
प्रेम- संसार का सर्वोपरि आकर्षण
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क्या रागी और क्या विरागी, सभी यह कहते पाये जाते हैं कि ''यह संसार मिथ्या है, भ्रम है, दुखों का आगार है।'' किन्तु तब भी सभी जी रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि लोग विवशतापूर्वक जी रहे हैं। इच्छापूर्वक जी रहे हैं और जीने के लिए अधिक से अधिक चाहते हैं सभी मरने से डरते हैं कोई भी मरना नहीं चाहता। दुखों के बीच भी जीने की यह अभीप्सा प्रकट करती है कि संसार में अवश्य ही कोई ऐसा आकर्षण है जिसके लिए सभी लोग दुःख उठाने में तत्पर हैं। देखा जा सकता है कि लोग सुन्दर फलफूलों को प्राप्त करने के लिए कटीले झाड झंखाड़ों में धँस जाते हैं। मधु के लिए मधुमक्खियों के डंक सहते हैं। मानिक-मोतियों के लिए भयंकर जन्तुओं से भरे समुद्र में पैठ जाते हैं। वे फूलों, फलों, मधु और माणिक, मोतियों के लिए काँटों, मक्खियों और मगरमत्सयों की जरा भी परवाह नहीं करते। उनकी चुभन, दंश और आक्रमण को साहसपूर्वक सह लेते हैं। तो इन दुखो और कष्टों से भरे संसार सागर में ऐसा कौनसा फल मधु अथवा रत्न है जिसके लिए मनुष्य दुखों का भार ढोता हुआ खुशी-खुशी जीता चला जा रहा है और जब तक अवसर मिले जीने की इच्छा रखता है। निश्चय ही संसार का वह फल, वह मधु और वह रत्न प्रेम है, जिसके लिए मनुष्य जी रहा है और हर मूल्य पर जीना चाहता है। अब यह बात भिन्न है कि उनका अभीष्ट प्रेम सांसारिक है, वस्तु या पदार्थ के प्रति है, अथवा प्रेम स्वरूप परमात्मा के प्रति है। दिशायें दो हो सकती हैं। किन्तु आस्था एक है और आकर्षण भी अलग-अलग नहीं हैं। इसी प्रेमस्वरूप आधार पर संसार ठहरा हुआ है। इसी के बल पर सारी विधि-व्यवस्था चल रही है। एक प्रेम ही संसार का सत्य और सार है। प्रेम ही आनन्द का आधार है, और आनन्द ही मनुष्य की जिज्ञासा है। इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए ही जब मनुष्य सारे कष्ट उठाता हुआ सुख मानता है। यदि यह जिज्ञासापूर्ण हो जाये, उसे प्रेम का सच्चा रूप प्राप्त हो जाये तब उसके आनन्द की सीमा कहाँ तक पहुँच जायेगी इसका अनुमान कठिन है। इसे तो भुक्तभोगी ही जान सकते हैं। जिनके हृदय में प्रेम का प्रकाश जममगा उठता है उनके जीवन में आनन्द भर जाता है। इस हाड़माँस से बने मानव शरीर में देवत्व के समाविष्ट का आधार प्रेम ही है। प्रेम की प्रेरणा से साधारण मनुष्य उच्च से उच्चतर बनता चला जाता है। प्रेम मानव जीवन की सर्वोच्च प्रेरणा है। शेष सारी प्रेरणाएँ इस एक ही मूल प्रेरणा की आश्रित शाखा प्रशाखा है। स्वाधीनता और सद्गति दिलाने वाली भावना एकमात्र प्रेम ही है। इसी से जीवन समृद्ध बनता, दुःख की निवृत्ति होती है और परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। प्रेम परमात्मा रूप है, आनन्द और उल्लास का आदि तथा अन्तिम स्रोत है। प्रेम एक दिव्य तत्व है। इसके परिणाम भी सदैव तीनों काल में दिव्य ही होते हैं। आत्मविश्वास, साहस, निष्ठा, लगन और आशा आदि के जीवन्त भाव प्रेमामृत की सहज तरंगें हैं। जिस