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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4

Media: TEXT
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। अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-3

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इमा विकृतयो नैव केवलं धर्मसंस्कृतौ ।  प्रविशन्ति परं सर्वा  नैतिके बौद्धिकेऽथ च ।। ३७ ।। क्षेत्रे सामाजिकेऽप्यत्र प्रविशन्ति पुनः  पुनः।  आहारेऽथ विहारे च व्यवहारे तथैव च ।। ३८ ।।  धनस्योपार्जने भोगे व्यवसाये जना इह ।  अवाच्छनीयतां यान्ति विलासाकर्षणोदिताम् ।। ३१ ।।  मदसेवनजादीनि            व्यसनात्युद्भवन्त्यपि । अस्मादेव हि हेतोश्च स्वस्मिन् देशेऽपि सन्त्यहो ।। ४०।।  भिक्षाया व्यवसायोऽयं        जात्यहंकारजोच्चता ।  अवगुण्ठनता सेयं विवाहेऽपव्ययो महान् ।। ४१ ।।  पशूनां बलिदान च मृतभोजो बहत्तर: ।  बहुविधा रीतयो लोके चलिता एवमेव तु ।। ४२ ।।  बहुप्रजननस्यात्र पश्यन्तः फलमत्यगम् । मिथ्या प्रदर्शनेष्वेते व्ययं च कुर्वते  भृशम् ।। ४३ ।। 
भावार्थ- यह विकृतियाँ न केवल धर्म 'संस्कृति में घुसती रहती हैं वरन नैतिक बौद्धिक सामाजिक क्षेत्रों में भी उनका प्रवेश होता रहता है ।। लोग  आहार- विहार व्यवहार- व्यवसाय उपार्जन- उपयोग जैसे दैनिक प्रयोजनों में भी विलास- आकर्षण के नाम पर अवांछनीयता की आदत डाल लेते हैं। नशेबाजी जैसे अनेक दुर्व्यसन इसी कारण पनपे हैं 1 अपने देश में भिक्षा- व्यवसाय जातिगत ऊंच- नीच, पर्दा प्रथा ,विवाहों में अपव्यय,  पशुबलि,  बड़े बड़े मृतक भोज जैसे अनेक अनाचारों' का प्रचलन चल पड़ा है ।बहु प्रजनन के दुष्परिणामों की ओर से आँखें बंद किए रहते हैं । फैशन और ठाट- बाट के निमित्त ढेरों पैसाखर्च करते हैं ।
व्याख्या- धर्म संस्कृति ही मनुष्य को सदाचार, सद्भाव की मर्यादा में रख सकती है ।। उसमें विकार आ जाने से धार्मिक क्रियाकलापों में दोष पैदा होते ही हैं, जीवन के अन्य क्षेत्रो में भी उलटा चक्र चल पड़ता है  । चिंतन और आचरण की मर्यादाहीनता अगणित दोष पैदा करती है और् मनुष्यन चाहते हुए भी उनके शिकंजे में कसता चला जाता है । ऊपर जीवन के जिन जिन क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है, उन सबमें न चाहते हुए भी मनुष्य पिस रहा है, यह हर जगह देखा जा सकता है । 
इसका क्या कारण  है?- अपव्यय और भ्रष्टाचार की मार से  मनुष्य की कमर टूट रही  है, पर वह इस अवांछित भार को हटा  नही सकता, उसे लादे ही हुए है । लगता है कि अवाछनीयता हटते ही अपना अस्तित्व समाप्त न  हो जाय? यह मनुष्य के सांस्कृतिक दिवालिएपन के ही कारण है। नशे की हानि दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों निर्विवाद रूप से सिद्ध कर रहे हैं । शराब की बोतलों और सिगरेट के पैकिटोँ पर सावधानी बरतने वाले वाक्य भी छापे जा रहे हैं पर मनुष्य उनसे परे नहीं हो पा रहा है । दान पीड़ितों को देने का नियम था, पर आज भिक्षा व्यवसाय के नाम पर  जो नाटक चल रहे हैं, उस कारण मनुष्य दुखियों-की सहायता में भी सकुचाता है । शासन और जनता दोनों उसके विरुद्ध है, पर वह चल ही रहा है । 
हर परिवार में लड़कियाँ हैं । लड़कियों के प्रति क्रूरता को लेकर सभी आँसू  बहाते हैं । सांस्कृतिक निष्ठा से हीन व्यक्ति लड़के वाले कहलाते ही भूल  जाते है कि वे भी कहीं लड़की वाले है । समस्या ज्यों की त्यों है । 
बढ़ती जनसंख्या और बढ़ती मंहगाई से हर परिवार परेशान है । परंतुजीवन में मर्यादा का अभ्यास न होने से अवांछनीय प्रजनन पर मनुष्य अभी तक काबू नहीं पा सका । बढ़ती जनसंख्या से पैदा होने वाले खतरे खुलकर सामने लाए जा चुके हैं । परंतु आत्मानुशासन का अभाव उन सब भयों से भारी पड़ रहा है ।
