। कई शारीरिक शक्ति में बड़े हैं, कई सौंदर्य में। कितनों ने प्राणशक्ति के आधार पर अनेकों प्राकृतिक घटनाओं का पूर्व आभास पा लेने में अजीब क्षमता पाई तो कई स्वच्छन्द विचरण के क्षेत्र में आज के यान-युग से भी अधिक पटु हैं। किन्तु, एक साथ सारी विशेषतायें किसी को भी उपलब्ध नहीं। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और अनेकों आत्मिक सम्पदायें मनुष्य में ही दिखाई देती हैं। मानव-जीवन की इस सुव्यवस्था को देखते हैं तो यह लगता है कि यह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही हुआ है। एक ही स्थान पर अनेकों शक्तियों का केन्द्रीकरण निश्चय ही अर्थपूर्ण है।

मनुष्य को औरों की अपेक्षा अधिक बुद्धि, विद्या, बल और विवेक मिला है, यह बात तो समझ में आती है किन्तु इन शक्तियों का संपूर्ण उपयोग बाह्य जीवन तक ही सीमित रखने में उसने बुद्धिमत्ता से काम नहीं लिया। अपने ज्ञान-विज्ञान को शारीरिक सुखोपभोग के निमित्त लगा देने में उसने धोखा ही खाया है। दुःखों का कारण भी यही है कि हम अपने शाश्वत स्वरूप को पहचानने का प्रयत्न नहीं करते। नाशवान् शरीर और इन्द्रियजन्य विषयों की पूर्ति के गोरख-धन्धे में ही अपना सारा समय बरबाद कर देते हैं और अन्त समय सारी भौतिक सम्पदायें यहीं छोड़कर चल देते हैं। इस कटु सत्य को अनुभव सभी करते हैं किन्तु अन्तरण-कक्षा में प्रवेश होने से दूर भागते हैं। कभी यह विचार तक नहीं करते कि इस विश्व-व्यापी प्रक्रिया का कारण क्या है। हम क्या हैं और जीवन धारण करने का हमारा लक्ष्य क्या है? ढेर सारी सम्पदायें मिली हैं इसलिए कि इनका उपयोग अंतर्दर्शन के लिए किया जाय। अपने को भी नहीं पहचान पाये तो इस शरीर का, बौद्धिक शक्तियों का क्या सदुपयोग रहा?

‘मैं’ और ‘मेरा शरीर’ दो भिन्न वस्तुयें हैं। एक कर्त्ता है दूसरा कर्म। एक क्रियाशील है दूसरा जड़। एक सवार है दूसरा वाहन। मानव-जीवन की लक्ष्य प्राप्ति के लिए शरीर आत्मा का वाहन मात्र है। दोनों की एकरूपता का कोई आधार समझ में नहीं आता। यदि ऐसा होता तो मृत्यु के उपरान्त भी यह शरीर क्रियाशील रहा होता। खाने-पीने उठने-बोलने चलने और जीवन के अनेकों व्यवसाय यह उसी तरह सम्पन्न करता जैसे जीवित अवस्था में। तब फिर उचित यही प्रतीत होता है कि अपने कर्त्तापन का ज्ञान प्राप्त करें। अपने वाहन को तरह-तरह के रंगीन लुभावने वस्त्राभूषणों से सजाते घूमें और आत्मतत्व उपेक्षित पड़ा रहे तो इसे कौन बुद्धिमत्ता की बात मानेगा? घोड़ा घास खाये और सवार को पानी भी न मिले तो फिर यात्रा का उद्देश्य कहाँ पूरा हुआ?

आत्मा की सिद्धियाँ अनन्त हैं। स्वर्ग-मुक्ति विराट के दर्शन का केन्द्र बिन्दु आत्मा है। वह अनन्त सामर्थ्यों का स्वामी है। इन्हें प्राप्त कर मनुष्य, अणु से विभु, लघु से महान, बन्धन-मुक्त बनता है, किन्तु आत्मानुभूति किये बिना यह सब कुछ सम्भव नहीं। अपने नीचे की जमीन में ही असंख्यों मन सोना, चाँदी हीरा, जवाहरात जमा हो और उसका ज्ञान न हों तो उस बहुमूल्य खजाने और मिट्टी के ठीकरों में भला क्या अन्तर रहा? अपनी तिजोरी में रखी हुई पिस्तौल दुश्मन को नहीं मार सकती। जिस शक्ति का हमें ज्ञान ही न हो उसको प्रयोग में कैसे लाया जा सकता है?