प्रकार पर्वतों पर संचित हिम कुछ काल में परिपाक होने पर जल के रूप में बह-बहकर धरती को सराबोर कर देता है, उसकी जलन, उसका ताप और उसकी नीरसता हर लेता है, उसी प्रकार हृदय में संचित प्रेमी भी परिपाक के पश्चात् बहकर मनुष्य और मनुष्यता दोनों को आनन्द, उल्लास और प्रसन्नता से ओतप्रोत कर देता है। प्रेम का अभाव मनुष्य को नीरस, शिथिल, अतृप्त और कर्कश बना देता है, जिससे जीवन का सौन्दर्य, सारा आकर्षण और सारा उत्साह समाप्त हो जाता है। जो प्रेम का आदान प्रदान नहीं जानता वह निश्चय ही जीना नहीं चाहता। वास्तविक जीवन का लक्षण प्रेम ही है। संसार अन्धकार का घर कहा गया है। विषय-वासनाओं के आसुरी तत्व यहाँ पर मनुष्य को अन्धकार की ओर ही प्रेरित करते रहते हैं। संसार की इन अन्धकारपूर्ण प्रेरणाओं के बीच प्रेम ही एक ऐसा तत्व है जिसकी प्रेरणा प्रकाश की ओर अग्रसर करती है। प्रेम ही आत्मा का प्रकाश है। इसका अवलम्बन लेकर जीवन पथ पर चलने वाले सत्पुरुष काँटों और कटुता से परिपूर्ण इस संसार को सहजानन्द की स्थिति के साथ पार कर जाते हैं। प्रेम का आश्रय परमात्मा का आश्रय है। इस स्थूल संसार को धारण करने वाली सत्ता प्रेम ही है। यही प्रेम ही तो आत्मा के रूप में जड़ चेतन में परिव्याप्त हो रहा है। व्यक्ति और समष्टि में आत्मा का यह प्रेम प्रकाश ही ईश्वर की मङ्गलमयी उपस्थिति का आभास करता है।
प्रेम का एक स्वरूप आत्मीयता भी है, जो कि मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती है। आत्मीयता की प्यास, प्रेम की आवश्यकता मनुष्य जीवन के लिए सहज स्वाभाविक है। इसकी पूर्ति न होने से मनुष्य एक ऐसा अभाव अनुभव करता है जिसका कष्ट संसार के सारे दुखों से अधिक यातनादायक होता है। बच्चा माँ से प्रेम चाहता है। पत्नी पति से प्रेम चाहती है। और पुरुष नारी से प्रेम की कामना करता है। पड़ोसी-पड़ोसी से, राष्ट्र राष्ट्रों से, मनुष्य मनुष्यों से, यहाँ तक कि पशु और जड़ वस्तुएँ भी प्रेम और आत्मीयता की भूखी रहती है। प्रेम पाने पर पशु अपनी भंगिमाओं से और जड़ पदार्थ अपनी उपयोगिता के रूप के प्रेम का प्रतिपादन करते हैं। प्रेम का यह आदान-प्रदान रुक जाये तो संसार असहनीय रूप से नीरस, कटु और तप्त हो उठे। पदार्थ अनुपयोगी हो उठें और मनुष्य घृणा, क्रोध और द्वेष की भावना से आक्रांत हो अपनी विशेषता ही खो दें। चारों ओर ताप ही परिव्याप्त हो जाये। प्रेम जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है जिसकी पूर्ति आदान-प्रदान के आधार पर होती ही रहनी चाहिए। तभी हम इस समस्त संसार के साथ विकास करते हुए अपने चरम लक्ष्य उस परमात्मा की ओर बढ़ सकेंगे जो अनन्दानन्द स्वरूप है, सत् है और चेतन है। प्रेम के आदान-प्रदान के बिना जीवन में सच्चा सन्तोष कदापि नहीं मिल सकता। मनुष्य आदि से अन्त तक कलप-कलप कर जिएगा और तड़प-तड़प कर मर जायेगा।
