
स्वामी दयानंद सरस्वती
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स्वामी दयानंद सरस्वती जिस समय राजस्थान के राजाओं को देश- भक्ति
और समाज- सुधार की शिक्षा देने के लिए विभिन्न रियासतों में
भ्रमण कर रहे थे। उस समय जोधपुर के महाराज यशवंतसिंह ने उनको अपने यहाँ आने को आमंत्रित किया। स्वामी जी के कई शुभचिंतकों ने उनको जोधपुर न जाने की सलाह दी, क्योंकि वहाँ की आंतरिक स्थिति उनके अनुकूल नही
थीं और किसी कुचक्र में फँस जाने का अंदेशा था। पर स्वामी जी
सदा साहस और निर्भीकता से कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना
करते आये थे, इसलिए वे इस प्रकार की आशंकाओं से तनिक भी न घबडा़ये और अपने धर्म- प्रचार के कर्त्तव्य का पालन करने के लिए नियत समय पर जोधपुर पहुँच गए।
पर लोगों की आशंका निर्मूल न थी। स्वामी जी परम स्पष्टवक्ता थे, उनके धार्मिक- सुधार संबंधी भाषणों को सुनकर कई पुराने ढर्रे के पंडित, साधु, महंत आदि उनके विरोधी बन गये। एक दिन महाराज की वेश्या नन्हींजान को उनके समीप देखकर इसका भी विरोध किया और कह बैठे- "राजन् ! आप जैसे सिंहों के समीप इस तरह की कुतिया शोभा नहीं देतीं।" महाराज तो यह सुनकर केवल कुछ संकुचित होकर रह गए, पर जब यह बात नन्हींजान ने सुनी तो वह जी- जान से इनकी दुश्मन बन गई और उसने अन्य विरोधियों से मिलकर इनके रसोइया जगन्नाथ को बहकाया। यद्यपि वह बहुत वर्षों से इनके पास रहता था और बडा़ विश्वासपात्र माना जाता था, पर उसने कुमति में पड़कर दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। थोडी़ ही देर बाद पेट में भंयकर कष्ट प्रतीत होने लगा। स्वामी जी ने वमन- विरेचन की योग क्रियाओं से दूषित पदार्थ को निकाल देने की चेष्टा की, पर विष तीव्र था और अपना काम कर चुका था। यह देखकर दूसरे दिन से चिकित्सकों द्वारा इलाज किया जाने लगा, पर उससे भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। केवल इतना अंतर पडा़ कि, जहाँ बिना चिकत्साकसा के वह कुछ घंटों या एक- दो दिन में देहांत कर देता, औषधियों के कारण उसका असर कुछ घट गया और एक महीना तक स्वामी जी को जलन और दर्द का कष्ट भोगना पडा़।
इस घटना में एक गूढ़ प्रसंग भी था, जिसका रहस्य उस समय किसी को विदित न हो सका। स्वामी जी को जगन्नाथ द्वारा दूध में जहर देने की बात का अनुमान थोडी़ देर बाद ही हो गया था। उन्होंने समय पाकर उसे अपने पास बुलाया और सच्ची बात बताने को कहा। उनके आत्मिक प्रभाव से जगन्नाथ काँप गया और अपना अपराध स्वीकार कर लिया, पर उसे दंड दिलाना अथवा बुरा- भला कहना तो दूर, स्वामी जी ने उसे अपने पास से कुछ रुपये देकर कहा- "अब जहाँ तक बन पडे़ शीघ्र से शीघ्र तुम जोधपुर की सरहद से बाहर निकल जाओ, क्योंकि यदि किसी भी प्रकार इसकी खबार महाराज को लग गई तो तुमको बिना फाँसी पर चढा़ए न मानेंगे।" बस जगन्नाथ उसी क्षण वहाँ से बहुत दूर चला गया, और कहीं गुप्त रूप से रहकर उसने पापी प्राणों की रक्षा की।
स्वामी जी के जीवन में यही घटना उनको महामानव सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। कोई सामान्य मानव तनधारी कभी अपने अपकारी को इस तरह क्षमा नहीं कर सकता, वरन् सौ में से निन्यानवें व्यक्ति किसी से साधारण बैर- भाव हो जाने से ही उसके नाश की कामना और प्रयत्न करने लग जाते हैं। पर "महामानवों" अथवा "दैवी विभूतियों" की ही यह सामर्थ्य होती है। महापुरुष ईसा और महात्मा गाँधी का नाम इसीलिए संसार में चिरस्थायी है, क्योंकि उन्होंने अपने परम शत्रुओं का भी कभी अहित चिंतन नहीं किया और सदा उनको क्षमा करते रहे। स्वामी दयानंद ने भी ऐसी ही अलौकिक उदारता का उदाहरण संसार के सामने उपस्थित किया।
पर लोगों की आशंका निर्मूल न थी। स्वामी जी परम स्पष्टवक्ता थे, उनके धार्मिक- सुधार संबंधी भाषणों को सुनकर कई पुराने ढर्रे के पंडित, साधु, महंत आदि उनके विरोधी बन गये। एक दिन महाराज की वेश्या नन्हींजान को उनके समीप देखकर इसका भी विरोध किया और कह बैठे- "राजन् ! आप जैसे सिंहों के समीप इस तरह की कुतिया शोभा नहीं देतीं।" महाराज तो यह सुनकर केवल कुछ संकुचित होकर रह गए, पर जब यह बात नन्हींजान ने सुनी तो वह जी- जान से इनकी दुश्मन बन गई और उसने अन्य विरोधियों से मिलकर इनके रसोइया जगन्नाथ को बहकाया। यद्यपि वह बहुत वर्षों से इनके पास रहता था और बडा़ विश्वासपात्र माना जाता था, पर उसने कुमति में पड़कर दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। थोडी़ ही देर बाद पेट में भंयकर कष्ट प्रतीत होने लगा। स्वामी जी ने वमन- विरेचन की योग क्रियाओं से दूषित पदार्थ को निकाल देने की चेष्टा की, पर विष तीव्र था और अपना काम कर चुका था। यह देखकर दूसरे दिन से चिकित्सकों द्वारा इलाज किया जाने लगा, पर उससे भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। केवल इतना अंतर पडा़ कि, जहाँ बिना चिकत्साकसा के वह कुछ घंटों या एक- दो दिन में देहांत कर देता, औषधियों के कारण उसका असर कुछ घट गया और एक महीना तक स्वामी जी को जलन और दर्द का कष्ट भोगना पडा़।
इस घटना में एक गूढ़ प्रसंग भी था, जिसका रहस्य उस समय किसी को विदित न हो सका। स्वामी जी को जगन्नाथ द्वारा दूध में जहर देने की बात का अनुमान थोडी़ देर बाद ही हो गया था। उन्होंने समय पाकर उसे अपने पास बुलाया और सच्ची बात बताने को कहा। उनके आत्मिक प्रभाव से जगन्नाथ काँप गया और अपना अपराध स्वीकार कर लिया, पर उसे दंड दिलाना अथवा बुरा- भला कहना तो दूर, स्वामी जी ने उसे अपने पास से कुछ रुपये देकर कहा- "अब जहाँ तक बन पडे़ शीघ्र से शीघ्र तुम जोधपुर की सरहद से बाहर निकल जाओ, क्योंकि यदि किसी भी प्रकार इसकी खबार महाराज को लग गई तो तुमको बिना फाँसी पर चढा़ए न मानेंगे।" बस जगन्नाथ उसी क्षण वहाँ से बहुत दूर चला गया, और कहीं गुप्त रूप से रहकर उसने पापी प्राणों की रक्षा की।
स्वामी जी के जीवन में यही घटना उनको महामानव सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। कोई सामान्य मानव तनधारी कभी अपने अपकारी को इस तरह क्षमा नहीं कर सकता, वरन् सौ में से निन्यानवें व्यक्ति किसी से साधारण बैर- भाव हो जाने से ही उसके नाश की कामना और प्रयत्न करने लग जाते हैं। पर "महामानवों" अथवा "दैवी विभूतियों" की ही यह सामर्थ्य होती है। महापुरुष ईसा और महात्मा गाँधी का नाम इसीलिए संसार में चिरस्थायी है, क्योंकि उन्होंने अपने परम शत्रुओं का भी कभी अहित चिंतन नहीं किया और सदा उनको क्षमा करते रहे। स्वामी दयानंद ने भी ऐसी ही अलौकिक उदारता का उदाहरण संसार के सामने उपस्थित किया।