
महायोगी अरविंद
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कलकत्ता के सेशन जज की अदालत में ' मानिकलता बम केस ' का ऐतिहासिक मुकदमा चल रहा था। अभियुक्तों
में से अधिकांश ऐसे नवयुवक थे ,, जिन्होंने देश को विदेशी
शासन से मुक्त कराने का संकल्प लिया था और उसके लिए
वे प्राण अर्पण करने को प्रस्तुत थे। ये सब युवक
बड़े साहसी ,, उग्र और क्रांतिकारी विचारों के थे और वे
अपने रक्त से हस्ताक्षर करके गुप्त- समिति के सदस्य बने थे। इस
मुकदमे में उनको फाँसी और काला पानी जैसे कठोर दंडों की ही
संभावना थी, न अपने बचाव के लिए कोशिश कर रहा था। सब लोग ऐसे
आमोद- प्रमोद के साथ जेलखाने में रहते थे जैसे किसी महोत्सव
में सम्मिलित होने आये हों।
पर इन सबकी अपेक्षा अधिक निर्भय और साथ ही अधिक गंभीर तथा निश्चिंत थे- श्री 'अरविंद घोष 'जो दस वर्ष से अध्यात्म मार्ग के पथिक थे। वे राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने के साथ ही आध्यात्मिक शक्तियों को बढ़ाने के लिए कई प्रकार के योग संबंधी अभ्यास करते रहते थे, पर जब तक वे बाहर रहे, तब तक। नौकरी और उसके बाद आंदोलन के कारण इस तरफ पूरा ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता था। अब जेल में जा बैठने पर सब तरह के झंझटों से छूट गए और अपनी कोठरी में बैठकर समस्त मन- प्राण से भगवान का ध्यान करने लगे। इसलिए वे अपनी जेल- यात्रा को आश्रम- वास कहने लगे थे। वहाँ उन्हें गहरी साधना का अवसर मिला और वे ब्रह्म- चेतना तक पहुँच गए, जो अध्यात्म- साधना का सर्वोच्च स्तर माना जाता है। कहते हैं कि जेल में प्राणायाम का अभ्यास करते समय उनका शरीर एक तरफ से हवा में ऊँचा उठ जाता था।
जेल में रहते हुए ही उनकी ' ब्रह्म- भावना 'इतनी बढ़ गई कि उनको सर्वत्र लीलामय प्रभु के दर्शन होने लगे। इसके पश्चात् उनके लिए जेल और जेलर, पुलिस और अदालत, अभियुक्त और जज, भगवान् के ही अनेक रूप प्रतीत होते थे। जेल जाने से पहले वे जिस आध्यात्मिक स्थिति तक पहुँचे थे, उसमें वे अपने को भगवान् के हाथ का एक यंत्र या माध्यम समझने लगे थे पर अब तो उनको अपने चारों ओर भगवान् दिखाई देने लगे। उनकी चेतना के हर एक कोने में गीता और उसके उपदेश समा गये। जब वे जेल से बाहर निकले, तो संसार के अणु- अणु में उनको भगवान् का ही अनुभव होता था।
इस प्रकार जेल के भीतर योग साधना करने वाले श्री अरविंद सच्चे अर्थों में एक युग- पुरूष थे। एक तरफ तो वे योरोपियन भाषाओं और वहाँ के साहित्य में पारंगत थे, लैटिन ,ग्रीक, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, इटालियन आदि कितनी ही भाषाओं में ऊँचे दर्जे की योग्यता रखते थे और दूसरी ओर भारतीय धर्म, दर्शन- शास्त्र तथा उनके विभिन्न अंगों के रहस्य के भी नूरे जानकर थे। इस प्रकार पूर्वी और पश्चिमी दोनों विद्याओं के ज्ञाता होकर वे कार्यक्षेत्र में उतरे थे। इस अगाध योग्यता के बल पर ही वे आगे चलकर साधकों के लिए पूर्ण योग की साधन- प्रणाली का अनुसंधान कर सके, जिसका आश्रय लेकर भारत ही नहीं, संसार के सभी देशों के अध्यात्म प्रेमी आत्मोन्नति के उच्च शिखर की तरफ अग्रसर हो रहे हैं।
पर इन सबकी अपेक्षा अधिक निर्भय और साथ ही अधिक गंभीर तथा निश्चिंत थे- श्री 'अरविंद घोष 'जो दस वर्ष से अध्यात्म मार्ग के पथिक थे। वे राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने के साथ ही आध्यात्मिक शक्तियों को बढ़ाने के लिए कई प्रकार के योग संबंधी अभ्यास करते रहते थे, पर जब तक वे बाहर रहे, तब तक। नौकरी और उसके बाद आंदोलन के कारण इस तरफ पूरा ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता था। अब जेल में जा बैठने पर सब तरह के झंझटों से छूट गए और अपनी कोठरी में बैठकर समस्त मन- प्राण से भगवान का ध्यान करने लगे। इसलिए वे अपनी जेल- यात्रा को आश्रम- वास कहने लगे थे। वहाँ उन्हें गहरी साधना का अवसर मिला और वे ब्रह्म- चेतना तक पहुँच गए, जो अध्यात्म- साधना का सर्वोच्च स्तर माना जाता है। कहते हैं कि जेल में प्राणायाम का अभ्यास करते समय उनका शरीर एक तरफ से हवा में ऊँचा उठ जाता था।
जेल में रहते हुए ही उनकी ' ब्रह्म- भावना 'इतनी बढ़ गई कि उनको सर्वत्र लीलामय प्रभु के दर्शन होने लगे। इसके पश्चात् उनके लिए जेल और जेलर, पुलिस और अदालत, अभियुक्त और जज, भगवान् के ही अनेक रूप प्रतीत होते थे। जेल जाने से पहले वे जिस आध्यात्मिक स्थिति तक पहुँचे थे, उसमें वे अपने को भगवान् के हाथ का एक यंत्र या माध्यम समझने लगे थे पर अब तो उनको अपने चारों ओर भगवान् दिखाई देने लगे। उनकी चेतना के हर एक कोने में गीता और उसके उपदेश समा गये। जब वे जेल से बाहर निकले, तो संसार के अणु- अणु में उनको भगवान् का ही अनुभव होता था।
इस प्रकार जेल के भीतर योग साधना करने वाले श्री अरविंद सच्चे अर्थों में एक युग- पुरूष थे। एक तरफ तो वे योरोपियन भाषाओं और वहाँ के साहित्य में पारंगत थे, लैटिन ,ग्रीक, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, इटालियन आदि कितनी ही भाषाओं में ऊँचे दर्जे की योग्यता रखते थे और दूसरी ओर भारतीय धर्म, दर्शन- शास्त्र तथा उनके विभिन्न अंगों के रहस्य के भी नूरे जानकर थे। इस प्रकार पूर्वी और पश्चिमी दोनों विद्याओं के ज्ञाता होकर वे कार्यक्षेत्र में उतरे थे। इस अगाध योग्यता के बल पर ही वे आगे चलकर साधकों के लिए पूर्ण योग की साधन- प्रणाली का अनुसंधान कर सके, जिसका आश्रय लेकर भारत ही नहीं, संसार के सभी देशों के अध्यात्म प्रेमी आत्मोन्नति के उच्च शिखर की तरफ अग्रसर हो रहे हैं।