
सही अर्थों में लोकसेवी भगिनी निवेदिता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सर्वहित के कार्यों में यह ललक ही मनुष्यत्व का पर्याय है। जीते तो पशु-पक्षी और कीड़े मकोड़े भी हैं, पर जीवन उसी का धन्य है, जो अपने आपको परमार्थ प्रयोजनों में सर्वतोभावेन समर्पित कर देते हैं। भगिनी निवेदिता का जीवन कुछ इसी तरह का था। उनके शरीर की धमनियों में सेवा रक्त की तरह प्रवाहित हो रही थी। उन्होंने अपने ऊपर कभी अपना अधिकार न मानकर जनहित को हित माना।
मार्गरेट नोबुल 28 अक्टूबर 1867 को एक आयरिश परिवार में जन्मी। अध्ययन काल में अडविन अर्नाल्ड की पुस्तक ‘लाइट आफ एशिया’ उनके हाथ में लगी। बुद्ध के काव्यात्मक जीवन चरित्र ने उनकी समूची सत्ता को झकझोर दिया। ‘बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय’ हेतु जीवन-यापन की भगवान बुद्ध की शैली ने उसके मानस को कचोटना शुरू किया। क्या यों ही बीतेगा जीवन? क्या पढ़ने-लिखने का उद्देश्य सिर्फ रुपया कमाने विवाह रचाने तक सीमित है? ‘‘नहीं कदापि नहीं’’, यह उनके अन्दर विराजमान आत्म-देव की आवाज थी।
19 वर्ष की आयु से उन्होंने अध्यापन की शुरुआत की। 1892 में रस्किन स्कूल की स्थापना करके, बच्चों को सुसंस्कारित करने का प्रयास किया। इसी समय उनकी जीवनधारा को मोड़ने के लिए सगे-सम्बन्धियों ने विवाह करने की सोची। अनेकों से दबाव पड़ा। आखिर एक दिन उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया—‘‘विवाह! विवाह!! विवाह!!! क्या जीवन में करने लायक और कुछ नहीं रह गया है? विवाह करना, बच्चे पैदा करना, धन बटोरना, भोग-लालसा में आवारा कुत्तों की भांति भटकना, क्या इसी का नाम है मनुष्यता? पशु भी तो यही करते हैं, फिर मनुष्य की विशेषता क्या रही? मैं अविवाहित रहकर पहले स्वयं मनुष्य बनूंगी और बाद में दूसरों को सिखाऊंगी कि मानवी गरिमा क्या है?’’ उनकी इस दृढ़ता के आगे सम्बन्धियों को झुकना पड़ा।
स्वामी विवेकानन्द इसी समय इंग्लैण्ड पधारे। नोबुल उनसे मिली, वह भी रस्किन स्कूल गये। वहां हो रहे बाल-कल्याण के कार्यों को देखकर उन्हें भारतीय निर्धन और अशिक्षित परिवारों के बच्चों की याद आयी। उनके नेत्रों से आंसू झर पड़े। युग के बुद्ध की पीड़ा को नूतन सुजाता ने न केवल समझा, वरन् पीड़ा में हिस्सेदारी बंटाने की हामी भरी। इतिहास ने अपने को दुहराया। नोबुल गुरु-चरणों में स्वयं को निवेदित कर निवेदिता बन गयीं।
कलकत्ता में प्लेग का प्रकोप हुआ, तो लोग जान बचा-बचा कर भाग रहे थे। मेहतर मिलते न थे। ऐसी विकट स्थिति में वे प्राणों के मोह को छोड़, हाथ में फावड़ा लेकर गन्दी नालियों की सफाई करने में जुट गयीं। युवक लज्जित हुए और राहत कार्य में अपनी सेवाएं देने लगे।
मातृ शक्ति को जागृत करने के लिए महिला विद्यालय की स्थापना की। उपहास और विरोध को सहन करते हुए सरल स्वभाव सेवा भावना के बल पर कार्य को गति देती रहीं। इतना ही नहीं, युवा पीढ़ी को त्याग और सेवा का संदेश प्रभावी वाणी में सुनाने के लिए, ‘‘विवेकानन्द समिति’’ ‘‘अनुशीलन समिति’’ आदि की स्थापना की। मरते समय तक, पहले की गयी प्रतिज्ञा—‘‘मैं मनुष्य बनूंगी और मनुष्यता सिखाऊंगी’’ के अनुसार कार्य करती रहीं। उनके प्रभावी व्यक्तित्व के सामने अनेकों ने घुटने टेके और मनुष्यता की वर्णमाला सीखने को बाध्य हुए।
मानव मात्र की सेवा ही वरेण्य
मनुष्यता की कसौटी सिर्फ एक है, वह यह कि दूसरों के दुःख-दर्द को देख कर अपने अन्दर कुछ मदद करने की कसक उठे, हाथ-पांव इसके लिए सक्रिय हो उठें। यदि ऐसा न हो, तो समझना चाहिए कि हम मनुष्य नहीं कुछ और हैं। ये विचार हैं—फ्लोरेंस नाइटिंगल के, जिन्होंने सारे जीवन, अपने क्रिया-कलापों के माध्यम से अर्ध मृत मानव संवेदना में नव-जीवन का संचार किया। एक दिन जब वह अपनी पार्टी के साथ ‘स्कूतरी के बैरक’ अस्पताल में पहुंचीं, तो वहां की नारकीय दशा देख कर दंग रह गयीं। उन्होंने स्वप्न में भी न सोचा था कि मनुष्यों के साथ मनुष्य भी पशुओं से अधिक घृणित और निर्दयतापूर्ण व्यवहार कर सकता है। उन्होंने देखा, जहां रोगियों को स्वच्छ वातावरण तथा मधुर व्यवहार की आवश्यकता होती है; वहां उनके सामने घायल व्यक्तियों की टांगों और भुजाओं के ढेर लगे थे। कोई किसी को पूछने वाला नहीं है। रोगियों और घायलों को लापरवाही से इकट्ठे फेंक दिया जाता है। सांस लेने को स्वच्छ वायु तक नहीं है।
स्थिति की दयनीयता पर विचार कर फ्लोरेन्स ने सैनिकों की स्त्रियों को साथ लिया। उन्हें पहनने के कपड़े, चादरें धोने का काम दिया। मरीजों की सेवा में लगाया। रसोई घर की व्यवस्था को सुधारा। दशा बदलने लगी। कभी-कभी उन्हें रोगी को पट्टी बांधने, उसे सान्त्वना पहुंचाने में आठ-आठ घण्टे लग जाते। खतरनाक आपरेशनों में चिकित्सकों के साथ बीस-बीस घण्टे बीत जाते। पर चेहरे पर वही आत्म संतोष, वही प्रसन्नता। वह निरन्तर भगवान से यही प्रार्थना करती कि उनके जीवन की प्रत्येक श्वास पीड़ित मानवता की सेवा में लगकर समाप्त हो जाए।
युद्ध की समाप्ति के बाद भी उनके दुःखहारक कार्य रुके नहीं। टामस अस्पताल में नर्सिंग स्कूल की स्थापना की। दो वर्षों बाद 1861 में पहली बार 13 नर्सें प्रशिक्षण प्राप्त कर विद्यालय के बाहर आयीं। यह सेवा के एक नए युग की शुरुआत थी। उनके इस प्रयत्नों ने अस्पतालों में सुधार की एक हवा पैदा कर दी। बाद में उसका प्रभा समूचे विश्व में फैल गया।
नर्सिंग युग की निर्मात्री फ्लोरंस 90 वर्ष तक सक्रिय, सचेतन, जीवन्त रहीं। प्रसिद्धि के इन दिनों उससे किसी ने पूछा—‘‘क्या आपके मन में कभी विवाह, सुख-वैभव आदि की लालसाएं नहीं आयीं?’’ ‘‘आईं क्यों नहीं, पर इन अनौचित्य पूर्ण आकांक्षाओं को रौंद कर फेंक दिया। महानता में बाधक तत्वों के साथ जो व्यवहार किया जाना चाहिए, वही किया। मैं ही क्यों, मेरी जगह पर कोई भी, कभी भी होगा, यही करेगा।’’
मार्गरेट नोबुल 28 अक्टूबर 1867 को एक आयरिश परिवार में जन्मी। अध्ययन काल में अडविन अर्नाल्ड की पुस्तक ‘लाइट आफ एशिया’ उनके हाथ में लगी। बुद्ध के काव्यात्मक जीवन चरित्र ने उनकी समूची सत्ता को झकझोर दिया। ‘बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय’ हेतु जीवन-यापन की भगवान बुद्ध की शैली ने उसके मानस को कचोटना शुरू किया। क्या यों ही बीतेगा जीवन? क्या पढ़ने-लिखने का उद्देश्य सिर्फ रुपया कमाने विवाह रचाने तक सीमित है? ‘‘नहीं कदापि नहीं’’, यह उनके अन्दर विराजमान आत्म-देव की आवाज थी।
19 वर्ष की आयु से उन्होंने अध्यापन की शुरुआत की। 1892 में रस्किन स्कूल की स्थापना करके, बच्चों को सुसंस्कारित करने का प्रयास किया। इसी समय उनकी जीवनधारा को मोड़ने के लिए सगे-सम्बन्धियों ने विवाह करने की सोची। अनेकों से दबाव पड़ा। आखिर एक दिन उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया—‘‘विवाह! विवाह!! विवाह!!! क्या जीवन में करने लायक और कुछ नहीं रह गया है? विवाह करना, बच्चे पैदा करना, धन बटोरना, भोग-लालसा में आवारा कुत्तों की भांति भटकना, क्या इसी का नाम है मनुष्यता? पशु भी तो यही करते हैं, फिर मनुष्य की विशेषता क्या रही? मैं अविवाहित रहकर पहले स्वयं मनुष्य बनूंगी और बाद में दूसरों को सिखाऊंगी कि मानवी गरिमा क्या है?’’ उनकी इस दृढ़ता के आगे सम्बन्धियों को झुकना पड़ा।
स्वामी विवेकानन्द इसी समय इंग्लैण्ड पधारे। नोबुल उनसे मिली, वह भी रस्किन स्कूल गये। वहां हो रहे बाल-कल्याण के कार्यों को देखकर उन्हें भारतीय निर्धन और अशिक्षित परिवारों के बच्चों की याद आयी। उनके नेत्रों से आंसू झर पड़े। युग के बुद्ध की पीड़ा को नूतन सुजाता ने न केवल समझा, वरन् पीड़ा में हिस्सेदारी बंटाने की हामी भरी। इतिहास ने अपने को दुहराया। नोबुल गुरु-चरणों में स्वयं को निवेदित कर निवेदिता बन गयीं।
कलकत्ता में प्लेग का प्रकोप हुआ, तो लोग जान बचा-बचा कर भाग रहे थे। मेहतर मिलते न थे। ऐसी विकट स्थिति में वे प्राणों के मोह को छोड़, हाथ में फावड़ा लेकर गन्दी नालियों की सफाई करने में जुट गयीं। युवक लज्जित हुए और राहत कार्य में अपनी सेवाएं देने लगे।
मातृ शक्ति को जागृत करने के लिए महिला विद्यालय की स्थापना की। उपहास और विरोध को सहन करते हुए सरल स्वभाव सेवा भावना के बल पर कार्य को गति देती रहीं। इतना ही नहीं, युवा पीढ़ी को त्याग और सेवा का संदेश प्रभावी वाणी में सुनाने के लिए, ‘‘विवेकानन्द समिति’’ ‘‘अनुशीलन समिति’’ आदि की स्थापना की। मरते समय तक, पहले की गयी प्रतिज्ञा—‘‘मैं मनुष्य बनूंगी और मनुष्यता सिखाऊंगी’’ के अनुसार कार्य करती रहीं। उनके प्रभावी व्यक्तित्व के सामने अनेकों ने घुटने टेके और मनुष्यता की वर्णमाला सीखने को बाध्य हुए।
मानव मात्र की सेवा ही वरेण्य
मनुष्यता की कसौटी सिर्फ एक है, वह यह कि दूसरों के दुःख-दर्द को देख कर अपने अन्दर कुछ मदद करने की कसक उठे, हाथ-पांव इसके लिए सक्रिय हो उठें। यदि ऐसा न हो, तो समझना चाहिए कि हम मनुष्य नहीं कुछ और हैं। ये विचार हैं—फ्लोरेंस नाइटिंगल के, जिन्होंने सारे जीवन, अपने क्रिया-कलापों के माध्यम से अर्ध मृत मानव संवेदना में नव-जीवन का संचार किया। एक दिन जब वह अपनी पार्टी के साथ ‘स्कूतरी के बैरक’ अस्पताल में पहुंचीं, तो वहां की नारकीय दशा देख कर दंग रह गयीं। उन्होंने स्वप्न में भी न सोचा था कि मनुष्यों के साथ मनुष्य भी पशुओं से अधिक घृणित और निर्दयतापूर्ण व्यवहार कर सकता है। उन्होंने देखा, जहां रोगियों को स्वच्छ वातावरण तथा मधुर व्यवहार की आवश्यकता होती है; वहां उनके सामने घायल व्यक्तियों की टांगों और भुजाओं के ढेर लगे थे। कोई किसी को पूछने वाला नहीं है। रोगियों और घायलों को लापरवाही से इकट्ठे फेंक दिया जाता है। सांस लेने को स्वच्छ वायु तक नहीं है।
स्थिति की दयनीयता पर विचार कर फ्लोरेन्स ने सैनिकों की स्त्रियों को साथ लिया। उन्हें पहनने के कपड़े, चादरें धोने का काम दिया। मरीजों की सेवा में लगाया। रसोई घर की व्यवस्था को सुधारा। दशा बदलने लगी। कभी-कभी उन्हें रोगी को पट्टी बांधने, उसे सान्त्वना पहुंचाने में आठ-आठ घण्टे लग जाते। खतरनाक आपरेशनों में चिकित्सकों के साथ बीस-बीस घण्टे बीत जाते। पर चेहरे पर वही आत्म संतोष, वही प्रसन्नता। वह निरन्तर भगवान से यही प्रार्थना करती कि उनके जीवन की प्रत्येक श्वास पीड़ित मानवता की सेवा में लगकर समाप्त हो जाए।
युद्ध की समाप्ति के बाद भी उनके दुःखहारक कार्य रुके नहीं। टामस अस्पताल में नर्सिंग स्कूल की स्थापना की। दो वर्षों बाद 1861 में पहली बार 13 नर्सें प्रशिक्षण प्राप्त कर विद्यालय के बाहर आयीं। यह सेवा के एक नए युग की शुरुआत थी। उनके इस प्रयत्नों ने अस्पतालों में सुधार की एक हवा पैदा कर दी। बाद में उसका प्रभा समूचे विश्व में फैल गया।
नर्सिंग युग की निर्मात्री फ्लोरंस 90 वर्ष तक सक्रिय, सचेतन, जीवन्त रहीं। प्रसिद्धि के इन दिनों उससे किसी ने पूछा—‘‘क्या आपके मन में कभी विवाह, सुख-वैभव आदि की लालसाएं नहीं आयीं?’’ ‘‘आईं क्यों नहीं, पर इन अनौचित्य पूर्ण आकांक्षाओं को रौंद कर फेंक दिया। महानता में बाधक तत्वों के साथ जो व्यवहार किया जाना चाहिए, वही किया। मैं ही क्यों, मेरी जगह पर कोई भी, कभी भी होगा, यही करेगा।’’