स्वामी रामतीर्थ जब प्रोफेसर थे तब उनने एक दिन अपने छात्रों के सामने ब्लैक बोर्ड पर एक सीधी लाइन खींचकर पूछा—इसे बिना मिटाये छोटी करके दिखाओ।

“आत्म-दर्शन” भारतीय संस्कृति का प्राण है। यहाँ समय-समय पर जो भी महान पुरुष हुये हैं उन्होंने आत्मज्ञान पर ही अधिक जोर दिया है। सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय इसी से ओत-प्रोत है। जीवन के प्रत्येक व्यवसाय में अंतर्दर्शन की बात अवश्य जोड़ दी गई है ताकि मनुष्य भौतिक जीवन जीते हुए भी आत्म-तत्व से विस्मृत न रहे। अपने जीवनोद्देश्य को कभी भी न भूले। इसी पर सब मनीषियों ने देशकाल और परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न-भिन्न रूप में बल दिया है। सभी महापुरुषों, ऋषियों, सन्तों और लोकनायकों ने मनुष्य को दुःख और विनाश की परिस्थितियों से ऊँचा उठाने के लिए आत्मिक-ज्ञान पर ही अधिक बल दिया है। भारतीय जीवन में भौतिक सम्पदाओं की अवहेलना का भी यही धर्म है कि मानवीय-चेतना अपने मूल-स्वरूप में पहचानने की दिशा में सतत् आरुढ़ रहे।

आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप अत्यन्त शुद्ध, पवित्र, अलौकिक और दिव्य है। उसकी अन्तिम अवस्था, धर्माचरण और ईश्वर साक्षात्कार है। यह शरीर के माध्यम से ज्ञान और प्रयत्न करने से मिलती है। शरीर को जब एक विशिष्ट उपकरण मानकर इन्द्रियों की दासता से ऊपर उठते हैं तो स्वयं ही आत्मानुभूति होने लगती है। जो आदमी इस सत्य को गहराई तक अपने हृदय में बिठा लेता है वह नाशवान् वस्तुओं के अनुचित मोह को त्याग कर आत्मिक पवित्रता की ओर अग्रसर होता है। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि अनात्म तत्वों से उसकी रुचि हटने लगती है। विचारों और व्यवहारों में पवित्रता उत्पन्न होती है जितना वह आत्म-साक्षात्कार के समीप बढ़ता है उसी अनुपात से दैवी-गुणों का उसमें समावेश होता चलता है फलस्वरूप सच्चे सुख-शान्ति और संतोष के परिणाम भी सामने आते रहते हैं।

आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए बड़े उपकरणों या अधिक से अधिक स्कूली शिक्षा की ही आवश्यकता नहीं। कोई भी व्यक्ति जो अपनी सामर्थ्यों या विवशताओं की विवेचना कर सके आत्म-ज्ञानी हो सकता है। इसके लिए आत्म-निरीक्षण की आदत बनानी पड़ती है। यह कार्य ऐसा नहीं जो हर किसी से किया न जा सके। अपनी भूलों, त्रुटियों और आदत में प्रवेश बुराइयों को अपने में दृढ़तापूर्वक खोजना और उन्हें दूर हटाना हर किसी के लिए सम्भव है। सन्मार्ग पर चलते हुए रास्ते में जो अड़चनें, बाधायें और मुसीबतें आती हैं उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करते रहने से अपनी समस्त चेतना का रुख आत्मा की ओर उन्मुख होने लगता है। जैसे बन्दूक की गोली को शक्तिपूर्वक दूर तक पहुँचाने के लिए उसे छोटे से छोटे दायरे से गुजारा जाता है वैसे ही अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को एक ही दिशा में लगा देने से उधर ही आशातीत परिणाम दिखाई देने लगते हैं। जब तक अपनी मानसिक चेष्टायें बहुमुखी होती हैं तब तक विपरीत परिस्थितियों से टकराते रहते हैं किन्तु जब एक ही दिशा में दृढ़तापूर्वक चल पड़ते हैं तो ध्येय प्राप्ति की साधना भी सरल हो जाती है।

किसी विषय को जब तक मनुष्य भली-भाँति समझ नहीं लेता तब तक उससे झिझकता रहता है। घने अन्धकार में जाने से सभी को भय लगता है। किन्तु यदि उसी अन्धकार में जाने के लिए हाथ में मशाल दे दी जाय तो अज्ञानता का भय अपने आप दूर हो जाता है। आत्मिक-ज्ञान के प्रति भय की उपेक्षा और उदासीनता का कारण यही होता है कि अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित नहीं करते। अनन्त शक्तियों का केन्द्र होते हुए भी मनुष्य इधर से जितना उदासीन रहता है, उतना ही दुःख और अभाव उसे घेरे रहते हैं।

सांसारिक ज्ञान प्राप्त करना ही अपना लक्ष्य रहा होता, तो इसके लिए बुद्धि की चैतन्यता, एकाग्रता एवं जागरूकता ही पर्याप्त थे, किंतु आत्म–ज्ञान का संबंध समस्त प्राणी मात्र में सहानुभूति करने से होता है। अपने क्रिया व्यापार को जब तक अपने आप तक ही सीमित रखते हैं, तब तक इस परमतत्त्व का ज्ञान पाना असंभव है। स्वार्थ की संकीर्ण प्रवृत्ति ही है जो मनुष्य को सत्य का आभास नहीं होने देती, किंतु जब परमार्थ बुद्धि का समावेश होता है, तो सारी ग्रंथियां स्वयंमेव खुलने लग पड़ती हैं। जिस प्रकार अस्वच्छ शीशे में सूर्य की किरणों का परावर्तन नहीं होता वैसे ही स्वार्थपूर्ण अंतःकरण बनाए रखने से आत्मानुभूति संभव नहीं। इसलिए अपने आप को दूसरों के हित एवं कल्याण के लिए विकसित होने दीजिए। दूसरों के दुःखों के दुःख-दर्द जिस दिन से आपको अपने लगने लगें, उसी दिन से आपकी महानता भी विकसित होने लगेगी। सभी के साथ प्रेम, मैत्री, सहयोग, सहानुभूति का स्वभाव बनाने से आत्म-ज्ञान का प्रकाश परिवर्द्धित होने लगता है। गीताकार ने लिखा है—

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।। —श्रीमद्भगवद्गीता-3/18

अर्थात् आत्मवादी पुरुष का लक्षण है—लोक-हितार्थ कर्म करना, क्योंकि संपूर्ण प्राणियों में स्वार्थ का कोई संबंध नहीं है। सभी विश्व-चेतना के ही अंग हैं, फिर किसी के प्रति परायेपन का भेदभाव क्यों करें? अपने ही सुखों को प्रधानता देने में जो क्षणिक आनंद-अनुभव कर इसी में लगे रहते हैं। उनसे यह आशा नहीं रखी जा सकती कि वे आत्मोद्धार कर लेंगे, पर जिसे अपना मानव-जीवन सार्थक बनाना है, जिसने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया है, उसके लिए उचित है कि वह खुले मस्तिष्क से सभी में अपने आप को ही रमा हुआ देखें। ऐसी अवस्था में किसी को दुःख देने या उत्पीड़ित करने की भावना भला क्यों बनेगी?

आत्म-ज्ञान और आत्मानुभूति के मूल उद्देश्य को लेकर ही हम इस संसार में आए हैं। मानव-जीवन की सार्थकता भी इसी में है कि वह अपने गुण, कर्म और स्वभाव में मानवोचित सदाचार का समावेश करे और लोकहित में ही अपना हित समझे। मनुष्य एक विषय है तो संसार उसकी व्याख्या। अपने आप को जानना है, तो संपूर्ण विश्व के साथ अपनी आत्मीयता स्थापित करनी पड़ेगी। आत्मा विशाल है, वह एक सीमित क्षेत्र में बंधी नहीं रह सकती। संपूर्ण संसार ही उसका क्रीड़ा क्षेत्र है। अपनी चेतना को भी विश्वचेतना के साथ जोड़ देने से आत्म–ज्ञान का प्रकाश स्वतः प्रस्फुटित होने लगता है।

इस प्रकार जब मनुष्य सांसारिक तथा इंद्रियजन्य परतंत्रता से मुक्त होने लगता है, तो उसकी महानता विकसित होने लगती है। आत्मा की स्वतंत्रता परिलक्षित होने लगती है, आत्मबल का संचार होने लगता है। स्वभाव में पवित्रता और प्रफुल्लता का वातावरण फूट निकलता है। आत्मा की गौरवपूर्ण महत्ता प्राप्त कर मनुष्य का इहलौकिक और पारलौकिक उद्देश्य पूरा हो जाता है। अपने लिए भी यही आवश्यक है कि हम अपनी इस प्रसुप्त महानता को जगाएं, इसके लिए आज से और अभी से लग जाएं, ताकि अपने अवशेष जीवन का सच्चा सदुपयोग हो सके।

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