
मानव जीवन का अमृत-प्रेम
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सच्चा प्रेम केवल देना जानता है। उसमें बदले के लिए कोई आकाँक्षा नहीं होती। वह प्रेमी का हित चाहता है और इसके पास जो कुछ छोटी−मोटी सामर्थ्य है उसको लेकर वह उसका भला करता है। वह कभी सोचता भी नहीं कि इसका प्रतिफल मुझे मिलेगा। जिसके बारे में सोचा तक नहीं गया वह यदि न मिले तो किसी कोभला उसमें कोई दुःख क्यों होगा ? कोई उसके लिए शिकायत क्यों करेगा ?
ईसा ने कहा- ''परमेश्वर की इच्छा पर मैं अपना सर्वस्व सोंपने को तैयार हूँ। इस दुनियाँ की कोई चीज मैं उससे नहीं चाहता। मैं उसे इसलिए प्यार करता हूँ क्योंकि वह प्यार के ही योग्य है। परमेश्वर में क्या−क्या शक्ति और विशेषता है इसे जानने की मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है, क्योंकि उससे मैं सिद्धि या अधिकार नहीं चाहता। मेरे लिए इतना ही जानना पर्याप्त है कि वह प्रेममय है। प्रेम उसे प्रिय है।"
यदि हम किसी से प्रेम करते हों तो उसकी बुराइयाँ भी अप्रिय नहीं लगतीं। किन्तु यदि किसी से द्वेष है तो उसकी अच्छाइयाँ भी दोष सरीखी लगती हैं। कोई धनवान व्यक्ति यदि हमें किसी कारण खटकता है तो उसकी कमाई बेईमानााई की दिखाई पड़ती है, उसका कारोबार ठगी, जालसाजी और चोरी से भरा प्रतीत होता है। पर यदि अपना कोई मित्र धनी हो तो उसके परिश्रम की, भाग्य की, बुद्धि कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। कहते हैं कि ''अपना काना लड़का भी सुन्दर लगता है और पराया सुन्दर बालक भी भौंदू जैसा दीखता है।'' प्रेम में ऐसी ही विशेषता है। केवल प्रेम पात्र ही नहीं उसकी वस्तुएँ भी सुन्दर, निर्दोष एवं उत्तम लगने लगती हैं, किन्तु इस प्रेम भावना के हटते ही सब कुछ कुरूप, त्रुटिपूर्ण, हानिकारक, अवांछनीय एवं भयंकर लगने लगता है।
ईश्वर का सच्चा प्रेमी अपने प्रेम पात्र परमेश्वर से कहता है ''हे प्रभु! इस दुनिया में जो दुख मौजूद है, मैं उनसे डरता नहीं। इस दुनिया में पाप मौजूद है, मैं उनके दंड भुगतने में तेरी रिआयत नहीं चाहता। धन, स्वास्थ्य, सौन्दर्य, बुद्धि आदि सम्पदाएँ प्राप्त करने के लिए भिखारी बनकर तेरे दरवाजे पर नहीं आया और न मुक्ति की, स्वर्ग की कामना के लालच में फिर रहा हूँ। मुझे तुझ से कुछ शिकायत नहीं। मैं एक ही आकाँक्षा करता हूँ तू मुझे अपने से प्यार करने दे। प्यारे के लिए प्यार। सिर्फ प्यार के लिए प्यार।''
कई व्यक्ति प्रेम की असफलता का रोना रोते हैं। वे कहते हैं हमने मन से प्यार किया पर साथी ने उसका बदला बेबफाई में चुकाया। ऐसी शिकायत करने वाले प्रेम की वास्तविकता से बहुत दूर हैं। प्रेम में केवल देना ही देना है, उसमें लेने की, प्रतिफल का, बदले का प्रश्र ही नहीं उठता। जहाँ बदला पाने के लिए प्रेम किया जाता है वह तो विशुद्ध व्यापार है। व्यापार में कभी लाभ होता है तो कभी घाटा भी उठाना पड़ता है। पासा खेलने में कभी वह चित्त पड़ता है कभी पट्ट। बदले के लिए किया हुआ प्रेम भी एक बाजी खेलने के समान है, उसमें हारजीत दोनों ही हो सकती है। जैसा दाँव फंस जाय वैसी ही सफलता-असफलता सामने आ जाती है। व्यापारिक प्रेम बाजारू मुहब्बत करने वालों की कौड़ी सदा चित्त ही नहीं पड़ती। कभी-कभी निराशा भी हाथ लगती है। सामने वाला यदि अधिक उस्ताद हुआ तो अपना दाँव चला कर अलग हो जाता है। इस प्रकार के प्रेम में दोनों पक्षों में से किसी एक को आवश्यक ही शिकायत करनी पड़ती है। एक पहलवान तो गिरेगा ही। खरीद-बेच करने वालों में एक को लाभ होता है तो दूसरे को घाटा। इसमें पश्चात्ताप या दोषारोपण करना व्यर्थ है।
भोगेच्छा को प्रेम कहना एक बहुत बड़ी प्रवंचना है। प्रेम तो आत्मा में ही हो सकता है और भोग शरीर का किया जाता है। इसलिए जिनके प्रेम के पीछे भोग की लालसा छिपी है उनकी दृष्टि शरीर तक ही है। आत्मा का भोग नहीं हो सकता। वह स्वतन्त्र है, वह किसी के बन्धन में नहीं आती। बन्धन में केवल शरीर बंधता है। सच्चा प्रेम आत्मा से ही किया जाता है। उसमें चुभन, पीड़ा, बेचैनी, बेबसी, निराशा कुछ नहीं है, न उसमें विरह है, न वेदना, इन दोनों ही विषों से वह मुक्त है। जिससे प्रेम करना हो उसके शरीर पर घात न लगाई जाय, जिसका शरीर भोगना हो उसके साथ प्रेम का नाटक न किया जाय यही उचित है।
प्रेम करने का उद्देश्य अपने आत्मा को प्रेम रस से सराबोर करना है। उसका और कोई प्रतिफल नहीं। भौतिक दृष्टि से प्रेमी घाटे में रह सकता है, उसे ठगा जा सकता है, धोखा हो सकता है और ऐसा त्याग करता है जिससे उसे स्वयं बड़ी कठिनाई उठानी पड़े। किन्तु प्रेम भावनाओं के उत्पन्न होने के कारण आत्मा में जो स्वर्गीय आनन्द आविर्भूत होता है उसका मूल्य बहुत है इतना अधिक है कि उसकी तुलना में सब कुछ गँवाना पड़े तो भी प्रेमी नफे में ही रहता है।
ईसा ने कहा- ''परमेश्वर की इच्छा पर मैं अपना सर्वस्व सोंपने को तैयार हूँ। इस दुनियाँ की कोई चीज मैं उससे नहीं चाहता। मैं उसे इसलिए प्यार करता हूँ क्योंकि वह प्यार के ही योग्य है। परमेश्वर में क्या−क्या शक्ति और विशेषता है इसे जानने की मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है, क्योंकि उससे मैं सिद्धि या अधिकार नहीं चाहता। मेरे लिए इतना ही जानना पर्याप्त है कि वह प्रेममय है। प्रेम उसे प्रिय है।"
यदि हम किसी से प्रेम करते हों तो उसकी बुराइयाँ भी अप्रिय नहीं लगतीं। किन्तु यदि किसी से द्वेष है तो उसकी अच्छाइयाँ भी दोष सरीखी लगती हैं। कोई धनवान व्यक्ति यदि हमें किसी कारण खटकता है तो उसकी कमाई बेईमानााई की दिखाई पड़ती है, उसका कारोबार ठगी, जालसाजी और चोरी से भरा प्रतीत होता है। पर यदि अपना कोई मित्र धनी हो तो उसके परिश्रम की, भाग्य की, बुद्धि कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। कहते हैं कि ''अपना काना लड़का भी सुन्दर लगता है और पराया सुन्दर बालक भी भौंदू जैसा दीखता है।'' प्रेम में ऐसी ही विशेषता है। केवल प्रेम पात्र ही नहीं उसकी वस्तुएँ भी सुन्दर, निर्दोष एवं उत्तम लगने लगती हैं, किन्तु इस प्रेम भावना के हटते ही सब कुछ कुरूप, त्रुटिपूर्ण, हानिकारक, अवांछनीय एवं भयंकर लगने लगता है।
ईश्वर का सच्चा प्रेमी अपने प्रेम पात्र परमेश्वर से कहता है ''हे प्रभु! इस दुनिया में जो दुख मौजूद है, मैं उनसे डरता नहीं। इस दुनिया में पाप मौजूद है, मैं उनके दंड भुगतने में तेरी रिआयत नहीं चाहता। धन, स्वास्थ्य, सौन्दर्य, बुद्धि आदि सम्पदाएँ प्राप्त करने के लिए भिखारी बनकर तेरे दरवाजे पर नहीं आया और न मुक्ति की, स्वर्ग की कामना के लालच में फिर रहा हूँ। मुझे तुझ से कुछ शिकायत नहीं। मैं एक ही आकाँक्षा करता हूँ तू मुझे अपने से प्यार करने दे। प्यारे के लिए प्यार। सिर्फ प्यार के लिए प्यार।''
कई व्यक्ति प्रेम की असफलता का रोना रोते हैं। वे कहते हैं हमने मन से प्यार किया पर साथी ने उसका बदला बेबफाई में चुकाया। ऐसी शिकायत करने वाले प्रेम की वास्तविकता से बहुत दूर हैं। प्रेम में केवल देना ही देना है, उसमें लेने की, प्रतिफल का, बदले का प्रश्र ही नहीं उठता। जहाँ बदला पाने के लिए प्रेम किया जाता है वह तो विशुद्ध व्यापार है। व्यापार में कभी लाभ होता है तो कभी घाटा भी उठाना पड़ता है। पासा खेलने में कभी वह चित्त पड़ता है कभी पट्ट। बदले के लिए किया हुआ प्रेम भी एक बाजी खेलने के समान है, उसमें हारजीत दोनों ही हो सकती है। जैसा दाँव फंस जाय वैसी ही सफलता-असफलता सामने आ जाती है। व्यापारिक प्रेम बाजारू मुहब्बत करने वालों की कौड़ी सदा चित्त ही नहीं पड़ती। कभी-कभी निराशा भी हाथ लगती है। सामने वाला यदि अधिक उस्ताद हुआ तो अपना दाँव चला कर अलग हो जाता है। इस प्रकार के प्रेम में दोनों पक्षों में से किसी एक को आवश्यक ही शिकायत करनी पड़ती है। एक पहलवान तो गिरेगा ही। खरीद-बेच करने वालों में एक को लाभ होता है तो दूसरे को घाटा। इसमें पश्चात्ताप या दोषारोपण करना व्यर्थ है।
भोगेच्छा को प्रेम कहना एक बहुत बड़ी प्रवंचना है। प्रेम तो आत्मा में ही हो सकता है और भोग शरीर का किया जाता है। इसलिए जिनके प्रेम के पीछे भोग की लालसा छिपी है उनकी दृष्टि शरीर तक ही है। आत्मा का भोग नहीं हो सकता। वह स्वतन्त्र है, वह किसी के बन्धन में नहीं आती। बन्धन में केवल शरीर बंधता है। सच्चा प्रेम आत्मा से ही किया जाता है। उसमें चुभन, पीड़ा, बेचैनी, बेबसी, निराशा कुछ नहीं है, न उसमें विरह है, न वेदना, इन दोनों ही विषों से वह मुक्त है। जिससे प्रेम करना हो उसके शरीर पर घात न लगाई जाय, जिसका शरीर भोगना हो उसके साथ प्रेम का नाटक न किया जाय यही उचित है।
प्रेम करने का उद्देश्य अपने आत्मा को प्रेम रस से सराबोर करना है। उसका और कोई प्रतिफल नहीं। भौतिक दृष्टि से प्रेमी घाटे में रह सकता है, उसे ठगा जा सकता है, धोखा हो सकता है और ऐसा त्याग करता है जिससे उसे स्वयं बड़ी कठिनाई उठानी पड़े। किन्तु प्रेम भावनाओं के उत्पन्न होने के कारण आत्मा में जो स्वर्गीय आनन्द आविर्भूत होता है उसका मूल्य बहुत है इतना अधिक है कि उसकी तुलना में सब कुछ गँवाना पड़े तो भी प्रेमी नफे में ही रहता है।