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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4

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।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-9

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भगवान् परशुराम ने अपनी प्रखरता अनीति उन्मूलन के निमित्त गतिशील की। दूसरे, मात्र धर्म चर्चा और पुण्य अर्जन की बात सोचते थे,किंतु उनने सोचा अनीति के प्रचंड रहते धर्म पनपेगा ही नहीं। इसलिए उन्होंने तप करके फरसा प्राप्त किया और उससे सहस्रबाहु जैसे समर्थों को धराशायी  बनाकर रख दिया। आज मूढ़ मान्यताएँ, कुरीतियाँ, अवांछनीयताएँ मिल- जुलकर वातावरण को अनीतिमय विषाक्त बनाए हुए हैं। सर्वभक्षी अनाचार सहस्राहु बनकर खड़ा है। उसके विरुद्ध भी वैसे ही संघर्ष की आवश्यकता है। 
शास्त्र भी -शस्त्र भी  
द्रौणाचार्य धर्म शास्त्रों में प्रवीण पारंगत थे। पर वे शास्त्र अध्ययन के अतिरिक्त शस्त्र विद्या में भी कुशल थे। उनमें प्रवीणता प्राप्त करने के लिए उनने तप- साधना, भक्ति- भावना से भी अधिक श्रम किया  था। वे शस्त्र- संचालन का सत्पात्रों को शिक्षण देने के लिए भी एक साधन संपन्न विद्यालय चलाते थे। एक दिन धौम्य ऋषि द्रोणाचार्य के आश्रम में जा पहुँचे, आचार्य को स्वयं शस्त्र धारण किए और दूसरों को शस्त्र संचालन पढ़ाते देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ और बोले-'' संतों को तो दया धर्म अपनाना और भक्ति भावना का प्रचार करना ही उचित है। आप रक्तपात की व्यवस्था क्यों बता रहे हैं ?'' उनने कहा-'' यह परिस्थितियों की मांग है। सज्जनों को सत्संग से, सत्परामर्श से समझा कर रास्ते पर लाया जा सकता है। इसलिए हम पहले उसी का प्रयोग करने के लिए कहते हैं। किंतु सर्पों, बिच्छुओं, भेड़ियों पर धर्म शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनका मुँह कुचलने की शक्ति का होना आवश्यक है। इसके बिना उनकी दुष्टता रुकती नहीं।'' धौम्य का समाधान हो गया।
द्रोणाचार्य की मान्यता स्वयं उनके शब्दों में ही इस प्रकार है- 
अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्ठतः स शरंधनु:।  इदं बाह्यं इदं क्षात्रं शास्त्रादपि शरादपि ।।  
अर्थात् '' मुख से चारों वेदों का प्रवचन करके और पीठ पर धनुषबाण लेकर चला जाय। ब्रह्म शक्ति और शस्त्र शक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। शास्त्र से भी और शस्त्र से भी धर्म का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए। '' 
चाणक्य का व्यवहार दर्शन
वेद धर्म में जहाँ व्यक्तिगत सदाचरण की महत्ता है, वहाँ देवासुर संग्राम का भी अत्यंत उत्साह भरा विवरण है। अनीति के विरुद्ध आक्रोश की ' मन्यु ' नाम से प्रतिष्ठा है। बुद्ध की अहिंसा, गृहत्याग, भिक्षाटन को तो उनके उपरांत लोगों ने ध्यान रखा, पर यह भूल गए कि अनीति के विरुद्ध लोहा भी आवश्यक है। ऐसे अवसर आने पर लोग दया, क्षमा का आवरण ओढ़कर कायर बनते जा रहे थे। 
जनमानस की यह स्थिति देखकर मध्य एशिया के आक्रांताओं की हिम्मत सौ गुनी हो गई। मुट्ठी भर डाकुओं के काफिले ला- लाकर उनने सारे देश को रौंद डाला। सोमनाथ जैसे देवालयों को नष्ट किया और देव का वैभव ऊँटों के काफिले लाद- लाद कर ले गए। वे लगातार हमले पर हमले करते रहते और प्रतिरोध के लिए मुठी भर लोग ही आगे आने पर वे जीत पर जीत हस्तगत करते गए। स्थिति को उलटने के लिए चाणक्य ने व्यवहार दर्शन अपनाया और चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त को रणनीति से प्रशिक्षित किया तथा मार्गदर्शन करते हुए लड़ाया। 
चाणक्य स्वयं संत थे। नगर से दूर कुटिया में रहते थे, परं दुष्टता के प्रतिरोध में वे कूटनीतिज्ञ भी थे। नंद- वंश को उन्होंने ठिकाने लगाया। निजी जीवन में अपरिग्रही रहते हुए नालंदा विश्वविद्यालय के संचालन के लिए करोड़ों का धन जुटाया। 
समर्थ    
समर्थ गुरु ने पलायनवादी, भाग्यवादी मान्यताओं को उलटा। अहिंसा का अतिवाद भी नहीं अपनाया, वरन् संव्याप्त अनाचार के विरुद्ध संघर्ष का लोक मानस तैयार किया। दूरदर्शिता और यथार्थता भी इसी प्रतिपादन में सन्निहित थी । 
राणा साँगा 
महाराणा साँगा उदयपुर के शासक थे। अपनी शौर्य- शक्ति के लिए वे प्रसिद्ध थे। अपने देश, धर्म और संस्कृति की वे थोड़ी -सी भी हानि नहीं देख सकते थे। आक्रमणकारी, अनाचारियों के विरुद्ध लड़ने वाले राणा साँगा ने बाबर के साथ युद्ध किया था । अपने शरीर में ८० घाव होते हुए भी वे डटकर लड़ाई लड़ते रहे और जब तक दम में दम रहा, धर्मयुद्ध से पीछे नहीं हटे। 
अंत तक लड़ते रहे 
चितौड़ के शासक राणा प्रताप ने मुगलों से लड़ाई जारी रखी। मुगलों ने असली कूटनीति के सहारे एक- एक करके राजपूतों को अपनी ओर फोड़ लिया था। छोटे- बड़े प्रलोभन देकर अपना सहायक बना लिया था, पर इस जाल में राणा प्रताप नहीं फँसे। उनने अपनी लड़ाई को देश की स्वाधीनता का युद्ध माना और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंतिम साँस तक लड़ते रहने का प्रयत्न किया। उनने अपना सैनिक वनवासियों को बनाया। राजपूत तो विलास लूटने के लिए झंझट से बचने की नीति अपना चुके थे। 
राणा प्रताप की युद्ध छावनियाँ तथा रसद भंडार पहाड़ी गुफाओं में रहते थे और वे ऊपर से नीचे वालों को धराशायी करते रहते। कई बार उन्हें रोटी- कपड़े के लाले पड़े। तब भामाशाह जैसे उदारचेताओं ने अपनी सारी संपत्ति उनके चरणों पर रख कर संग्राम जारी रखने की सुविधा उत्पन्न की। राणा प्रताप ने अपना प्रण मरते दम तक निबाहा और मुगलों को पीछे हटने के लिए बाधित किया। 
छत्रपति शिवाजी की  रणनीति 
औरंगजेब ने शिवाजी के पास कितने ही संधि संदेश भेजे और महाराष्ट्र का एक इलाका जागीर रूप में देने का प्रलोभन दिया, पर शिवाजी उन समस्त प्रस्तावों को अस्वीकृत करते रहे। उन्हें देश की लड़ाई लड़नी थी और आक्रमणकारियों के दाँत खट्टे करने थे। 
शिवाजी के पास नियमित सेनाएँ कम थीं, इसलिए सामने की लड़ाई लड़ना उनके लिए कठिन था। उनने छापामार लड़ाई लड़ी। दुश्मन का मोर्चा, जहाँ भी कमजोर देखते, वहीं अपने छापामारों द्वारा चीते की तरह टूट पड़ते और उन्हीं की रसद तथा हथियार छीनकर अपना काम चलाते। 
शिवाजी ने इस नई रणनीति का आविष्कार करके संसार के क्रांतिकारियों और अनीति से लड़ने वालों को छापामार लड़ाई का सिद्धांत समझाया। सभी ने उनकी रणनीति की प्रशंसा की और औरंगजेब को लगातार पीछे हटने के लिए विवश कर दिया। 
प्रचलन को उलटा 
उन दिनों संत समुदाय कथा- कीर्तन द्वारा भगवान् को प्रसन्न करने के फेर में था। कहा जाता था, कि देश में आतंक- अनाचार भी भगवान् की इच्छा से बढ़ा है और वे जब चाहेंगे, तभी यह विपन्नता मिटेगी। इसलिए सब छोड़कर कीर्तन पर ही जुट पड़ना चाहिए और अपरिग्रह- उपवास आदि से लोक- श्रद्धा को अपने काबू में रखना चाहिए। स्थिति की गंभीर समीक्षा केरके बंदा वैरागी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वातावरण की सफाई करनी चाहिए और जो उचित है, उसके लिए, न केवल उपदेश करना चाहिए, वरन् अपना उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहिए। यही उनने किया। वे संस्कृति की रक्षार्थ शहीद हो गए, किन्तु कभी झुके नहीं। 
गुंडों का सामना 
राजकोट आंदोलन के समय गांधी जी की सभा में भारी भीड़ होती थी।  सरकारी अफसर इसमें बिघ्न डालना चाहते थे। उनने गुंडों की एक मंडली झगड़ा करने और गांधी जी को चोट पहुँचाने के लिए भेजी। 
सभा समाप्त होने पर गांधी जी मोटर से जाने वाले थे। झगड़ा बढ़ते देखकर वे उतर पड़े और गुंडों को बुलाकर कहा-'' मैं सामने हूँ, जो चाहे करें। वे सन्न रह गए और चुपचाप एक- एक करके खिसक गए। '' 
मौत तक का डर नहीं 
गांधी जी चंपारन जिले में नील के व्यापारी गोरों के विरुद्ध आंदोलन चला रहे थे। गोरे बहुत चिढ़े हुए थे और कहते थे कि गांधी मिले, तो उसको गोली मार दें। 
जो गोरा बहुत दुष्ट था, एक दिन गांधी जी अकेले उसकी कोठी पर जा पहुँचे और कहा-'' मेरा ही नाम गांधी है। आप मार डालने की बात कहते थे। मैं अकेला हूँ, आप चाहें, तो मार सकते हैं। '' 
गोरा इस साहसिकता पर दंग रह गया और अपने कथन पर माँफी माँगी । 
अन्याय नहीं सहूँगा 
साधु होने का अर्थ यह नहीं कि शांत बैठे अनीति सह ली जाय व सब कुछ भगवान् के भरोसे छोड़ दिया जाय। 
देवरिया स्टेशन की बात है। कितने ही मुसाफिर ट्रेन में बैठने के लिए इधर- उधर भाग रहे थे, पर सब भरे होने के कारण उन्हें खड़े होने की भी जगह नहीं मिल पा रही थी। उन्हीं में से एक बाबा राघवदास जी थे। उन्होंने देखा, एक डिब्बे में केवल चार गोरखा सिपाही बैठे हैं। एक दरवाजे पर खडा़ खुखरी हिलाकर लोगों को भीतर नहीं चढ़ने दे रहा था। फिर क्या था, लपककर चढ़ गए उसी में और बोले-'' मार दो मेरी छाती में खुखरी, पर मैं अन्याय सहकर जीने वाला नहीं हूँ। '' साथ ही साथियों से बोले-'' देखते क्या हो, चढ़ आओ भीतर। '' देखते ही देखते सारा डिब्बा भर गया। सिपाही सिटपिटाते हुए, उन्हें देखते ही रह गए। 
