• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • संत तुकाराम
    • चित्तरंजन दास
    • वीर शिवाजी - शौर्य और धर्मनिष्ठा के प्रतीक
    • महात्मा बुद्ध - लोक कल्याण के व्रती
    • सरदार पटेल - भारत माता के निर्भय सेनानी
    • गुरू नानक - नीच और दलितों को अपनाने वाले
    • बहन निवेदिता - भारतीय संस्कृति की अनन्य आराधिका
    • राजा राममोहन राय
    • स्वामी दयानंद सरस्वती
    • बाबा विनोवा
    • महायोगी अरविंद
    • सुभाषचंद्र बोस
    • जगद्गुरू शंकराचार्य
    • स्वामी विवेकानन्द
    • समर्थ गुरु रामदास
    • स्वामी रामकृष्ण परमहंस
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • संत तुकाराम
    • चित्तरंजन दास
    • वीर शिवाजी - शौर्य और धर्मनिष्ठा के प्रतीक
    • महात्मा बुद्ध - लोक कल्याण के व्रती
    • सरदार पटेल - भारत माता के निर्भय सेनानी
    • गुरू नानक - नीच और दलितों को अपनाने वाले
    • बहन निवेदिता - भारतीय संस्कृति की अनन्य आराधिका
    • राजा राममोहन राय
    • स्वामी दयानंद सरस्वती
    • बाबा विनोवा
    • महायोगी अरविंद
    • सुभाषचंद्र बोस
    • जगद्गुरू शंकराचार्य
    • स्वामी विवेकानन्द
    • समर्थ गुरु रामदास
    • स्वामी रामकृष्ण परमहंस
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - प्रेरणाप्रद भरे पावन प्रसंग

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


वीर शिवाजी - शौर्य और धर्मनिष्ठा के प्रतीक

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 2 4 Last
          शास्त्रों का यह वचन कि 'बच्चे के संस्कारों का निर्माण गर्भ काल से ही होने लगता है, सर्वथा सत्य एवं माननीय है। साथ ही इतना और जोडा़ जा सकता है कि वातावरण एवं परिस्थितियों का प्रभाव भी उस पर कम नहीं पड़ता। गर्भकाल में माता- पिता के और विशेष तौर से माता के आचरण- विचार का प्रभाव, बच्चे के संस्कारों पर अपनी गहरी छाप छोड़ता है। जन्मोपरांत वह उनके आचरण तथा विचार और चारों तरफ की परिस्थितियाँ एवं वातावरण से तद्नुसार तत्वों को ग्रहण करता है और करता रहता है। बच्चे को जिस आचरण, आचार- विचार और मनोभावों का बनाना अभीष्ट हो, माता- पिता को चाहिये कि वे स्वयं वैसे ही बनें और तदनुकूल वातावरण बच्चे के आस- पास उपस्थित रखने का प्रयत्न करें।
       कौन कह सकता है कि छत्रपति महाराज शिवाजी के निर्माण में उनके माता- पिता तथा तत्कालीन उनके आस- पास का वातावरण और परिस्थितियों का सहयोग न रहा हो। उनकी माता एक वीर स्वभाव तथा धर्मपरायण महिला थीं। दृढ़ता, धैर्य और साहस उनके जीवन की अमूल्य निधि थी। उनके पिता एक साहसी सैनिक, सेनानायक और नीतिज्ञ राज्य संचालक थे। उपस्थित के प्रति प्रत्युत्पन्न बुद्धि और समयानुकूल सुझ- बूझ के साथ- साथ उन्होंने विवेक बल पर अपनी दृष्टि और भविष्य- भावना को एक अच्छी सीमा तक विकसित तथा प्रखर बना रखा था। इन्हीं गुणों के कारण ही तो वे एक साधारण कृषक से राजा और सामान्य मनुष्य से शाही दरबारों में ऊँचे मनसबदार बन सके थे।
         उस समय की परिस्थिति के वातावरण में चारों ओर यवन शासकों के अत्याचारों, धर्म- संकट और हिंदुओं, हिंदु सभ्यता, संस्कृति, धर्म तथा प्रतिज्ञा की रक्षा की चिंता व्याप्त थी। चारों ओर युद्ध, ध्वंस, विनाश, रक्त- पात, अस्थिरता, आंतक उत्थान तथा पतन की घटनाएँ हो रही थीं। राज्य बनते- बिगड़ते अधीन और स्वाधीन हो रहे थे। एक छात्र शासन के अभाव में देश भर में अराजकतापूर्ण मनमानी का दौर- दौरा था। संधि, विग्रह, संगठन एवं विघटन एक सामान्य आचरण जैसा बन गया था। चातुर्य, चापल्य तथा चौकसी आवश्यक थी।
