• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-1
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-2
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-3
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-1
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-2
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-3
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-5
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-6
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-7
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-8
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-9
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -1
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -2
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -3
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -4
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -5
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -6
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -7
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -8
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -9
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-1
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-2
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-1
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-2
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-3
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-4
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था संकट प्रकरणम्-1
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था संकट प्रकरणम्-2
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-3
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-4
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-5
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-1
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-2
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-3
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-4
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-5
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-1
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-2
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-3
    • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-1
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-2
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-3
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-5
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-6
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-7
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-8
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-9
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -1
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -2
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -3
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -4
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -5
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -6
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -7
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -8
    • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -9
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-1
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-2
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-1
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-2
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-3
    • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-4
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था संकट प्रकरणम्-1
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था संकट प्रकरणम्-2
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-3
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-4
    • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-5
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-1
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-2
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-3
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-4
    • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-5
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - प्रज्ञा पुराण भाग-4

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT TEXT SCAN TEXT TEXT SCAN SCAN


।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-3

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 3 5 Last
वातावृतिः करोत्येतत्कार्यं सम्पन्नमञ्जसा ।  मात्रमध्यापकस्त्वेतन्न कर्तुं प्रभवेदिह ।।  ४९  ।।  शिक्षणेन महतृ कार्यं परमध्यापको भवेत् । स्वभावेन चरित्रेण व्यवहारेण चोच्चगः ।।  ५० ।।  काले सोऽध्यापनस्यात्न पाठयत्येव नो परम् ।  अभिभावकदायित्वं तदा निवर्हति स्वयम् ।।  ५१  ।।  दायित्यमेतद् यो यावन्निर्वहेद् वस्तुतस्तु सः।  अधिकारी गुरुत्वस्य वर्तते धन्यजीवनः ।।  ५२।। 
भावार्थ- यह कार्य विद्यालय का वातावरण ही सरलता से संपन्न करता है। अकेला अध्यापक मात्र प्रशिक्षण के सहारे इतना महान कार्य संपन्न नहीं कर सकता। अध्यापक को अपना स्वभाव , चरित्र  और व्यवहार भी उच्चस्तरीय रखना चाहिए, क्योंकि अध्यापन- काल में वह मात्र पढ़ाता ही नहीं अभिभावकों और परिवार वालों की भी जिम्मेदारी निभाता है इस जिम्मेदारी को जो, जितनी अच्छी तरह निभा सके, वही सच्चे अर्थों में गुरुजन कहलाने का अधिकारी है तथा  उसका जीवन धन्य है ।। ४९- ५२ ।। 
व्याख्या- वर्तमान मान्यता विद्यालयों की मात्र इतनी है कि पुस्तकों से लदकर वहाँ तक जाया जाय, समय क्षेप करके बच्चों के शाम को वापस लौटते ही अध्यापक एवं अभिभावक अपने कर्तृव्यों की इतिश्री समझ लें। दोनों के ही रुचि न लेने एवं अभीष्ट वातावरण न बनने के कारण ही शिक्षा का स्तर नित्य गिरता जाता ह। लौकिक शिक्षा की पदवी प्राप्त छात्रों की संख्या नित्य बढ़ती जा रही है। कहीं श्रेष्ठ विद्यार्थी नाम भर को दिखाई देते हैं। जो हैं, वे स्वयं के पुरुषार्थ से अथवा अपनी जन्मजात विलक्षण प्रतिभा के बलबूते ऊँचे उठे होते हैं। यहाँ ऋषि श्रेष्ठ कात्यायत्र संकेत करते हैं कि छात्र निर्माण हेतु जितनी बड़ी जिम्मेदारी अभिभावकों की एवं श्रेष्ठ वातावरण की है, उच्चत्तरीय शिक्षण की है, उससे भी अधिक स्वयं शिक्षक की है। उन्हें व्यक्तिगत जीवन में श्रेष्ठ चरित्र वाला एवं मातृ हृदय संपन्न होना चाहिए । पढ़ाना, विद्या को छात्र के अंदर तक उतार देना जितना जरूरी है, उतना ही अपने चरित्र से शिक्षण देना भी। शिक्षक का यह नैतिक दायित्व है कि वे पहले स्वयं वैसा बनें, जैसा वह छात्रों से अपेक्षा रखते हैं। 
आदर्श गुरुकुल- आदर्श शिष्य
ऋषि आयोद धौम्य के गुरुकुल में पारस्परिक भाव सहयोग का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था । जिन छोटे छात्रों से पाठ याद न होता और सोचा हुआ कार्य पूरा न कर पाते, उन्हें बड़े छात्र दौड़कर उनकी कठिनाई का समाधान करते। गुरुदेव तक शिकायत पहुँचाने का अवसर ही न आता। सारी व्यवस्था सुनियोजित चलती रहती और उनका समाधान का उपक्रम भी न करना पड़ता। 
उन्हें संदेह हुआ कि कहीं छात्र आलस्य प्रमाद तो नहीं बरत रहे हैं। सो उनने एक- एक करके सभी को बुलाया और प्रगति का लेखा- जोखा लिया। पता चला कि बड़े, छोटे की सेवा- सहायता करते हैं और छोटे- बड़ों के प्रति कृतज्ञता भाव रखते हुए उनका सम्मान करते तथा परामर्श मानते हैं। इसी कारण समूचे गुरुकुल का समुचित विकास हो रहा है और पूरा छात्रावास एक भावभरा परिवार बन गया है। आयोद धौम्य को बड़ा संतोष हुआ उनने प्रशंसा की और प्रोत्साहन दिया। छात्रों का उत्साह बढा़। शिक्षा पूरी करके जब छात्र विदा होने लगे, तो उनने गुरु दक्षिणा माँगने का गुरुदेव से अनुरोध किया। आयोद धौम्य ने कहा- '' तुममें से जिनकी भी स्थिति और रुचि अध्यापन में हो वे यहाँ से जाकर अपने- अपने निवास स्थानों में विद्यालय चलायें। विद्या ही सच्चा धन है। उनके दान का पुण्य साधन दान की तुलना में अत्यधिक है।'' समर्थ छात्रों ने गुरु दक्षिणा चुकाने के लिए वही किया और यशस्वी हुए। 
दार्शनिक अरस्तू- एक आदर्श गुरु 
मेसीडोन में जन्मे महान् दार्शनिक अरस्तु का लक्ष्य अपने शिक्षण को सदाचरण तक सीमित न रखकर मनुष्य को नेतृत्व की क्षमता से सुसंपन्न बनाने का था। अतिमानव महापुरुष गढ़ने की उनकी ललक थी। उनके संपर्क में जो भी आया उसे मात्र सदाचारी बनाकर संतोष न किया, वरन् पराक्रम उभारने का प्रयत्न किया। वे कहते थे कि पराक्रमी ही अपना और दूसरों का भला कर सकते हैं। बिगड़ी हुई परिस्थितियों को बनाने की क्षमता उन्हीं में होती है। जन  उस देश का राजा बड़ा महत्त्वाकांक्षी था, पर कुछ व्यवस्थित योजना न बन पाने और साधन न जुट पाने के कारण कुछ न कर सका। उसने अपने पुत्र फिलिप को अरस्तू के सुपुर्द किया और अपने सपने इस माध्यम से पूरा करने का विचार किया। फिलिप ही बड़ा होने पर सिकंदर कहलाया। उसका विचार विश्व में चक्रवर्ती शासन स्थापित करने का था। इसलिए वह आजीवन प्रयत्न करता रहा। सिकंदर की योजनाएँ अरस्तू के परामर्श से ही बनती थीं। 
गुरु कैसे से ?