प्रेम मनुष्यता का सबसे प्रधान लक्षण है और इसकी पहचान है त्याग अथवा उत्सर्ग। यों तो प्राय सभी मनुष्य प्रेम का दावा करते हैं। पर यथार्थ बात यह है कि उनका अधिकांश प्रेम स्वार्थ से प्रेरित होता है। वे अपने ''स्व'' अपने ''अहं'' की पूर्ति के लिए प्रेम का प्रदर्शन करते हैं और ''स्व'' की तुष्टि हो जाने पर आँखें फेर लेते हैं। यह वह प्रेम नहीं है जिसे मनुष्यता का लक्षण कहा गया है। यह तो अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक उपाय है, साधन है। इससे वह आध्यात्मिक भाव-वह ईश्वरीय आनन्द जाग्रत नहीं हो सकता जो कि सच्चे प्रेम की उपलब्धि है और जिसको पाकर मानव जीवन कृतार्थ हो जाता है।
जहाँ सच्चा प्रेम है, आध्यात्मिक आत्मीयता है वहाँ त्याग, उत्सर्ग और बलिदान की भावना होना अनिवार्य है। प्रेम में देना ही देना होता है लेने की भावना को वहाँ अवसर नहीं रहता। लेन-देन लौकिक जीवन का साधारण नियम है। इसमें प्रेम शब्द का आरोप करना अन्याय है। प्रेम जैसे पवित्र तथा इच्छा रहित ईश्वरीय भाव का अपमान करना है। प्रेम विशुद्ध बलिदान है। इसमें प्रेमी अपने प्रिय के लिए सब कुछ उत्सर्ग करके ही तृप्ति का अनुभव करता है। प्रेम में देना ही देना होता है लेना कुछ नहीं। जहाँ पर परिवार, समाज, राष्ट्र और संसार के लिए निस्वार्थ त्याग, निर्लेप बलिदान की भावना दिखलाई दे वहाँ पर ही प्रेम का अनुमान करना चाहिए। जिसमें दूसरों के लिए अपना सब कुछ दे डालने की भावना तो हो पर उसके बदले में कुछ भी लेने का भाव न हो तो समझना चाहिये कि उस मनुष्य में सच्ची मनुष्यता का निवास है, वह धरती पर शरीर से देवता और अपनी आत्मा में परमात्मा रूप है।
प्रेम संसार का स्थायी सत्य है। यों तो संसार के रूप में जो कुछ भी दिखलाई देता है, सब सत्य जैसा ही आभासित होता है, पर वह सत्य नहीं सत्य का भ्रम मात्र है। आज देखते हैं कि हमारा एक परिवार है, स्त्री है, बच्चे हैं हम स्वयं हैं। जमीन है, जायदाद है धन-दौलत है, सम्पत्ति है, सम्पदा है। सब व्यवहार में आते हैं, सब सत्य जैसे भासित होते हैं। पर क्या यह स्थाई सत्य है। कारण आता है- परिस्थिति उपस्थित होती है तो जीवन की अवधि समास हो जाती है, सब कुछ स्वप्न हो जाता है। परिस्थिति उत्पन्न होती है तो जमीन बिक जाती है, जो कुछ आज हमारा था कल दूसरे का हो जाता है। ऐसी जमीन परिवर्तनशील बातों को सत्य कैसे माना जा सकता है ? सत्य वह है जो तीनों कालों में एक जैसा ही बना रहे। प्रेम ही केवल ऐसा सत्य है जो अपरिवर्तनशील और तीनों कालों में स्थिर बना रह सकता है। प्रिय के बिछुड़ जाने पर उसके प्रति रहने वाला प्रेम नहीं मरता। वह यथावत् बना रहता है। जमीन जायदाद चली जाती है पर उसके प्रति लगाव समाप्त नहीं होता, धन चला जाता है पर उसके प्रति अभीप्सा बनी रहती है। प्रेम ही संसार का स्थिर तथा स्थायी सत्य है और सारी वस्तुएँ नश्वर तथा परिवर्तनशील है। ऐसे प्रेम की साधना छोड़कर लौकिकता की आराधना करना सत्य को छोड़ कर उसकी छाया पकड़ने की तरह अबुद्धिमत्तापूर्ण है।
प्रेम का ग्रहण परमात्मा की प्राप्ति है। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए ही महात्मा ईसा ने कहा है हमें एक दूसरे को प्रेम करना चाहिए क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है। ईश्वर को वही जानता है जो प्रेम करता है। ''प्रेम परमात्मा की उपासना का भावनात्मक रूप है। जो आत्मा को, परिवार को, राष्ट्र और समाज को प्रेम करता है, सारे मनुष्यों, यहाँ तक कि समस्त जड़ चेतन में आत्मीयता का सच्चा भाव रखता है, वह परमात्मा का सच्चा भक्त है। प्रेम हृदय की उस पवित्र भावना का वाचिक रूप है जो अद्वैत का बोध कराती है। उसे 'मैं' और 'तुम' का, अपने पराये का विलगाव नहीं रहता। समष्टिगत विशाल भावना का निस्वार्थ परिपाक प्रेम है, जिसकी आराधना मानव को महामानव और पुरुष को पुरुषोत्तम बना देती है। अस्तु इसी साध्य और महानता की उपासना श्रेयस्कर है, कल्याण तथा मंगलकारी है।
प्रेम का एक स्वरूप आत्मीयता भी है, जो कि मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती है। आत्मीयता की प्यास, प्रेम की आवश्यकता मनुष्य जीवन के लिए सहज स्वाभाविक है। इसकी पूर्ति न होने से मनुष्य एक ऐसा अभाव अनुभव करता है जिसका कष्ट संसार के सारे दुखों से अधिक यातनादायक होता है। बच्चा माँ से प्रेम चाहता है। पत्नी पति से प्रेम चाहती है। और पुरुष नारी से प्रेम की कामना करता है। पड़ोसी-पड़ोसी से, राष्ट्र राष्ट्रों से, मनुष्य मनुष्यों से, यहाँ तक कि पशु और जड़ वस्तुएँ भी प्रेम और आत्मीयता की भूखी रहती है। प्रेम पाने पर पशु अपनी भंगिमाओं से और जड़ पदार्थ अपनी उपयोगिता के रूप के प्रेम का प्रतिपादन करते हैं। प्रेम का यह आदान-प्रदान रुक जाये तो संसार असहनीय रूप से नीरस, कटु और तप्त हो उठे। पदार्थ अनुपयोगी हो उठें और मनुष्य घृणा, क्रोध और द्वेष की भावना से आक्रांत हो अपनी विशेषता ही खो दें। चारों ओर ताप ही परिव्याप्त हो जाये। प्रेम जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है जिसकी पूर्ति आदान-प्रदान के आधार पर होती ही रहनी चाहिए। तभी हम इस समस्त संसार के साथ विकास करते हुए अपने चरम लक्ष्य उस परमात्मा की ओर बढ़ सकेंगे जो अनन्दानन्द स्वरूप है, सत् है और चेतन है। प्रेम के आदान-प्रदान के बिना जीवन में सच्चा सन्तोष कदापि नहीं मिल सकता। मनुष्य आदि से अन्त तक कलप-कलप कर जिएगा और तड़प-तड़प कर मर जायेगा।
प्रेम मनुष्यता का सबसे प्रधान लक्षण है और इसकी पहचान है त्याग अथवा उत्सर्ग। यों तो प्राय सभी मनुष्य प्रेम का दावा करते हैं। पर यथार्थ बात यह है कि उनका अधिकांश प्रेम स्वार्थ से प्रेरित होता है। वे अपने ''स्व'' अपने ''अहं'' की पूर्ति के लिए प्रेम का प्रदर्शन करते हैं और ''स्व'' की तुष्टि हो जाने पर आँखें फेर लेते हैं। यह वह प्रेम नहीं है जिसे मनुष्यता का लक्षण कहा गया है। यह तो अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक उपाय है, साधन है। इससे वह आध्यात्मिक भाव-वह ईश्वरीय आनन्द जाग्रत नहीं हो सकता जो कि सच्चे प्रेम की उपलब्धि है और जिसको पाकर मानव जीवन कृतार्थ हो जाता है।
जहाँ सच्चा प्रेम है, आध्यात्मिक आत्मीयता है वहाँ त्याग, उत्सर्ग और बलिदान की भावना होना अनिवार्य है। प्रेम में देना ही देना होता है लेने की भावना को वहाँ अवसर नहीं रहता। लेन-देन लौकिक जीवन का साधारण नियम है। इसमें प्रेम शब्द का आरोप करना अन्याय है। प्रेम जैसे पवित्र तथा इच्छा रहित ईश्वरीय भाव का अपमान करना है। प्रेम विशुद्ध बलिदान है। इसमें प्रेमी अपने प्रिय के लिए सब कुछ उत्सर्ग करके ही तृप्ति का अनुभव करता है। प्रेम में देना ही देना होता है लेना कुछ नहीं। जहाँ पर परिवार, समाज, राष्ट्र और संसार के लिए निस्वार्थ त्याग, निर्लेप बलिदान की भावना दिखलाई दे वहाँ पर ही प्रेम का अनुमान करना चाहिए। जिसमें दूसरों के लिए अपना सब कुछ दे डालने की भावना तो हो पर उसके बदले में कुछ भी लेने का भाव न हो तो समझना चाहिये कि उस मनुष्य में सच्ची मनुष्यता का निवास है, वह धरती पर शरीर से देवता और अपनी आत्मा में परमात्मा रूप है।
प्रेम संसार का स्थायी सत्य है। यों तो संसार के रूप में जो कुछ भी दिखलाई देता है, सब सत्य जैसा ही आभासित होता है, पर वह सत्य नहीं सत्य का भ्रम मात्र है। आज देखते हैं कि हमारा एक परिवार है, स्त्री है, बच्चे हैं हम स्वयं हैं। जमीन है, जायदाद है धन-दौलत है, सम्पत्ति है, सम्पदा है। सब व्यवहार में आते हैं, सब सत्य जैसे भासित होते हैं। पर क्या यह स्थाई सत्य है। कारण आता है- परिस्थिति उपस्थित होती है तो जीवन की अवधि समास हो जाती है, सब कुछ स्वप्न हो जाता है। परिस्थिति उत्पन्न होती है तो जमीन बिक जाती है, जो कुछ आज हमारा था कल दूसरे का हो जाता है। ऐसी जमीन परिवर्तनशील बातों को सत्य कैसे माना जा सकता है ? सत्य वह है जो तीनों कालों में एक जैसा ही बना रहे। प्रेम ही केवल ऐसा सत्य है जो अपरिवर्तनशील और तीनों कालों में स्थिर बना रह सकता है। प्रिय के बिछुड़ जाने पर उसके प्रति रहने वाला प्रेम नहीं मरता। वह यथावत् बना रहता है। जमीन जायदाद चली जाती है पर उसके प्रति लगाव समाप्त नहीं होता, धन चला जाता है पर उसके प्रति अभीप्सा बनी रहती है। प्रेम ही संसार का स्थिर तथा स्थायी सत्य है और सारी वस्तुएँ नश्वर तथा परिवर्तनशील है। ऐसे प्रेम की साधना छोड़कर लौकिकता की आराधना करना सत्य को छोड़ कर उसकी छाया पकड़ने की तरह अबुद्धिमत्तापूर्ण है।
प्रेम का ग्रहण परमात्मा की प्राप्ति है। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए ही महात्मा ईसा ने कहा है हमें एक दूसरे को प्रेम करना चाहिए क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है। ईश्वर को वही जानता है जो प्रेम करता है। ''प्रेम परमात्मा की उपासना का भावनात्मक रूप है। जो आत्मा को, परिवार को, राष्ट्र और समाज को प्रेम करता है, सारे मनुष्यों, यहाँ तक कि समस्त जड़ चेतन में आत्मीयता का सच्चा भाव रखता है, वह परमात्मा का सच्चा भक्त है। प्रेम हृदय की उस पवित्र भावना का वाचिक रूप है जो अद्वैत का बोध कराती है। उसे 'मैं' और 'तुम' का, अपने पराये का विलगाव नहीं रहता। समष्टिगत विशाल भावना का निस्वार्थ परिपाक प्रेम है, जिसकी आराधना मानव को महामानव और पुरुष को पुरुषोत्तम बना देती है। अस्तु इसी साध्य और महानता की उपासना श्रेयस्कर है, कल्याण तथा मंगलकारी है।