         शिवाजी के माता- पिता को भी इसी वातावरण तथा इन्हीं परिस्थितियों के बीच संघर्ष एवं साहस का जीवन बिताना पड़ा था। ऐसे माता- पिता के माध्यम से और इन्हीं परिस्थितियों से प्रभावित वातावरण में छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ था। उनका साहसी, वीर, धीर, दृढ़ी, उत्साही, दूरदर्शी, सहिष्णु, सतर्क एवं हिंदूत्त्ववान् होना कोई आश्चर्य अथवा संयोग की बात नहीं थी। उनके माता- पिता, उनकी परिस्थिति और तत्कालीन वातावरण उनके उस रूप का बड़ा कारण रहे हैं। इसके अतिरिक्त जो आवश्यक और शेष था, उसका सृजन अपनी बुद्धि, विवेक और आत्मा से उन्होंने स्वयं कर लिया था।
         शिवाजी का जन्म चुनार के अंतर्गत शिवनेरी दुर्ग में १० अप्रैल सन् १६२७ को हुआ था। उनके पिता शाहजी की जागीर तथा उनका स्थायी निवास पूना और सूपा में था। किंतु उस समय वे निजामशाही दरबार में मनसबदार थे और उसी की ओर से मुगलों के विरूद्ध युद्ध में संलग्न थे। शाहजी के श्वसुर लखूजी जादवराय भी पहले निजामशाह के ही सहायक थे, किंतु अपनी बेटी जीजाबाई के बाल विवाह के कारण वे निजामशाह और अपने जामाता शाह जी दोनों से द्वेष करते थे। अपने इसी व्यक्तिगत विद्वेष के कारण लखूजी जादवराय उस युद्ध संकट के समय निजामशाह और उसके योद्धा शाहजी का साथ छोड़कर मुगलों से जा मिला था। वह इस अवसर का लाभ उठाकर शाहजी को बंदी बनाना और अपने द्वेष को पूरा करना चाहता था। व्यक्तिगत हानि- लाभ और द्वेष- प्रेम से प्रभावित पुरूष इसी प्रकार तो देश तथा राष्ट्र का अहित कर इतिहास में कपटी और विश्वासघाती के नाम से कलंकित किले जाते हैं।
     अपने शुर लखूजी जादवराय की इस अनीति के कारण शाहजी को माहुली का किला खोकर वहाँ से अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर भागना पड़ा था। शाहजी जीजाबाई को घोड़े पर बिठाल कर ले चले। पर गर्भ संभार के कारण उनके घोड़े पर कुछ दूर चलना असंभव हो गया।         
         शाहजी के सामने एक समस्या खड़ी हो गई। वैसे तो वे उनको किसी और साधन अथवा घोड़े से ही धीरे- धीरे ले जा सकते थे, किंतु उस समय वे वैसा कर सकने की स्थिति में नहीं थे। लखूजी जादवराय बड़ी तेजी से उनका पीछा कर रहा था। दुश्मन के हाथ में पड़कर अपमानित होना उन्हें किसी प्रकार भी सह्य न था और गर्भवती जीजाबाई को क्षति अथवा कष्ट पहुँचाना भी अयोग्य तथा अवांछित था। बड़ी विषम स्थिति थी। किंतु साहसी व्यक्ति का भी निराश अथवा हीन- हिम्मत हो जाने से विवेक मंद हो जाता है और प्रत्युत्पन्न बुद्धि नष्ट हो जाती है। जिसमें फिर न कोई उपाय सूझ पड़ता है और न तन- मन काम देता है। मनुष्य किंकर्तव्यमूढ़ होकर संकट की भेंट चढ़ जाता है। उन्होंने जीजाबाई को हिम्मत रखने को कहा और क्षण भर सोचकर बचाव तथा बनाव का मार्ग खोज लिया।
             चारों ओर के मार्गों और भौगोलिक भूमिका पर दृष्टिपात करते ही उन्हें स्मरण हो आया कि पास ही चुनार का किला, जिसका जागीरदार श्रीनिवास राव उनका एक मित्र है। बस, फिर क्या था- उन्होंने तुरन्त घोड़े की बाग चुनार की ओर मोड़ दी। कुछ ही देर में वे चुनार जा पहुँचे। श्री निवासराव अपने माननीय मित्र को अकस्मात् आया देखकर प्रसन्न हो उठा और उनके स्वागत तथा निवास- विश्राम के लिए आदेश देने लगा। पर शाहजी ने उसे तुरंत रोकते हुए कहा- एक क्षण का भी समय नहीं है। लखूजी पीछा कर रहे हैं- बस यह अमानत तुम्हें सौंपता हूँ, इसकी साज- संभाल करना। इतना कह कर उन्होंने जीजाबाई को श्रीनिवास राव को सौंपा और तुरंत किले से निकलकर अभीष्ट दिशा की ओर तिरोधान हो गये। श्रीनिवास राव ने जीजाबाई को सुरक्षित और साधनापूर्ण शिवनेरी के दुर्ग में भेज दिया।
               शिवनेरी में जीजाबाई अभी आश्वस्त भी न हो पाई थी कि तब तक लखूजी जादवराय आ पहुँचा। लोगों ने सूचना दी कि शाहजी तो यहाँ से तत्काल चले गये। किले में केवल उनकी पत्नी जीजाबाई ही हैं। द्वेष- मूढ़ पिता ने उस समय अपनी बेटी को केवल शाहजी की वंशधारिका पत्नी समझा और बोला- ‘‘मैं उसको ही अपने साथ ले जाऊँगा, निश्चय ही उस समय वैसा करते हुए उसके मन में यह दुर्भाव रहा कि जब वह शाहजी की पत्नी को गिरफ्तार करके ले जायेगा और मुगलों की बंदिनी बनाकर यातनाओं की व्यवस्था करेगा, तो शाहजी अपनी पत्नी तथा गर्भस्थ संतान की रक्षा- भावना से मेरी शरण अवश्य आयेगा और तब मैं उससे अपना प्रतिशोध ले लूँगा। धिक्कार है- उस ईर्ष्या और द्वेष को, जो मनुष्य को इस सीमा तक मूढ़ तथा क्रूर बना देता है और खेद है उस दयनीय व्यक्ति पर जो विवेक के शत्रु इन दुर्भावों को प्रश्रय दिया करता है।
              लोगों ने उसके कथन के पीछे प्रच्छन्न मनोभाव को समझ लिया और विनीत वाणी में आश्चर्यपूर्वक बोले- ‘‘लखूजी! आप यह क्या कह रहे हैं? अपनी बेटी को बंदी बनायेंगे? शत्रु तो आपके शाहजी हैं। जीजीबाई तो सर्वथा निपराधिनी हैं। उस समय बाल विवाह में उनका क्या दोष है? आपने उस रंग- पंचमी के दिन साथ- साथ खेलते- हँसते अबोध बाल- बालिका शाहजी और जीजाबाई को देखकर निवेदन में कह दिया कि कैसी सुंदर जुगुल जोड़ी है- जीजाबाई क्या तुझे यह दूल्हा पसंद है? आपके उस विनोद को पकड़कर, शाहजी के पिता मालोजी ने, उपस्थित खंभों के समर्थन से वाग्दान का स्वरूप दे दिया। आपने तब भी उसे विनोद ही समझा और यथार्थ में विवाह करने से इनकार कर दिया। इसीलिए तो अनबूझ विनोद और अनावश्यक वक्तव्य का शास्त्रों में निषेध किया गया है क्योंकि यदा- कदा, देशकाल और व्यक्ति के आधार पर बात का बतगंड़ और विनोद का विग्रह बन जाया करता है। मालोजी ने स्थिति का लाभ उठाकर वही किया और अंत में निजाम शाह को प्रेरित कर आपके निषेध को विवश स्वीकृति में बदलवा दिया। आप निजामशाह के अधीन और प्रभाव में थे। न चाहते हुए भी अपनी पुत्री जीजाबाई को मालोजी के पुत्र शाहजी से ब्याहना पड़ा। इसमें बेचारी जीजाबाई का क्या दोष? आप तो बुद्धिमान हैं। सोचना चाहिए कि आप जीजाबाई को बंदी बनाकर शाहजी से जिस अपमान का बदला लेना चाहते हैं, मुगलों द्वारा अपमानित आपकी बेटी उस अपमान से लाखों गुने बडे़ अपमान की साक्षी न बनेगी। ऐसी दशा में आपकी आत्मा शांत रह सकेगी? आपका स्वाभिमान उस अपमान को सहन कर सकेगा? आप जीजाबाई के पिता हैं, यह न भूलना चाहिए और फिर इसमें शाहजी का भी क्या दोष है? बात तो आप और मालोजी के बीच की है। वह इस संसार से चले गये। अपना द्वेष भी निकाल फेंकिये और उस विवाह को दैवयोग अथवा ईश्वरीय इच्छा समझिये। जो होना था हो गया और सच पूछा जाये तो कुछ बुरा भी नहीं हुआ। हम लोगों का तो यही मत है। आगे आप मालिक हैं, जो ठीक समझें करें।
                 बात उपयुक्त थी। जीजाबाई के प्रति लखूजी का द्वेष मिटा और उनका विवेक वापस आया। अब वे प्यारपूर्वक बेटी के पास गये और बोले- "जीजा, चल मेरे साथ घर चल। वहाँ आराम से रहना। यहाँ असहाय की तरह पड़े रहने से, इस दशा में बड़ा कष्ट होगा। पर जीजाबाई तो पतिभक्ता वीर पत्नी थीं उन्होंने स्पष्ट इनकार कर दिया। युद्ध के संकट में पड़े पति के कष्ट- क्लेशों का विचार न कर स्वंय अपने लिए सुख- सुविधा की इच्छा करना उन्होंने धिक्कार के समान समझा। लखूजी जादवराव विवश होकर वापस चले गये।
इस स्थिति, परिस्थिति और मनःस्थिति के बीच शिवाजी का जन्म हुआ था। फिर भला क्यों न उनमें समयोपयुक्त संस्कारों का सृजन होता और वे क्यों न वैसे बन जाते? आगे चलकर जैसे थे बने। शिवनेरी दुर्ग की अधिष्ठात्री देवी शिवाई के नाम पर ही माता ने उनका नाम शिवा रखा, क्योंकि धर्मनिष्ठ जीजाबाई ने अपने बेटे को देवी का प्रसाद ही समझा।
भविष्यानुकूल जन्म के साथ- साथ शिवाजी की शिक्षा- दीक्षा भी उसी के समानांतर होती चली गई। जीजाबाई एक सुशिक्षित महिला थीं और उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग पुत्र के संस्कार ढा़लने में किया।
             उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा धीर, वीर, साहसी और धर्मरक्षक बने। इसलिए उन्होंने बालक शिवा को प्रारंभ से ही वीर- गाथाओं और गीतों को लोरी के रूप में सुनाना प्रारंभ कर दिया और जब वह कुछ बड़े हो गये तो स्वंय ही अक्षर ज्ञान कराया, आप ही अर्थ और यथार्थपूर्वक उनको रामायण, महाभारत तथा गीता आदि का पारायण कराया। इसके अतिरिक्त वे शिवाजी को धर्म के तत्व, उसकी वर्तमान दशा और उसकी रक्षा की आवश्यकता भी बतलाती रहती थीं। उन्होंने शिवाजी को भारत में एकछत्र स्वंतत्र हिंदू- राज्य का स्वप्न भी दिया। चरित्र और आचरण की शक्ति से सुज्ञ बनाकर संगठन और रीति- नीति के महत्व से अवगत कराया। इस प्रकार जीजाबाई ने शिक्षा की ऐसी दिशा कोई छोड़ी, जो शिवाजी के अभ्युदय के लिए आवश्यक थी। ऐसी विदुषी तथा बुद्धिमती माता का पुत्र धीर, वीर, धर्मरक्षक न बनकर और क्या बन सकता था? शिवाजी की निर्विकार तथा अनुकूल मनोभूमि पर माता जिनको चरितार्थ कर वे इतिहास के पृष्ठों में सदा- सर्वदा के लिए अमर तथा आदृत हो गए।
        मुगलों तथा बीजापुर की सम्मिलित शक्ति ने निजामशाही को परास्त कर दिया और शाहजी से संधि कर ली। संधि के अनुसार अहमद नगर का इलाका मुगल साम्राज्य में चला गया और शाहजी को अपनी पूना और सूया की जागीर के साथ बीजापुर के दरबार में मनसब मिल गया। उन्होंने अपने तीन वर्षीय पुत्र शिवाजी को और पत्नी जीजाबाई को पूना भेजकर वहाँ की जागीर का प्रबंध दादाजी कोणदेव नाम के वयोवृद्ध योग्य व्यक्ति को सौंप दिया। इस प्रकार शिवाजी अपनी माता के साथ दादाजी कोणदेव की संरक्षकता में और शाहजी स्थायी रूप से बीजापुर में रहने लगे।
       दादाजी कोणदेव बड़े ही दूरदर्शी तथा देशभक्त व्यक्ति थे। यवनों के धार्मिक अत्याचार देख- सुनकर उनको बड़ा दुःख होता था। वे चाहते थे कि भारत के हिंदू राजा एक होकर देश से यवन- सत्ता को समाप्त कर एकछत्र हिंदू राज्य की स्थापना करें। इसके लिए उन्होंने यथासाध्य प्रयत्न भी किया। किंतु पाया कि स्वार्थ और दंभ ने हिंदू- नरेशों को न केवल निर्बल ही बना दिया है, बल्कि हतबुद्धि भी कर दिया है। उनका विवेक और धर्मनिष्ठा समाप्त हो गई है। उनकी इच्छा थी कि कोई ऐसा तेजस्वी नायक उत्पन्न करें, जो देश- धर्म की रक्षा के लिए निःस्वार्थ भाव से प्रयत्न करें। टूटते हुए देवालयों और उतरते हुए शिखा- सूत्रों की रक्षा करे।
      तभी शिवाजी को अपने संरक्षण में पाकर उनके मन में आशा का संचार हो उठा और वे सोचने लगे कि, क्यों न बालक को वैसे ही संस्कारों, आचरण तथा भावनाओं में ढाला जाए जिस प्रकार के चरित्र की इस समय आवश्यकता है। यदि चाणक्य एक सामान्य बालक को चंद्रगुपत मौर्य बना सकते थे, तो उन्हीं प्रयत्नों द्वारा मैं क्यों बालक शिवा में उन योग्यताओं का विकास नहीं कर सकता? सत्य से संचालित प्रयत्नों में अमोघ शक्ति रहती है और जन- कल्याण की ज्वलंत भावनाओं में अनंत संभावनाएँ। मुझे अपना कर्तव्य करना चाहिए और मैं करूँगा भी, आगे प्रभु की इच्छा। फलाफल का निर्णय उसके हाथ में है। ऐसा सोचकर उन्होंने शिवाजी की शिक्षा- दीक्षा का शुभारंभ उसी दिशा में कर दिया।
      माता जीजाबाई ने बीज बोये थे। दादाजी कोणदेव ने खाद- पानी देकर उन्हें विकसित करना प्रांरभ किया। जीजाबाई ने वीरतापूर्ण गीत और गाथाएँ सुनाई थीं। दादाजी कोणदेव ने उनका अभ्यास कराया। सबसे पहले उन्होंने बालक शिवा का तलवार से परिचय कराया। एक छोटी- सी कृपाण देकर और एक खुद लेकर कहते- हाँ भाई, हमारा- तुम्हारा द्वंद्व- युद्ध हो जाये और वे इस प्रकार बहुत देर तक उन्हें तलवार का खेल खिलाते रहते। छोटी- सी कमान और छोटे- छोटे तीर देकर चलाना और निशाना मारना सिखाते। बर्छी की पकड़ और प्रक्षेपण का अभ्यास कराते। छोटे से घोड़े पर चढ़ाकर उन्हें अपने साथ सैर कराने ले जाते और तभी उन्हें देश का इतिहास, भूगोल तथा राजनीतिक दशा को कहानी की तरह सुनाते और उनमें यह भावना प्रौढ़ करते कि आगे चलकर उनको अपने इस भारत भूखंड को एकछत्र करना है और इसके इतिहास का कलंक धोना है। इसी अवसर पर वे तल्लीन बालक शिवा को राजनीति, राज्य- प्रबंध और राजनीतिक मोहरों और मोर्चों का स्वरूप का ज्ञान करते थे।
       दादाजी कोणदेव कभी- कभी उन्हें जंगल में ले जाते और अपनी सतर्कता में अकेला छोड़कर उनमें साहस, धैर्य तथा प्रत्युत्पन्नता उत्पन्न करते थे। उनमें जंगलों तथा पहाड़ों में रास्ता खोजने और बनाने की योग्यता का विकास करते। उनके समवयस्क साथियों को लेकर सेना का संगठन संचालन, विभाजन, नियुक्ति, व्यूह, आक्रमण तथा संग्राम के खेल खिलाते। दादाजी कोणदेव की इस शिक्षा का फल यह हुआ कि जब शिवाजी सयाने होकर आत्म- अस्तित्व के प्रति सज्ञान हुये, तो उन्होनें अपने को घोड़े की पीठ पर स्थित शस्त्रदक्ष सैनिक तथा सेनापति के रूप में पाया। उन्हें ऐसा लगा मानो उन्होंने इसी सज्जा और इन्हीं योग्यताओं के साथ भूमि पर पदार्पण किया है। उनका आत्मविश्वास शत- सहस्त्र शाखाओं के साथ वट- वृक्ष की तरह स्थिर तथा स्थायी हो गया।
         तेरह- चौदह वर्ष की आयु में आते- आते दादाजी कोणदेव ने शिवाजी को तन, मन, बुद्धि और आत्मा से स्वस्थ, साहसी, सुज्ञ तथा तेजस्वी बना दिया। अब वे उन्हें उनके पिता की जागीर के माध्यम से राज्य- प्रबंध, संचालन, शासन तथा प्रशासन की व्यावहारिक शिक्षा के साथ- साथ राजत्व के गुणों में दक्ष बनाने लगे और जल्दी ही इतना योग्य कर दिया कि वे स्वंय अपने आप सारी राज्य- व्यवस्था चला सकें।
         चौदह वर्ष की आयु में ही शिवाजी जागीर का बहुत- सा काम खुद करने लगे। वे प्रजा की दशा और उसकी आवश्यकताएँ जानने के लिए गाँवों का दौरा करते, वहाँ दरबार लगाते और लोगों की शिकायतें सुनकर झगड़े निपटाते थे। वे क्षेत्रों के प्रभावशाली व्यक्तियों से मिलते और देश- धर्म के प्रति उनका मनोभाव जानने का प्रयत्न करते। जागीर की आर्थिक तथा सामाजिक दशा का पता लगाते और उसके सुधार तथा विकास के लिए योजनाएँ बनाकर देते। इसके अतिरिक्त् वे लोगों को जमा करते और उनमें संगठन, साहस तथा देश, धर्म की सेवा करने की प्ररेणा भरते। वे अपराधियों, अन्यायियों तथा आतंकवादियों को समझाते, उन्हें सुधरने का अवसर देते और आवश्यकता पड़ने पर दंड देते थे। वे प्रसंगों को सुनते और उन पर इतना निष्पक्ष निर्णय देते थे कि लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे।
        निरालस्य, स्फूर्ति, उत्साह, तत्परता तथा श्रमशीलता जैसे जीवन- विकास में सहायक गुणों को शिवाजी ने अलंकारों की तरह धारण किया हुआ था। नियम, संयम और नियमित उपासना करना उन्होंने नित्यकर्म बना लिया था। कब, क्या और किस तरह करना है? इस बात से वे कभी अचेत न रहते थे। व्यवहार कुशलता के साथ वाक्पटुता का अभ्यास उन्होंने प्रयत्नपूर्वक किया था। परनिर्भरता और परमुखापेक्षण की दुर्बलता को वे मानव- जीवन पर एक कलंक के समान समझते थे। साथियों, सहायकों तथा सहयोगियों के साथ उनका उपयुक्त व्यवहार लोंगों को उनका अभिन्न बना देता था। शिवाजी के इन गुणों को देखकर लोगों को आशा बँधने लगी कि, शायद यह तरुण देश- जाति के लिए कुछ कर सके। शिवाजी ने लोगों की यह अपेक्षा कुछ ही नहीं बहुत कुछ करके चरितार्थ कर दिखाई।
         शिवाजी ने अपने इन्हीं गुणों तथा योग्यताओं के बल पर जागीर के सारे तरुण, नवयुवक तथा किशोरों को अपना अनुयायी बना लिया था। उन्होंने स्थान- स्थान पर इनके संगठन तथा स्वयं- सेवक दल बना दिये। समय- समय पर जाकर वे उनको शस्त्रों तथा देश- प्रेम की शिक्षा देते और धर्म की रक्षा में मर- मिटने की प्रेरणा भी। जनता में धर्म तथा राष्ट्र भावना का प्रचार करते, समितियाँ तथा सभाएँ गठित कराते और सार्वजनिक संचय से जन- निधि की स्थापना कराते। उन्होंने स्थान- स्थान पर देश- धर्म की रक्षा के लिए सामग्री एकत्रित करने के लिए भंडार- भवनों की स्थापना कराई और उसके प्रबंध तथा व्यवस्था के लिए कार्यकारिणियाँ निर्मित कराईं। लोगों में शिक्षा तथा धर्म- ग्रंथों के पठन- पाठन की रुचि पैदा की और उसके पालन के लिए आवश्यक प्रबंध भी किया। जगह- जगह उन्होंने गीता, रामायण, महाभारत तथा इतिहास की गोष्ठियाँ बनवाकर उनमें उनका पाठ प्रारंभ कराया। अनेक प्रचारक तथा प्रवक्ता तैयार करके दूर- दूर तक भेजे, जो प्रसुप्त हिंदू- जाति में जागरण करते और देश- धर्म पर मर मिटने की प्रेरणा देते थे।
       शिवाजी ने बहुत से चुने हुए साथियों की एक स्वयं सैनिक सेना बनवाकर युद्ध, व्यूह तथा उसके संचालन का व्यावहारिक अभ्यास कर लिया। वे लोगों को स्वयं शस्त्र तथा युद्ध की शिक्षा देते और सेना के लिए आवश्यक अनुशासन का अभ्यास कराते। इस प्रकार उन्होंने जागीर की लगभग सभी जनता में संगठन तथा सैनिक भावना का जागरण कर दिया। इन कार्यों तथा उसके पीछे सत्रिहित देश, धर्म तथा जाति रक्षा के उदेदश्य ने शिवाजी को इतना लोकप्रिय बना दिया कि लोग उन्हें यों ही अपना नेता तथा नायक मानने लगे। क्षेत्र का युवक- वर्ग तो उनके लिए मर- मिटने को सैदेव तैयार रेहने लगा। आगामी संघर्ष की यह एक विशाल तथा उपयुक्त तैयारी थी, जिसमें दूरदर्शी शिवाजी तन, मन और धन से जुट जुटे हुए थे। अराम आनंद और विलास- विनोद क्या होता है ?? अव्यवसायी शिवा को इसका भान तक न था। जिसके सम्मुख इतना विशाल कार्य और इतना विस्तृत कार्य- क्षेत्र पडा़ हो, वह संसार के झूठे आनंद में पड़कर अकर्र्तव्य किस प्रकार कर सकता है ?? इस प्रकार का अनुत्तरदायित्व तो वे ही किया करते हैं, जो जिसमें जन्म लेकर भी अपने समाज तथा देश की दुरावस्था से दु:खी नहीं होते। उनकी नाडि़यों का रक्त उनके उद्दार तथा सुधार के लिए तड़प नहीं उठता। शिवाजी को अपने देश धर्म से प्रेम था, वे समाज के सच्चे हितैषी तथा शुभ- चिंतक थे। वे तृण के समान सांसारिक भोगों को पवित्र कर्तव्य पर श्रेय किस प्रकार दे सकते थे ??
      शिवाजी के विकास का समाचार उनके पिता शाहजी को बीजापुर मिलता ही रहता था। उन्होंने अब पुत्र को अपने पास बुलाकर राजनीतिक क्षेत्र में परिचित करा देना आवश्यक समझा। अत: उन्होंने शिवाजी को जीजाबाई के साथ बीजापुर बुला लिया। गुणों की विशेषताएँ प्रकट होते देर नहीं लगती। शिवाजी के रंग- रूप, स्वास्थ्य, विनम्रता, अनुशासन, व्यवहार तथा आचरण के सौंदर्य ने जल्दी ही सब पर जादू- सा कर दिया। शाहजी का जो भी दरबारी मित्र अथवा संभ्रांत एक बार शिवाजी से बात कर लेता था, उसकी सारी सद्भावनाएँ उनकी ओर हो जाती थी। बीजापुर के अमीर- उमरा तो उनके व्यक्तित्व तथा गुणों से इतना आकर्षित हुए कि दरबार में भी उनकी चर्चा करने लगे। शिवाजी के विषय में सुनकर सुलतान भी उन्हें देखने के लिए उत्सुक हो उठा।
      अपने मित्र मुरार जी पंत के बहुत जोर देने पर एक दिन शाहजी ने शिवाजी को साथ में दरबार चलने को कहा और यह भी बतलाया कि दरबार में पहुँचते ही जमीन तक झुककर बादशाह को कोरनिश करें, बतलाई हुई जगह पर बैठें और बिना पूछे कोई बात न करें। पिता ने समझा कि पुत्र को दरबारी तौर- तरीकों की शिक्षा दे रहा है और पुत्र ने उसे अपनी आत्मा का अपमान समझा। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- पिताजी ! बादशाह विधर्मी और अत्याचारी है। वह हिंदूओं और हिंदू- धर्म का दुश्मन है। मंदिर तुड़वाता है और हिंदूओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाता है। गो- वध करवाता है। मैं गो, जाति तथा धर्म का सेवक हूँ। यवन बादशाह को कोरेनिश करना तो दूर है, मैं उसकी सूरत भी देखना नहीं चाहता।
      शाहजी को शिवाजी की बातें सुनकर जरा भी आश्चर्य न हुआ। उन्हें पहले से ही यहि उत्तर पाने की आशंका थी। शिवाजी के विचार, विश्वास, भावनाओं तथा सिद्धांतनिष्ठा से वे भली प्रकार परिचित थे। उन्होंने शिवाजी से फिर आगे कुछ न कहा। जीजाबाई को समझाने का निर्देश दिया। माता जीजाबाई ने भी शिवा को बहुत कुछ समझाया और पिता की आज्ञा- पालन करनेव को कहा। तथापि शिवाही दरबार जाने को तैयार हुए। उन्होंन स्पष्ट कह दिया कि पिता की आज्ञापालन मेरा कर्तव्य जरूर है,पर कोई अनुचित आज्ञा मानने को मैं तनिक भी तैयार नहीं हूँ। दरबार के लिए दी गई उनकी आज्ञा मेरे सिद्धांत, स्वाभिमान तथा धर्म के विपरीत है। मैं दरबार जाकर उस म्लेक्ष शासक को कदापि कोरेनिश नहीं कर सकता। जीजाबाई बेटे का यह स्वाभिमान तथा दृढ़ता देखकर मन ही मन प्रसन्न होकर पुलक उठी। उन्हें इस बात का संतोष हुआ कि शिवा पर उनका प्रयत्न ठीक और वांछित दिशा में फलीभूत हुआ। उन्होंने दिखावे के लिए एक- आध बार शिवा से दरबार के विषय में पिता की आज्ञापालन करने को कहा और फिर मौन हो गई। उन्होंने पति से कह दिया कि, लड़का मेरे समझाये न मानेगा।
      शाहजी ने मुरार पंत से सारी बात बतलाई और कहा- "मैं कहता था न कि शिवा बड़ा स्वाभिमानी है। वह दरबार में आने और बादशाह को सलाम करने को तैयार न होगा। उसने साफ कह दिया कि मैं उस विधर्मी बादशाह की सूरत भी नहिं देखना चाहता।" मुरार पंत ने कहा- "अभी लड़का ही तो है। हित- अनहित नहिं समझ सकता। मैं उसे समझा दूँगा।"
दुसरे दिन मुरार पंत शाहजी के घर गये और शिवाजी को बुलाकर कहा- "बेटे ! तुम्हें दरबार में चलना ही चाहिए। वहाँ जाने से बडा़ लाभ होगा। बादशाह खुश हो जायेगा तो खिताब और ओहदा देगा, जागीर बख्शेगा। अपने बडे़ लाभ के लिए बादशाह को एक बार सलाम कर लेने में क्या हर्ज है ?? मतलब के लिए मनुष्य क्या नहीं करता ?? इस दुनिया में तो ऐसे ही काम चलता है। इस समय तो सारे भार में ही यवनों की सत्ता छाई हुई है। ईश्वर की ऐसी ही इच्छा, है तो हम लोग कर ही का सकते है ?? सभी लोग उन्हें सलाम करते और लाभ उठाते हैं, तब तुम भी यदि अपनी उन्नति तथा सुख- सुविधा के लिए सलाम कर लोगे तो क्या घट जायेगा ?? गो- वध हमारे- तुम्हारे बंद कराये तो नहीं बंद ह ओ जायेगा। जब समय और आयेगा और भगवान् की इच्छा होगी तो बंद हो जायेगा ।। अवसर देखकर काम करना ही बुद्धिमानी है। मेरी मानो और दरबार में चलो। हम सब बादशाह से तुम्हारी सिफारिश करेंगे और तुमको ओहदा और जागीर मिल जायेगी। सुख से अपना जीवनयापन करना। इन सब नाहक के विरोधों तथा खदों में क्या रखा है?
      मुरार पंत की बात सुनकर किशोर शिवा बडी़ देर तक उनके मुँह देखते और सोचते रहे कि ऐसे ही स्वार्थ तथा सुख- लिप्साओं के कारण ही देश व धर्म की यह दशा है। फिर बोले- "खेद है चाचा कि ऐसे विद्वान तथा योग्य व्यक्ति होकर ऐसी ओछी बात कहते हैं। बादशाह से चाटुकारिता में पाये जिस पद और जागीर को लाभ बतलाते हैं, उसे मैं भिक्षा से अधिक गया- गुजरा समझता हूँ। अपने बाहुबल और सत्कर्मों द्वारा उत्पादित संपत्ति को मैं ग्राह्यय तथा वांछ्नीय मानता हूँ। देश और धर्म पर होते अत्याचार पर दृष्टिपात न कर केवल अपने स्वार्थ की ओर ही देखते रहना अपमाननीय प्रवृत्ति हैं जो किसी भी स्वाभि
First 2 4 Last


Other Version of this book



प्रेरणाप्रद भरे पावन प्रसंग
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

संत विनोबा भावे
Type: SCAN
Language: HINDI
...

संत विनोबा भावे
Type: SCAN
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

भाव संवेदना की गंगोत्री
Type: SCAN
Language: EN
...

भाव संवेदना की गंगोत्री
Type: SCAN
Language: EN
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Articles of Books

  • संत तुकाराम
  • चित्तरंजन दास
  • वीर शिवाजी - शौर्य और धर्मनिष्ठा के प्रतीक
  • महात्मा बुद्ध - लोक कल्याण के व्रती
  • सरदार पटेल - भारत माता के निर्भय सेनानी
  • गुरू नानक - नीच और दलितों को अपनाने वाले
  • बहन निवेदिता - भारतीय संस्कृति की अनन्य आराधिका
  • राजा राममोहन राय
  • स्वामी दयानंद सरस्वती
  • बाबा विनोवा
  • महायोगी अरविंद
  • सुभाषचंद्र बोस
  • जगद्गुरू शंकराचार्य
  • स्वामी विवेकानन्द
  • समर्थ गुरु रामदास
  • स्वामी रामकृष्ण परमहंस
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj