
अन्तः की उदारता को जगाया
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प्रेरणाएं जितनी सघन और सशक्त होती हैं। परिवर्तन उतने ही व्यापक और चिरस्थाई होते हैं। नोबल पुरस्कार के प्रणेता अल्फ्रेड नोबल का नाम प्रायः हर कोई जानता है, परन्तु उस महिमा-मण्डित नारी को कम ही जानते होंगे, जिसकी प्रेरणाओं ने अल्फ्रेड नोबल जैसे, धन को सब कुछ समझने वाले विस्फोटक व्यवसायी के अन्तःकरण में सोई हुई उदात्त भावनाएं जगायी। उन्हें पल्लवित और पुष्पित किया। वह अपनी विशाल धन राशि को लोक हित में लगाने हेतु तत्पर हुआ। उसके मन में यह प्रेरणा जगाने वाली महिला थीं, उसकी सचिव-ब्रेथा बेरोनस।
ब्रेथा और उसके पति आर्थर जिस समय-काकेशस के मिंगरेलिया नगर में वैवाहिक सूत्र में बंधे, उसी दिन उसने पति को स्पष्ट कर दिया कि वह संतानों के बन्धन में बंध, अपने अपनत्व को न सिकोड़ेगी। उसके लिए सभी अपने हैं, फिर अपनत्व का दायरा छोटा क्यों किया जाय? पति के समझ में बात आ गई।
इन्हीं दिनों 1877 में रूस और टर्की में लड़ाई छिड़ गई। मनुष्य भी इस कदर पागल हो सकता है, उसने सोचा भी न था। मार-काट की आग में सिपाही ही जलती हों ऐसी बात नहीं है; कितनी ही सुहागिनों का सिन्दूर मिटता, कितने ही बालक पितृ विहीन होते, कितने ही परिवार तहस-नहस हो जाते हैं।
ऐसी स्थिति में उसने सामयिक कर्त्तव्य निश्चित किया। उन माताओं को सान्त्वना देती, जिनके बेटे मरे थे। उन पत्नियों को धीरज बंधाती, जिनके पति अब लौट कर नहीं आयेंगे। पर इतने भर में उसे संतोष कहां था। लंदन में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा निरस्त्रीकरण संगठन की सदस्या बनकर विनाश की ओर बढ़ती जा रही मानवता को विकास की ओर लौट चलने हेतु आवाज लगायी।
पति के साथ समूचे दिन काम करती और रात्रि में बैठकर लिखती। वह जानती थी कि साहित्य में वह क्षमता है कि जनमानस को किसी ओर मोड़ सकता है। मानवीय जीवन ध्वंसात्मक गतिविधियों को तिलांजलि देकर सृजन की रहा पर चल सके—इस हेतु उसने एक मर्म-स्पर्शी कृति लिखी ‘‘ले डाउन योर आर्म्स’’ (अपने हथियार फेंक दो)। इसे जिसने पढ़ा उसी की आवाज लेखिका की आवाज से एक हो गई।
बाद के दिनों में उसे शान्ति के लिए नोबल पुरस्कार मिला। इसी की सूचना देने और संदेश प्राप्त करने आए पत्रकारों के समूह ने पूछा—आप इतना कार्य कैसे कर सकीं?
‘‘सिर्फ बच्चों के मोह से उबर कर’’—उसका उत्तर था। प्रजनन-सन्तानोत्पत्ति न केवल उसकी शारीरिक क्षमता का हरण करती है, बल्कि मानसिक और बौद्धिक क्षमताएं एवं कीमती समय यों ही कूड़े-गर्त में पड़कर नष्ट होता रहता है। इस कीमती दौलत को बचाकर समाज की सामयिक मांगों की पूर्ति में लगाया जा सके, तो ऐसा कुछ किया जा सकेगा—जो युगों तक याद रखा जा सके।
ब्रेथा और उसके पति आर्थर जिस समय-काकेशस के मिंगरेलिया नगर में वैवाहिक सूत्र में बंधे, उसी दिन उसने पति को स्पष्ट कर दिया कि वह संतानों के बन्धन में बंध, अपने अपनत्व को न सिकोड़ेगी। उसके लिए सभी अपने हैं, फिर अपनत्व का दायरा छोटा क्यों किया जाय? पति के समझ में बात आ गई।
इन्हीं दिनों 1877 में रूस और टर्की में लड़ाई छिड़ गई। मनुष्य भी इस कदर पागल हो सकता है, उसने सोचा भी न था। मार-काट की आग में सिपाही ही जलती हों ऐसी बात नहीं है; कितनी ही सुहागिनों का सिन्दूर मिटता, कितने ही बालक पितृ विहीन होते, कितने ही परिवार तहस-नहस हो जाते हैं।
ऐसी स्थिति में उसने सामयिक कर्त्तव्य निश्चित किया। उन माताओं को सान्त्वना देती, जिनके बेटे मरे थे। उन पत्नियों को धीरज बंधाती, जिनके पति अब लौट कर नहीं आयेंगे। पर इतने भर में उसे संतोष कहां था। लंदन में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा निरस्त्रीकरण संगठन की सदस्या बनकर विनाश की ओर बढ़ती जा रही मानवता को विकास की ओर लौट चलने हेतु आवाज लगायी।
पति के साथ समूचे दिन काम करती और रात्रि में बैठकर लिखती। वह जानती थी कि साहित्य में वह क्षमता है कि जनमानस को किसी ओर मोड़ सकता है। मानवीय जीवन ध्वंसात्मक गतिविधियों को तिलांजलि देकर सृजन की रहा पर चल सके—इस हेतु उसने एक मर्म-स्पर्शी कृति लिखी ‘‘ले डाउन योर आर्म्स’’ (अपने हथियार फेंक दो)। इसे जिसने पढ़ा उसी की आवाज लेखिका की आवाज से एक हो गई।
बाद के दिनों में उसे शान्ति के लिए नोबल पुरस्कार मिला। इसी की सूचना देने और संदेश प्राप्त करने आए पत्रकारों के समूह ने पूछा—आप इतना कार्य कैसे कर सकीं?
‘‘सिर्फ बच्चों के मोह से उबर कर’’—उसका उत्तर था। प्रजनन-सन्तानोत्पत्ति न केवल उसकी शारीरिक क्षमता का हरण करती है, बल्कि मानसिक और बौद्धिक क्षमताएं एवं कीमती समय यों ही कूड़े-गर्त में पड़कर नष्ट होता रहता है। इस कीमती दौलत को बचाकर समाज की सामयिक मांगों की पूर्ति में लगाया जा सके, तो ऐसा कुछ किया जा सकेगा—जो युगों तक याद रखा जा सके।