
प्रेम समस्त सद् प्रेरणाओं का स्रोत
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीवन में जिन व्यक्तित्वों ने विशेष विकास और विस्तार पाया है, उसका मूल आधार, अधिकांशतः प्रेम ही रहा है। बिना प्रेम के किसी क्षेत्र में विकास होना सम्भव नहीं, फिर वह क्षेत्र लौकिक रहा हो अथवा आध्यात्मिक।
दैवी भाव होने से प्रेम अपने प्रकाश में मोह, लोभ, स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष आदि के अन्धेरे तथा कलुषित भाव नहीं आने देता है। बाधाओं का निराकरण होना ही विकास की परिस्थिति है। जीवन एक गतिशील प्रवाह है। इसे जिधर जिस दिशा में लगा दिया जाता है, यह उसी दिशा में बहता और बढ़ता चला जाता है। प्रवाह के पथ में अवरोधों का अभाव उसके बढ़ने में सहायक होता है। प्रेम एक ऐसा गुण है, जो मनुष्य के आन्तरिक अवरोधों के साथ-साथ बाह्य अवरोधों को भी दूर करता है।
असहयोग, असहायता और प्रवंचना जैसी प्रतिकूलताये प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति के सामने नहीं आतीं और यदि संयोगवश आती भी हैं तो वे प्रेम की वशीकरण शक्ति के प्रभाव से शीघ्र ही अनुकूल हो जाती है, जिससे मनुष्य जीवन का प्रवाह अबाध एवं अविच्छिन्न गति से बहता और बढ़ता हुआ अपने ध्येय को प्राप्त कर लेता है।
प्रेम में एक अलौकिक शक्ति रहा करती है। ऐसी शक्ति जिसकी तुलना, बाहुबल, धनबल अथवा बुद्धि बल से नहीं की जा सकती। जिस कार्य को कोई बड़ा सम्राट- अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर नहीं कर सकता, उसे एक प्रेम परिप्लावित संत सहज ही में कर सकता है। जो द्वेष, जो विग्रह और जो संघर्ष वर्षों के शस्त्र प्रयत्न द्वारा नहीं मिटाये जा सकते, वे प्रेमाधारित संधि द्वारा शीघ्र ही प्रशमन किये जा सकते हैं। दो व्यक्ति अथवा दो राष्ट्र जब मोह, भ्रम के कारण बहुत समय तक संघर्ष में लगे रहने के बाद युद्ध की विभीषिका और उसकी निरर्थकता का अनुभव कर लेते हैं, तब प्रेमपूर्ण पारस्परिकता का सहारा लेकर समस्याओं का निबटारा किया करते हैं। अभय और प्रेम का प्रादुर्भाव होते ही द्वेष मिट जाता है, दृष्टिकोण बदल जाता है और संधि की सम्भावनायें उन्मुक्त हो जाती है। प्रेम पर आधारित संधियों में ही स्थायित्व होता है। नहीं तो छलों, विवशताओं और स्वार्थों पर निर्भर मित्रता शीघ्र ही आस्तित्वहीन होकर संघर्ष की पुनरावृत्ति कर देती है।
हृदय की निष्कलङ्क निष्ठा का दूसरा नाम प्रेम है। निष्ठा ही वह तत्त्व है, जिसके आधार पर संसार का विकास होता चला आया है। आगे भी जो विकास होना है, उसका आधार भी यह निष्ठा सहित कर्त्तव्यों में वास्तविक जीवन का संयोग ही होगा। व्यक्ति की उन्नति का भी आधार यह निष्ठा ही होती है। अनिष्ठावान् व्यक्ति का हृदय आलस्य, अरुचि और अकर्तृत्च के दूषित भावों से उसी प्रकार भर जाता है जैसे कोई पुराने भग्नावशेष धूल मिट्टी और घास−फूस से आच्छन्न हो जाते हैं। विकास अथवा सफलता के लिए यह प्रतिकूल स्थिति है, जिसमें विकास की आशा नहीं की जा सकती। इसके विपरीत जब आशा, कर्मठता उत्साह एवं स्फूर्ति की स्थिति प्रात होती है तो मनुष्य जाने, अनजाने दोनों तरह से लक्ष्य की ओर स्वत: ही बढ़ता जाता है। यह प्रेरणापूर्ण अवस्था एकमात्र निष्कलङ्क निष्ठा से ही पाई जा सकती है।
भगवान् ने गीता में जिस निष्काम कर्मयोग का निर्देश किया है, उसका मुख्य तात्पर्य निष्कलङ्क निष्ठा से ही है। कामनाओं के साथ जिन कर्त्तव्यों का आचरण किया जाता है, उनमें कुशलता की प्राप्ति नहीं होती। अस्पताल का एक नौकर व परमार्थ भाव वाला एक जन सेवक, दोनों ही दूसरों की परिचर्या किया करते हैं। किन्तु जो दक्षता और जो प्रभाव जन सेवक की सेवा में रहता है, वह नौकरी मात्र का भाव रखने वाले कर्मचारी की सेवा में नहीं होता। इसका कारण यही है कि नौकर का उस काम में अपना स्वार्थ रहता है, कार्य के प्रति निष्ठा विवशता से बोझिल रहा करती है। वह अपने कर्त्तव्य का पालन करता तो है किन्तु किसी यंत्र की तरह। उसके उस कर्त्तव्य में प्रेम भाव का अभाव रहता है। कर्त्तव्य के प्रति जब तक निष्काम भाव का विकास नहीं होता, तब तक उसमें अपेक्षित कुशलता का भी समावेश नहीं होने पाता। विशुद्ध कर्त्तव्य भावना से किये जाने वाले कर्मों के प्रति मनुष्य का वास्तविक प्रेम जुड़ जाने से उससे निष्ठा का भाव आप से आप आ जाया करता है जिसके कारण सारे काम कुशलता पूर्वक संपादित होते चले जाते हैं।
मानव-जीवन का संचालन जिस प्रेरणा द्वारा होता है, वह प्रेरणा प्रेम ही है। पवित्र होने के कारण प्रेम की प्रेरणा मनुष्य को ऊर्ध्व दिशाओं में परिचालित किया करती है। प्रेम में आडम्बर, प्रवंचना अथवा छल-कपट का भाव न रहने से मनुष्य की जीवन गति स्वभावत परमार्थ दिशाओं की ओर उन्मुख होती रहती है। जो सौभाग्यवान् सत्पुरुष निस्वार्थ प्रेम की प्रेरणा से परिचालित होते हैं, वे इस जीवन में सुख संतोष पाकर पर अथवा पारलौकिक जीवन में सद्गति के अधिकारी बना करते हैं। उन्हें प्रेम के प्रसाद द्वारा उत्कृष्ट और दैवी गतियाँ प्रात होती हैं। आत्मा से उद्भूत प्रेरणा मनुष्य को परमात्मा के प्रति जागरूक बनाती है तथापि मनुष्य की आत्मा भी पुण्य का स्रोत बन तभी पाती है, जब उसको निस्वार्थ और निष्कलंक प्रेम द्वारा कोमल करुण और संवेदनशील बना लिया जाता है।
न केवल प्रेरणा ही प्रेम मनुष्य जीवन की स्वाभाविक आवश्यकता है। वरन् इस आवश्यकता की पूर्ति हुए बिना जीवन जड़, अशांत, असंतुष्ट और नीरस बना रहता है। जीवमात्र प्रेम के आदान−प्रदान की सरल प्रक्रिया के आधार पर ही तो, इस संकट और आपदाओं से भरे संसार में सुखपूर्वक चला जाता है। जीवन में जब तक प्रेम की प्राप्ति नहीं होती, एक अभाव, एक अशांति और एक कुण्ठा का अरुचिकर अनुभव होता रहता है और मनुष्य शीघ्र ही जीवन से छुटकारा पाने की सोचने लगता है। जिन बच्चों को अभिभावक का प्रेम नहीं मिलता वे प्रारम्भ से ही क्रोध, द्वेष कर्कशता और कठोरता के आसुरी भावों से आक्रांत होने लगते हैं। उनका शरीर और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। जिन पुरुषों को प्रेम नहीं मिल पाता उनके अपराधी बन जाने की आशंका रहती है।
प्रेम के अभाव में अधिकाँश लोग समाज के विरोधी और विध्वंसक बन जाते हैं। मनुष्य के प्रच्छन्न आसुरी भावों का शमन प्रेम द्वारा ही होना सम्भव होता है। समाज में शांति और व्यवस्था बनाये रहने के लिये जहाँ राजदण्ड की आवश्यकता है वहाँ पारस्परिक प्रेम भी कुछ कम अपेक्षित नहीं होता। संसार के प्राय सभी समाजों में राजदण्ड की व्यवस्था रहती है तथापि उनमें अपराध और अपकर्म करने वाले उसकी शांति को क्षति पहुँचाते ही रहते हैं। इसका कारण प्रेम का अभाव ही होता है। यदि सभी व्यक्तियों को अपने पूरे समाज से प्रेम हो, समाज का सुख-दुःख विकास, हानि को वे अपनी ही हानि लाभ समझें तो समष्टि रूप में सद्भावों की एक बड़ी सीमा तक वृद्धि हो सकती है।
पशु−पक्षी आदि मनुष्येत्तर प्राणियों में अपने−अपने समूह के प्रति एक नैसर्गिक प्रेम होता है। इसी प्रेम के आधार पर कोई राज्य व्यवस्था अथवा दण्ड न होने पर भी उनमें कदाचित ही सामूहिक अशांति और अव्यवस्था आने पाती है। अपराधों और अपकर्म का कारण मनुष्य का आसुरी भाव ही होता है, प्रेम की पावन प्रेरणा से उसका निराकरण किया जा सकना असम्भव नहीं है।
जिस प्रकार मनुष्य की आत्मा में प्रेम पाने की प्यास रहती है, उसी प्रकार उसकी आत्मा प्रेम प्रदान करने के लिये भी व्याकुल रहती है। जिसका प्रेम उसके अन्तकरण में बन्द पड़ा रहता है और अभिव्यक्ति का अवसर नहीं पाता, उस मनुष्य का व्यक्तित्व भी पूरी तरह से पुष्ट और विकसित नहीं होने पाता उसके जीवन प्रवाह की गति अवांछित दिशा में मुड़ जाने की आशङ्का बनी रहती है। जिस प्रकार पानी, अग्नी, वायु का आवेश मार्ग न पाने से विस्फोट को जन्म दे देता है, उसी प्रकार मनुष्य के अन्तकरण में बन्दी प्रेम का आवेग भी ध्वंसक बन सकता है। मनुष्य को प्रेम स्वीकार करना ही चाहिये। प्रेम का आदान−प्रदान संसार की एक अनिवार्य आवश्यकता है, मानव कल्याण का सम्पादन करने के लिए जिसकी पूर्ति की जानी चाहिये।
बहुत बार लोग इस शिकायत के आधार पर विपथगामी बन जाया करते हैं कि उन्हें न तो प्रेम मिला ही और न उनका प्रेम स्वीकार ही किया गया। ऐसे असफल व्यक्ति यदि ईमानदारी से अपने अन्तकरण की खोज करें, तो उन्हें पता चल जाये कि उनकी शिकायत समीचीन नहीं है। अथवा उनकी प्रेम भावना में कोई दोष रहा होगा। प्रेम देने की भावना में जब किसी प्रच्छन्न नीति का समावेश रहता है, तब वह अमृत विष की तरह लोगों को अग्राह्य बन जाया करता है और प्रेम पाने की लालसा में निहित लाभ का भाव लोगों को विमुख बना देता है। निस्वार्थ और निष्कलंक भाव ही प्रेम के आदान प्रदान का सच्चा और पवित्र आधार है। इसके अभाव में यह स्वर्गीय विनिमय नारकीय विभीषिका के रूप में परिवर्तित हो जाया करता है।
सच्ची अद्वैत भावना ही प्रेम का वास्तविक स्वरूप है। मनुष्य समस्त संसार को अपना स्वरूप मानकर हृदय का सारे प्रेम प्रदान में भी विशुद्ध बलिदान का भाव ही रक्खे, तो कोई कारण नहीं कि उसका वह पवित्र प्रेम स्वीकार न किया जाये। प्रेम देने वाले को प्रेम मिलना भी स्वाभाविक ही है। लिया हुआ प्रेम प्रतिध्वनि और प्रतिभास की तरह ही वापस आकर अपने मूलस्रोत मनुष्य के अन्तकरण को सुखशांति से परिपूर्ण बना दिया करता है।
लोग दूसरों को प्रेम करते हैं किन्तु अधिकांशत स्वार्थवश ही करते हैं और इसी स्वार्थभावना के कारण ही प्रेम अपनी दिव्य सिद्धियों के साथ फलीभूत नहीं हो पाता। अपने से, अपने समाज, देश और संसार से प्रेम कीजिये पर निस्वार्थ और निष्कलङ्क भाव से। तभी यह शक्ति, सम्बल, सुख, शांति, विकास और पुष्टि का हेतु बन सकेगा अन्यथा एक विकार के समान अवाँछित प्रेरणा से जीवन का संचालन करता रहेगा।
प्रेम ईश्वर रूप है। उसकी साधना उसी भाव से करनी चाहिये। स्वार्थ के निकृष्ट और निम्न धरातल पर उतर कर प्रेम की अभिव्यक्ति करना एक पाप है। क्योंकि इससे प्रवंचना एवं प्रतारणा को प्रश्रय मिलता रहता है। जिस मनुष्य के हृदय में प्राणी मात्र के प्रति निष्काम प्रेम का विकास हो जाता है, वह मनुष्य की स्थिति से दैवी स्थिति में जा पहुँचता है। इसी उपलब्धि के हेतु ही तो भगवान् ने गीता में स्पष्ट निर्देश किया है-
आत्मानं सर्वभूतेषु सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योग मुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शिनः।
सभी भूत प्राणियों में एक ही आत्मा समाई हुई है, इसलिए सभी को समभाव से देखते हुए सभी के साथ प्रेम करना चाहिये।
दैवी भाव होने से प्रेम अपने प्रकाश में मोह, लोभ, स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष आदि के अन्धेरे तथा कलुषित भाव नहीं आने देता है। बाधाओं का निराकरण होना ही विकास की परिस्थिति है। जीवन एक गतिशील प्रवाह है। इसे जिधर जिस दिशा में लगा दिया जाता है, यह उसी दिशा में बहता और बढ़ता चला जाता है। प्रवाह के पथ में अवरोधों का अभाव उसके बढ़ने में सहायक होता है। प्रेम एक ऐसा गुण है, जो मनुष्य के आन्तरिक अवरोधों के साथ-साथ बाह्य अवरोधों को भी दूर करता है।
असहयोग, असहायता और प्रवंचना जैसी प्रतिकूलताये प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति के सामने नहीं आतीं और यदि संयोगवश आती भी हैं तो वे प्रेम की वशीकरण शक्ति के प्रभाव से शीघ्र ही अनुकूल हो जाती है, जिससे मनुष्य जीवन का प्रवाह अबाध एवं अविच्छिन्न गति से बहता और बढ़ता हुआ अपने ध्येय को प्राप्त कर लेता है।
प्रेम में एक अलौकिक शक्ति रहा करती है। ऐसी शक्ति जिसकी तुलना, बाहुबल, धनबल अथवा बुद्धि बल से नहीं की जा सकती। जिस कार्य को कोई बड़ा सम्राट- अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर नहीं कर सकता, उसे एक प्रेम परिप्लावित संत सहज ही में कर सकता है। जो द्वेष, जो विग्रह और जो संघर्ष वर्षों के शस्त्र प्रयत्न द्वारा नहीं मिटाये जा सकते, वे प्रेमाधारित संधि द्वारा शीघ्र ही प्रशमन किये जा सकते हैं। दो व्यक्ति अथवा दो राष्ट्र जब मोह, भ्रम के कारण बहुत समय तक संघर्ष में लगे रहने के बाद युद्ध की विभीषिका और उसकी निरर्थकता का अनुभव कर लेते हैं, तब प्रेमपूर्ण पारस्परिकता का सहारा लेकर समस्याओं का निबटारा किया करते हैं। अभय और प्रेम का प्रादुर्भाव होते ही द्वेष मिट जाता है, दृष्टिकोण बदल जाता है और संधि की सम्भावनायें उन्मुक्त हो जाती है। प्रेम पर आधारित संधियों में ही स्थायित्व होता है। नहीं तो छलों, विवशताओं और स्वार्थों पर निर्भर मित्रता शीघ्र ही आस्तित्वहीन होकर संघर्ष की पुनरावृत्ति कर देती है।
हृदय की निष्कलङ्क निष्ठा का दूसरा नाम प्रेम है। निष्ठा ही वह तत्त्व है, जिसके आधार पर संसार का विकास होता चला आया है। आगे भी जो विकास होना है, उसका आधार भी यह निष्ठा सहित कर्त्तव्यों में वास्तविक जीवन का संयोग ही होगा। व्यक्ति की उन्नति का भी आधार यह निष्ठा ही होती है। अनिष्ठावान् व्यक्ति का हृदय आलस्य, अरुचि और अकर्तृत्च के दूषित भावों से उसी प्रकार भर जाता है जैसे कोई पुराने भग्नावशेष धूल मिट्टी और घास−फूस से आच्छन्न हो जाते हैं। विकास अथवा सफलता के लिए यह प्रतिकूल स्थिति है, जिसमें विकास की आशा नहीं की जा सकती। इसके विपरीत जब आशा, कर्मठता उत्साह एवं स्फूर्ति की स्थिति प्रात होती है तो मनुष्य जाने, अनजाने दोनों तरह से लक्ष्य की ओर स्वत: ही बढ़ता जाता है। यह प्रेरणापूर्ण अवस्था एकमात्र निष्कलङ्क निष्ठा से ही पाई जा सकती है।
भगवान् ने गीता में जिस निष्काम कर्मयोग का निर्देश किया है, उसका मुख्य तात्पर्य निष्कलङ्क निष्ठा से ही है। कामनाओं के साथ जिन कर्त्तव्यों का आचरण किया जाता है, उनमें कुशलता की प्राप्ति नहीं होती। अस्पताल का एक नौकर व परमार्थ भाव वाला एक जन सेवक, दोनों ही दूसरों की परिचर्या किया करते हैं। किन्तु जो दक्षता और जो प्रभाव जन सेवक की सेवा में रहता है, वह नौकरी मात्र का भाव रखने वाले कर्मचारी की सेवा में नहीं होता। इसका कारण यही है कि नौकर का उस काम में अपना स्वार्थ रहता है, कार्य के प्रति निष्ठा विवशता से बोझिल रहा करती है। वह अपने कर्त्तव्य का पालन करता तो है किन्तु किसी यंत्र की तरह। उसके उस कर्त्तव्य में प्रेम भाव का अभाव रहता है। कर्त्तव्य के प्रति जब तक निष्काम भाव का विकास नहीं होता, तब तक उसमें अपेक्षित कुशलता का भी समावेश नहीं होने पाता। विशुद्ध कर्त्तव्य भावना से किये जाने वाले कर्मों के प्रति मनुष्य का वास्तविक प्रेम जुड़ जाने से उससे निष्ठा का भाव आप से आप आ जाया करता है जिसके कारण सारे काम कुशलता पूर्वक संपादित होते चले जाते हैं।
मानव-जीवन का संचालन जिस प्रेरणा द्वारा होता है, वह प्रेरणा प्रेम ही है। पवित्र होने के कारण प्रेम की प्रेरणा मनुष्य को ऊर्ध्व दिशाओं में परिचालित किया करती है। प्रेम में आडम्बर, प्रवंचना अथवा छल-कपट का भाव न रहने से मनुष्य की जीवन गति स्वभावत परमार्थ दिशाओं की ओर उन्मुख होती रहती है। जो सौभाग्यवान् सत्पुरुष निस्वार्थ प्रेम की प्रेरणा से परिचालित होते हैं, वे इस जीवन में सुख संतोष पाकर पर अथवा पारलौकिक जीवन में सद्गति के अधिकारी बना करते हैं। उन्हें प्रेम के प्रसाद द्वारा उत्कृष्ट और दैवी गतियाँ प्रात होती हैं। आत्मा से उद्भूत प्रेरणा मनुष्य को परमात्मा के प्रति जागरूक बनाती है तथापि मनुष्य की आत्मा भी पुण्य का स्रोत बन तभी पाती है, जब उसको निस्वार्थ और निष्कलंक प्रेम द्वारा कोमल करुण और संवेदनशील बना लिया जाता है।
न केवल प्रेरणा ही प्रेम मनुष्य जीवन की स्वाभाविक आवश्यकता है। वरन् इस आवश्यकता की पूर्ति हुए बिना जीवन जड़, अशांत, असंतुष्ट और नीरस बना रहता है। जीवमात्र प्रेम के आदान−प्रदान की सरल प्रक्रिया के आधार पर ही तो, इस संकट और आपदाओं से भरे संसार में सुखपूर्वक चला जाता है। जीवन में जब तक प्रेम की प्राप्ति नहीं होती, एक अभाव, एक अशांति और एक कुण्ठा का अरुचिकर अनुभव होता रहता है और मनुष्य शीघ्र ही जीवन से छुटकारा पाने की सोचने लगता है। जिन बच्चों को अभिभावक का प्रेम नहीं मिलता वे प्रारम्भ से ही क्रोध, द्वेष कर्कशता और कठोरता के आसुरी भावों से आक्रांत होने लगते हैं। उनका शरीर और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। जिन पुरुषों को प्रेम नहीं मिल पाता उनके अपराधी बन जाने की आशंका रहती है।
प्रेम के अभाव में अधिकाँश लोग समाज के विरोधी और विध्वंसक बन जाते हैं। मनुष्य के प्रच्छन्न आसुरी भावों का शमन प्रेम द्वारा ही होना सम्भव होता है। समाज में शांति और व्यवस्था बनाये रहने के लिये जहाँ राजदण्ड की आवश्यकता है वहाँ पारस्परिक प्रेम भी कुछ कम अपेक्षित नहीं होता। संसार के प्राय सभी समाजों में राजदण्ड की व्यवस्था रहती है तथापि उनमें अपराध और अपकर्म करने वाले उसकी शांति को क्षति पहुँचाते ही रहते हैं। इसका कारण प्रेम का अभाव ही होता है। यदि सभी व्यक्तियों को अपने पूरे समाज से प्रेम हो, समाज का सुख-दुःख विकास, हानि को वे अपनी ही हानि लाभ समझें तो समष्टि रूप में सद्भावों की एक बड़ी सीमा तक वृद्धि हो सकती है।
पशु−पक्षी आदि मनुष्येत्तर प्राणियों में अपने−अपने समूह के प्रति एक नैसर्गिक प्रेम होता है। इसी प्रेम के आधार पर कोई राज्य व्यवस्था अथवा दण्ड न होने पर भी उनमें कदाचित ही सामूहिक अशांति और अव्यवस्था आने पाती है। अपराधों और अपकर्म का कारण मनुष्य का आसुरी भाव ही होता है, प्रेम की पावन प्रेरणा से उसका निराकरण किया जा सकना असम्भव नहीं है।
जिस प्रकार मनुष्य की आत्मा में प्रेम पाने की प्यास रहती है, उसी प्रकार उसकी आत्मा प्रेम प्रदान करने के लिये भी व्याकुल रहती है। जिसका प्रेम उसके अन्तकरण में बन्द पड़ा रहता है और अभिव्यक्ति का अवसर नहीं पाता, उस मनुष्य का व्यक्तित्व भी पूरी तरह से पुष्ट और विकसित नहीं होने पाता उसके जीवन प्रवाह की गति अवांछित दिशा में मुड़ जाने की आशङ्का बनी रहती है। जिस प्रकार पानी, अग्नी, वायु का आवेश मार्ग न पाने से विस्फोट को जन्म दे देता है, उसी प्रकार मनुष्य के अन्तकरण में बन्दी प्रेम का आवेग भी ध्वंसक बन सकता है। मनुष्य को प्रेम स्वीकार करना ही चाहिये। प्रेम का आदान−प्रदान संसार की एक अनिवार्य आवश्यकता है, मानव कल्याण का सम्पादन करने के लिए जिसकी पूर्ति की जानी चाहिये।
बहुत बार लोग इस शिकायत के आधार पर विपथगामी बन जाया करते हैं कि उन्हें न तो प्रेम मिला ही और न उनका प्रेम स्वीकार ही किया गया। ऐसे असफल व्यक्ति यदि ईमानदारी से अपने अन्तकरण की खोज करें, तो उन्हें पता चल जाये कि उनकी शिकायत समीचीन नहीं है। अथवा उनकी प्रेम भावना में कोई दोष रहा होगा। प्रेम देने की भावना में जब किसी प्रच्छन्न नीति का समावेश रहता है, तब वह अमृत विष की तरह लोगों को अग्राह्य बन जाया करता है और प्रेम पाने की लालसा में निहित लाभ का भाव लोगों को विमुख बना देता है। निस्वार्थ और निष्कलंक भाव ही प्रेम के आदान प्रदान का सच्चा और पवित्र आधार है। इसके अभाव में यह स्वर्गीय विनिमय नारकीय विभीषिका के रूप में परिवर्तित हो जाया करता है।
सच्ची अद्वैत भावना ही प्रेम का वास्तविक स्वरूप है। मनुष्य समस्त संसार को अपना स्वरूप मानकर हृदय का सारे प्रेम प्रदान में भी विशुद्ध बलिदान का भाव ही रक्खे, तो कोई कारण नहीं कि उसका वह पवित्र प्रेम स्वीकार न किया जाये। प्रेम देने वाले को प्रेम मिलना भी स्वाभाविक ही है। लिया हुआ प्रेम प्रतिध्वनि और प्रतिभास की तरह ही वापस आकर अपने मूलस्रोत मनुष्य के अन्तकरण को सुखशांति से परिपूर्ण बना दिया करता है।
लोग दूसरों को प्रेम करते हैं किन्तु अधिकांशत स्वार्थवश ही करते हैं और इसी स्वार्थभावना के कारण ही प्रेम अपनी दिव्य सिद्धियों के साथ फलीभूत नहीं हो पाता। अपने से, अपने समाज, देश और संसार से प्रेम कीजिये पर निस्वार्थ और निष्कलङ्क भाव से। तभी यह शक्ति, सम्बल, सुख, शांति, विकास और पुष्टि का हेतु बन सकेगा अन्यथा एक विकार के समान अवाँछित प्रेरणा से जीवन का संचालन करता रहेगा।
प्रेम ईश्वर रूप है। उसकी साधना उसी भाव से करनी चाहिये। स्वार्थ के निकृष्ट और निम्न धरातल पर उतर कर प्रेम की अभिव्यक्ति करना एक पाप है। क्योंकि इससे प्रवंचना एवं प्रतारणा को प्रश्रय मिलता रहता है। जिस मनुष्य के हृदय में प्राणी मात्र के प्रति निष्काम प्रेम का विकास हो जाता है, वह मनुष्य की स्थिति से दैवी स्थिति में जा पहुँचता है। इसी उपलब्धि के हेतु ही तो भगवान् ने गीता में स्पष्ट निर्देश किया है-
आत्मानं सर्वभूतेषु सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योग मुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शिनः।
सभी भूत प्राणियों में एक ही आत्मा समाई हुई है, इसलिए सभी को समभाव से देखते हुए सभी के साथ प्रेम करना चाहिये।