नन्हीं चिनगारी 
नन्हीं- सी चिनगारी, तुम भला मेरा क्या बिगाड़ सकती हो, देखती नहीं, मेरा आकार ही तुमसे हजार गुना  बडा़ है। अभी तुम्हारे ऊपर केवल गिर पडूँ, तो तुम्हारे अस्तित्व का पता न लगे ''- तिनकों का ढेर अहंकारपूर्वक बोला। 
चिनगारी बोली कुछ नहीं, चुपचाप ढेर के समीप जा पहुँची। तिनके उसकी आग में भस्मसात् होने लगे। अग्नि की शक्ति ज्यों- ज्यों बढ़ी, तिनके त्यों- त्यों जलकर नष्ट होते गए। देखते- देखते भीषण रूप से आग लग गई और सारा ढेर राख में परिवर्तित हो गया। 
यह दृश्य देख रहे आचार्य ने अपने शिष्यों को बताया-'' बालको ! जैसे आग की चिनगारी ने अपनी प्रखर शक्ति से तिनकों का ढेर खाक कर दिया, तेजस्वी और क्रियाशील एक व्यक्ति ही सैकड़ों बुरे लोगों से संघर्ष में विजयी हो जाता है। ''
' न ' तो कहिए 
चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ आएँ, जूझने का साहस होना चाहिए। 
एक था राक्षस। उसने एक आदमी पकड़ा। खाया नहीं। डराया और कहा-'' मेरी मर्जी के कामों में निरंतर लगा रह। ढील कीं, तो खा जाऊँगा। '' आदमी से जब तक बस चला, तब तक काम करता रहा। जब थक कर चूर- चूर हो गया और आजिज आ गया, तो उसने सोचा, तिल- तिल कर मरने से, तो एक दिन पूरी तरह मरना अच्छा। उसने राक्षस से कह दिया-'' जो मर्जी हो, सो करें, इस तरह मैं नहीं करते रह सकता। '' राक्षस ने सोचा- ''काम का आदमी है। थोड़ा- थोडा़ काम बहुत दिन करता रहे, तो क्या बुरा है ? एक दिन खा जाने पर तो उस लाभ से हाथ धोना पड़ेगा, जो उसके द्वारा मिलता रहता है। '' राक्षस ने समझौता कर लिया और खाया नहीं, थोड़ा- थोड़ा काम करते रहने की मान ली। 
कथासार यह है-'' हममें ' न' कहने की भी हिम्मत होनी चाहिए। गलत का समर्थन नहीं करूँगा, उसमें सहयोग नहीं दूँगा। '' 
''जिसमें इतना भी साहस न हो,उसे सच्चे अर्थों में मनुष्य नहीं माना जा सकता। 
भ्रमन्ति नररूपेण पशवो बहवो भुवि।  मनुष्योचितकर्तव्यादर्शयुक्ता भवन्तु मे ।। ८९ ।।  इत्येब वर्तते मुख्यं लक्ष्यं वै देवसंस्कृतेः।  स्वस्थाश्रमव्यवस्थाऽथ परिष्कृतसुरालयाः।। ९० ।।  तीर्थान्यपि भवन्त्यत्र लक्ष्यस्यास्यैव पूर्तये।  माध्यमैरेभिरेवेयं विश्वं व्याप्नोच्च संस्कृति: ।। ११ ।।  इमान् परिष्कृतान् पूर्णजीवितान् कर्तुमत्र च।  सन्ततमृषिवर्गस्य कार्यमस्ति महत्तरम् ।। १२ ।।  इर्द ज्ञातव्यमस्माभिः पूर्णरूपेण चान्ततः।  व्यवस्थित समाजं च कर्तुंमार्गोऽयमस्ति वै ।। ९३ ।। 
भावार्थ- मनुष्य रूप में पशु तो बहुत फिरा करते हैं उन्हें मनुष्योचित कर्तव्यों आदर्शों से युक्त रखना देवसंस्कृति का प्रधान उद्देश्य है। स्वस्थ वर्णाश्रम व्यवस्था, परिष्कृत देवालय एवं तीर्थ तंत्र इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए होते हैं। इन्हीं माध्यमों से देवसंस्कृति विश्वव्यापी बनी थी। इन्हें जागृत और परिष्कृत रखने का कार्य ऋषि तंत्र का ही है और यह हमें भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि अंततः समाज को व्यवस्थित करने के लिए यही मार्ग है ।। ८९ - ९३।। 
व्याख्या- सत्र के समापन पर महर्षि आदर्शनिष्ठा एवं सप्तवृत्ति संवर्द्धन की मानवी विकास हेतु अनिवार्यता बताते हुए ऋषितंत्र की भूमिका स्पष्ट करते हैं। यही सतयुग का मूल आधार है। देवसंस्कृति के पुनर्जीवन बिना उन मूल्यों की प्रतिष्थापना किए बिना यह उच्चस्तरीय लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता । 
रामराज्य का मूल आधार 
महाकवि भवभूति रचित उत्तररामचरितम् का एक मार्मिक प्रसंग है। श्रीराम राक्षसों का दमन करके अयोध्या वापस लौट आए थे। रामराज्य की स्थापना की जा चुकी थी। महर्षि वशिष्ठ के मार्गदर्शन में राजतंत्र एक आदर्श व्यवस्था का प्रयोग कर रहा था। उसी बीच श्रृंगी ऋषि ने एक विशेष यज्ञ का अनुष्ठान किया। रामराज्य की स्थापना के लिए सूक्ष्म वातावरण निर्माण तथा ऋषियों को योजनाबद्ध रूप से सक्रिय करने के लिए राजतंत्र से परे, धर्मतंत्र के ही संरक्षण में यह यज्ञानुष्ठान प्रारंभ किया गया था। कार्य की महत्ता देखते हुए, महर्षि वशिष्ठ ने उस यज्ञ के संरक्षण का दायित्व स्वीकार कर लिया। श्रृंगी ऋषि जामाता भी थे। 
जब यज्ञ प्रारंभ किया गया था, तब उसे अधिक लंबी अवधि तक चलाने की आवश्यकता नहीं दीखती थी। महर्षि उसके संरक्षणार्थ अरुंधती सहित अयोध्या से वहाँ चले गए। अपनी अनुपस्थिति की अवधि के लिए अयोध्याके तंत्र को आवश्यक निर्देश आदि भी दे गए थे। परंतु उपयोगिता तथा जन उत्साह के कारण यज्ञ की अवधि बढ़ती गई। ऋषि को अयोध्या की चिंता हुई । उन्होंने श्रीराम को एक व्यक्तिगत संदेश लिखा- 
जामातृयज्ञेन वयं निरुद्धा:, त्वं बाल एवाऽसि नवं च राज्यम्।  युक्तं प्रजानामनुरंजनेस्याः, तस्माद् यश: यत्परमं धन व: ।। 
अर्थात् - '' हम जामातृ के यज्ञ में रुककर रह गए हैं। तुम बालक जैसे ही हो और राज्य नया- नया है। प्रजा के कल्याण का विशेष ध्यान रखना, उससे युक्त रहना। उसी में तुम्हारा यश है और हमारे लिए वही परं- सर्वश्रेष्ठ संपत्ति है।'' 
ऋषि विकल हैं, राम भले ही लंका विजय करके आए हैं, किन्तु लोकमंगल के प्रयोगों का उन्हें अनुभव नहीं है। इसलिए ऋषि उन्हें बालकवत् मान रहे हैं । ऋषि को ऐसा मानने का अधिकार भी है। एक तो व्यवस्था करने वाला अनुभवहीन तथा नई- नई व्यवस्था। एक बार ढर्रा घूम जाए, तो फिर चलने को, तो कोई भी चलाता रह सकता है, पर नए तंत्र में तो पग- पग पर विवेकपूर्ण, अनुभवसिद्ध निर्णय लेने पड़ते हैं। इस स्थिति का सही विवेचन करते हुए, ऋषि श्रीराम को स्नेह भरा निर्देश देते हैं कि प्रजा के हित के सतत् जुड़े रहना। उसे ही वे अपनी प्रधान संपत्ति मानते हैं। तंत्र को प्रजा के हित की चिंता हो, तथा प्रजा को तंत्र पर विश्वास हो, यही आदर्श समाज व्यवस्था के लिए सबसे प्रमुख आधार है। 
भगवान् राम ने महर्षि का संदेश पढ़ा। विचार किया, '' ऋषि ने आदेश दिया है कि लोक कल्याण से युक्त रहना। '' व्यक्ति अपने प्रधान कर्तव्य से दूर क्यों, कैसे हट जाता हैं ? इस प्रश्न पर विचार किया, तो एक ही उत्तर मिला,'' अपने प्रियजनों या प्रिय विषयों के मोह में ही व्यक्ति अपने कर्तव्यों को भूलता है। '' मर्यादा पुरुषोत्तम ने ऋषि के संकेत को अपना जीवन सूत्र माना और उसके अनुसार अपनेअंतः करण को संस्कारित करने का संकल्प करते हुए, उन्हें आश्वासन भरा उत्तर लिखा-  स्नेहं दया च  सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि।  आराधनाय लोकस्य, मुञ्चतो नाऽस्मि मे व्यथा ।। 
अर्थात्-  '' लोक आराधना के लिए यदि मुझे स्नेह, दया, सुख यहाँ तक कि जानकी जी का भी त्याग करना पड़ जाय, तो भी मुझे व्यथा नहीं होगी। '' 
व्यक्तिगत स्नेह, दया जैसी संपदाओं का भी मोह नहीं, सुखाकांक्षा भी नहीं। जानकी जी, जिनके लिए वे काल से भी जूझ गए, उन्हें भी लोक आराधना यज्ञ में आहुति की तरह प्रयुक्त करने में मन को असमंजस में पड़ने की छूट नहीं दी गई। यह मात्र कथन नहीं, कहने को तो लोग क्या- क्या नहीं कह जाते, पर करते समय स्थिति दीनों जैसी हो जाती है। परंतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपनी कथनी को यथावत् क्रियान्वित करके भी दिखा दिया।  
वास्तव में रामराज्य जैसी आदर्श व्यवस्था अन्य किसी संस्कृति में संभव नहीं। वशिष्ठ जैसे तत्वज्ञ, निस्पृह ऋषि स्तर के विचारक उसके लिए व्याकुल होकर जागरूकता से मार्गदर्शन करें तथा राम जैसे चरित्रनिष्ठ, मनोबल संपन्न ,आदर्शवादी व्यवस्थापक उनके निर्देशों को क्रियान्वित करने के लिए कटिबद्ध हों तभी वह स्वप्न साकार हो सकता है। 
सत्रं सांस्कृतिकं चैतत् द्वितीयमेव पूर्ववत्।  सोल्लासं पूर्णतां यातं सानन्दामाश्रमे शुभे  ।। ९४ ।। घोषणायां समाप्तेश्च श्रोतारः सर्व एव ते।  परस्परं नमन्तश्च यथाकालं यथाऽऽगतम् ।। ९५ ।।  नित्यकृत्यानि कुर्त्तुं तु गता उत्साह   संयुताः।  दृढसाहससंकल्पा विधिकालानुयायिनः ।। ९६ ।।
भावार्थ -  दूसरे दिन का संस्कृति सत्र प्रथम दिन की भाँति बड़े आनंद- उल्लास के वातावरण में समाप्त हुआ। समापन की घोषणा होने पर सभी नमन- वंदनपूर्वक अपने नियत कृत्यों को यथासमय यथावत् करने के लिए चले गए। उनका उत्साह बढ़ा हुआ था। साहस एवं संकल्प में दृढ़ता प्रतीत होती थी। वे समय का मूल्य एवं उचित प्रक्रियाओं के महत्त्व को समझ चुके थे ।। ९४ - ९६ ।। 
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे देवसंस्कृतिखण्डे ब्रह्मविद्याऽ ऽत्मविद्ययो:, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयोः, श्रीकात्यायन ऋषि प्रतिपादिते '' वर्णाश्रम धर्म,'' इति प्रकरणो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।। 
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