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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4

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।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -6

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पुलस्त्य उवाच- 
बोध्यतां स उपायो नो देव ! विद्यालये तु यः ।  अतिरिक्ततयाऽधोतेर्विद्यालाभाय युज्यते ।। २८ ।।  उच्चां शिक्षां समासाद्य केवलं  नैतिकोsपि  तु।  नर: श्रद्धास्पदं स्थानं श्रेयसामधिकारिताम्  ।। २९ ।।  उपायास्ते विबोध्या नो यैः स्युः सर्वा हि व्यक्तयः।  नृपशुत्वपिशाचत्वप्राप्तेर्वै रक्षिता: स्वयम्  ।। ३० ।।  नरनारायणत्वं   वा   नरत्वं  प्रापितुं   भवेत् ।  संभवं येन सिद्ध्येच्च ' जीवो ब्रह्मै व  नापर:' ।। ३१ ।। 
भावार्थ - लोकमंगल की कामना से विद्या के धनी ऋषिवर पुलस्त्य ने महर्षि कात्यायन से पूछा- '' हे देव ! वह उपाय बताइए, जिन्हें पाठशाला में अध्यापन कृत्य के अतिरिक्त भी विद्यालाभ करने के लिए प्रयोग में लाना पड़ता है। मात्र उच्च शिक्षा प्राप्त करने भर से ही किसी को श्रद्धास्पद श्रेयाधिकारी बनने का अवसर नहीं मिलता, अतः कृपया उन प्रयोगों को बताएँ जिनके माध्यम से व्यक्ति को नर- पशु और नर- पिशाच बनने से रोका जा सके, नर- मानव और नर- नारायण के स्तर तक पहुँचाया जा सके, जिससे 'जीव ब्रह्म है', यह सिद्धांत व्यावहारिक रूप से सिद्ध हो जाय ।। २७- ३१ ।। 
कात्यायन उवाच-  दैवे तु समुदायेऽयं मनुष्योऽनेकशस्त्विह।  सुंसंस्कारयुतो नूनं क्रियते वृद्धिकाम्यया  ।। ३२ ।।  ताप्यते मानवो मध्ये प्रयोगाणां स ईदृशामृ ।  अत्र षोडश वारं तु नश्येयुर्येन सञ्चिताः  ।। ३३ ।। संस्कारा दूषिता दैववैशिष्ट्यस्याङ्कुराश्च ते।  उत्पद्येरन् मनुष्योऽयं देवत्वं यातु येन च ।। ३४ ।। संस्काराणां तथा धर्मानुष्ठानां च विद्यते।  उपचारविधिः सर्वमान्यो लोके महत्ववान् ।। ३५ ।।
भावार्थ- कात्यायन बोले- हे विद्वत्श्रेष्ठ ! देव समुदाय में मनुष्य को बार- बार सुसंस्कारित किया जाता है हर व्यक्ति को सोलह बार ऐसे प्रयोगों के मध्य तपाया जाता है, जिनसे उनके संचित कुसंस्कार नष्ट हो सकें और दैवी विशेषताओं के अंकुर उग सकें जिससे मनुष्य देवता बन सके। इसके लिए संस्कार धर्मानुष्ठानों के उपचार की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया सर्वविदित है ।।३२-३१ ।। 
व्याख्या- देव संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है, जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव जीवन को सार्थक बनाने हेतु सरकारों द्वारा सतत शोधन एवं आत्मसत्ता के अभिवर्द्धन की अभिनव व्यवस्था। यह उस विद्यारूपी विभूति की विधा है, जो गुरुकुल शिक्षण प्रणाली का अंग रही है। संस्कृति के अंतर्गत जीवन क्रम में इन्हें इस प्रकार समाविष्ट कर दिया गया कि यथा समय वांछित श्रेष्ठ संस्कार व्यक्ति को स्वयमेव मिलते रहें। वेदांत की '' एकोऽहं द्वितीयो नास्ति'', '' अयमात्मा ब्रह्म'' वाली मान्यता ऋषियों को इसी प्रतिपादन हेतु प्रेरित करती रही है कि व्यक्ति, जो अनगढ़ पशु के रूप में जन्मता है, सुसंस्कारों द्वारा देवमानव के रूप में  पदोन्नत किया जा सकता है। 
आयुर्वेद- रसायनें बनाने की अवधि में उन पर कितने ही संस्कार डाले जाते हैं। कई बार कई प्रकार के रसों में उन्हें खरल किया जाता है और कई बार उन्हें गजपुट द्वारा अग्नि में तपाया जाता है तब कहीं वह रसायन ठीक तरह तैयार होता है और साधारण सी राँगा, जस्ता, ताँबा, लोहा , अभ्रक जैसी कम महत्त्व की धातु चमत्कारिक शक्ति संपन्न बन जाती है। ठीक इसी तरह मनुष्य को भी समय- समय पर विभिन्न आध्यात्मिक उपचारों द्वारा सुसंस्कृत बनाने की महत्त्वपूर्ण पद्धति भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने विकसित की थी। उसका परिपूर्ण लाभ उस देशवासियों से हजारों- लाखों वर्षों से उठाया है। यों किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने के लिए शिक्षा, सत्संग, वातावरण परिस्थिति, सूझबूझ आदि अनेक बातों की आवश्यकता होती है। सामान्यतः ऐसे ही माध्यमों से लोगों की मनोभूमि विकसित होती है। इसके अतिरिक्त भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने मनुष्य की अंत: भूमि को श्रेष्ठता की दिशा में विकसित करने के लिए कुछ ऐसे सूक्ष्म उपचारों का भी आविष्कार किया है, जिनका प्रभाव शरीर तथा मन पर ही नहीं शुक्ष्म अंतःकरण पर भी पड़ता है और उसके प्रभाव से मनुष्य को गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से समुन्नत स्तर की ओर उठने में सहायता मिलती है। 
मानव जीवन को पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने वाले आध्यात्मिक उपचार का नाम 'संस्कार' है। महर्षि पाणिनि के अनुसार इस शब्द के तीन अर्थ हैं- (१) उत्कर्ष करने वाला (उत्कर्षसाधनं संस्कार:), (२) समवाय अथवा संघात और (३) आभूषण। प्रत्येक मनुष्य जन्म के साथ कुछ गुण- अवगुण लेकर पैदा होता है। उस पर पूर्वजन्मों के विविध संस्कार छाए रहते हैं। वृद्धि के साथ उस पर नए- नए संस्कार भी पड़ते रहते हैं। अतः पुराने संस्कारों को प्रभावित करके उनमें परिवर्तन, परिवर्धन अथवा उनका उन्मूलन करना, प्रतिकूल संस्कारों को विनष्ट कर अनुकूल संस्कारों का निर्माण करने का विधान ही 'संस्कार पद्धति' कहलाता है। देव संस्कृति के अनुसार संस्कार १६ प्रकार के हैं, जिन्हें 'षोड़श संस्कार' कहते हैं। माता के गर्भ में आने के दिन से लेकर मृत्यु तक की अवधि में समय- समय पर प्रत्येक देव संस्कृति के आराधक को १६ बार संस्कारित करके, उसे देव मानव स्तर तक जा पहुँचने की प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष प्रभावी प्रेरणा दी जाती है। यह संस्कार पद्धति सूक्ष्म अध्यात्म विज्ञान की अतीव प्रेरणाप्रद प्रक्रिया पर अवलंबित है। ऋषियों ने अपनी आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक शोधों के आधार पर इस पुण्य- प्रक्रिया का निर्माण किया है। 
संस्कारों की गति- परिणित 
संस्कार बीज रूप ही होते हैं, जो सुपात्र व्यक्ति में सही वातावरण पाकर फलित होते हैं। ईसा मसीह ने उस दिन का प्रवचन यों आरंभ किया- '' एक किसान ने जौ बोए। कुछ दाने पगडंडी पर गिरे और तुरंत उन्हें चिड़ियाँ चुग गईं। कुछ गिरे पथरीली भूमि पर, जहाँ मिट्टी की परत बहुत पतली थी। ये बीज अंकुरित तो हुए, पर धूप में जल्दी झुलस भी गए, क्योंकि उनकी जड़ें गहरी न थीं। कुछ दाने कँटीली झाड़ी में गिरे, जहाँ काँटों ने उनके अंकुरों को दबा डाला। कुछ भाग्यवान् बीज अच्छी मिट्टी में गिरे, अंकुरित- पल्लवित हुए। समझे ?'' फिर उन्होंने रूपक का यों खुलासा किया कि धर्म- वचनों की गति भी जौ के इन दोनों जैसी होती है और केवल संस्कारवान् आत्मभूमि में पड़ा धर्म- वचन फल देता है। 
संकल्प का शुभ परिणाम 
संस्कार का अर्थ होता है- श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ने हेतु लिया गया छोटी- सा संकल्प। किसी साहूकार का लड़का बड़ा भ्रष्ट हो गया था। उसे मदिरा पीने, मांस खाने व वेश्यावृत्ति की आदत लग चुकी थी। साहूकार अपने बेटे की इस करतूत से बहुत चिंतित रहा करता था। एक दिन साहूकार के गुरुजी उनके गृह पर पधारे। साहूकार ने अपनी व्यथा गुरुजी से कह सुनाई। गुरुजी ने लड़के को उनके पास भेज देने के लिए कहा। साहूकार ने अपने लड़के को भोजन लेकर गुरुजी के पास जाने को कहा।
साहूकार का लड़का गुरुजी के पास भोजन लेकर पहुँचा और उन्हें भोजन कर लेने का आग्रह किया। परंतु गुरुजी ने बिना दक्षिणा प्राप्त किए भोजन करने से इन्कार कर दिया। लड़का एक हजार रुपया दक्षिणा में देने को तैयार हो गया। परंतु गुरुजी ने कहा- '' यह धन तुम्हारे पिता का है, जो वस्तु तुम्हारी हो, वही दक्षिणा में दे दो। एक झूठ बोलना ही तुम्हारा अपना जान पड़ता है, अतः यह हमें दान कर दो। '' लड़के ने झूठ को गुरुजी को दक्षिणा में दे दिया और संकल्प लिया कि इसे फिर कभी नहीं अपनाऊँगा। 
अगले दिन लड़का जब वेश्या से मिलने चला, तो रास्ते में एक मित्र से मुलाकात हो गई।मित्र ने पूछा- '' कहाँ जा रहे हो ?'' अब तो लड़के को कोई उत्तर देते नहीं बन रहा था, अतः वह लज्जित होकर घर की ओर चल पड़ा। धीरे- धीरे उसकी सारी बुराइयाँ ऐसी ही घटनाओं के कारण नष्ट होती चली गई और वह एक सभ्य मानव के रूप में परिणत हो गया। 
बीज छोटा- वृक्ष बड़ा
छोटी- छोटी बातें प्रारंभ में भले ही नगण्य- सी लगें,अंततः वे विशाल रूप ले लेती हैं , तो वास्तविकता का अनुभव होता है। 
न्यूटन ने एक बाग में बैठकर सेव को पेड़ से टपकते हुए ही तो देखा था। इस साधारण सी घटना ने उन्हें गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का पता लगाने की प्रेरणा दी और वे इसमें सफल भी हुए। जेम्स वाट ने रसोई घर में चाय की केतली के ढक्कन को उठती भाप से खड़- खड़ करते हुए ही देखा था और इस छोटी- सी बात ने उन्हें भाप की शक्ति के संबंध में और अधिक जानने के लिए प्रेरित किया था। इस छोटी सी घटना से प्रेरणा लेकर ही जेम्स वाट ने रेल के इंजिन का आविष्कार किया। पेड़ - पौधों में भी प्राण होते हैं, यह पता लगाने की प्रेरणा जगदीशचंद्र वसु को एक छोटी- सी घटना से मिली थी। हुआ यह था कि बचपन में वे शाम के समय एक पेड़ पर चढ़कर उछल- कूद मचा रहे थे। माँ ने मना किया था शाम के समय पेड़ों को तंग मत करो, उनके सोने का वक्त हो गया है। माँ की इसी सिखावन ने उन्हें इतना मथ डाला कि वे सोचने लगे, क्या सचमुच पेडू- पौधों में भी प्राण होते हैं ? यह छोटा- सा प्रश्न बीज ही आगे चलकर विकसित वनस्पति विज्ञान की नींव रख गया। 
ऐसा शहद भी कड़वा 
एक छैल- छबीला आदमी शहद बेचा करता था। उसकी वाणी में इतनी मिठास थी, कि खरीददार उस पर मक्खी की तरह टूट पड़ते थे। एक बदमिजाज आदमी ने उसे देखा और डाह करने लगा। उसने सोचा, क्यों न मैं भी यही धंधा कर लूँ। दूसरे दिन वह भी शहद का मटका सिर पर रखकर घर से निकल पड़ा। आदत के अनुसार माथे पर त्यौरियाँ पड़ी हुई थीं। वह ध्यान से दरवाजों की ओर देखता कि शायद कोई मुझे पुकार न रहा हो, पर ज्यों ही उसकी नजर किसी औरत या मर्द से टकरा जाती, उसे देखने वाला मुँह फेर लेता। 
शहद बेचने वाला परेशान था। वह दिन भर चिल्ला- चिल्लाकर आवाजें देता रहा-  '' शहद ले लो शहद। '' उसकी आवाज इतनी तीखी थी कि सुनने वालों के दिल में घिन पैदा कर रही थी। सारा दिन शहद का मटका लिए- लिए भटकता रहा। आखिर थक कर चूर हो गया फिर उसने घर की राह ली। घर में बीबी उसकी सूरत देख कर सारा किस्सा भाँप गई और हँसी करती हुई बोली-'' बदमिजाज का शहद भी कड़वा होता है, मियाँ !  अगर तुम्हारे पास सोना- चाँदी नहीं, तो क्या- तुम अपनी वाणी में मिठास भी पैदा नहीं कर सकते ?'' 
व्यक्ति- व्यक्ति में पाया जाने वाला यह अंतर अंतः की सुसंस्कारिता के कारण ही है । 
बूँदों की परिणित 
एक बार स्वयं को प्रत्यावर्तन हेतु प्रस्तुत किया जाय, तो परिणति स्वयं देखने को मिलती है। तब प्रारंभिक अनख पर दुःख होता है। 
समुद्र खौलाया जाने लगा, तो डरी- सहमी जल की बूँदें विधाता के पास जाकर कहने लगीं- '' पितामह ! हमें कष्ट क्यों देते हो, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?'' विधाता ने बहुतेरा समझाया-'' बूँदी ! तुम आकाश में उड़ोगी। जहाँ बरसोगी वहीं हरियाली फूटेगी और संसार को प्रसन्नता मिलेगी। '' पर यह उपदेश बूँदों को अच्छा न लगा। वे लौटीं तो, पर विधाता को गालियाँ ही देती रहीं। 
समुद्र ने जल की बूँदों को आकाश में फेंक दिया, फिर वे धरती पर गिरीं और बहते- बहते फिर समुद्र में जा पहुँचीं, तब उन्हें पता चला कि हम तो व्यर्थ ही डरते रहे, हमारा तो कुछ भी नहीं बिगड़ा। इतने सुंदर दृश्य देखने और विश्व भ्रमण का सौभाग्य मिला सो अलग। 
उधर स्वाति नक्षत्र आ गया, तो बूँदें एक बार फिर उमड़ीं, इस बार उनमें न भय था, न उद्वेग। हँसती खिलखिलाती बूँदें आकाश में झरने लगीं, कोई बाँस में गिरी, तो वंशलोचन बन गई, कोई कदली में गिरी, तो कपूर और कोई सीपी के मुख में गिरी, तो मोती बन गई।
बूँदें अपने इस सौभाग्य पर प्रसन्न हो रही थीं , तब विधाता विचार कर रहे थे कि मनुष्य भी संकट और साधनाओं से विचलित न होता, तो आज वह भी बूँदों के समान वंशलोचन, कपूर और मोती बन गया होता। 
तप अनिवार्य  
संस्कारों से तात्पर्य है, व्यक्ति के परिशोधन- परिष्कार हेतु अपने प्रति कड़ाई से बरती गई तपश्चर्या। राजकुमार रघु, गुरु वशिष्ठ के आश्रम में विद्याध्ययन कर रहे थे। उन्होंने ऋग्वेद का सूत्र सुना '' अतप्ततनूर्नतदामो अश्नुते '' अर्थात् जिसने शरीर से तप नहीं किया उसे सुख प्राप्त नहीं होता। 
स्वयं अपने चिंतन में सूत्र स्पष्ट न हुआ, तो गुरुदेव से पूछा- '' प्रभो ! तप से ओजस् की वृद्धि, प्रवृत्तियों का शोधन, दोषों का नाश आदि तो समझ में आते हैं, सांसारिक सुख उससे कैसे मिलते हैं ? तपस्वी को सांसारिक दृष्टि से तो कष्ट साध्य जीवन ही जीना होता है। '' 
महर्षि ने स्पष्ट किया, कहा- '' वत्स ! तप के कई पक्ष हैं। श्रम, व्यायाम, संयम, विद्याध्ययन आदि भी तप हैं। जो श्रम एवं व्यायाम के तप से बचेगा, आरोग्य और स्वास्थ्य कैसे पा सकेगा और उसके बिना कौन सुखी हो सका है ? संयम और अध्ययन द्वारा जिसने अपनी शक्तियों का, ज्ञान का विकास नहीं किया, वह संसार की दौड़ में पिछड़ जाएगा। पिछड़ा हुआ व्यक्ति कब सुखी देखा गया है ? अस्तु, वास्तविक सुख के लिए भी तप आवश्यक है। '' 
दिल छुप नहीं सकता 
व्यक्ति धर्मोपदेशक हों अथवा विद्वान्- मनीषी, वह अपने आपको कितना तपा सका, इस पर उसकी आंतरिक वरिष्ठता निर्भर है।  
संत राबिया जंगल में तप कर रही थीं। पशु- पक्षी उसके इर्द-गिर्द बैठे हँस- खेल रहे थे। '' 
हसन उधर से निकले, उन्हें भी पहुंचा हुआ संत माना जाता था। 
हसन जैसे ही राबिया के नजदीक पहुँचे, सारे पशु- पक्षी उन्हें देखते ही भाग खड़े हुए। 
उन्हें अचम्भा हुआ और राबिया से पूछा-'' जानवर- परिंदे तुमसे लिपटे रहते हैं और मुझे देखकर भागते हैं, इसकी वजह ? '' 
राबिया ने पूछा- '' आप खाते क्या हैं ?'' हसन ने कहा-'' आमतौर से गोश्त ही खाने को मिलता है। '' 
राबिया हँस पड़ी। लोग आपको जो भी समझें उनकी मर्जी। पर आपका दिल कैसा है , उसे यह नासमझ जानवर अच्छी तरह जानते हैं। 
संस्कारों में इसीलिए संयम पर अत्यधिक, विशेषकर आहार पर ध्यान दिए जाने की अपेक्षा की जाती है। 
तत्र  पुंसवनं  नामकरणमन्नप्राशनम्।  मुण्डनं चाऽपि दीक्षा च विद्याऽभ्यासस्तथैवं च ।। ३६।।  यज्ञोपवीतसंस्कार पाणिग्रहणमेव च । वानप्रस्थो  विवाहस्य जन्मनश्च दिनोत्सवौ ।। ३७।।  ससमारम्भमेते चेत् संस्कारा  विहितास्ततः।  व्यक्तिभ्यः परिवाराय समाजायाऽपि प्रेरणा ।। ३८ ।।  सुसंस्कारसमृद्धयर्थं मिलत्येव शुभावहा।  क्रमेणाऽनेन भाव्यं च यथावंशपरम्पराम् ।। ३९ ।।  व्यवस्था कर्मकाण्डस्य विधेर्मन्त्रविधेस्तथा।  एवं स्याच्च यथा तत्र  स्याद्धि वातावृतौ शुभः ।।४० ।।  संचार: प्रेरणायास्तु सर्वमेतच्च मन्यते ।  तां  चोपचरितुं युंक्तं भावनायाः  प्रगल्भताम्  ।। ४१ ।। 
भावार्थ - पुंसवन, नामकरण , मुंडन विद्यारम्भ, दीक्षा,उपनयन , विवाह, वानप्रस्थ, जन्मदिवसोत्सव, विवाह दिवसोत्सव आदि संस्कारों को समारोह पूर्वुक करने से व्यक्ति, परिवार समाज को सुसंस्कारिता संवर्द्धन की शिक्षा- प्रेरणा मिलती है- यह क्रम वंश परंपरा के साथ सदा चलना चाहिए। इन कृत्यों के कर्मकांड की विधि-व्यवस्था एवं मंत्र प्रक्रिया ऐसी हो जो उपस्थित वातावरण में उपयोगी प्रेरणा का संचार करे। उन्हें भावना क्षेत्र की प्रगल्भता के लिए समर्थ उपचार माना गया है ।।३६-४१।।
व्याख्या- हमारी प्राचीन महत्ता एवं गौरव- गरिमा को गगनचुंबी बनाने में जिन अनेक सत्प्रवृत्तियों को श्रेय मिला था, उसमें एक बहुत बड़ा कारण यहाँ की संस्कार पद्धति को भी माना जाता है। यह पद्धति सूक्ष्म अध्यात्म विज्ञान की अतीव प्रेरणाप्रद प्रक्रिया पर अवलंबित है। वेद मंत्रों के सस्वर उच्चारण से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंगें, यज्ञीय ऊष्मा के साथ संबद्ध होकर एक अलौकिक वातावरण प्रस्तुत करती है। जो भी व्यक्ति इस वातावरण में होते हैं या जिनके लिए उस पुण्य प्रक्रिया का प्रयोग होता है वे उससे प्रभावित होते हैं। यह प्रभाव ऐसे परिणाम उत्पन्न करता है, जिससे व्यक्तियों के गुण, कर्म, स्वभाव आदि की अनेक विशेषताएँ प्रस्फुटित होती हैं। संस्कारों की प्रक्रिया एक ऐसी आध्यात्मिक उपचार पद्धति है, जिसका परिणाम व्यर्थ नहीं जाने पाता। व्यक्तित्व के विकास में इन उपचारों से आश्चर्यजनक सहायता मिलती देखी जाती है। 
संस्कार में जो विधि- विधान हैं, उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव मनुष्य को सन्मार्गगामी होने के उप्युक्त बनाता है। संस्कार के मंत्रों में अनेक ऐसी दिशाएँ भरी पड़ी हैं जो उन परिस्थितियों के लिए प्रत्येक दृष्टि से उपयोगी हैं। पुंसवन  संस्कार के समय उच्चारण किए जाने वाले मंत्रों में गर्भवती के रहन- सहन, आहार- विहार संबंधी महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण मौजूद हैं। इस प्रकार विवाह में दांपत्य जीवन की, अन्नप्राशन में भोजन- छाजन की, वानप्रस्थ में सेवापरायण जीवन की आवश्यक शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। उन्हें यदि कोई प्रभावशाली वक्ता ठीक ढ़ग से समझाकर संस्कार के समय उपस्थित लोगों को बता सके, तो जिनका संस्कार से संबंध है, उन्हीं को नहीं, वरन् दूसरे सुनने वाले लोगों को भी इस संदेश से आवश्यक कर्तव्यों का ज्ञान हो सकता है और वे भी जीवन को उचित दिशा में ढालने के लिए तत्पर हो सकते हैं। 
वस्तुतः हर्षोत्सव के वातावरण में देवशक्तियों की साक्षी, अग्निदेव के सान्निध्य, धर्मभावना से अनुप्राणित वातावरण, स्वजनों की उपस्थिति एवं भक्ति सिक्त कर्मकाण्ड- ये सब मिल- जुलकर सरकारों से संबद्ध व्यक्ति को एक विशेष मनोभूमि में पहुँचा देते हैं। उस समय ली गई प्रतिज्ञा मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती व व्यक्ति का कायाकल्प कर देती है। 
आवश्यक संस्कारों का स्वरूप 
एक बार महर्षि दयानंद से एक सत्संग सभा में बौद्ध आचार्य ने पूछा-''  महर्षि ! पुरातन काल में षोडश संस्कारों का प्रचलन था। अब समय देखते हुए उन्हें कम किया जाना चाहिए, ताकि व्यस्तता और निर्धनता से ग्रस्त लोग भी उनका निर्वाह कर सकें। '' 
स्वामी जी बोले '' तात् ! षोडश संस्कारों में से १० प्रधान हैं। इन्हें संपन्न किया जा सके, तो उत्तम हैं। इन्हें निरर्थक नहीं माना जाना चाहिए। आपकी जिज्ञासा के समाधान के लिए मैं उन दस का वर्णन कुरता हूँ। '' 
(१) पुंसवन- गर्भधारण के तीन महीने उपरांत जिसमें गर्भवती तथा उसके परिवार को नवागंतुक शिशु को सुविकसित बनाने के लिए आवश्यक कर्तव्यों की जानकारी दी जा सके । (२) नामकरण- नाम अनगढ़ न रखें जाँयें। व्यक्ति की गरिमा का उद्बोधन कराने वाले नाम चुने जाँयें। उसका बार- बार उच्चारण सुनकर बालक अपने संबंध में मान्यता निर्माण करता है। (३) अन्नप्राशन- बालकों का आहार- विहार संबंधी शिक्षण। (४) मुण्डन- बाल उतारना और मानसिक विकास की, गुण- कर्म- स्वाभाव की भूमिका संपन्न करने की विद्या। नाक, कान, छेदन का प्रचलन बंद करना चाहिए। यह असभ्यता का चिह्न है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी। (५) विद्यारंभ- शिक्षा का आरंभ । (६) उपनयन- यज्ञोपवीत धारण। उनके माध्यम से नौ सद्गुणों का महत्त्व समझना और उनके निर्वाह का स्मृति चिह्न के आधार पर ध्यान रखना। यही गुरु मंत्र गायत्री की दीक्षा भी है।(७) विवाह- उपयुक्त साथी का, उपयुक्त आयु में चयन। बिना प्रदर्शन और अपव्यय के सात्विक वातावरण में जीवन यज्ञ बनाने वाले इस धर्म कृत्य का किया जाना। पिता के अनुदान को विशुद्ध स्त्री धन समझा जाना। ( ८) वानप्रस्थ- ढलती आयु से शेष जीवन को परमार्थ प्रधान बनाना। साधना और सेवा की, जीवनचर्या में अभिवृद्धि करना ।(९) अन्त्येष्टि- जीवन की नश्वरता और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग के लिए उपस्थित जनों को बोध कराना। (१०) श्राद्ध- तेरहवें दिन मृतक की छोडी़ हुई संपदा का उपयुक्त भाग परमार्थ प्रयोजनों के लिए समर्पित करके मृतात्मा की सद्गति का द्वार खोलना।
यह दस संस्कार करने से भी इन दिनों काम चल सकता है। इन दस के अतिरिक्त जन्मदिवसोत्सव और विवाहदिवसोत्सव हर वर्ष मनाए जाते हैं। 
रामचरितमानस में संस्कार व्यवस्था 
दशरथ जी के परिवार में सभी संस्कार श्रद्धापूर्वक संपन्न किए जाते थे। रामायण में उल्लेख मिलता है। शिशु जन्म के समय नंदीमुख श्राद्ध की परिपाटी है। सत्कार्यों के लिए दानादि द्वारा बालक के चारों ओर श्रेष्ठ वातावरण बनाया जाता है। 
नंदीमुख सराध करि, जात करम सब कीन्ह। हाटक धेनु बसनं मनि नृप बिप्रन्ह कहँ  दीन्ह ।। 
गर्भधारण के पूर्व से ही यज्ञीय संस्कारों का तारतम्य बनाया जाता है। जन्म के बाद क्रमशः अन्य संस्कार भी कराए जाते हैं- नामकरण कर अवसर जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी।  
'' राजा ने जब देखा कि नामकरण संस्कार का समय आ गया, तब ज्ञानवान् मुनि श्री वशिष्ठ जी को बुलाया। '' नामकरण के बाद बच्चे के मस्तिष्क के विकास तथा भारतीय संस्कृति की प्रतीक शिखा स्थापन के लिए चूड़ा़ कर्म (मुंडन) संस्कार किया जाता है। चारों भाइयों का यह संस्कार भी कराया गया। 
चूड़ाकरण कीन्ह गुरु जाई। विप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ।।  
'' तब गुरु वशिष्ठ ने पहुँच कर चूड़ा कर्म संस्कार संपन्न कराया। उसके पश्चात् ब्राह्मणों को दक्षिणा दी गई। '' माता- पिता के अतिरिक्त गुरु भी इस दिशा में सतर्क रहते थे। अपने शिष्यों को सही दिशा और प्रेरणा अपनी ओर से देते रहते थे। 
इस संस्कार श्रृंखला में यज्ञोपवीत संस्कार बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इसको दूसरा जन्म कहा जाता है। व्यक्ति मनुष्य शरीर के अनुरूप दिव्य जीवनयापन करने के व्रतों से स्वयं को बाँध लेता है। इस संदर्भ में माता- पिता, गुरु सभी पूर्ण सावधान रहते हैं। 
भए कुमार जबहिं सब भ्राता । दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ।। 
'' जब चारों भाई बड़े हो गए, तभी गुरु, माता और पिता ने उन सबका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। '' जब इन संस्कारों के माध्यम से महान् बनने की प्रबल आकांक्षा जाग उठती है, तब विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। गुरु गृह गए पढ़न रघुराई । अल्प काल विद्या सब आई ।। विवाह व्यक्ति के सामाजिक जीवन में प्रवेश का संस्कार है। इसे केवल समारोह के रूप में नहीं, संस्कार के उपयुक्त वातावरण में किया जाना चाहिए । चारों भाइयों के विवाह इसी ढंग से हुए। 
बर कुँअरि करतल जोरि साखौचार दोउ कुलगुर करें। भयो पानिगहनु बिलोकि विधि सुर मनुज मुनि आनन्द भरैं ।।
आयु के अनुसार वानप्रस्थ ग्रहण करने का नियम। दशरथ जी ने दर्पण में देखा कि कान के पास बाल सफेद हो गए हैं, अर्थात् बुढ़ापे का संदेश आ गया। ढलती आयु में घर के समर्थ बच्चों को उत्तराधिकार देकर स्वयं वानप्रस्थ में प्रवेश करना चाहिए, ऐसा उन्होंने निश्चय किया। तदनुसार राम को युवराज घोषित करने की तैयारी आरंभ कर दी गई। ढलती आयु में भी जो मोहवश घर में ही घुसे रहते हैं, तप का मार्ग छोड़ कर लोभ- मोह से ग्रसित रहते हैं, उनकी स्थिति पर क्षोभ, रोष, असंतोष व्यक्त करते हुए रामायण कहती है- 
बैखानस सोइ सोचइ जोगू। तप बिहाइ जेहि भावइ भोगू ।। 
असुर पत्नी मन्दोदरी भी अपने पति रावण तक को वानप्रस्थ के लिए प्रोत्साहित करती है। 
संत कहहिं अस नीति दशानन। चौथेपन जाइअ नृप कानन ।।
इसी महान् लक्ष्य को सामने रखकर स्वयंभू मनु अपने पुत्रों को जबर्दस्ती राज्य सौंपकर गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर वानप्रस्थ में प्रवेश करते हैं। बरबस राज सुतहिं तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा ।।
भारतीय संस्कृति यज्ञीय जीवनक्रम की शिक्षा देती है। मृत्यु के पश्चात् शरीर को भी यज्ञार्पण करके अंत्येष्टि संस्कार किया जाता है। राजा दशरथ के देहांत पर भरत ने सारे कृत्य किए। 
एहि बिधि दाह क्रिया सबु कीन्हीं। विधिवत न्हाइ तिलाञ्जलि दीन्हीं ।।
चित्रकूट में श्रीराम ने भी इसी मर्यादा का पालन किया। 
कच्चे धागे की परिपक्वता 
पिता ने स्वयं यज्ञोपवीत कराया। विद्वान् पिता के विवेकवान् पुत्र ने पूछा- '' पिताजी ! यह कच्चे धागे गले में डालने का क्या मतलब ?'' पिता बोला ? '' मनुष्य जीवन को विवेक से बाँधकर रखा जाए, ताकि मनुष्य सांसारिक आकर्षणों में ही उलझकर न रह जाए, वरन् अपना पारमार्थिक लक्ष्य भी पूरा करने के लिए सजग रहे। '' जिसका यज्ञोपवीत धारण सार्थक हुआ, यही बालक आगे चलकर जगद्गुरु शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुआ। 
पुंसवन संस्कार
गर्भावस्था में किए जाने वाले पुंसवन संस्कार की अपनी वैज्ञानिक महत्ता है। 
गर्भिणी की मनःस्थिति पर ही बालक का स्वास्थ्य निर्भर होता है। एक स्त्री अपने बच्चे को नशीली औषधि देकर किसी आवश्यक कार्य से बाहर चली गई। लौटने पर वह बच्चा मरा पाया। स्त्री को इससे बहुत दुःख हुआ और वह शोकमग्न रहने लगी। उसी अवस्था में उसने दूसरी बार गर्भ धारण किया। पहले बच्चे के प्रति उसका शोक ज्यों का त्यों बना रहा, इसलिए दूसरा लड़का रोगी हुआ। दूसरे वर्ष ही उसकी मस्तिष्क रोग से मृत्यु हो गई। अब वह और दुःखी रहने लगी। इस अवस्था में तीसरा पुत्र हुआ, वह हठी, सुस्त और कमजोर हुआ। दाँत निकलते समय उसकी भी मृत्यु हो गई। चौथा पुत्र भी ऐसे ही गया। किंतु पाँचवीं बार उसने इस महाविपदा से छूटने और सुसंस्कारी और स्वस्थ बालक जनने का संकल्प लिया और पुंसवन संस्कार कराया। उसकी परिस्थितियों में सुखद परिवर्तन आया, जिससे उस स्त्री की मानसिक प्रसन्नता बढी़। वह पहले की तरह हँसने- खेलने लगी। इस बार जो बच्चा हुआ वह पूर्ण स्वस्थ, निरोग और कुशाग्र बुद्धि का हुआ। 
संस्कार प्रथा मृतप्राय क्यों हुई ? 
स्वामी रामतीर्थ से एक जिज्ञासु ने पूछा- '' भगवन् ! प्राचीनकाल में सभी के संस्कार होते थे, पर अब कदाचित् ही किसी के यहाँ विधिपूर्वक उनके होने का प्रचलन रहा, इसका क्या कारण है ?'' स्वामी जी ने उत्तर दिया-'' पंडितों की दक्षिणा मँहगी हो जानें, अनेक साधन- सामग्रियों को जुटाने का झंझट उठाना,'' कर्मकाण्ड में अत्यधिक समय लगना,जैसे कारणों से लोग इस संबंध में उपेक्षा बरतने लगे और मुंडन जैसे संस्कारों की चिह्न पूजा भर शेष रह गई। इनको पुनः प्रचलित करना आवश्यक है, ताकि उनके माध्यम से सुसंस्कारिता अभियान को गति मिल सके। इसके लिए यह आवश्यक है कि कर्मकाण्ड संक्षिप्त और सरल किए जाँयें । उन्हें मिलजुलकर संपन्न कर लिया जाय । जानकारियों के अभाव में अकेले संक्षिप्त गायत्री हवन से इसकी पूर्ति हो सकती है। प्रयोजन की शिक्षा उपस्थित जनों को गंभीरतापूर्वक कुशल वक्ता द्वारा दी जाये। इससे उनकी उपयोगिता समझी जा सकेगी और पुरातन प्रथा फिर चल पड़ेगी । '' 
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