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Books - नारी अभ्युदय का नवयुग

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


दो नारियों का सार्थक-समन्वित पुरुषार्थ

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दो महिलाएं यदि विवाह की झंझटों से हटकर, पारस्परिक भावनात्मक सहयोग करते हुए सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में स्वयं को अर्पित कर सकें, तो होने वाला कार्य अधिकाधिक व्यापक और सघन हो सकेगा। अपने निजी अनुभवों से यह मत बनाया एमिली ग्रीन वाल्व और जेन एडम्स ने। एमिली 8 जनवरी 1867 को जुमेका प्लेन भास (अमेरिका) में तथा जेन 1860 को सीडारविल (अमेरिका) में पैदा हुई। कालेज की शिक्षा पूरी करने के बाद दोनों का ही लक्ष्य बना—सेवा। लक्ष्य की महानता को देखते हुए दोनों ने ही स्वयं के सुखों को त्याग देने का निश्चय किया। ठीक भी यही है, जिसके जीवन की परिधि सुख-भोग, वैभव-विलास के दायरे तक ही सिमटी-सिकुड़ी है, उससे दूसरों का भला हो सकना संभव भी नहीं। अपनी आत्मीयता को इन जंजीरों की जकड़न से छुड़ाकर ही मानव हितों के लिए तत्पर हुआ जा सकता है। इस तत्परता में तेजी आए, इसलिए एक से दो भले की नीति उपयुक्त है। ये दो स्त्री पुरुष हों, क्या यह जरूरी है? कदापि नहीं।
यदि यह चिन्तन उभर सके कि हम पशु प्रवृत्ति से ऊपर उठे मानव हैं और हमें आदर्शों के लिए सक्रिय समर्पण करना है, तो स्त्रियां आपस में भी सघन भावनात्मक सम्बन्धों की स्थापना कर कार्यरत हो सकती हैं। इस भावनात्मक एकात्मता को आध्यात्मिक विवाह की संज्ञा देना कहीं अधिक समीचीन होगा। सन् 1915 में एमिली और जेन ने कुछ इसी तरह मिल कर अपने मानव हित के कार्यों को गति दी। नारी समुदाय को सचेतन और सक्रिय करने के लिए उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय महिला लीग की स्थापना की, जिसने बाद में ‘‘वीमेन्स इन्टरनेशनल फॉर पीस एण्ड फ्रीडम’’ का रूप लेकर अपन विस्तार किया। प्रेसीडेण्ट हुई एडम्स और सेक्रेटरी का भार सम्भाला एमिली वाल्व ने।
दोनों की समग्र प्रवृत्तियों का प्रेरणा स्रोत विश्व मानव के प्रति उनकी टीस थी। सन्तुष्टि उनकी हुई थी इस संस्था के माध्यम से। अतः वे जी-जान लगाकर, इसके कार्यों से जुट गयीं। वे कहा करती थीं, यदि विभिन्न जातियां और वर्ग एक दूसरे को समझ सकें, तो पारस्परिक विद्वेष समाप्त हो जाय। इसके लिए दोनों ने ‘गुड नेबर पालिसी’ अर्थात् पड़ोसियों से सद्व्यवहार की योजना चलायी। इसमें साथ-साथ भोजन और साथ-साथ काम के माध्यम से परस्पर के सम्बन्धों को अधिक सघन बनाया जाता है।
महिलाओं के लिए दो निदान सुझाए—स्वावलम्बन और संगठन। स्वावलम्बन के माध्यम से नारी न केवल अनिश्चितता से उबरेगी, बल्कि उसमें आत्म-विश्वास जागेगा। इसी तरह यदि वह संगठित हो सकी, तो उस पर अभी तक होने वाले अन्याय-अत्याचार स्वयं दुबक कर कोने में छुप जायेंगे। इसके अलावा संगठन, सद्व्यवहार का जन्मदाता है। कारण कि सद्व्यवहार के बिना, परस्पर की नम्रता से जुड़ी सहकारिता के बिना संगठन जीवित नहीं रह सकता। इस तरह नारी वर्ग में व्याप्त असुरक्षा का भाव स्वयमेव समाप्त हो जायेगा।
जेन ने सन् 1935 में शरीर छोड़ा और एमिली ने सन् 1961 में। इन दोनों के लिए हर एक व्यक्ति के मुंह से एक ही ध्वनि निकलती थी—वे किस एक देश, एक जाति, एक धर्म की अनुयायी नहीं थीं, वरन् सारे देश, सारे धर्म उन्हें प्रिय थे और समूचा विश्व उनका अपना था। उनके द्वारा स्थापित की गयी विवाह की नयी परिभाषा, इसका आध्यात्मिक स्वरूप भारत जैसे आध्यात्मिक कहे जाने वाले देश में कहीं अधिक सटीक और अनुकरणीय है। दो-दो कुमारिकाएं परस्पर- मिलकर भी लोक सेवा के क्षेत्र में जुट सकती हैं। उन्हें उबाऊपन भी न अखरेगा, और कार्य की गति भी अधिक बढ़ेगी।
परित्यक्तता नहीं समर्पिता
पति के द्वारा परित्याग नारी के लिए अंधकार युग की शुरुआत समझी जाती है। परित्यक्ता का अस्तित्व समाप्तप्राय माना जाता है। समाज की इस मूढ़ मान्यता को चिथड़े-चिथड़े कर, कूड़े के ढेर में फेंकने का साहस किया—एनीबेसेण्ट ने। इंग्लैण्ड के 1847 में जन्मी बेसेण्ट ने अपने कृतित्व से सिद्ध कर दिया कि अंदर में ईश्वर विश्वास जगे, मानव हित में कुछ करने की कसक उठे तो दुर्भाग्य का प्रतीक समझी जाने वाली परित्यक्ता न केवल सौभाग्यशाली, वरन् सौभाग्यदात्री बन सकती है।
बचपन से ही पिता के संरक्षण से वंचित ‘एनी’ अभावों कठिनाइयों में रही, आयु बढ़ी और अध्ययन का क्रम पूरा किया। उन्नीस वर्ष की आयु में इनका विवाह फ्रेंक बेसेण्ट नामक पादरी से सम्पन्न हुआ। विवाह के प्रारम्भ में उन्हें खुशी हुई कि एक पादरी के साथ रहने से गरीबों की सेवा का अवसर मिलता रहेगा। पर पादरी बेसेण्ट तो सिर्फ पण्डे-पुजारियों की तरह धर्म को आजीविका का साधन मानते थे। उधर एनी समाज में फैली कुरीतियों, अन्यायों की खुलकर आलोचना करने तथा आन्दोलनों में भाग लेने लगी थीं। इसी कारण इनका वैवाहिक जीवन धीरे-धीरे बहुत दुःखमय हो गया। जब मानसिक पीड़ा बहुत बढ़ गई, तो इन्होंने आत्महत्या करके जीवन का अन्त कर देने का विचार किया।
किन्तु जहर की शीशी को मुंह से लगाया ही था—कि अन्तरात्मा ने कचोटा-धिक्कारा—ऐ कायर! अभी कल तक तो तू जन सेवा का, अन्याय के प्रतिकार हेतु शहीद बनने का स्वप्न देख रही थी? आज थोड़े से मानसिक कष्ट से व्यथित हो प्राणों को नष्ट करने को तैयार हो गयी? जब तू घरेलू झगड़ों को बरदाश्त न कर सकी, तो अन्यान्यों का विरोध करते हुए जो अपमान-यातना का सामना करना पड़ेगा, उनको कैसे सहन करेगी? अतएव हिम्मत बनाए रह और कर्त्तव्य मार्ग पर अग्रसर होती रहे।
इसके बाद उन्होंने सारी चिन्ता त्याग, जनहित में काम करना शुरू कर दिया। इस पर पति ने तलाक दे दिया। पर वे साहस के साथ जीवन-संग्राम में डटी रहीं। जीवन निर्वाह के लिए उन्हें दूसरों के यहां भोजन बनाने, बच्चों को पालने की नौकरी करनी पड़ी। इन कष्टों को सहते हुए उन्होंने मजदूर आन्दोलन में भाग लिया। उन्होंने स्वयं एक बार कहा था—मैं इन दुर्दशाग्रस्त और उपेक्षित प्राणियों की सहायता करने लगी। उनके नाले-नालियों के समान गंदे घरों में घुसकर सोचती थी ‘‘क्या इस रोग की औषधि नहीं है?’’ क्या यह गरीब-अमीर का भेद सदा ऐसा ही बना रहेगा? इस व्याकुलता के नाते स्वयं अभावग्रस्त दशा में रहकर भी उन्होंने हजारों मजदूर की दशा सुधारी।
सन् 1893 में वह भारत वर्ष पधारी। इस देश को अपना निवास स्थान बनाकर जन-कल्याण के कार्यों में जुट गयीं। अपने समय की जटिल समस्या शिक्षा प्रसार के लिए कदम उठाए। बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना की। पुरुषों की अपेक्षा नारियों के विकास को वह अधिक महत्त्वपूर्ण मानती थीं। नारियों के संबंध में यहां की मानसिकता देख कर उन्होंने कहा—‘‘जब तक इस देश की नारियां-बालिकाएं शिक्षित-सुसंस्कारित नहीं होंगी, इस देश का कल्याण नहीं होगा। जब तक भारतीय माताएं अपने पूर्व गौरव को न जानेंगी, अपने बच्चों को प्राचीन सभ्यता की बातें नहीं बतलायेगी, समाज उतना ही कमजोर रहेगा, जितना आज है। स्थिति संवारने के लिए महिलाओं को स्वयं मोर्चा संभालना चाहिए। उन्होंने स्वयं चालीस वर्ष तक यह कार्य संभाला और दूसरों का आह्वान करते हुए परम तत्व में लीन हो गईं।’’
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