अनर्गल बुद्धिमत्ता-  किसी राहगीर को अपने गंतव्य मार्ग के बारे में संदेह होने लगा, तो उसने आगे आगे चल रहे विचारमग्न दार्शनिक से पूछा- ''मुझे पोस्टआफिस जाना है, आपको सही रास्ता मालूम हो, तो कृपा कर बताइए।"
दूसरा राही रुक गया और गंभीर मुद्रा में कहने लगा-  ''हाँ, हाँ, ठीक है, मुझे भी तो वहीं जाना है । जहाँ आप जाना चाहते हैं । हम दोनों को मिलकर उस जगह की तलाश करनी चाहिए । आप पूर्व वाली सड़क पर जाइए और मैं उत्तर वाली पर चलूँगा । फिर जब हम लोग भविष्य में मिलेंगे, तो आगे की प्रगति के बारे में एक दूसरे को बतावेंगे ।'' 
कल्पना को व्यावहारिकता से अलग रखकर हम बेतुकी सनकों के जंगल  में ही भटकते रह सकते हैं । सांस्कृतिक चिंतन लड़खड़ा जाने पर मनुष्य ऐसी ही अनर्गल बुद्धिमत्ता दिखलाया करता है । 
गलत विश्वास ले डूबा -  दक्षिण अमेरिका में तब रेड इंडियनों का राज्य था, उसका नाम था तवानतिन और बादशाह का नाम था प्रताड़ आल्य। 
राजा ने प्रजा में यह अंधविश्वास फैला रखा था कि वह सूर्य का वंशज है । कोई उसका कहना न मानेगा, तो उसे सूर्य भस्म कर देंगे  । प्रजाजन उसकी बात पर विश्वास करते थे । जैसा भी वह कहता, वैसा ही मानते थे । राजा ने प्रजा की कमाई बटोर कर अपने को बहुत संपन्न बना रखा था । उस क्षेत्र पर स्पेनवासी पहुँचे । सारी स्थिति को समझा और उस सारी जमीन और संपदा को हथियाना बहुत सरल समझा । 
दो सौ सिपाही ले जाकर राजा को पकड़ लिया गया । मौत का भय दिखाकर उसके हस्ताक्षरों से मुनादी कराई गई कि प्रजा के पास जो कुछ है, गोरों को दे दें । उन्हीं का कहना मानें । कोई प्रतिरोध न करे  । स्पेन वालों ने करोड़ों- अरबों की संपत्ति हथिया ली । उस क्षेत्र पर आधिपत्य कर लिया और राजा को मार डाला । अंधविश्वास फैलाकर लाभ उठाने वाले किसी दिन उसी कुचक्र में अपना सर्वनाश करते है । 
विवेकवान शरदकुमारी -राजशाही जिले के पुंजिया ग्राम में एक धनी ''परिवार की लड़की शरद सुंदरी चौदह वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई । लोग उस पर सती होने का दबाव डाल रहे थे, तो उसने स्पष्ट  कह दिया- ''जब नर, नारी  के मरने पर उसके साथ सती नहीं होता, तोनारी को ही क्यों बाधित किया जाता है?'' उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी । वह उसकी भली प्रकार सुव्यवस्था करती थी और अपने प्रभाव क्षेत्र में अनेक सतप्रयोजनो को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहती थी । 
जो कुटुंबी- संबंधी उन्हें सती बनाकर उस घर की सारी संपदा लूट ले जाना चाहते थे ? शरद कुमारी ने उनकी दाल न गलने दी और आय का जीवनभर श्रेष्ठ कामों में सदुपयोग किया । 
धूर्तों से सावधान भी रहें - गंगा  स्नान करने के बाद पंडित तट पर बैठ कर वंदन करने लगे । जल में से घड़ियाल ने निकल करके उनके सम्मुख  मोतियों का हार रख दिया । संत उसे पाकर प्रसन्न हुए और उसकी भक्ति भावना देखकर आशीर्वाद देने लगे । 
घड़ियाल ने कहा- '' देव ! मैं अब वृद्ध हो चला हूँ । त्रिवेणी पहुँचकर वहीं मरना चाहता हूँ । मेरे पास ऐसे सौ हार हैं । उन्हें भी वहीं दान करूँगा । मैंने रास्ता देखा नहीं है । यदि आप कृपापूर्वक मुझे वहाँ तक मार्गदर्शन करते चलें, तो अपना मोती संग्रह आपको ही दान कर दूँगा ।'' 
पंडित सहमत हो गए । घड़ियाल ने उन्हें पीठ पर बिठा लिया ।। यात्रा चल पड़ी । 
मझधार में पहुँचकर घड़ियाल हँसा और बोला-  ''लोभ के वशीभूत होकर मनुष्य कितना अंधा हो जाता है कि दुर्घटना की आशंका को सर्वथा भुला बैठता है ।'' घड़ियाल ने करवट बदला । पंडित लुढ़क गए और उसने उन्हें उदरस्थ कर लिया । 
एतेषु  दिवसेष्वत्र समायात्यनिशं भृशम् ।  व्यक्लौ तथा समाजेऽपि दारिद्र्यस्य तथैव च ।। ४४ ।।  अस्वास्थ्यस्याऽसुरक्षाया विपत्तियेंन वर्द्धते ।।  मनोमालिन्यपूर्णः स कलहस्तु गृहे गृहे ।।  ४५  ।।  जने जने च वर्द्धन्ते इहासन्तोष आशु सः ।  अविश्वासस्तथा चैषोऽसहयोगविधिः स्वतः ।। ४६ ।।
भावार्थ - इन दिनों व्यक्ति और समाज पर अस्वस्थता असुरक्षा दरिद्रता की विपत्ति लदती जा रही है । घर परिवारों में कलह, मनोमालिन्य बढ़ रहा है । जन समुदाय के मध्य असहयोग असंतोष अविश्वास असाधारण रूप से बढ़ रहा है । 
व्याख्या- चाहे व्यक्तिगत अस्वस्थता- असुरक्षा हो, चाहे पारिवारिक मनोमालिन्य और चाहे सामाजिक असहयोग- अविश्वास । इन सबका जनक मनुष्य स्वयं ही है । 
संकटों का लेखा-जोखा - मनुष्य को पता नहीं कि वह जो खा रहा है, उसमें प्रदूषण के प्रभाव से कितना विष मिला है? चिकित्सालय में रोग पर ध्यान दिया जाएगा या नहीं? जो दवा मिलेगी या खरीदी जाएगी वह वास्तविक दवा होगी भी या नहीं? असुरक्षा- कभी एकांत क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों को लूट का भय रहता था, आज नगरों में, घने इलाकों में, घर, दुकान और बैंक तक अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं करते ।। गरीब एक बार संतुलन बिठा लेता है, संतुष्ट रह लेता है ।। पर दरिद्रता का भाव क्लेश और विग्रह पैदा किए बिना रह नहीं सकता । गरीबी की रेखा से ऊपर कितने प्रतिशत व्यक्ति आए, कितने नहीं, यह विवादास्पद हो सकता है, परंतु दरिद्रता का भाव संपन्नों पर भी हावी होता जा रहा है ।। 
पारिवारिक कलह और मनोमालिन्य का कोई सीधा पैमाना नहीं । परंतु घरों में जलती बहुएँ, घरों से उपेक्षित दीन वृद्धों, भाइयों के बीच बढ़ते दीवानी और फौजदारी के मामलों को देखकर उसका अंदाज लगता है । ऐसा लगता है कि पारिवारिक सद्भाव नाम की चीज शायद ही कहीं जीवित हो । समाज में बढ़ते आंदोलन, बंद, हड़तालें, गुटबाजी की प्रवृत्ति, रोज संस्थाएँ टूटने- बनने से असहयोग, असंतोष और अविश्वास के बढ़ते स्तर का सीधा अनुमान लगाया जा सकता है । 
अत्याचारी मनुष्य नही- कन्फ्यूशियस के किसी शिष्य ने एक स्त्री  को एक स्थान पर बैठ कर रोते हुए देखा । उसने कारण जानने की इच्छा प्रकट की । तब वह स्त्री बोली-  ''इसी स्थान पर मेरे श्वसुर को चीते ने खा लिया था। फिर मेरे पति को भी इसी स्थान पर बाघ ने खाया और अंत मे मेरे पुत्र को भी ।'' 
शिष्य ने उत्सुकता प्रकट करते हुए कहा- ''और फिर भी तुम यहाँ बैठी हुई हो ?'' स्त्री ने एक गहरी साँस छोड़ते हुए कहा- ''हाँ, क्योंकि यहाँ पर कोई अत्याचारी मनुष्य नहीं है ।"
सुनकर कन्फ्यूशियस के नेत्र भर आए, बोले- '' शिष्यों ! अच्छी प्रकार समझ लो कि अत्याचारी मनुष्य इसके लिए चीते से भी अधिक घातक है । न जाने मनुष्य अपनी शक्ति को अत्याचार से हटाकर सद्भावना में लगाना कब तक सीख पाएगा?'' 
अपने विरोधी से जा मिला - एक कुल्हाड़ी मजबूत पेड के पास पहुँची और दर्प से बोली- '' देखता है मेरी धार । तुम्हें एक दिन में गिरा दूँगी ।'' पेड ने कहा-  ''भाग, छोटे मुँह बड़ी बात कहती है चुड़ैल !'' 
कुल्हाड़ी चली गई और लकड़ी का बेंट कहीं से अपने छेद में डलवाकर नए सिरे से आक्रमण करने आई । पेड ने अपने दुर्भाग्य पर सिर झुका लिया और कहा- ''अपने ही परिवार में से जब शत्रु के साथ मिल गए, तो फिर गला काटने में संदेह नहीं ।'' 
बिरादरी से निपटना - एक कुत्ता बहुत तेजी से जा रहा था । उसका अभिप्राय गंगा स्नान के लिए जाने से था ।। एक यात्री ने पूछा-  ''इस तेजी से चलने पर आपको गंगा तक पहुँचने में संभवतः बहुत थोड़ा समय लगेगा ।'' कुत्ते ने कहा- '' नहीं, आपसे भी बहुत पीछे पहुँचूँगा । गाँव गाँव में बिरादरी वालों के हमलों से जो निपटना पड़ेगा । उसमें तेज चाल भी निरर्थक जाएगी ।'' 
अभी अराम कर ले -सिकंदर महान अपनी विशाल सेना लेकर विश्व  विजय करने निकला, तो उसकी मुलाकात प्रख्यात दार्शनिक पार्मेनियों से हुई । पार्मेनियों ने सिकंदर से कुशल क्षेम पूछा, तो वह बोला- ' 'महामना ! मैं इस समय दुनियाँ को जीतने के लिए अपने अभियान पर निकला हूँ ।' "दुनियाँ को एक साथ जीतना तो बड़ा मुश्किल है वीर ! अभी तुम्हारा लक्ष्य क्या है''- पार्मेनियों ने पूछा। ''अभी तो मेरा आक्रमण ईरान पर होगा । पहले मैं यही मुल्क जीतूँगा ।'' ''ईरान को जीतने के बाद क्या करोगे? '' ''मैं भारत पर विजय प्राप्त करूँगा ।।'' ''और भारत को जीतने के बाद ।'' ''सिथिया को अपने राज्य में मिलाऊँगा ।'' -सिकंदर ने अपना अगला कार्यक्रम बताया ।'' और सिथिया जीतने के बाद ।'' ''शांति से बैठकर आराम करूँगा ।'' यह सुनकर पार्मेनियों खिलखिला कर हँस उठे, हँसने का कारण पूछा, तो उन्होंने बताया कि ''मैंने दुनियाँ में आज तक तुम सा पागल नहीं देखा । इतना बड़ा अभियान चलाकर शांति से बैठने की कामना है । भले आदमी ! शांतिपूर्वक रहने में अभी भी क्या दिक्कत है? '' 'दुर्बुद्धि उपजी तो सामने वाला भी सावधान हुआ- एक बुढ़िया अपनी जवान लड़की के साथ कहीं जा रही थी । लड़की अधिक थक गई थी । पीछे से एक ऊँट वाला आया । बुढ़िया, ने कहा ''बेटा ! तेरे पास दो जगह हैं । एक खाली है। इसमे मेरी बेटी को बिठा ले चल।  अमुक गाँव में छोड़ देना ।'' सवार ने मना कर दिया । कुछ दूर चलने पर सवार का मन बदला, सोचा उस जवान लड़की को ले आते, तो अच्छा ही होता । बुढ़िया हमें पकड़ थोड़े ही सकती थी । यह सोचकर उसने ऊँट वापस लौटाया और बुढ़िया के पास पहुँचा । 
उधर बुढ़िया भी सोचने लगी, अच्छा हुआ मेरा प्रस्ताव सवार ने नहीं माना, अन्यथा लड़की को मैं खो बैठती और अपनी मूर्खता पर पछताती । 
सवार ने ऊँट झुकाया तो बुढ़िया ने कहा-  ''तू अपनी राह जा, जिसने तुझे सलाह दी है, वह मेरे कान में भी कह गया है ।''जहाँ दुर्बुद्धि उपजती है, तो सामने वाले को भी सचेत कर देती है। 
अहंकार से सर्वनाश- नेवले और सर्प ने किसी का कुछ बिगाड़ा न था । तो भी अहंकारवश वे एक दूसरे को नीचा दिखाने के फेर में रहते थे । एक दिन आमना−सामना हुआ, तो दोनों गुंथ गए । किसी ने हार न मानी और दोनो ही क्ष्त-विक्षत शरीर से रेत में उलटे लेट गए । 
इतने में वन व्याघ्र जरक उधर से आया । उसने सामने पड़े शिकार को सहज ही उदरस्थ कर लिया। अहंकार ने दोनों के प्राण लेकर पीछा छोड़ा । 
हनुमान जी का असमंजस - हनुमान जी के दो भक्त थे । दोनों एक दूसरे के प्रतिपक्षी । एक दूसरे को हराना और गिराना चाहते थे । इसके लिए वे हनुमान जी को लड़ू चढ़ाकर अपना प्रयोजन पूरा कराना चाहते थे । 
दोनो की मनोकामना एक साथ पूरी होनी संभव नहीं थी, सो उनने दोनों को भगा दिया और कहा- ''मेरी तरह राजकाज करने की इच्छा लेकर ही यहाँ आया करो ।''
संकीर्णस्वार्थबुद्ध्या च विलासस्याथवा पुनः ।  प्रमादस्य प्रवृत्या वा मदसेवनतोऽथवा  ।। ४७ ।।  सारहीनमभूत सर्वं जनजीवनमुत्तमम् ।  कारणं केवलं चैता दुष्प्रवृत्तय एव तु ।। ४८  ।।  अपराधिप्रवृत्तीनां प्रवृद्धानां तु कारणात् ।  प्रत्येक पुरुषो नूनमातङ्कित इह स्वयम् ।।  ४१ ।।  विनाशसंकटञ्चात्र समाजे समुपस्थित:।  निर्मीयते स्वतोऽज्ञातं वातावरणमीदृशम्  ।। ५0  ।।  केवलं सभ्यताया न संचितायाः  परं महान् ।  संकटो मानवास्तित्वे दृश्यते समुपस्थित: ।। ५१ ।। 
भावार्थ- संकीर्ण स्वार्थपरता, विलासिता, नशा, प्रमाद की दुष्प्रवृत्तियों के कारण जन जीवन खोखला हुआ जा रहा है । बढ़ती हुई अपराधी प्रवृत्ति के कारण हर व्यक्ति आतंकित जैसा दीखता है । समुचे स्थान पर विनाश के संकट छाए हुए हैं । वातावरण ऐसा बन रहा है? मानो संचित सभ्यता का ही नहीं मानवी अस्तित्व के लिए भी संकट खड़ा हो गया है ।
यह कैसी प्रगति? - नए सेये गए रेशम के कीड़े इतने छोटे होते है कि केवल एक पौंड वजन में ७ लाख आ जाते हैं ।। परंतु केवल छः सप्ताह के छोटे समय में उनका वजन बढ़कर ९५०० पौंड हो जाता है । यह प्रगति उनके वजन का नौ लाख पचास हजार प्रतिशत है, पर इस प्रगति से क्या लाभ हुआ? बेचारे अपने ही बनाए हुए खोखलो में जकड़कर मर जाते हैं । उनके पास की वह जमा पूँजी, जिसे वे किसी काम में नहीं ला पाते, दूसरों का मन ललचाती है और वे बेचारे लालचियों द्वारा मारकाट कर समाप्त कर दिए जाते हैं । मनुष्य ने सभ्यता का विकास पिछले दिनों बड़ती तेजी से किया है । परंतु लगता है कि रेशम के कीड़े की तरह वह अपने ही खोल में जकड़  कर समाप्त हो जाएगा । 
आश्रयदाता को बर्बाद करने का बर्बाद करने का फल-  एक जंगली बकरी के पीछे शिकारी कुत्ते दौड़े । बकरी जान बचा कर अंगूरों की झाड़ी में  घुस गई । कुत्ते आगे निकल गए । 
बकरी ने निश्चिंततापूर्वक अंगूर की बेलें खानी शुरू कर दीं और जमीन से लेकर अपनी गर्दन पहुँचे, उतनी दूरी तक के सारे पत्ते खा लिए । छिपने का आश्रय समाप्त हो जाने पर कुत्तों ने उसे देख लिया और मार डाला । आश्रयदाता को ही जो नष्ट करता है, उसकी ऐसी ही दुर्गति होती है । मनुष्य भी आज अपनी मर्यादाओं को चर रहा है, काल को निमंत्रण दे रहा हे । 
बँट्वारे मे चतुरता - एक व्यापारी ने मनौती मनायी कि अबकी बार जो लाभ होगा, उसमें से आधा लाभ आपको दूँगा । देवता नेसाझीदारी स्वीकार कर ली । चतुर व्यापारी ने नारियल, बादाम, अखरोट जैसी मेवा खरीदी और उनके छिलके वाला भाग देवता के सम्मुख चढ़ा दिया । बीज अपने लिए रख लिए । देवता हँसे, कहा- ''जा, जैसी साझेदारी तूने मुझसे की है, तुझे वैसे ही साझेदार मिलते रहेंगे ।'' 
मनुष्य अपने नियंता से भी चालाकी करके अपने हिस्से में दुर्भाग्य को बुला बैठा है । आज परिन्दे कल इन्सान- एक आदमी ने चिड़िया के बच्चे पकड़े और दरी में लपेट दिए । चिड़िया तड़फड़ाई । आदमी ने दरी को खोला, तो चिड़िया उन बच्चों से लिपट गई । आदमी ने चिड़िया को भी बच्चों समेत दरी  मे बाँध लिया ।इन्हें लेकर वह हजरत के पास पहुँचा और पूछा- ''इन परिंदों का क्याकरूँ?'' 
रसूलिल्लाह ने कहा- '' ऐ नेकबख्त ! रहम करना सीख और इन्हें वहीं  छोड़कर आ, जहाँ से इन्हें पकड़ा है । ऐ इन्सान ! आज जिस बेरहमी का इस्तेमाल तू परिंदों के लिए कर रहा है, वही बेरहमी अपनी कौम के साथ भी बरतने लगेगा । रहम सीख, तो ही इन्सानियत बचेगी, इन्सानियत न बची तो इन्सान भी न बचेगा ।'' द्वेष में अवसर गँवाया -  द्वेषग्रस्त व्यक्ति अपनी बड़ी बड़ी उपलब्धियों को कौड़ी के मोल गँवा देते हैं । 
दुर्योधन के यहाँ दुर्वासा जी गए । उसने उनके दस हजार शिष्यों सहित उनका भरपूर आतिथ्य तीन माह तक किया । परम तपस्वी दुर्वासा उसके आतिथ्य से संतुष्ट हुए । उन्होंने उससे इच्छित वरदान माँगने को कहा । विवेकपूर्वक सोचकर माँगता, तो वह अक्षय राज्य, पारिवारिक सौहार्द्र, सद्गति कुछ भी माँग सकता था । परंतु ईर्ष्यालु, विद्वेषी का विवेक साथ ही नहीं दे पाता । 
दुर्योधन ने सोचा- पांडवों का अनिष्ट शक्ति प्रयोग से मैं तो नहीं कर सकता, ऋषि की तप शक्ति से करा सकता हूँ । उसे पता था, पांडववन में अभाव का जीवन जी रहे हैं । उनके पास सूर्य का दिया अक्षय पात्र भर है । 
जिसमें इच्छित मात्रा में भोजन प्राप्त कर सकते हैं, परंतु उसकी' मर्यादा थी कि जब अंतिम व्यक्ति भोजन करके उसे धो दे, तो फिर उससे भोजन प्राप्त नहीं किया जा सकता था । 
दुर्योधन ने सोचा- जब द्रौपदी भोजन करके पात्र धो चुकें, तब ऋषि पहुँचें और आतिथ्य न हो पाने से क्रोध करके शाप दें, तो पांडवों का अनिष्ट हो सकता है । वह प्रकट में बोला- ''ऋषि ! आप हम पर प्रसन्न हैं, तो हमारे भाई पांडवों का भी आतिथ्य स्वीकार करें । उन्हें भी आपके सान्निध्य का लाभ मिलेगा । यही मेरी कामना है, पर आप उनके पास मध्याह्न में तब पहुँचें, जब वे सब भोजन कर चुके हों ।'' 
ऋषि भाव समझते हैं । समझ गए कि दुर्योधन किस दुर्भाव से यह मीठे वचन बोल रहा है । उन्होंने सोचा- अच्छा हुआ, इस दुर्मति को कोई अच्छा वरदान नहीं देना पड़ा । उन्होंने तथास्तु कह दिया । 
वायदे के अनुसार, दुर्वासा दस हजार शिष्यों सहित पांडवों के पास पहुँचे, जब सभी भोजन कर चुके थे । द्रौपदी अक्षयपात्र धो चुकी थी । 
परंतु सद्भाव संपन्न पुरुषार्थियों की सहायता भगवान करते हैं । भगवान कृष्ण के सहयोग से पांडवों के यहाँ ऋषि तृप्त होकर गए । उनका अनिष्ट नहीं हुआ तथा दुर्योधन को मिला एक अलभ्य अवसर उसके दुर्भाव के पेट में समा गया । 
बर्तनों ने बच्चे दिए और मर गए-  एक ठग ने एक लोभी सेठ से अपने घर जेवनार के लिए बर्तन मांगे । इन्कार करते न बना, सो उनने टूटे- फूटे पीतल के बर्तन उसे दे दिए । थोड़े दिन बाद वह उन्हीं बर्तनों की छोटी शक्ल के बर्तन और साथ में लाया, बोला- '' आपके बर्तनों ने बच्चे दिए हैं, सो आपके ।'' लालच किसे बुरा लगता है । सेठजी ने गाँव भर में फैला दी हमारा भाग्य तो देखो, बर्तन भी बच्चे देने लगे ।। कुछ दिन बाद वही ठग फिर आया और बोला- ''आज बहुत मेहमान आने वाले हैं, सो सोने- चांदी के बर्तन मिल सकते, तो बहुत अच्छा होता ।"  बच्चे साथ आने के लालच में सेठ जी ने प्रसन्नतापूर्वक दे दिए ।
अबकी बार ठग ने वापस करने में कई दिन लगा लिए । सेठजी ने तकाजा भेजा । ठग खाली हाथ, मुँह लटकाए हुए आया, बोला- ''आपके बर्तन जाते ही बीमार पड़ गए । उनके इलाज में ढेरों पैसा खर्च हुआ । फिर वे मर गए, तो अंत्येष्टि और ब्राह्मण भोजन मैं सैकड़ों रुपए लग गए । सो आप चुकाइए । बर्तन तो आपके थे ।''सेठजी झूठ बताने लगे, तो ठग ने कहा- ''आपका भाग्य प्रबल है । बर्तन बच्चे दे सकते हैं, उनके बीमार पड़े और मर जाएँ, तो क्याआश्चर्य ? "जिनने पहली अफवाह सुनी थी, वे ठग की बात का समर्थन करने लगे । कृपण इसी प्रकार ठगे जाते हैं । दुर्बुद्धि एक बार ही फलती है । 
रत्नों से पेट भरो - अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, वैवीलोनियाँ, फारस आदि को जीतता हुआ सिकंदर भारत पर चढ़ दौड़ा । एक के बाद दूसरे देश पूर उसकी विशाल सेना इस तरह विजय प्राप्त करती चली जा रही थी, मानो वह विश्व विजय करके ही रहेगी ।। भारत के जिस देश पर दूसरे दिन चढ़ाई होने वाली थी, उसकी सारी तैयारी एक दिन पहले ही कर ली गई थी ।। 
राजा को भी यथासमय उसका पता लग गया ।। सो उसने हारने और मरने से पूर्व एक बार सिकंदर से मिलने की योजना बनाई और कूच आरंभ होने से पहले ही वह वहाँ जा पहुँचा। उसने अपने को राजदूत बताया और मिलने की इच्छा प्रकट की ।  सिकंदर ने इसमें कुछ अनुचित न समझा कि राजदूत से भेंट की जाय ।। वह आया और यही कहा- ''राजा आपसे संधि करने को तैयार हैं । वे केवल इतना ही चाहते हैं कि आप उनका आतिथ्य स्वीकार करें और अपने मुख्य अमात्यों समेत भोजन वहाँ ही करें ।। '' पहले तो यह आशंका हुई कि घर ले जाकर कोई धोखा न किया जाय, पर उस राजा के धार्मिक विचार सर्वत्र प्रख्यात थे, सो सिकंदर ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया और सुरक्षा व्यवस्था के साथ मुख्य अमात्यों सहित राजमहल में जा पहुँचा ।। भोजनशाला सुसज्जित बनाकर रखी गई थी ।। सिकंदर आया और उसे ससम्मान यथा स्थान बिठा दिया गया ।। 
भोजन का जो थाल परसा गया, उसमें सोने- चाँदी के सिक्के और हीरे- मोती, जवाहरात भरे थे । सिकंदर ने आश्चर्य से पूछा- "इनसे पेट कैसे भरेगा ?'' राजा ने कहा- ' '' ठीक है, पेट तो अन्न से ही भरेगा, पर आपकी भूख तो कुछ और ही है ।। जिसके लिए आप  व्याकुल है, उसी को परसना मैंने उचित समझा ।। इसी के लिए तो आप इतने देशों पर आक्रमण करते और रक्त बहाते हुए यहाँ तक चले आए हैं । यदि रोटी से ही पेट भर सका होता, तो वह आपके देशमैसीडोनिया में ही क्या कम थी?'' 
सिकंदर को अपनी स्थिति पर बड़ी ग्लानि हुई और वह वापस लौट गया । सिकंदर तो लौट गया था, पर क्या मनुष्य अपने रचे विनाश चक्र से विमुख होने को तैयार है?
उत्तमोद्देश्यहेतोर्याः कदाचिद्रीतयः शुभाः ।  प्रारब्धा भ्रान्तिभिर्जाता अयोग्या विकृति गता: ।। ५२ ।।  दुराग्रहोऽथ मोहश्च नोचितोऽत्र मनागपि ।  हिमाद्रिनिर्गता गङ्गा क्षारतां याति सिन्धुगा ।। ५३ ।।  ततः सूर्येण वाष्पत्वं प्रापिता जलदायिता ।  हिमतामधिगत्येव शुद्धत्वं भजते स्थिरम् ।। ५४।।  संस्कृतेरपि सम्बन्धे वार्तैषैव तु विद्यते ।।  सूक्ष्मद्रष्टार एतेऽत्र मुनयश्च मनीषिणः ।। ५५ ।।  जागरूकास्तु तिष्ठन्ति त्यक्तुं सर्वदुराग्रहम् ।।  विवेकं जागृतं नृणां कुर्वन्तो मान्यतासु च ।। ५६ ।।  परिवर्तनकं वातावरणं कुर्वते तथा ।  अभियानं बृहन्मूलं दृढं सञ्चालयन्त्यपि ।। ५७।। 
भावार्थ - जो प्रथाएँ कभी उत्तम उद्देश्यों को लेकर विनिर्मित हुई थीं, वे ही भ्रांतियों और विकृतियों के मिलते चलने पर समयानुसारअनुपयुक्त बन जाती हैं । तब उनके प्रति दुराग्रही मोह अपनानाअनुचित है।  हिमालय से निकलने वाली गंगा की धारा भी समुद्र तक  पहुँचते−पहुँचते खारी हो जाती है। तब उसे सूर्य भाप बनाकर बादल बनाता है । हिमालय में पहुँच कर वही बादल बर्फ बन जाते हैं और उस परिवर्तन के कारण ही गंगा का शुद्ध स्वरूप स्थिर रहता हैसंस्कृति के संबंध में भी यही बात है । सूक्ष्मदर्शी मुनि- मनीषी इस पर्यवेक्षण के प्रति जागरूक रहते हैं । वे दुराग्रह के स्थान पर विवेक जगाते और जो उचित है? उसे अपनाने के लिए मान्यताओं में हेर फेर करने वाला दृढ़ एवं गहरी पकड़ वाले अभियान चलाते वातावरण बनाते हैं । 
प्रवाह में परिवर्तन - यज्ञ भारतीय धर्म का पिता कहा जाता है, परंतु जब यज्ञ हिंसा प्रधान होने लगे, तो महात्मा बुद्ध ने उसका विरोधकिया । मनीषियों ने बुद्ध का समर्थन किया तथा गलत दिशा में जाते हुए प्रवाह को मोड़ दिया गया ।। 
बुद्ध ने अहिंसा को मानवधर्म का मुख्य लक्षण बतलाया, वह है भी सही । परंतु अहिंसा के नाम पर दुर्बलता बढ़ने लगी, बौद्ध मत विकारग्रस्त होने लगा तो आदि शंकराचार्य ने उसे हटाकरपुनः सनातन संस्कृति की स्थापना थी ।। 
भारत को विदेशी शासकों से मुक्त कराने के लिए पहले सशस्त्र आंदोलन हुए । अंग्रेजों के समय उसकी उपयोगिता न देखकर गांधीजी ने अहिंसात्मक सत्याग्रह की परिपाटी बनाई, जो सफल हुई । ऐसे  समयानुकूल छोटे बड़े प्रयोग होते ही रहते हैं । 
जिनने सती प्रथा की जड़ उखाडी - बंगाल  के हुगली जिले में राजा राममोहन राय को अन्य राजकुमारों की तरह कोई व्यसन न था । वे उपयोगी अध्ययन में लगे रहते और धर्म की स्थिति का अध्ययन करते । तीर्थों का उन्होने विशेष रुप से भ्रमण किया । देखा तो वहाँ पाखंड, जंजाल और लूटमार के चित्र विचित्र तरीके वंश और वेष के नाम पर चल रहे थे । उपहासास्पद बने हिंदू धर्म को छोड़कर वे  धड़ाधड़ मुसलमान, ईसाई होते चले जा रहे थे । उनने सोचा इस गलते कुष्ठ को सुधारना कठिन है । इसलिए बौद्ध धर्मावलंबी हिंदू समाज को बनाया जाय । इसके लिए वे बौद्ध धर्म का अध्ययन करने तिब्बत गए । हिंदी, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, अरबी तो उन्हें पहले ही आती थी । बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिए उन्हें तिब्बती भाषा सीखनी थी । उसका सुयोग न बना, तो वे वापस लौट आए । 
उन दिनों विधवाओं की बंगाल में बड़ी दुर्दशा थी । पति के मरते ही उसकी संपत्ति हड़पने के लिए उसकी पत्नी को सती होने के लिए विवश करते थे । कुटुंब की एक स्त्री का उनने अपनी आँखों यह दयनीय दृश्य देखा । विधवा अधजली स्थिति में चिता पर से उठकर भागी, तो उसे बांसों से मारकर चिता में झोंक दिया गया । राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध कानून बनवाया । उनने विधवा  विवाह के समर्थन में भी आंदोलन चलाया । हिंदू धर्म के अनेक सुधार  करने के लिए विज्ञजनों को आमंत्रित करने हेतु उनने दो साप्ताहिक पत्र निकाले ''सम्वाद कौमुदी '' और ''मीरतअल अख़बार '' । वे हिंदू धर्म के अनन्य भक्त थे, पर उसमें घुसे हुए पाखंडवाद से वे सदा कुद्ध और दुःखी रहते थे । 
सुधारक केशव सेन - बंगाल के केशवचंद्र सेन भी राजा राममोहन राय की तरह उन दिनों अपने धर्म में घुसी हुई अगणित कुरीतियों से बड़े खिन्न थे । उनने चाहा कि संप्रदायों की भरमार केइस जमाने में एक नए बुद्धिजीवी संप्रदाय को जन्म दिया जाय ।। उसका नाम उन्होंने ब्रह्मसमाज रखा और समाज सुधार संस्था की स्थापना की ।। नए प्रचारक निकालने की दृष्टि से उनने संस्कृत कॉलेज तथा हिंदू कॉलेज की स्थापना की ।। 
सती प्रथा के विरोध और विधवा विवाह के समर्थन में वे गांव गांवभ्रमण करके आंदोलन चलाते रहे ।। 
केशवचंद्र सेन संपन्न परिवार के थे और विद्वान भी । पर रूढ़िवादी समुदाय की कट्टरता को हटाने- घटाने में घोर प्रयत्न करते हुए भी वे बहुत सफलता प्राप्त न कर सके ।। उनकी संस्थाएँ कुछ ही लोगों को प्रभावित करके ठंडी पड़ गई । 
डॉ० रघुवीर -   हिन्दी को जनभाषा बनाने और देश भर में उसका प्रचलन कराने के लिए दिल्ली में जन्मे डॉ० रघुवीर ने अपनी सामर्थ्य  भर कुछ उठा न रखा । देश में दो प्रतिशत की भाषा अंग्रेजी को भारत के मस्तिष्क पर छाए रहती, उन्हें बहुत अखरता था । उन्होंने इस संबंध में बहुत कुछ लिखा है । एक बार उनने भारतीय भाषाओं का सर्वभाषा सम्मेलन बुलाया था । संस्कृति विहार की स्थापना की और जो शब्द हिंदी में नहीं थे, उन्हें नए सिरे से सृजन करते हुए एक विशाल पारिभाषिक कोष बनाया । वे आजीवन घोरपरिश्रमरत रहे । 
ग्रह- नक्षत्रों का प्रतिफल -  क्या ग्रह नक्षत्र किसी का अकारण अनिष्ट करते और किसी पर सौभाग्य बरसाते हैं इस प्रश्न के उत्तर में महापंडित .राहुल सांकृत्यायन ने कहा-  ''करोड़ों मील दूर  रहने वाले निर्जीव ग्रहपिंड  एक ही समय में जन्मने वाले हजारों व्यक्तियों को चित्र विचित्र परिणाम देते होंगे, यह कल्पना सर्वथा मिथ्या है । उनका असर समूची पृथ्वी पर हो, प्राणियों या वनस्पतियों, परिस्थितियों पर हो, यह बात तो एक सीमा तक समझ में भी आती है । पर अलग अलग व्यक्तियों का वे ग्रह नक्षत्र पीछा करते फिरें, यह बात किसी भी विचारशील कीं समझ में नहीं आ सकती ।।''  
अनुपयुक्त मार्ग अपनाने की विडम्बना - निषाद पली गर्भवती थी । उसकी आम खाने की इच्छा हुई । वह ऋतुआमों की नहीं थी । पर सुन रखा था कि राजा के बाग में एक पेड बारहों महीने फलता है । सो वह रात्रि के समय उस बाग में गया और पेड पर चढ़ गया । आम ढूँढ़ता पर मिले नहीं । इतने में भोर हो गया । जाने से पकड़े़ जाने का  था, सो वह वहीं बैठा रहा और रात्रि आने पर लौटने का निश्चय किया । दिन में आम दीख पड़ने की आशा भी थी । 
दिन में राजा और पुरोहित आए और राजा को एक गुप्त मंत्र सिखाने का उपक्रम चलने लगा । राजा ऊँचे पर बैठे थे और पुरोहित जमीन पर । उपक्रम चलने लगा, तो निषाद से न रहा गया और वह पेड पर से नीचे उतर आया । दोनों स्तब्ध थे ।। 
निषाद ने कहा- ''मैं भ्रष्ट हो गया । यह पुरोहित मर चुका औंर आप मूर्ख है । मंत्रानुष्ठान की बात निरर्थक है ।'' 
जिज्ञासा का समाधान करते हुए उसने कहा- ''पत्नी के हठ  से प्रभावित होकर चोरी करने चला सो मैं भ्रष्ट हुआ । पुरोहित नित्य मांस मिश्रित राज्याश्रय का कुधान्य खाते खाते अपनी आध्यात्मिक क्षमता गंवा बैठा । 
इसलिए यह मर गया और राजा मूर्ख है, जो मंत्र देने वाले का स्तर न देखकर उसके सहारे सिद्धियाँ प्राप्त करने की कामना करता है ।'' तीनों अपनी अपनी भूलें समझते हुए उठकर अपने अपने घर चले गए । 
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