परमात्म तत्व की प्राप्ति के लिए उपनिषद्कार ने सूत्र दिया है-''तद् विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् '' अर्थात, उसे जानने के लिए जिज्ञासु व्यक्तिं गुरु के पास जाय । कैसे ? उसी सूत्र में संकेत है- '' समित्पाणि: श्रोत्रियं, ब्रह्मनिष्ठम्। '' गुरु के पास हाथ में समिधा लेकर, शिष्ट भाव से नम्रभाव से जाय। भाव है- '' समिधा अग्नि पकड़ती है। गुरु के पास ज्ञान ज्योति है। साधना समिधा जैसी पात्रता लेकर जाए। '' कैसे गुरु के पास ? जो ' श्रोत्रिय '- अर्थात, ज्ञान से श्रुतियों को ज्ञाता हो उनका तत्व समझता हो और 'ब्रह्मनिष्ठम् ' अर्थात, आचरण से ब्रह्मनिष्ठ हो। ब्रह्म अनुशासन को समझता भी हो और उसका पालन करने की निष्ठा क्षमता भी रखता हो। ऐसा संयोग जहाँ बनेगा, परमात्म तत्व की प्राप्ति अवश्य होगी। 
शिष्य के विवेक की परीक्षा 
संत तुकाराम जी को लगन लगी। उन्हें प्रभु कृपा से सद्गुरु मिले। मंत्र दीक्षा दी। तुकाराम जी ने कहा- '' गुरुवर ! दक्षिणा क्या दूँ ? गुरु बोले पावभर तूप दे दे।'' महाराष्ट्र में '' तूप् '' का अर्थ घी होता है। तुकाराम एक पाव घी देकर छुट्टी पा सकते थे। पर सोचा '' तूप '' शब्द का ही प्रयोग क्यों किया, ' घी ', 'घृत' आदि क्यों नहीं कहा । तुकाराम जी मानसिक उधेड़बुन में थे गुरु मंद- मंद मुस्करा रहे थे। शिष्य के विवेक समर्पण भाव की परीक्षा थी। तुकाराम ने गुरु की मुख- मुद्रा देखी। समझ गए अर्थ कुछ गूढ़ ही है। अर्थ किया तू प, अर्थात '' तेरापन ''। मेरेपन का अभिमान गुरु माँगते हैं। एक पाव घी के साथ भाव संकल्प कर दिया, अभिमान छोड़ने का। संत तुकाराम की निरभिमानिता उन्हें वहाँ तक उठा ले गई, जहाँ संदेह स्वर्ग ले जाने के लिए विमान भेजा गया। यह विवेकपूर्ण गुरुदक्षिणा ही फलित हुई थी।
आदर्श गोखले परिवार
शिक्षा  हेतु सुविधा, संरक्षण एवं मार्गदर्शन देने वाले जो भी हों, मित्र, संबंधी अथवा गुरुजन अपना उत्तरदायित्व निबाहने के कारण स्वयं धन्य बनते हैं एवं श्रेष्ठ व्यक्ति समाज को दे जाते  हैं। गाँधी जी के राजनैतिक गुरु देशमान्य गोपालकृष्ण गोखले बचपन में बहुत गरीब थे। जैसे- तैसे स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के बाद जब कॉलेज की पढ़ाई का समय आया, तो खर्च का प्रश्न उपस्थित हुआ। गोखले के बड़े भाई गोविंदराव को अपने छोटे भाई की योग्यता और प्रतिभा पर पूरा विश्वास था। उन्होंने कहा- '' मैं मेहनत- मजदूरी करके भी छोटे भाई को अवश्य पढ़ाऊँगा। '' बड़े भाई की पत्नी ने देवर के लिए अपने गहने तक बेचकर प्रारंभिक फीस आदि का प्रबंध किया और उन्हें राजाराम कॉलेज कोल्हापुर में दाखिल कर दिया। बड़े भाई गोविंदराव उस समय १५) रुपये प्रतिमास कमाते थे। उसमें से ७) रुपये वे छोटे भाई को मासिक खर्च के लिए नियमित रूप से भेज देते थे। गोखले इन रुपयों में बड़ीकिफायतदारी से अपना निर्वाह करते थे। बी०ए० हो जाने पर गोखले जी को ३५) रुपये मासिक पर एक स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई। इस वेतन में से वे प्रतिमास २) रुपये अपने भाई को नियमित रूप से भेजने लगे। वे जीवन भर अपने भाई- भाभी के त्याग और उपकार को नहीं भूले थे। ऐसे थे श्री गोपालकृष्ण गोखले एवं उनके भाई जिन्होंने परस्पर एक- दूसरे के प्रति अपना धर्म पूरी तरह निभाया।  
सफलता का रहस्य
एक व्यक्ति बाण बनाने की विद्या में पारंगत था । उसके बनाए बाण अद्भुत होते सफलता थे ।। इस कला को सीखने एक लुहार उसके पास पहुँचा। उसने पास बैठकर गंभीरता से उसकी कार्य पद्धति देखने के लिए कहा। एक बारात सामने की सड़क से गाजे- बाजे के साथ निकली। विद्यार्थी ने उसका विवरण सुनाया। बाण बनाने वाले ने कहा- '' न तब मुझे देखने की फुरसत थी और न अब सुनने की। समग्र तत्परता और अभिरुचि के साथ काम करना, यही उसे अद्भुत बना लेने का रहस्य है। सीखने वाला समझ गया और एकाग्रता का अभ्यास करने लगा। जितनी सफलता मिली उतने ही उत्तम बाण बनने लगे। 
यही आदर्श हर विद्या व्यसनी पर भी लागू होता है। शिक्षण हेतु सूत्र कहीं से भी मिलें, उसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
पढ़ाई पुरी होते ही स्कूल खोला
दक्षिण अफ्रीका के एक नीग्रो परिवार में जन्मे लड़के का नाम था बुकर टी० वाशिंगटन। उन दिनों काले दासों को सोलह- सोलह घंटे काम करना पड़ता था और खाने पहनने की कोई सुविधा न थी । बच्चे   ८ -१० वर्ष के होते ही काम में जोत दिए जाते। इन्हीं दुर्भाग्यग्रस्तों में बुकर भी था। बच्चे की इच्छा पढ़ने की हुई। काले लोगों के लिए ५९० मील दूर कनवा नगर में एक स्कूल था। पैसा नहीं था। इतनी दूर कैसे जाया जाय। वह रास्ते में मेहनत मजूरी करता पैदल चलता वहाँ तक जा पहुँचा। बड़ी कठिनाई से प्रवेश मिला। पर उसने पढ़ने में उतना ही श्रम किया जितना मालिकों के यहाँ करना पड़ता था। 
ग्रेजुएट होने के उपरांत उसने नौकरी की इच्छा नहीं की। वरन् अपने समुदाय के लिए पढ़ाई की व्यवस्था करने में जुट पड़ा। उसने एक- एक पैसा करके धन संग्रह किया। आज उसके स्कूल में ११०० विद्यार्थी पढ़ते हैं  । यह सारा प्रयास उस अकेले के पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है। 
विनोबा के सहायक बल्लभ स्वामी
आश्रम व्यवस्था का शिक्षण ही महामानवों की पृष्ठभूमि बनाता है। सन् १९२०-२१ में गाँधी जी साबरमती आश्रम में राष्ट्रीय शिक्षण प्रक्रिया का प्रयोग बड़े उत्साह पूर्वक चला रहे थे विनोबा उसके इंचार्ज थे। प्रतिभावान विद्यार्थी तलाश किए जा रहे थे, जो पढने के बाद देश के काम आएँ। इन्हीं छात्रों में से एक बल्लभ भाई भी थे, जो आगे चलकर बल्लभ स्वामी के नाम से प्रख्यात हुए। इन्हीं दिनों आंदोलन और शिक्षा कार्यक्रम को अलग रखने के लिए वर्धा में आश्रम बना। विनोबा छात्रों को लेकर वहाँ चले गए। इन छात्रों में सबसे प्रतिभावान थे- बल्लभ स्वामी। उनने विनोबा के प्रमुख सहायक के रूप में छोटी आयु होते हुए भी बहुत कुछ उत्तरदायित्व सँभाला। 
वर्धा आश्रम की प्रवृत्तियाँ दिन- दिन बढ़ती गई और बल्लभ स्वामी आगे बढ़कर उन सबमें हाथ बँटाते रहे। जो भी काम उन्हें सौंपा गया, बड़ी तल्लीनता से उसे पूरा कर दिखाया। सर्वोदय की कार्य पद्धति का शिक्षण चला और उसका देशव्यापी विस्तार हुआ। सर्व सेवा संघ की स्थापना हुई। उसके प्रथम अध्यक्ष स्वामी जी बने उसके द्वारा गाँधीवादी साहित्य का सुविस्तृत प्रकाशन हुआ। विनोबा के भूदान यज्ञ के प्रवास की समुचित व्यवस्था बनाना उन्हीं के जिम्मे था। एक उत्तरदायी, प्रामाणिक एवं प्रतिभावान कार्यकर्ताओं ने उस समय के रचनात्मक कार्यकर्ताओं का हृदय जीत लिया । ५८ वर्ष की आयु में ही वे इस संसार को छोड़ गए, किन्तु उनकी आत्मा अपने कार्य से पूरी तरह संतुष्ट थी। 
हंसराज जी की समानांतर शिक्षण प्रणाली 
परंपरा से बँधी शिक्षण प्रणाली को तोड़ना भी एक बहुत साहस भरा पुरुषार्थ है। मनोबल के धनी व्यक्ति आदर्श स्थापित करने हेतु सब कुछ बाजी पर लगा देते हैं। अंग्रेजी सरकार को  अपने पिट्ठ अंग्रेजी स्कूल कॉलेजों में ही मिल रहे थे।कोई और समानांतर शिक्षा संस्थान न होने के कारण छात्रों को मजबूरी में वहीं पढ़ना पड़ता था। विद्यार्थी हंसराज ने इस समस्या के समाधान के लिए भारतीय संस्कृति के अनुरूप छोटे- बड़े स्तर के विद्यालय स्थापित करने का निश्चय किया। डी० ए० व्ही० स्कूल कॉलेजों के अतिरिक्त गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का नया दौर आरंभ हुआ। ग्रेजुएट होने के उपरांत हंसराज जी महात्मा हंसराज हो गए और शिक्षा संस्थाएँ खोलने, खुलताने शिक्षा देने और उन्हें सुनियोजित करने में उनका सारा समय लगता। वे अपने वतन लाहौर तो कभी- कभी ही जाते थे। प्रयोजन की पूर्ति के लिए निरंतर उत्साही लोगों से संपर्क साधने हेतु परिभ्रमण ही करते रहे थे। भारतीयतामय उनके प्राण थे। गुरुकुल ज्वालापुर (हरिद्वार) उन्हीं की स्थापनाओं में से एक है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते थे- '' दीपक के नीचे अँधेरा ही रहता है। उसका प्रकाश दूर पड़ता है। इसी प्रकार साधु महात्माओं को उनके आस- पास वाले लोग समझ नहीं सकते, दूर रहने वाले उनके भाव से मुग्ध हो जाते हैं। '' 
''यदि आत्महत्या करनी हो तो एक निहानी ही पर्याप्त होती है, पर दूसरे को मारने के लिए ढाल- तलवार की आवश्यकता होती हैं । इसी प्रकार लोक शिक्षा देनी हो, तो बहुत से शास्त्र  पढ़ने पड़ते हैं और अनेक तर्क युक्तियों से विचार करके समझाना पड़ता है, परंतु खुद को धर्म लाभ केवल एक बात पर विश्वास करने से ही हो सकता है। ''  ज्ञानात् पुस्तकसम्बद्धादतिरिक्तं च कौशलम्।  व्यवहारसमुद्भूतं स्वभाव: श्रेष्ठतां गत: ।। ५३ ।।  तयोर्निर्मितये भाव्यं वातावृत्याऽनुकृलया।  निर्देशेन तथाऽनेकैः साधनैरपि संततम् ।। ५४।।  विशेषताभिरेताभिर्युता शिक्षणपद्धति:।  यत्राऽऽस्ते तत्र ये बाला पुष्टि यान्ति पठन्त्येपि ।। ५५।।  प्रगतिं सार्वभौमां ते  सन्ततं यान्ति च क्रमात्।  जीवने चाऽन्यमर्त्यानां कृते प्रामाणिकाश्च ते  ।। ५६।।  परिवाराद् भूमिका सा प्रारब्धा सन्ततं चलेत्।  विद्यालयस्य कैशोर्य यावदत्येति बालक: ।। ५७।।  प्रौढतां परिपक्यत्वं गृह्णात्येव च नो यदा।  तदैव् ज्ञेयं बालस्य जाता निर्मितिरुत्तमा ।। ५८ ।। 
भावार्थ- पुस्तकीय के अतिरिक्त व्यवहार, कौशल और श्रेष्ठता- संपन्न स्वभाव बनाने के लिए तदनुरूप वातावरण मार्गदर्शन एवं साधन भी होने चाहिए। ऐसी विशेषताओं से युक्त शिक्षण पद्धति जहाँ हैं  वहाँ पढ़ने, पलने और बढ़ने वाले बालक सर्वतोमुखी प्रगति करते हैं तथा  जीवन में अन्य लोगों के लिए प्रमाण बनते है। अस्तु, घर- परिवार से विद्यालय की भूमिका आरंभ होकर तब तक चलती रहनी -चाहिए जब तक कच्ची आयु पार करके प्रौढ़ता- परिपक्वता की भूमिका न निभाने लगे। जब ऐसा हो जाय, तब समझना चाहिए कि बालक का निर्माण हो गया ।। ५३ - ५८ ।। 
व्याख्या- जीवन बहुरंगी है। यहाँ तरह- तरह की परिस्थितियों से, भिन्न- भिन्न मनःस्थिति के व्यक्तियों से निरंतर पाला पड़ता रहता है। जीवन संग्राम में सफल होने के लिए व्यक्ति को व्यवहार कुशल होना अत्यंत अनिवार्य है। इस विधा का शिक्षण किसी विद्यालय में अलग से नहीं दिया जाता, अपितु समग्र शिक्षण पद्धति ही ऐसी होती है, जिससे उससे जुड़ने वाले छात्र सर्वांगपूर्ण विकास कर सकें। शिक्षण तभी समग्र माना जा सकता है, जब बच्चे को परिवार संस्था से लेकर गुरुकुल तक निरंतर इसी प्रकार मार्गदर्शन मिलता रहे। एक बार मनःस्थिति के साँचे में ढलने पर वह जीवन का एक अंग बन जाती है। तब यह प्रयास- पुरुषार्थ सफल हुआ माना जा सकता है। 
महर्षि आरुणि का महाविद्यालय 
महर्षि आरुणि मेधावी छात्र थे। उनने कड़े अनुशासन में व्यक्तित्व के विकास की शिक्षा पाई  थी ।वे शिक्षण काल में ही यह सोचते रहे कि प्रतिभाओं का विकास ही समय की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकता है। मात्र भाषा- ज्ञान एवं सामान्य- ज्ञान से दैनिक उपार्जन संबंधी प्रयोजन ही पूरे हो सकते हैं। अर्थकारी शिक्षा पाकर लोग सुविधा साधन तो प्राप्त कर सकते हैं , पर महान नहीं बन सकते। अस्तु, उनने आरंभिक संस्कारों की परीक्षा लेकर ही अपने विद्यालय में भर्ती का नियम बनाया। सभी स्तर के छात्रों को उनके यहाँ प्रवेश की सुविधा न थी। 
आरुणि पुरातन पुराण इतिहसों से मात्र भले- बुरे निष्कर्ष निकालने भर का प्रयोजन पूरा करते थे। समय की समस्याओं एवं आवश्यकताओं का स्वरूप, कारण और निराकरण समझाना उनका प्रधान विषय था। उनके यहाँ पक्ष और विपक्ष का तुलनात्मक अध्ययन कराया जाता था, जिनसे कि वे प्रतिपक्षिओं की सहायता करने में समर्थ हो सकें। उन दिनों उच्चस्तरीय महाविद्यालय थोड़े ही थे, जिनमें प्रतिभावानों को ऊँची भूमिका निभाने के योग्य बनाया जा सके। ऐसे थोड़े छात्र ही अपना और समाज का भारी हित साधन करते थे। 
सत्यकेतु की स्वावलंबी शिक्षा
महर्षि सत्यकेतु जिस गुरुकुल में पढे़ थे, उसमें पुस्तकें कम पढ़ाई जाती थीं, पर व्यावहारिक ज्ञान अर्जित करने और प्रतिभा का विकास करने पर अधिक जोर दिया जाता था। लौटने पर उनने अन्य कार्यों में संलग्न होनें की अपेक्षा वैसा ही गुरुकुल चलाने का निश्चय किया। छात्रों का आधा   समय  बौद्धिक शिक्षा के लिए और आधा व्यावहारिक ज्ञान के लिए रखा। सभी छात्रों को थोड़ी- थोड़ी भूमि देकर उत्तम कृषि करने में लगाया और साथ ही गोपालन का काम भी सौंपा। इस प्रतिस्पर्धा में सभी छात्र अपनी कुशलता का परिचय देते और अधिक उत्पादन में एक- दूसरे से आगे रहने का प्रयत्न करते। 
गुरुकुल स्वावलंबी बना, छात्र अपने श्रम से निर्वाह करने में प्रवीण हो गए और उनका आत्मविश्वास बढ़ा। दिनचर्या को नियमित और व्यवहार को सज्जनोचित बनाने की कला में प्रवीण होकर उनके छात्र घर लौटते ही अपने परिवार में स्नेह सहयोग की धारा बहा देते। शारीरिक स्वस्थता और आर्थिक संपन्नता की दृष्टि से वे अपेक्षाकृत अधिक सफल रहते और उनकी सर्वत्र प्रशंसा होती। 
गुरुकुल का छात्र मन्त्री बना
गुरु आश्रम  में बारह वर्ष पढ़ने के उपरांत जब धौम्य घर लौटे, तो उनकी प्रतिभा असाधारण थी। नगर के विद्यालयों में पढ़ने वाले और घर पर अध्यापक बुलाने वाले छात्रों को पुस्तकीय जानकारियाँ  तो थी, पर उन गुणों का एक प्रकार से अभाव ही था, जिनके कारण व्यक्तित्व उभरते हैं और प्रतिभा का निखार होता है। धौम्य ने भी अपना गुरुकुल आरंभ कर व्यावहारिक स्वावलंबन प्रधान शिक्षा आरंभ की। 
नगर के संभ्रांत लोगों ने सभी छात्रों को बुलाया  और उनसे विभिन्न परिस्थितियों का सामना करने संबंधी प्रश्न पूछे। उन्हें वैसे अवसर ही न मिले, इसलिए कुछ भी उत्तर न दे सके।किन्तु गुरु सान्निध्य में रहकर जिसने प्रश्नोत्तरों के माध्यम से शिक्षा पाई थी तथा छात्र परिवार के साथ रहकर परिवार संरचना का ज्ञान सीखा था, धौम्य का शिष्य सत्यमित्र सर्वोच्च निकला। उसे पुरस्कृत किया गया। भविष्य में वह राजा का मंत्री बना।
गुरुकुल और विद्या गुरु
भगवान राम के कुल गुरु वशिष्ठ थे । पर उन्हीं के समकालीन गायत्री ( आत्मिकी) और सावित्री ( भौतिक) के निष्णात विश्वामित्र भी थे। विश्वामित्र यज्ञ रक्षा के बहाने राम- लक्ष्मण को अपने आश्रम में ले गए और उपरोक्त बला- अति बला विद्याओं का अभ्यास कराया। उन उपलब्धियों के आधार पर वे असुर निकंदन और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए और राम- राज्य की नवयुग स्थापना में समर्थ हुए। 
शिक्षा के बहाने पुरुषार्थ न रुके
अकबर ने १४ साल की उम्र में शासन सँभाला और उसे और की अपेक्षा अधिक सफलता के साथ चलाया। संरक्षक लोग उसका समय पढ़ाने- लिखाने में लगाए रहकर बर्बाद करने पर तुले हुए थे । उसने कहा- ' '' शिक्षा पुरुषार्थ की चेरी है। मुझे अपना काम करने दो । '' जो गुरु उसे राज- काज सें दूर रहकर पढ़ने की बात बताता रहता था, उसे उसने सर्वधर्म समभाव हेतु विभिन्न मंतव्यों के संकलन में लगा दिया एवं अपनी व्यावहारिक शिक्षा के बलबूते ही एक सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। 
मुझे भीख नहीं चाहिए स्वावलंबन 'व्यक्ति की सबसे बड़ी निधि है। किसी से सहायता माँगने की अपेक्षा स्वाभिमानी व्यक्ति अपने  पुरुषार्थ पर  अधिक विश्वास रखता है चाहे प्रकृति उसके विकास में कितनी ही बाधक दया भाव दिखाते हुए एक सज्जन ने एक डालर का सिक्का एक अपंग बच्चे के हाथ में रखा और कहा- '' जाओ बेटे, कुछ खाकर अपनी भूख मिटा लो। '' सिक्का लौटाते हुए बच्चे ने स्वाभिमान पूर्वक कहा- ' '' साहब ! मैं भीख माँगने नहीं आया, आपसे विनय करने आया हूँ कि मुझे किसी स्कूल में भर्ती करा दो, जहाँ मैं पढ़ सकूँ। '' उन सज्जन ने बच्चे से प्रभावित होकर उसे एक स्कूल में दाखिल करा दिया। दोनों पाँवों का लँगड़ा यह लड़का ही एक दिन कुशल हवाबाज सैंडर्स के नाम से विख्यात हुआ। 
जिन्हें भी अशिक्षितों से, असहायों से कोई सहानुभूति है, उन्हें अपनी कृपा धनराशि के रूप में जुटाने के स्थान पर उन्हें स्वावलंबन प्रधान शिक्षा देनी चाहिए। यह उनका, सहायता पाने वाले के लिए सर्वश्रेष्ठ उपहार है। 
प्रगति के पाँच आधार
अरस्तू ने एक शिष्य द्वारा उन्नति का मार्ग पूछे जाने पर उसे पाँच बातें बताई- ( १) अपना दायरा बढ़ाओ, संकीर्ण स्वार्थपरता से आगे बढ़कर सामाजिक बनो। '' ( २) आज की उपलब्धियों पर संतोष करो और भावी प्रगति की आशा करो। ( ३) दूसरों के दोष' ढूँढ़ने में शक्ति खर्च न करके, अपने को ऊँचा उठाने के प्रयास में लगे रहो। (४) कठिनाई को देखकर न चिंता करो, न निराश हो, वरन् धैर्य और साहस के साथ उसके निवारण का उपाय करने में जुट जाओ। ( ५) हर किसी में अच्छाई खोजो और उससे कुछ सीखकर अपना ज्ञान और अनुभव बढ़ाओ। इन पाँच आधारों पर ही कोई व्यक्ति उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। 
भद्रा! नरेषु संस्कारभावनायास्तु  जागृते:।  दायित्वं बालकेष्वत्र जातेष्वपि युवस्वपि ।।  ५१ ।।  समाप्तिं याति नो देवसंस्कृति: प्राक् तु जन्मन:।  पश्र्चादपि च मृत्योस्तां कर्तुं संस्कारसंयुताम् ।।  ६०  ।।  मानवीं चेतनां दिव्यामकार्षीत् क्रममुत्तमम्।  नोद्गछेत्  पशुता मर्त्येऽनिवायं   चाङ्गमत्र तु ।।६१  ।।  इदन्तु सभ्यतास्थूलनियमाश्रितमप्यलम्।  सिद्धयतीह ततोऽग्रे च मनुष्ये बलिदानिनाम् ।। ६२ ।।  सतां समाजसंस्कारकर्तृणां चित्तभूमिकाम्।  कर्तुं विकसितां तं च निर्मातुमृषिमुत्तमम् ।।  ६३ ।।  मनीषिणां महामर्त्यं देवदूतं समिष्यते।  संस्कृतेरिदमेवास्ति कार्यं मङ्गलदं नृणाम् ।। ६४ ।। 
भावार्थ- हे भद्रजनो ! मनुष्य में सुसंस्कारिता जगाने का उत्तरदायित्व बालकों के युवा हो जाने पर ही समाप्त हो जाता है। देव संस्कृति ने जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानव चेतना को संस्कारित करने का क्रमबनाया है। मनुष्य में पशुता के कुसंस्कार न उभरने देना उसका एक अनिवार्य पक्ष है। यह तो सभ्यता के स्थूल नियमों के माध्यम से भी किसी सीमा तक सध जाता है किन्तु इससे आगे मनुष्य में संत, सुधारक, शहीद की मनोभूमि विकसित करना उसे मनीषी, ऋषि, महामानव, देवदूत स्तर तक विकसित करना भी अभीष्ट है। यह कार्य संस्कृति का है। ।। ५९- ६४ ।। 
व्याख्या- मात्र विद्यार्जन कर विद्वान बना देना, पदवी दिलाकर वैभव संपन्न बना देना ही शिक्षा का लक्ष्य नहीं होता। देव संस्कृति के इस महत्त्वपूर्ण प्रसंग की परिधि अत्यंत विशाल है। बालक में जगाए गएसंस्कारों की परिणति आगे चलकर और भी महान हो, यह उद्देश्य ऋषिगणों का, शिक्षण प्रक्रिया के मूल में रहा है। गर्भावस्था से ही संस्कारों  के पोषण की प्रक्रिया आरंभ होती एवं मृत्योपरांत तक चलती रहती है। यह देव संस्कृति के विभिन्न उपक्रमों के माध्यम से संपन्न होता है। व्यक्ति न बिगड़े, अपनी पूर्व योनियों के चिर संचित सरकारों की ओर पुनः: उन्मुख न हो यह ठीक है किन्तु यह भी जरूरी है कि वह और भी श्रेष्ठ बने। 
विकास क्रम में सुसंस्कारों के समावेश द्वारा व्यक्ति किस तरह श्रेष्ठ पुरुष के रूप में, देवमानव के रूप में विकसित होता है, यह संस्कृति का दायित्व है। उदार, परमार्थ परायणता, दूसरों के लिए कुछ करने की ललक, परदुःखकातरता जिसमें विकसित होने लगे, वह व्यक्ति संत का पद पा लेता है। इसके बीजांकुर बाल्यकाल में डाले एवं निरंतर पोषित किए जाने चाहिए। समाज में संव्याप्त अनीति के प्रति आक्रोश, प्रचलन के नाम पर चले आ रहे पूर्वाग्रहों- परंपराओं का डटकर विरोध, पिछड़ों को उठाने- आगे बढ़ाने हेतु तत्परता जिसमें विकसित होती है, वे सुधारक कहलाते हैं। शहीद वे जो संस्कृति, राष्ट्र, समाज की रक्षा हेतु अपना सब कुछ बलिदान कर दें। कोई अनिवार्य नहीं कि इसके लिए शरीर ही त्यागना पड़े, शहीद वे भी होते हैं, जो वैभव का, सुख- साधनों का स्वेच्छा से परित्याग कर स्वयं सादगी से रहकर दूसरों के लिए जीते हैं। प्रकारांतर से इन्हीं को ऋषि, महामानव, चिंतक, मनीषी, देवदूत, देवमानव कहा गया है। मनुष्य शरीर में ये प्रत्यक्ष देवता के समान होकर धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। 
ऐसे अनेक उदाहरण देव संस्कृति के वर्तमान मध्यकालीन व पुरातन इतिहास के मिलते हैं, जिनमें व्यक्ति सामान्य से असामान्य बनकर समाज की महान सेवा कर गए। वे मात्र संस्कृति की रक्षा के लिए जिए। 
दर्शन के प्रकांड विद्वान्
कॉलेज में पादरी हिंदू धर्म की बुराई किया करते। एक बालक को यह बात सहन न हुई। उसने खड़े होकर पूछा- '' महोदय ! क्या ईसाई धर्म दूसरे धर्मों की निंदा करना सिखाता है ?'' पादरी खीज उठा, उसने कहा- '' और क्या हिंदू धर्म दूसरों की प्रशंसा करता है ?'' बालक ने तटस्थता से उत्तर दिया- '' हाँ। हमारा धर्म किसी भी धर्म की बुराई नहीं करता। गीता में हमारे भगवान् कृष्ण ने स्वयं कहा है कि किसी भी देवता की उपासना करने से मेरी ही उपासना होती है। अब आप ही बताइए हमारा धर्म दूसरे धर्मों की निंदा कैसे कर सकता है ?'' 
पादरी को उत्तर देते न बना। भारतीय संस्कृति जिसकी रग- रग में बस रही थी, वह बालक दर्शन का प्रकाण्ड विद्वान हुआ, आज हम उन्हें डा० राधाकृष्णन के नाम से जानते हैं। वे रूस में भारत के प्रथम राजदूत व बाद में भारत के राष्ट्रपति बने । देवसंस्कृति का प्रकाश उन्होंने सारे विश्व में फैलाया। 
संस्कृति के उद्धारक
पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह एक साधारण जमींदार के लड़के थे, किन्तु अपनी सामर्थ्य के बल पर वे पंजाब के राजा बने। प्रसिद्ध कोहेनूर हीरा इन्हीं के पास बहुत समय तक रहा, जो उन्होंने पठान शासकों से प्राप्त किया था। रणजीत सिंह की बहादुरी इतिहास प्रसिद्ध है । उन्होंने आक्रांताओं से देश की सीमा की सतत् रक्षा की। 
चंद्रगुप्त मौर्य दासी पुत्र था, लेकिन विशाल मौर्य साम्राज्य का विस्तार उसी ने किया। अपने पुरुषार्थ- अध्यवसाय के बल पर चंद्रगुप्त मौर्य ने एक बड़े साम्राज्य की नींव डाली। उसके समय में ही वृहत्तर भारत एक विस्तृत रूप ले सका था।
महाराज छत्रसाल एक छोटे जमींदार के पुत्र थे, लेकिन उन्होंने अपनी स्थिति से बढ़कर प्रसिद्ध बुंदेला राज्य की स्थापना की। छत्रसाल ने शिवाजी की तरह अपनी शक्तियों को बढ़ाकर उनसे मिलकर मुगलों के विरुद्ध मोर्चा जमाया। वे कभी भी किसी प्रलोभन के समक्ष झुके नहीं। जब तक वे जीवित रहे, सभी राज्याध्यक्षों को एक कर उनमें विदेशी आक्रांताओं से मोर्चा लेने के लिए मन्यु जगाते रहे। 
प्रतिकूलताओं में भी जूझनेवाले नौरोजी 
दादा भाई नौरोजी बंबई के एक पारसी परिवार में जन्मे। एम०ए० करने के बाद उन्होंने ऊँची नौकरी  करने की अपेक्षा अध्यापक बनना श्रेयस्कर समझा, क्योंकि उसमें लोक सेवा के लिए अवकाश भी रहता था और जन संपर्क का अवसर भी मिलता था। वे स्त्री  शिक्षा के लिए व्याकुल थे। भारत में वैसा वातावरण तनिक भी नहीं था। उनने सरकार पर दबाव डाल कर कई कन्या पाठशालाएँ खुलवाईं और घर- घर जाकर अध्यापिकाएँ पढ़ाया करें, ऐसा प्रबंध किया। रूढ़िवादियों का विरोध रहने पर भी वह कार्य आगे बढ़ता गया।
कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी, तब तक कोई आदोलन न था। उनने इंग्लैण्ड जाकर जनता को भारत की स्थिति और माँग समझाने का औचित्य समझा और लंदन चले गए। उनका प्रचार कारगर हुआ और वे इंग्लैंड की पार्लियामेंट के सदस्य चुने गए। वहाँ पहुँचकर उन्हें भारत की माँग अच्छी तरह रखने का अवसर मिला। कुछ सुधार तो तभी से होने आरंभ हो गए। 
जब वे स्वदेश लौटे, तो सन् १९०६ में कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए। वे जीवन भर कांग्रेस संगठन और आंदोलन को मजबूत बनाने में लगे रहे। 
क्रांतिकारियों के जन्मदाता
लाला लाजपतराय पंजाब के एक माने हुए वकील थे। वकालत से बचे हुए समय को उनने शिक्षा प्रचार में लगाया। अंग्रेजी सरकार उन दिनों मात्र उतने ही अंग्रेजी स्कूल खोलती थी,  जितने से उनके लिए क्लर्क मिल सकें। लालाजी ने देश की प्रगति के लिए शिक्षा प्रसार आवश्यक समझा और अपनी समस्त आजीविका और मित्रों का सहयोग लेकर वे इस कार्य को व्यापक बनाने में लगे रहे। अछूतोद्धार के लिए उनने विशेष काम किया। डी०ए ०व्ही० स्कूल- कॉलेजों की एक प्रकार से बाढ़ आ गई। कांग्रेस  आंदोलन में सम्मिलित हुए और लाहौर में 'वंदे मातरम' अखबार निकाला। सामाजिक कुरीतियों और राजनैतिक अत्याचारों पर वे करारी चोट करते थे। लालाजी को मांडले की जेल में बंद कर दिया गया। छूटे तो कलकत्ता कांग्रेस के अध्यक्ष बने। स्वतंत्रता के लिए वातावरण बनाने के लिए विदेशों में उन्होंने काफी दौरे किए। उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। कांग्रेस के जीवनदानी कार्यकर्ता का निर्वाह चलाने के लिए सर्वेंट ऑफ दी मिल्स सोसाइटी बनाई और उसके लिए अच्छी निधि एकत्रित सुधारक- संत  कबीर कबीर किसी विधवा के पेट से काशी में जन्मे । माता उसे जन्मते ही रास्ते पर पड़ा छोड़ गई। उसे एक मुसलमान जुलाहे ने पाल लिया। बालक बड़ा होनहार था। पिता के काम में छुटपन से ही मन लगाकर सहयोग देता। साथ ही स्वामी रामानंद के सत्संग में भी सम्मिलित होता। 
वहीं उसने पढ़ना, कविता बनाना और वादन भी सीख लिया। जिस प्रकार एकलव्य ने मिट्टी के द्रोणाचार्य को गुरु बनाया था, उसी प्रकार कबीर ने भी रामानंद का शरीर स्पर्श हो जाने और ' राम- राम ' कह देने भर से अपनी गुरु- दीक्षा पूर्ण हुई मान ली। 
कबीर ने वयस्क होते ही कुरीतियों का निवारण, अंधविश्वासों का उन्मूलन, सांप्रदायिक सद्भाव एवं सच्चरित्रता, लोक सेवा में असली भक्ति भावना होने का प्रचार किया। उनके असंख्यों अनुयायी बने। वहाँ कट्टर पंथी मुसलमान उनके शत्रु भी बने और त्रास देने में कमी न रही। पर कबीर अपने मार्ग पर चलते ही रहे। वे पिता का काम करते हुए आजीविका उपार्जित करते थे।
कबीर ने अपने ही स्वभाव की एक युवती से विवाह कर लिया। वे ११८ वर्ष जिए। अंत समय मगहर गए, लोगों की इस मान्यता का खंडन करने कि काशी में मरने से मुक्ति होती है। मरते समय हजारों भक्त एकत्रित थे। मुसलमान दफन करना चाहते थे और हिंदू जलाना। झगड़ा बढ़ने लगा, तो कबीर की लाश गायब हो गयी। कफन के नीचे फूल पड़े रह गए। उन्हीं को हिंदुओं ने जलाया और समाधि बनाई। मुसलमानों ने फूल गाढ़े और उस स्थान पर मकबरा बनवाया। ऐसे थे सच्चे भक्त कबीर। उनने जातिगत ऊँच- नीच का जन्म भर की। 
साइमन कमीशन को बॉयकाट करते समय पुलिस की लाठियाँ लगने से उनका स्वर्गवास हो गया । उनके स्वर्गवास ने देश में अनेक क्रांतिकारी पैदा कर दिए। विरोध किया। देश के लिए समर्पित शंकर देवजी एम० ए० पास करने के उपरांत पं० शंकरदेव अपनी मातृभूमि नेपाल लौट गए। शासन उन्हें अच्छी नौकरी भी दे रहा था, पर बंधन में बँधने की अपेक्षा उनने वहाँ की जनता को जागृत और संगठित करना उचित समझा। ताकि शासन सुधार की आधारशिला मजबूत बनाई जा सके। 
उनने जन सहयोग से छोटे- बड़े अनेक विद्यालय भी चलाए, जिनमें समय के अनुरूप शिक्षा दी जाती थी। शंकर देव अपना गुजारा किसी प्रकार करते रहे, किन्तु सारा जीवन नेपाल का स्तर ऊँचा उठाने में लगे रहे। शासन से लेकर जनता तक, सभी उनकी आदर्शवादी ईमानदारी के कायल थे।
विदेशी, पर देवसंस्कृति की अनुचर 
देव संस्कृति ने दूर देशों से प्रतिभाओं को खींचकर इस राष्ट्र में बुलाया व उनसे वह काम कराया है, जिसने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया। श्रीमती एनीवेसेंट लंदन में जन्मी। वे थियोसॉफिकल सोसाइटी की संस्थापिकाओं में से एक थीं। सत्य की खोज और सेवा के लिए समर्पण, इन भावनाओं से उनका अंतरंग ओतप्रोत था। सेवा के लिए उपयुक्त कार्यक्षेत्र देखकर वे भारत चली आईं और न केवल थियोसॉफीआंदोलन तक सीमित नहीं, वरन् परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाए। उन्होंने मद्रास से ' काननवील ' और ' दैनिक मद्रास स्टैंडर्ड 'पत्र निकाले।' डोली हेरल्ड ' चलाया और स्काउट आंदोलन को व्यापक बनाने के लिए घनघोर प्रयत्न किए। महिला जागरण के लिए अनेक महिला संगठन बनाए। ' सेंट्रल हिंदू कॉलेज ' उन्हीं की स्थापना है, जो आगे चलकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ और महामना मालवीय जी ने उसे सँभाला। भारतीय स्वतंत्रता के लिए उनने कम काम नहीं किया। जेल गईं । राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा बनीं और समय- समय पर देश की उलझी- गुत्थियों को सुलझाती रहीं। उन्होंने अत्यंत महत्त्वपूर्ण ३०० पुस्तकें लिखीं। एनीवेसेंट ८६ वर्ष जीवित रहीं और इसी देश को अपना मानकर इसी की मिट्टी में समा गई। 
दधीचि का अस्थिदान
इंद्र जैसे महाबली देवता के लिए भी, जब तक महर्षि दधीचि की धर्मपत्नी भगवती वेदवती उपस्थित थीं, आश्रम में प्रवेश करना कठिन था। इंद्र सबसे छुप सकते थे, पर सती के अपूर्व तेज के समक्ष छद्मवेष छिपा सकना, उनके लिए भी संभव न हुआ। वेदवती जल भरने के लिए बाहर निकलीं, तब इंद्र ने आश्रम में प्रवेश किया और महर्षि दधीचि से अस्थिदान ले लिया। देववती लौटीं, तब तक अस्थिदान दिया जा चुका था। महर्षि दधीचि वृत्रासुर हनन हेतु वज्र बनाने के लिए अस्थिदान कर चुके थे, प्राण निकल चुके थे। वेदवती ने एक क्षण में ही सारी स्थिति का अनुमान कर लिया। अभी वे इंद्र को शाप देने ही जा रही थीं कि दिव्य देहधारी महर्षि ने उन्हें परावाणी में समझाया- '' भद्रे ! देवत्व की रक्षा के लिए यह दान मैंने स्वेच्छा से दिया है। अब आपके लिए भी यह उचित हे कि शाप न देकर गर्भ में पलने वाली आत्मा का ऐसा निर्माण करो कि '' तत्वशोध '' की हमारी साधना अधूरी न रहने पाए।"  '' आज्ञा शिरोधार्य है देव !'' यह कहकर वेदवती तपश्चर्या में संलग्न हो गई। इतिहास साक्षी है कि अपने गर्भ से पिप्पलाद जैसा महान् ऋषि उत्पन्न कर उन्होंने पति की अंतिम कामना पूरी कर दी। 
देशप्रेम पहले
आदर्श नागरिक के लिए राष्ट्र व समाज के समक्ष अपनी संतान भी कुछ नहीं के समान है। यह मोह नहीं, कर्तव्य की जीत होती है। 
यूनान और फ्राँस  के बीच युद्ध चल रहा था। यूनानी बड़ी वीरता से लड़ रहे थे, पर देवी के मंदिर के पुजारी की, फ्राँस वालों के लिए जासूसी के कारण वे हार रहे थे। न्याय- सभा न्याय करने जुटी। पुजारी ने अपराध स्वीकार कर लिया और क्षमा याचना की। सभा में विचार होने लगा। इतने में एक बूढी़ औरत सभा के सम्मुख आकर बोली- '' समय अधिक सोच- विचार का नहीं है। यह दोबारा देश- द्रोह नहीं करेगा, इसका क्या भरोसा ? छोड़ देने से तो दूसरों को भी प्रोत्साहन' मिलेगा। इसे तुरंत प्राण दंड मिलना चाहिए। यह मेरा पुत्र है, लेकिन पुत्र प्रेम से अधिक मैं देश−प्रेम  को महत्व देती हूँ। '' 
राष्ट्र देव की बलिवेदी पर  
अशफाकउल्ला काकोरी कांड में जेल की कालकोठरी में बंद थे। फाँसी के फंदे को चूमने में कुछ घंटे ही शेष थे। सभी रिश्तेदार और हितैषी उन्हें मुखविर बन जाने की सलाह दे रहे थे। परन्तु भारतमाता के  संरक्षक सच्चे सपूत पर इन सबका कोई असर न पड़ा। उन्होंने फाँसी की कोठरी से अपनी माँ को जो खत लिखा था, वह उनकी संस्कारित चेतना का जीवंत प्रमाण है। 
उन्होंने लिखा- ' मेरी माँ से बढ़कर मेरे खानदान में कौन- सी माँ हो सकती है, जिसका बेटा जवाँ मर्दी और बहादुरी से इस्तकामत इस्तकलाल से रास्तबाजी के साथ मासूमियत का जामा पहने हुए कुर्बान गाहे वतन पर कुरबान हो रहा है ।.. ..... आपको फख्र करना चाहिए कि आपका बच्चा बहादुरी की मौत मर रहा है। यह आपके दूध का असर है कि दिल अंदर से फूला चला जाता है। मुझे कतई ख्याल नहीं गुजरता कि मुझे कल फाँसी दी जाएगी। मेरी अच्छी माँ। मेरी खताएँ माफ फरमा कर मशगुले खुदा हो जाओ। '' 
उनके जैसे अनेक शहीद- रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद ने ही स्वतंत्र भारत के लिए स्वयं उत्सर्ग कर, वह वातावरण बनाया, जिसने फिरंगियों को स्वदेश लौट जाने के लिए विवश कर दिया। 
बंकिमबाबू का आनंदमठ 
बंगाल के बंकिम बाबू अंग्रेजी सरकार में उच्च ओहदे पर डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। उन्होंने साथ ही एक से एक अधिक प्राणवान पुस्तकों का बंगला में सृजन किया है, किन्तु उन सबमें '' आनंदमठ '' उनकी विशेष कृति है। इससे उन्होंने राष्ट्र स्वातंत्र्य हेतु योजनाबद्ध क्रांति का एक व्यावहारिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। मंदिर युग के खंडहरों में क्रांतिकारी साधुवेश में निवास करते हैं। इस प्रकार उनकी भोजन और निवास की गुत्थी सुलझ जाती है। मंदिर- मठों पर शासन को भी उतना संदेह नहीं होता। दिन में देश का प्रचार और रात्रि में आक्रमण का क्रम चलता है। इस कार्य में उन्हें भावनाशील जनता की जहाँ सहायता मिलती है, वहाँ पता चल जाने पर शासन द्वारा त्रास भी कम नहीं दिया जाता। 
इस प्रकार योजना का सांगोपांग स्वरूप प्रस्तुत करके प्रकारांतर से भारत के वातावरण में क्रांति की सफलता का एक अच्छा मार्गदर्शन किया है। उसके अनुरूप अनेक स्थानों पर प्रयास हुए भी। आनंदमठ को सरकार ने जप्त कर लिया। फिर भी भारत की सभी भाषाओं में उसके अनुवाद होते रहे। क्रांतिकारी आंदोलन की जड़ यहीं से जमी व पनपी। 
गणेश शंकर का विद्यार्थी बलिदान
गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी निजी प्रतिभा के बल पर इतने ऊँचे उठे कि उन्होंने ' कर्मवीर ', 'सरस्वती' आदि पत्रिकाओं में सहायक रहकर अपना निजी पत्र ' प्रताप ' प्रकाशित किया। वह सदा अत्याचार पीड़ितों का हिमायती रहा। शासन के विरुद्ध लिखने में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। प्रांतीय कांग्रेस और हिंदी साहित्य सम्मेलन के' अध्यक्ष भी रहे। हिंदू- मुस्लिम दंगे की आग बुझाते हुए किन्हीं धर्मांधों ने उन पर हमला किया और प्राण ले लिए। उनके बलिदान पर विचार व्यक्त करते हुए, गाँधी जी ने कहा था ,''मुझे उन पर ईर्ष्या होती है।'' 
घरवालों नें नहीं रोका 
क्रांतिकारी दल के सदस्यों में एक ऐसे भी थे, जिनके पिता ने उनकी इस आकांक्षा का समर्थन भी किया और सहयोग भी दिया। आमतौर से परिवार के लोग अपनों को खतरे में पड़ने से रोकते है। शंभूनाथ, जो अपने पिता के इकलौते बेटे थे ,उनने क्रांतिकारी दल में जाने की जब अपने पिता से आज्ञा माँगी तो उनने इतना ही कहा कि सोच- समझ कर कदम बढ़ाना। खतरों को पहले से ही ध्यान में रखो। उनके लायक हिम्मत हो तो ही जाना। बीच में से उलट कर हँसी मत कराना। साथ ही उन्होंने कहा- '' बाहर से पैसा लूटने से पहले घर में जो कुछ है, उसे खत्म कर लो, ताकि कोई यह न कहे कि अपना बचाए फिरते हैं और दूसरों पर हाथ मारते हैं। '' घर में जो पूँजी थी, पिता ने वह खुशी- खुशी दे दी। जब बिलकुल खाली हाथ हो गए, तब पार्टी में डकैती आदि दूसरे तरीकों से धन प्राप्त करने लगे। शंभूनाथ पर कई मुकदमे चले, हाईकोर्ट ने उन्हें आजीवन कैद की सजा दी। जेल में जिन बंदियों से उनका संपर्क रहा, उन्हें भी क्रांतिकारी बनाने में वे लगे रहे। घर से मिले संस्कारों ने शंभुनाथ को राष्ट्र के लिए सब कुछ करने, मर- मिट जाने हेतु उद्यत कर दिया। देव संस्कृति की यही सबसे बड़ी विशेषता है।
किशोर क्रांतिकारी
स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी सदस्य खुदीराम बोस को मुजफ्फरपुर (बिहार) की जेल में फाँसी लगी। तब उनकी  उम्र १८ वर्ष ८ महीने की थी। वे जन्म से बंगाली थे, पर अपने को समूचे भारत का पुत्र मानते थे। उन पर अंग्रेज किंग फोर्ड की हत्या का अभियोग लगाया गया था। वे बड़े हँसमुख थे। फाँसी से कुछ समय पूर्व जेलर ने उदारतापूर्वक उन्हें आम खाने को दिए और कहा- '' चुपचाप खा लो, किसी को पता न चले।'' बोस ने उन्हें ले लिया। जब शाम को जेलर पूछने आए कि ' खा लिए ' तो उनने कहा- '' फाँसी होने वाली है, डर के मारे कुछ खाया- पिया नहीं जाता। वे रखे हैं कोने में आपके आम। '' जेलर ने उन्हें निकाला, तो देखा कि सिर्फ छिलके थे और उनमें हवा भरके साबुत जैसा बना दिया गया था। उठाते ही वे पिचक गए, तो जेलर हँस पड़ा, वे भी हँस पड़े। मौत का उन्हें तनिक भी भय न था। 
लोकमान्य तिलक ने इस फाँसी पर अपने पत्र ' केशरी ' में ' देश का दुर्भाग्य ' शीर्षक लेख लिखा। इस पर उन्हें छः वर्ष का कारावास हुआ था। 
हँसते हुए बालिदान
दूसरे महायुद्ध में हिटलर ने बेल्जियम को भी जीत लिया। बेल्जियम की राजकुमारी एथल कैवल ने नर्स का काम स्वीकार कर लिया। वह घायलों की सेवा करने लगी। नंबर के हिसाब से घायलों की भर्ती और चिकित्सा की जाती थी। यह बात जर्मनी वालों को बहुत बुरी लगी। वे चाहते थे कि विजेता को प्राथमिकता मिले। ऐसा न करने पर उसे गोली मार दी गई। न्याय की रक्षा के लिए उसने हँसते हुए गोली खाई। 
क्रांतिकारी- खान खोज 
वर्धा जिले के डॉ० खान खोजे विवाह का प्रसंग पक्का होने के एक दिन पूर्व ही भाग खड़े हुए थे। उनके  बाबा ने सन् १८५७ के गदर में बढ़- चढ़ कर काम किया था। उनके पोते ने बाबा की परंपरा अपनाई और निजी उपार्जन की अपेक्षा जीवन को राष्ट्रहित में होम दिया। उनके क्रांतिकारी कार्यों का पता सरकार को लग गया था, इसलिए उनके पिता को धमकाया गया और वकालत की सनद जब्त करने की धमकी दी गई। खान खोजे एक पानी के जहाज पर कुली बन कर विदेश चले गए। उनने विदेश में चल रही हलचलों के लिए अर्थ व्यवस्था जुटाने का जिम्मा अपने ऊपर लिया। मैक्सिको में उनने एक बड़ा कृषि फार्म  बनाया, उसकी सारी आजीविका अंतर्राष्ट्रीय गदर पार्टी' को देते रहे। स्वयं सर्वथा निस्पृह रहकर जिए। इनके प्रयासों से भारत की स्वाधीनता में बड़ा योगदान मिला। 
आजादी के दीवाने 
देश प्रेम  में दीवाने होकर अमर शहीद करतारसिंह ने जब स्वतंत्रता के लिए विप्लवी युवकों के संगठन में सम्मिलित होने का निश्चय किया, तो परिवार के लोग बड़े चिंतित हुए। कुछ ही दिनों बाद वे एक कांड में पकड़ लिए गए और उन्हें फाँसी की सजा दी गई, तो उनके बाबा आकर उनसे लिपट गए और भाव विह्वल होकर रोने लगे। बिलखते हुए बाबा ने फाँसी के लिए तैयार करतार सिंह से कहा- '' करतार !मेरे बेटे ! इस तरह से अपने प्राणों को मत दे। '' तो करतार ने अपने बाबा को सांत्वना देते हुए कहा- '' दादा ! मिलखा आजकल कहाँ है ?'' '' वह तो हैजे की बीमारी से मर गया बेटा। '' -बाबा ने करुणार्द्र रुँधे कंठ से कहा ।'' और तुम्हारा वह सरदार '' उसे भी तो मरे हुए बरसों गुजर गए हैं  रे !'' '' तो क्या दादा, आप मेरे लिए भी यही सोचते हैं कि आपका लाड़ला करतार भी उसी बिस्तर पर पड़ा रह कर कराहता हुआ मरे ? क्या यह मौत उन मौतों से अच्छी नहीं हैं ?'' 
दादा चुप रह गए और मृत्यु को अंतिम सत्य बताते हुए उसे शानदार ढंग से अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए वरण करना श्रेष्ठ सिद्ध कर करतार सिंह फाँसी के फंदे पर झूल गए। शहीदों के लिए राष्ट्र सर्वोपरि होता है एवम् ये संस्कार ऐसे जमाए होते हैं कि किसी भी प्रलोभन से नहीं मिटते। 
लौह पुरुष सरदार पटेल
एक घटना सन् १९४६ की है। बंबई बंदरगाह के नौ सैनिकों ने विद्रोह का झंडा ऊँचा कर दिया था। अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें गोली से भून देने की धमकी दी थी, साथ ही भारतीय नौ सैनिकों ने जबाव में उनकी खाक कर देने की चुनौती दे रक्खी थी। बड़ी भयानक स्थिति थी । उस समय बंबई का नेतृत्व सरदार पटेल के हाथों में था। लोग उनकी तरफ बड़ी घबडाई नजरों से देख रहे थे। किन्तु सरदार पर परिस्थिति का रंच- मात्र भी प्रभाव नहीं  पड़ा था ।न तो वे अधीर थे और न विचलित। बंबई के गवर्नर ने उन्हें बुलाया और काफी तुर्रा दिखाया। इस पर सरदार ने शेर की तरह दहाड़ कर गवर्नर से कह दिया कि वह अपनी सरकार से पूछ लें कि अंग्रेज भारत से मित्रों के रूप में विदा होंगे या लाशों के रूप मे। अंग्रेज गवर्नर सरदार का रौद्र रूप देख कर काँप उठा और फिर उसने कुछ ऐसा किया कि बंबई प्रसंग में अंग्रेज सरकार को समझौता करते ही बना। यही सरदार पटेल थे, जिन्होंने राष्ट्रीय एकता को सर्वोपरि मान स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री के रूप में २४ घण्टे के भीतर बिना किसी शस्त्र का प्रयोग किए सारे रजवाड़े का भारतीय गणतंत्र में समावेश कर दिया था। 
साहस जैसी दैवी विभूति अनायास ही नहीं उपजती। यह वह निधि है, जिसे पुरुषार्थ द्वारा अपने अंदर विकसित कर उचित प्रयोजनों में लगाया व मानव जीवन को धन्य बनाया जाता है । 
First 3 5 Last


Other Version of this book



प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-3
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग 3
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • प्राक्कथन
  • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-1
  • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-2
  • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-3
  • ।। अथ प्रथमोऽध्याय ।।देवसंस्कृति - जिज्ञासा प्रकरणम्-4
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-1
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-2
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-3
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-4
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-5
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-6
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-7
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-8
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।। वर्णाश्रम- धर्म प्रकरणम्-9
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -1
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -2
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -3
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -4
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -5
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -6
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -7
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -8
  • ।। अथ तृतीयोध्यायः ।। संस्कारपूर्व- माहात्म्य प्रकरणम् -9
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-1
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।। तीर्थ- देवालय प्रकरणम्-2
  • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-1
  • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-2
  • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-3
  • ॥अथ पञ्चमोऽध्यायः:॥ मरणोत्तर जीवन प्रकरणम्-4
  • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था संकट प्रकरणम्-1
  • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था संकट प्रकरणम्-2
  • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-3
  • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-4
  • । अथ षष्ठोऽध्यायः।। आस्था-संकट प्रकरणम्-5
  • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-1
  • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-2
  • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-3
  • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-4
  • ।। अथ सप्तमोऽध्यायः ।। प्रज्ञावतार प्रकरणम्-5
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj