
तलाक कोई समाधान नहीं
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भारतीय परिवारों के विषय में ‘मैक्समूलर’ ने अपनी एक पुस्तक में लिखा
है—‘‘स्नेह, सहयोग, आत्मीयता, समर्पण एवं त्याग का उदात्त भाव जो यहां
दिखाई पड़ता है वह विश्व में कहीं भी अन्यत्र दुर्लभ है। भारतीय संस्कृति
के साकार स्वरूप का दर्शन इन परिवारों में किया जा सकता है। जहां कि
प्रत्येक सदस्य पदार्थ एवं बुद्धि निष्ठा के ऊपर उठकर अपने श्रेष्ठ त्याग
द्वारा भाव निष्ठा का परिचय देता है। अभावग्रस्त स्थिति में रहते हुए भी
पति-पत्नी के बीच निश्छल प्रेम उन्हें ऐसे अटूट बन्धन में बांधे रहता है जो
अन्य किसी भी भौतिक बन्धन द्वारा सम्भव नहीं। भौतिक आकर्षणों द्वारा बंधे
पश्चिमी परिवारों को भारतीय परिवारों में बहती हुई पावन सरिता में डुबकी
लगाना तथा परिवार निर्माण के लिए प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए।’’
सांस्कृतिक विरासत के रूप में भारत को प्राप्त अनेकानेक अनुदानों में एक थी—पारिवारिक स्नेह सद्भाव की सुदृढ़ पृष्ठभूमि, जिसके कारण पति, पत्नी जीवन पर्यन्त, सुख-दुःख में हिस्सा बंटाते खुशहाल रहते थे। सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के पीछे यह मान्यता भी काम करती थी कि पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध इस जीवन तक ही सीमित नहीं है वरन् जन्म-जन्मों तक का है। मान्यताएं जब आत्मिक धरातल की थीं तो भौतिक वस्तुएं अथवा छोटे-मोटे अवरोध अथवा विक्षोभ उनके आपसी रिश्तों को प्रभावित नहीं कर पाते। कभी मनमुटाव उत्पन्न भी होते थे तो भावनात्मक बन्धन को प्रभावित नहीं कर पाते, देर सवेर सुलझ जाते थे। गलती किसकी थी? प्रायश्चित क्या हो? दण्ड क्या हो? इस प्रकार के प्रश्न नहीं उत्पन्न होते थे वरन् भावनात्मक ठेस किसको लगी और उसका उपचार क्या हो, प्रयत्न इसके लिए किये जाते थे। शरीर एवं बुद्धि के धरातल से ऊपर उठकर भावनात्मक स्तर पर समाधान ढूंढ़ते जाते थे। फलतः झगड़े—मनमुटाव कभी स्थायी रूप नहीं लेते थे और विग्रह, घृणा, द्वेष से बढ़कर विघटन जैसी परिस्थितियों का सामना नहीं करना होता था। अपवादों को छोड़कर शायद की कहीं ऐसी स्थिति आती थी कि आपसी विग्रह के कारण विवाह विच्छेद अथवा तलाक जैसे सामाजिक कलंक की चादर ओढ़नी पड़े। जो ऐसे कदम उठाते भी थे उन्हें सामाजिक तिरस्कार, उपेक्षा एवं घृणा का भाजन बनाना पड़ता था। सामाजिक एवं धार्मिक मर्यादाएं भी ऐसी प्रवृत्तियों को कड़ाई से रोकती थीं। सम्भवतः पुरातन ऋषियों, मनीषियों की इस व्यवस्था के पीछे यह दूरदर्शिता रही होगी कि परिवार टूटेंगे तो समाज बिखरेगा और मनुष्य अधिक उच्छृंखल हो जायेगा। परिवार से मिलने वाले भावनात्मक परिपोषण के अभाव में सम्बन्धित सदस्यों का भविष्य अन्धकारपूर्ण बन जायेगा। यदि यत्किंचित् कोई अपना शारीरिक एवं बौद्धिक निर्माण करने में सफल भी हो जाता है तो भाव संवेदनाओं की कंगाली उसे स्वार्थी एवं असामाजिक ही बनायेगी। कठोर सामाजिक व्यवस्था एवं आत्मानुशासन के कारण पति-पत्नी एक दूसरे से चिताग्नि के पूर्व अलग नहीं हो पाते थे। स्नेह, सद्भाव से युक्त ऐसे परिवारों का दिग्दर्शन करके मैक्समूलर जैसे पश्चिमी विद्वान के मुख से उपरोक्त उद्गार निकल पड़े हों तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।
पश्चिम की भौतिकवादी मान्यताओं ने हमारे जीवन-दर्शन को बुरी तरह प्रभावित किया है। परिवार के सम्बन्ध में चली आ रही सदियों की उदात्त दृष्टि भी प्रभावित हुई है। सघन भाव-सम्वेदनायें कभी पति-पत्नी ही नहीं सम्पूर्ण परिवार को जोड़े रखती थीं। उसमें भारी कमी आई है। यूरोप की भांति अपने यहां भी बुद्धि भावनाओं पर हावी होती जा रही है। दाम्पत्य जीवन का भावनात्मक आधार लड़खड़ाता जा रहा है। पति-पत्नी के बीच भावनात्मक मनमुटावों का समाधान अब अपने देश में भी भावनाओं के आधार पर ढूंढ़ा जाता है फलस्वरूप बौद्धिक समाधान में प्रत्यक्ष हल लूला-लंगड़ा तो निकल आता है पर हृदय में मर्मस्थल में लगे घावों का कोई उपचार नहीं बन पाता। देर-सवेर ऐसे मन-मुटाव नया जामा पहन कर नये रूप में प्रकट होते हैं। जैसे-जैसे भावनात्मक रिश्ते बौद्धिकता के धरातल पर आने लगते, यह टकराहट और भी बढ़ती जाती है और एक सीमा पर आकर स्थिति विस्फोटक हो जाती है और तब तलाक के लिए आवाज लगाई जाती तथा न्यायालय के दरवाजे खटखटाये जाते हैं।
कभी भारतीय परिवार अपनी गौरव-गरिमा, महानता, त्याग एवं बलिदान के लिए विश्वभर में विख्यात थे, वे वर्तमान में किस तरह बिखरते जा रहे हैं, यह मात्र परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करने पर पता चलता है। तलाक दूसरे देशों में भी होते हैं। बल्कि भारत की तुलना में कहीं अधिक होते हैं। किन्तु उनके लिए यह सामान्य बात हो सकती है। अपने देश की स्थिति यूरोप के देशों से सर्वथा भिन्न रही है, जिस सांस्कृतिक परिवेश में हम पले हैं— उसके गौरव के यह प्रवृत्ति सर्वथा प्रतिकूल है। किन्तु आंकड़े बताते हैं कि पिछले दशक में अपने देश में किस तेजी से यह दुष्प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। सन् 1961 में 100 व्यक्तियों पीछे एक तलाक की घटना थी। वर्ष 1971 अर्थात् एक दशक बाद प्रति 50 व्यक्तियों पीछे एक तलाक की घटना प्रकाश में आई। कुल 87 विवाह विच्छेद हुए। लगभग एक दशक बाद अर्थात् 1980 में विवाह विच्छेद की घटनाओं में तीन गुनी वृद्धि हो गयी। अनुमानतः प्रत्येक व्यक्ति पीछे एक विवाह विच्छेद का औसत रहा।
कई विचारशील कहे जाने वाले व्यक्ति भी यह कहते हुए सुने जाते हैं कि पति-पत्नी के बीच विग्रह एवं मन-मुटाव बने रहने की तुलना में कहीं अधिक अच्छा है कि सम्बन्ध विच्छेद कर लिया जाय। क्या तलाक के बाद समस्या का हल निकल आता है—क्या पति-पत्नी बाद में अधिक सुखी एवं सन्तुष्ट होते हैं? जैसे प्रश्नों पर विचार करने पर निराशाजनक स्थिति ही दृष्टिगोचर होती है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि तलाकशुदा स्त्री-पुरुष कभी भी दूसरों का—समाज का विश्वास नहीं प्राप्त कर पाते। जन सामान्य मन ही मन यह सोचता है कि ये वही पुरुष अथवा स्त्री हैं जो अपनी पत्नी अथवा पति का साथ नहीं निभा सके—विश्वास पात्र एवं सहयोगी न बन पाये। भीतर ही भीतर यह भावना ऐसे तलाकशुदों के प्रति बनी रहती है। किसी प्रकार इसकी शादी हो भी जाती है तो ऐसे पुरुष अथवा स्त्री जिनसे तलाकशुदा की शादी होती है, को सदा यह शंका बनी रहती है कि सहयोग का सम्बन्ध भविष्य में स्थाई रह सकेगा भी अथवा नहीं। जैसे-तैसे दाम्पत्य जीवन में बंधे जाने के बावजूद भी गाड़ी आशंकाओं-कुशंकाओं के बीच मार्ग में लुढ़कती रहती है। मधुर दाम्पत्य जीवन में स्नेह सद्भाव का दर्शन कर पाना तो मुश्किल से ही सम्भव हो पाता है। शारीरिक एवं बौद्धिक धरातल तक उनके सम्बन्ध भले ही प्रगाढ़ हो जायें किन्तु भावनात्मक तादात्म्य नहीं स्थापित हो पाता जिनके द्वारा उच्चस्तरीय आपसी त्याग बलिदान का उपक्रम चल सके।
सर्वाधिक दुर्दशा तो उन मासूमों की होती है जो जन्म तो ले लेते हैं किन्तु माता-पिता दोनों का स्नेह छत्रछाया नहीं प्राप्त कर पाते। किसी प्रकार भोजन, वस्त्र, और शिक्षा की भौतिक व्यवस्था जुट भी जाय तो भी पानी की तलाश में मरुस्थल में प्यासे पथिक की भांति उनका हृदय सदा मां-बाप के प्यार एवं ममता के अभाव में अतृप्त बना रहता है। अन्वेषण से प्राप्त निष्कर्षों से ज्ञात हुआ है कि ऐसे ही अतृप्त बच्चे आगे चलकर अपराधी अधिक बनते देखे जाते हैं।
एकांगी भौतिक सभ्यता के साथ यह अभिशाप सर्वाधिक जुड़ा हुआ है। अमेरिका जैसा देश सम्पन्नता की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित कहा जाता है—तलाक के क्षेत्र में भी अग्रणी है। पिछले दिनों अमेरिका के एक साप्ताहिक पत्र में हृदय विदारक आंकड़े प्रस्तुत हुए हैं—
अमेरिका में जन्म लेने वाले बच्चों में से प्रतिवर्ष लगभग 45 प्रतिशत बच्चे तलाकशुदा माता-पिता की सन्तान होते हैं। वयस्क होने से पूर्व ही उन्हें माता या पिता किसी एक से वंचित को जाना पड़ता है इन दिनों एक करोड़ दस लाख से अधिक बच्चे ऐसे हैं जिनके मां बाप तलाक ले चुके हैं। अनुमान है कि इस प्रकार परिवार टूटने से लगभग दस लाख की संख्या में ऐसे बच्चे प्रतिवर्ष बढ़ते जायेंगे।
न्यू हेवन, कनेक्टिकट के मेल चाइल्ड स्टडी सेन्टर के डायरेक्टर अलबर्ट जे.सोल्निट ने बहुत वर्ष पहले कहा था ‘‘इस शताब्दी के आठवें दशक में को जिन मानसिक संकट का सामना करना पड़ रहा है, तलाक उसका मुख्य कारण है।’’
पाश्चात्य देशों में तलाक भले ही आम बात बन गयी हो लेकिन बच्चों पर इसकी बहुत बुरी प्रतिक्रिया होती है। विशेषज्ञों का कहना है कि तलाक की सूचना चाहे जितनी सावधानी से दी जाय, उससे हर बच्चे को असहनीय आघात लगता है। ऐसे बच्चे हटी हो जाते हैं, बात-बात पर क्रोध करने लग जाते हैं। ये बच्चे अपने तज दिये जाने और प्रेम से वंचित होने के भय से भी पीड़ित रहते हैं। कई बार बच्चों के मन में यह बात गहराई से जम जाती है कि मां बाप दोनों में से एक व्यक्ति ही तलाक के लिए जिम्मेदार है। जिसके प्रति उनका अविश्वास हो जाता है उसके प्रति मन ही मन घृणा की भावना पनपने लगती है।
अयोवा स्थित चाइल्ड गाइडेंस सेन्टर के प्रधान मनोवैज्ञानिक जॉन टेडेस्को का कहना है ‘‘ये बच्चे बड़े हो जाने के कारण इतना तो समझ जाते हैं कि क्या हो रहा है लेकिन उन्हें इस अवस्था में स्थिति को सम्हालने की जानकारी नहीं होती।’’ कम उम्र के बच्चों को ऐसी स्थिति में गहरा सदमा पहुंचता है। बच्चों की सदा आकांक्षा रहती है कि वे किसी तरह मां-बाप में फिर से मेल करा दें।
तलाक के परिणाम स्वरूप पारिवारिक विघटन के साथ आर्थिक दबाव भी पड़ता है। मुकदमे बाजी का खर्च, दो-दो घरों की पृथक् व्यवस्था हो जाने से आर्थिक असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। सेंसर ब्यूरो की नवीनतम सूचना के अनुसार तलाकशुदा, परित्यक्ता, पुनर्विवाहित अथवा अविवाहित रहने वाली माताओं में से केवल 25 प्रतिशत को ही बच्चों का खर्च मिलता है। अर्थाभाव में शेष बच्चे दीन-हीन, अनाथों जैसा जीवन बिताते हैं।
जिन बच्चों को अधिकार में लेने के लिए मुकदमें लड़े जाते हैं, उन बच्चों की तो और भी दयनीय दशा हो जाती है। मां-बाप के साथ-साथ न्यायालय भी इन फैसलों को निबटाने में निरन्तर संघर्षरत रहते हैं। देश की न्याय शक्ति का अधिकांश भाग इसी में निकल जाता है। कई अभिभावक तो ऐसे होते हैं जो बच्चों को अपने संरक्षण में रखना भी नहीं चाहते। जिन बच्चों पर मां-बाप का संयुक्त अधिकार हो जाता है तब बच्चों के लिए दो अलग-अलग घरों में माता-पिता के साथ निर्वाह करना बहुत कठिन और उलझाव वाला सिद्ध होता है।
तलाक का आघात सहने के बाद बच्चों को सम्हालने में बहुत दिन लग जाते हैं, फिर भी वे सामान्य जीवन क्रम नहीं अपना पाते। अमेरिका की प्रसिद्ध समाजसेविका बौलर स्टीन और जॉन केलो ने विभिन्न परीक्षणों के उपरान्त निष्कर्ष निकाला है कि तलाक के बाद अधिकांश बच्चे सदा उदासीन बने रहते हैं। भावुक बच्चे इस आघात को भूल नहीं पाते। वे रह-रह कर तलाक से पहले के जीवन को याद करते और उसी के लिए तरसते हैं।
टैपलवेथ के पादरी अर्ल ग्रोलमेन तलाक को मृत्यु से भी अधिक भयंकर मानते हैं। उनका कहना है ‘‘मृत्यु अन्त ले आती है, जीवन के साथ जुड़े सुख-दुःख भी समाप्त हो जाते हैं, लेकिन तलाक में अन्त होता ही नहीं, उसका नारकीय अभिशाप जीवन पर्यन्त जुड़ा रहता है।’’
विश्व के प्रायः सभी देशों में तलाक ने पारिवारिक जीवन को बुरी तरह क्षत-विक्षत किया है। ब्रिटेन में भारी संख्या में ऐसे बच्चे हैं, जो अपने माता-पिता को जानते ही नहीं। वहां 920000 परिवार ऐसे हैं जिनमें बच्चों को माता या पिता दोनों में से किसी का एक संरक्षण प्राप्त है।
इसके साथ ही प्रतिवर्ष 50000 की संख्या में ऐसे अधूरे परिवार बढ़ जाते हैं। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार आज ब्रिटेन में हर आठ परिवारों में से एक परिवार अधूरा है।
केवल अमेरिका में तलाक के पश्चात पुनर्विवाह हुए सौतेले मां-बाप की संख्या लगभग 40 लाख और 28 वर्ष से कम उम्र के अवयस्क सौतेले बच्चों की संख्या आठ लाख, पचास हजार है। तलाक के पश्चात पुनर्विवाह इस आशा के साथ किया जाता है कि संभवतः अब का पारिवारिक जीवन अधिक सुखी रहेगा, लेकिन ऐसा होता नहीं। उसके परिणाम भी लगभग उतने ही भयंकर होते हैं जितने कि तलाक के कारण हुए थे। दाम्पत्य जीवन में विग्रह उत्पन्न तो होता है, परिवार के सौतेले सदस्यों के साथ भी सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता।
सौतेले परिवार में प्रवेश करने वाले बच्चों को दो बार भावनात्मक अघात सहना पड़ता है। पहली बार तब, जब अपने अभिभावक को तलाक लेने से रोक नहीं पाते और दूसरी बार तब, जब वे दूसरी शादी रोकने में असफल रहते हैं।
प्रसिद्ध विचारक आर्यर नौर्टन ने तलाक की समस्या पर गहराई से चिन्तन करने के उपरान्त कहा कि ‘‘तलाक के कारण परिवार में अस्थिरता आ जाने से सामाजिक परम्पराएं भी दोषपूर्ण हो जायेंगी, यह समय ही बतायेगा। क्योंकि पारिवारिक परम्पराओं के माध्यम से ही सामाजिक मान्यताएं बनती हैं।’’
विश्व के मूर्धन्य समाज शास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि तलाक पारस्परिक विग्रहों, मतभेदों का समाधान नहीं है। तलाक से एक तात्कालिक समस्या से छुटकारा पा लिया जाय तो भी अनेक प्रकार की नई समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन पर्यन्त दूसरों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाते—अविश्वस्त ही बने रहते हैं। बच्चों का भविष्य सदा के लिए अन्धकारमय हो जाता है। सर्वविदित है कि बच्चे का व्यक्तित्व माता-पिता के सम्मिलित प्रयास प्यार दुलार पाकर बनता विकसित होता है। माता-पिता में से एक के भी अलग हो जाने से उनके ऊपर गहरा आघात पहुंचता है। मन-मस्तिष्क के कोमल तन्तु इस योग्य नहीं होते कि इस प्रचण्ड आघात को सहन कर सकें। फलतः वे टूट से जाते हैं। स्नेह प्यार के अभाव से हृदय में जो खाई पड़ जाती है वह कभी नहीं पटती सदा बनी रहती है। व्यक्तित्व मनोविज्ञान के क्षेत्र में एक नवीन तथ्य उजागर हुआ है कि माता-पिता के स्नेह से वंचित रहने वाले बच्चों का समुचित विकास नहीं हो पाता भले ही उनके स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था क्यों न जुटा दी जाय। बाल अपराध की घटनाओं के आंकड़ों में भी ऐसे ही बच्चों की संख्या सबसे अधिक पायी जाती है जो बचपन में माता-पिता की स्नेह छत्र-छाया से वंचित बने रहे हैं।
सभी देशों में यह प्रवृत्ति दिनों दिन बढ़ती जा रही है। अमेरिका, ब्रिटेन का मात्र उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। अन्यान्य विकसित राष्ट्रों की स्थिति भी विशेष अच्छी नहीं है। बढ़ती हुई इस मनोवृत्ति के अनेकों सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं। एक सीमा तक वे कारण सही भी हो सकते हैं, किन्तु सबसे मुख्य कारण है—एकांगी भौतिकवादी जीवन दर्शन को आश्रय देना, जिसमें वस्तुओं एवं तात्कालिक सुखों को ही महत्व दिया जाता है। बुद्धि भी इन्हीं की पक्षधर बनी रहती है। भाव सम्वेदना की उपेक्षा होने लगती है जिसे परिपोषित एवं विकसित करने के लिए तात्कालिक सुखों में कटौती करनी एवं स्वार्थों की बलि देनी पड़ती है। उल्लेखनीय है कि पति पत्नी के रिश्ते भौतिक सुखोपभोग के बौद्धिक धरातल पर नहीं भावनात्मक आधारों पर टिके होते हैं। जब सम्पूर्ण जीवन दर्शन की उपयोगिता वादी मान्यता से अनुप्राणित है तो भला पति-पत्नी के आपसी रिश्ते ही क्यों कर अप्रभावित करें। जहां एक दूसरे का मूल्यांकन, उपयोगिता एवं प्रत्यक्ष लाभों के आधार पर किया जाने लगा तो भला भावना के सूक्ष्म संवेदनशील तन्तु अपनी सुरक्षा कहां तक कर पाते हैं और टूट जाते हैं। इसकी परिणति परस्पर विग्रहों से बढ़कर तलाक के रूप में होती है। बिखरा दाम्पत्य जीवन और अनाथ होते मासूम बच्चे यही आज के भौतिकवादी दर्शन की देन है। कोई भी भावनाशील ऐसी प्रगति का समर्थन नहीं करेगा।
दाम्पत्य जीवन की अनबन, मनोमालिन्य एवं मनमुटावों के कारण होने वाले विवाह विच्छेदों से अबोध मासूम बच्चों को कितनी अधिक वेदना सहनी पड़ती है यह तो वही अनुभव कर सकता है जो भुक्त भोगी हो अथवा बच्चों के अन्तरंग में हो रही भावनात्मक उथल-पुथल की अनुभूति कर सके। कभी-कभी ऐसी मर्मस्पर्शी घटनाएं प्रस्तुत होती हैं जो इन अबोधों की अन्तर्व्यथा को प्रकट करती है। क्वालालम्पुर (मलेशिया) के न्यायालय में तलाक का एक ऐसा केस आया जिसमें माननीय न्यायाधीश की करुणा बच्चों के प्रति उमड़ पड़ी और उन्हें अपने निर्णय में तलाक जैसी प्रवृत्ति को परिवार के लिए एक अभिशाप के रूप में सम्बोधित करना पड़ा। दैनिक पत्र नव भारत टाइम्स 20 अक्टूबर 1981 के अंक में घटना का सारांश इस प्रकार प्रकाशित हुआ था।
कुछ वर्षों पूर्व एक भारतीय महिला का विवाह मलेशियाई युवक से हुआ आरम्भिक दिनों में पति-पत्नी के आपसी सम्बन्ध में माधुर्य पूर्ण बने रहे। दो बच्चियां होने के बाद छोटी-छोटी बातों पर अनबन शुरू हुई। कलह और मन मुटाव क्रमशः बढ़ता ही गया। बढ़ते-बढ़ते स्थिति तलाक तक जा पहुंची। एक भारतीय न्यायालय में पत्नी ‘पुष्पा’ ने संघर्षों से छुटकारा पाने के लिए केस प्रस्तुत किया। साथ ही दोनों बच्चों को अपने साथ रखने की अनुमति भी मांगी। न्यायालय ने एक अन्तरिम आदेश द्वारा श्रीमती पुष्पा को लड़कियों को साथ रखने की अनुमति दी। पिता को भी अपनी बच्चियों से अपार स्नेह था भारतीय न्यायालय में असफल होने के बाद उसने मलेशिया की नागरिकता के आधार पर सम्बद्ध क्वालालम्पुर के हाईकोर्ट में एक याचिका प्रस्तुत की। जिसमें यह निवेदन किया गया था कि लड़कियों को पिता ‘असद’ के साथ रहने का आदेश दिया जाय। अदालत ने याचिका खारिज करते हुए भारतीय कोर्ट द्वारा दिये गए निर्णय को सही माना तथा निर्णय दिया कि बालिकाएं अपनी मां के साथ ही रहें। उल्लेखनीय बात केस के निर्णय का वह अंश है जो माननीय न्यायाधीश श्री अजायब सिंह द्वारा तलाक के विषय में सुनाया गया। फैसला सुनाते हुए उन्होंने कहा कि पति-पत्नी के आपसी सम्बन्ध विच्छेद के बाद किसके पास रहें, इस प्रश्न को लेकर निर्णय देना अत्यन्त दुखदाई होता है। प्रस्तुत केस में मां-बाप का बच्चों के प्रति अगाध स्नेह है, यह बात निर्विवाद सत्य है। लड़कियों को अपनी मां से गहरा प्यार है पर पिता के प्रति भी घृणा नहीं है। लड़कियां माता पिता दोनों से ही अलग रहना नहीं चाहती हैं। ऐसी स्थिति में कोर्ट को भी निर्णय देने में भारी असमंजस का सामना करना पड़ रहा है।
न्यायाधीश महोदय ने आगे कहा कि इस मामले में एक विकल्प यह हो सकता है कि एक लड़की मां को दे दी जाय तथा दूसरी पिता को। लेकिन यह भी संभव नहीं है क्योंकि दोनों लड़कियों को आपस में भी बहुत प्यार है। अतएव इन दोनों को एक दूसरे से अलग कर देना न्याय नहीं अन्याय होगा। ऐसी विषम स्थिति में तथ्यों पर ध्यान देने से पता चलता है कि मां की आर्थिक परिस्थितियां पिता की तुलना में कहीं अधिक अच्छी हैं। अन्य पक्षों पर भी विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि मां पिता अपेक्षा बच्चों की देखभाल अधिक अच्छी प्रकार कर सकेगी। अस्तु न्यायालय यह निर्णय देता है कि लड़कियों को देख-रेख तो मां करे पर पिता को भी उनसे मिलते रहने की अनुमति दी जाती है।
यह तो मासूमों की वेदना का एक उदाहरण मात्र है। अधिकांशतः तलाक की घटनाओं में अबोध बालकों को ऐसी ही मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ती है। पर अहमन्यता से ग्रसित आप सी सामंजस्य बिठा पाने की क्षमता से रहित पति-पत्नी के कठोर हृदयों पर इन मासूमों की व्यथा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तलाक द्वारा एक दूसरे से छुट्टी पा लेने का मार्ग सरल तो दिखायी पड़ता है पर इन बेचारों के साथ अन्धकार मय भविष्य शुष्क एवं नीरस जीवन का अभिशाप सदा सर्वदा के लिए जुड़ जाता है। अपने लिए न सही इन मासूम बालकों के भविष्य के लिए तो पति-पत्नी को द्रवित होना चाहिए तथा छोटे-छोटे मतभेदों के कारण तलाक जैसे विघटनकारी मार्ग का अवलम्बन नहीं ही लेना चाहिए।
तर्क तथ्य एवं प्रमाण इसी बात की पुष्टि करते हैं कि तलाक आपसी मनमुटाव का स्थाई समाधान नहीं है। पति-पत्नी को एक दूसरे से छुट्टी पा लेने के बाद कितनी ही सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। उनकी तुलना छोटे-मोटे मनमुटावों से पैदा होने वाली कठिनाइयों से करने पर ज्ञात होता है कि बाद की समस्यायें कहीं अधिक भयावह एवं प्रताड़ना देने वाली होती हैं। अपने देश के परिवारों में घुलते हुए इस विष को तत्काल रोका जाना चाहिए। यह भावनात्मक आधारों को टूटने से बचाने और उसे सतत परिपुष्ट करते रहने से ही सम्भव है।
सांस्कृतिक विरासत के रूप में भारत को प्राप्त अनेकानेक अनुदानों में एक थी—पारिवारिक स्नेह सद्भाव की सुदृढ़ पृष्ठभूमि, जिसके कारण पति, पत्नी जीवन पर्यन्त, सुख-दुःख में हिस्सा बंटाते खुशहाल रहते थे। सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के पीछे यह मान्यता भी काम करती थी कि पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध इस जीवन तक ही सीमित नहीं है वरन् जन्म-जन्मों तक का है। मान्यताएं जब आत्मिक धरातल की थीं तो भौतिक वस्तुएं अथवा छोटे-मोटे अवरोध अथवा विक्षोभ उनके आपसी रिश्तों को प्रभावित नहीं कर पाते। कभी मनमुटाव उत्पन्न भी होते थे तो भावनात्मक बन्धन को प्रभावित नहीं कर पाते, देर सवेर सुलझ जाते थे। गलती किसकी थी? प्रायश्चित क्या हो? दण्ड क्या हो? इस प्रकार के प्रश्न नहीं उत्पन्न होते थे वरन् भावनात्मक ठेस किसको लगी और उसका उपचार क्या हो, प्रयत्न इसके लिए किये जाते थे। शरीर एवं बुद्धि के धरातल से ऊपर उठकर भावनात्मक स्तर पर समाधान ढूंढ़ते जाते थे। फलतः झगड़े—मनमुटाव कभी स्थायी रूप नहीं लेते थे और विग्रह, घृणा, द्वेष से बढ़कर विघटन जैसी परिस्थितियों का सामना नहीं करना होता था। अपवादों को छोड़कर शायद की कहीं ऐसी स्थिति आती थी कि आपसी विग्रह के कारण विवाह विच्छेद अथवा तलाक जैसे सामाजिक कलंक की चादर ओढ़नी पड़े। जो ऐसे कदम उठाते भी थे उन्हें सामाजिक तिरस्कार, उपेक्षा एवं घृणा का भाजन बनाना पड़ता था। सामाजिक एवं धार्मिक मर्यादाएं भी ऐसी प्रवृत्तियों को कड़ाई से रोकती थीं। सम्भवतः पुरातन ऋषियों, मनीषियों की इस व्यवस्था के पीछे यह दूरदर्शिता रही होगी कि परिवार टूटेंगे तो समाज बिखरेगा और मनुष्य अधिक उच्छृंखल हो जायेगा। परिवार से मिलने वाले भावनात्मक परिपोषण के अभाव में सम्बन्धित सदस्यों का भविष्य अन्धकारपूर्ण बन जायेगा। यदि यत्किंचित् कोई अपना शारीरिक एवं बौद्धिक निर्माण करने में सफल भी हो जाता है तो भाव संवेदनाओं की कंगाली उसे स्वार्थी एवं असामाजिक ही बनायेगी। कठोर सामाजिक व्यवस्था एवं आत्मानुशासन के कारण पति-पत्नी एक दूसरे से चिताग्नि के पूर्व अलग नहीं हो पाते थे। स्नेह, सद्भाव से युक्त ऐसे परिवारों का दिग्दर्शन करके मैक्समूलर जैसे पश्चिमी विद्वान के मुख से उपरोक्त उद्गार निकल पड़े हों तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।
पश्चिम की भौतिकवादी मान्यताओं ने हमारे जीवन-दर्शन को बुरी तरह प्रभावित किया है। परिवार के सम्बन्ध में चली आ रही सदियों की उदात्त दृष्टि भी प्रभावित हुई है। सघन भाव-सम्वेदनायें कभी पति-पत्नी ही नहीं सम्पूर्ण परिवार को जोड़े रखती थीं। उसमें भारी कमी आई है। यूरोप की भांति अपने यहां भी बुद्धि भावनाओं पर हावी होती जा रही है। दाम्पत्य जीवन का भावनात्मक आधार लड़खड़ाता जा रहा है। पति-पत्नी के बीच भावनात्मक मनमुटावों का समाधान अब अपने देश में भी भावनाओं के आधार पर ढूंढ़ा जाता है फलस्वरूप बौद्धिक समाधान में प्रत्यक्ष हल लूला-लंगड़ा तो निकल आता है पर हृदय में मर्मस्थल में लगे घावों का कोई उपचार नहीं बन पाता। देर-सवेर ऐसे मन-मुटाव नया जामा पहन कर नये रूप में प्रकट होते हैं। जैसे-जैसे भावनात्मक रिश्ते बौद्धिकता के धरातल पर आने लगते, यह टकराहट और भी बढ़ती जाती है और एक सीमा पर आकर स्थिति विस्फोटक हो जाती है और तब तलाक के लिए आवाज लगाई जाती तथा न्यायालय के दरवाजे खटखटाये जाते हैं।
कभी भारतीय परिवार अपनी गौरव-गरिमा, महानता, त्याग एवं बलिदान के लिए विश्वभर में विख्यात थे, वे वर्तमान में किस तरह बिखरते जा रहे हैं, यह मात्र परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करने पर पता चलता है। तलाक दूसरे देशों में भी होते हैं। बल्कि भारत की तुलना में कहीं अधिक होते हैं। किन्तु उनके लिए यह सामान्य बात हो सकती है। अपने देश की स्थिति यूरोप के देशों से सर्वथा भिन्न रही है, जिस सांस्कृतिक परिवेश में हम पले हैं— उसके गौरव के यह प्रवृत्ति सर्वथा प्रतिकूल है। किन्तु आंकड़े बताते हैं कि पिछले दशक में अपने देश में किस तेजी से यह दुष्प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। सन् 1961 में 100 व्यक्तियों पीछे एक तलाक की घटना थी। वर्ष 1971 अर्थात् एक दशक बाद प्रति 50 व्यक्तियों पीछे एक तलाक की घटना प्रकाश में आई। कुल 87 विवाह विच्छेद हुए। लगभग एक दशक बाद अर्थात् 1980 में विवाह विच्छेद की घटनाओं में तीन गुनी वृद्धि हो गयी। अनुमानतः प्रत्येक व्यक्ति पीछे एक विवाह विच्छेद का औसत रहा।
कई विचारशील कहे जाने वाले व्यक्ति भी यह कहते हुए सुने जाते हैं कि पति-पत्नी के बीच विग्रह एवं मन-मुटाव बने रहने की तुलना में कहीं अधिक अच्छा है कि सम्बन्ध विच्छेद कर लिया जाय। क्या तलाक के बाद समस्या का हल निकल आता है—क्या पति-पत्नी बाद में अधिक सुखी एवं सन्तुष्ट होते हैं? जैसे प्रश्नों पर विचार करने पर निराशाजनक स्थिति ही दृष्टिगोचर होती है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि तलाकशुदा स्त्री-पुरुष कभी भी दूसरों का—समाज का विश्वास नहीं प्राप्त कर पाते। जन सामान्य मन ही मन यह सोचता है कि ये वही पुरुष अथवा स्त्री हैं जो अपनी पत्नी अथवा पति का साथ नहीं निभा सके—विश्वास पात्र एवं सहयोगी न बन पाये। भीतर ही भीतर यह भावना ऐसे तलाकशुदों के प्रति बनी रहती है। किसी प्रकार इसकी शादी हो भी जाती है तो ऐसे पुरुष अथवा स्त्री जिनसे तलाकशुदा की शादी होती है, को सदा यह शंका बनी रहती है कि सहयोग का सम्बन्ध भविष्य में स्थाई रह सकेगा भी अथवा नहीं। जैसे-तैसे दाम्पत्य जीवन में बंधे जाने के बावजूद भी गाड़ी आशंकाओं-कुशंकाओं के बीच मार्ग में लुढ़कती रहती है। मधुर दाम्पत्य जीवन में स्नेह सद्भाव का दर्शन कर पाना तो मुश्किल से ही सम्भव हो पाता है। शारीरिक एवं बौद्धिक धरातल तक उनके सम्बन्ध भले ही प्रगाढ़ हो जायें किन्तु भावनात्मक तादात्म्य नहीं स्थापित हो पाता जिनके द्वारा उच्चस्तरीय आपसी त्याग बलिदान का उपक्रम चल सके।
सर्वाधिक दुर्दशा तो उन मासूमों की होती है जो जन्म तो ले लेते हैं किन्तु माता-पिता दोनों का स्नेह छत्रछाया नहीं प्राप्त कर पाते। किसी प्रकार भोजन, वस्त्र, और शिक्षा की भौतिक व्यवस्था जुट भी जाय तो भी पानी की तलाश में मरुस्थल में प्यासे पथिक की भांति उनका हृदय सदा मां-बाप के प्यार एवं ममता के अभाव में अतृप्त बना रहता है। अन्वेषण से प्राप्त निष्कर्षों से ज्ञात हुआ है कि ऐसे ही अतृप्त बच्चे आगे चलकर अपराधी अधिक बनते देखे जाते हैं।
एकांगी भौतिक सभ्यता के साथ यह अभिशाप सर्वाधिक जुड़ा हुआ है। अमेरिका जैसा देश सम्पन्नता की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित कहा जाता है—तलाक के क्षेत्र में भी अग्रणी है। पिछले दिनों अमेरिका के एक साप्ताहिक पत्र में हृदय विदारक आंकड़े प्रस्तुत हुए हैं—
अमेरिका में जन्म लेने वाले बच्चों में से प्रतिवर्ष लगभग 45 प्रतिशत बच्चे तलाकशुदा माता-पिता की सन्तान होते हैं। वयस्क होने से पूर्व ही उन्हें माता या पिता किसी एक से वंचित को जाना पड़ता है इन दिनों एक करोड़ दस लाख से अधिक बच्चे ऐसे हैं जिनके मां बाप तलाक ले चुके हैं। अनुमान है कि इस प्रकार परिवार टूटने से लगभग दस लाख की संख्या में ऐसे बच्चे प्रतिवर्ष बढ़ते जायेंगे।
न्यू हेवन, कनेक्टिकट के मेल चाइल्ड स्टडी सेन्टर के डायरेक्टर अलबर्ट जे.सोल्निट ने बहुत वर्ष पहले कहा था ‘‘इस शताब्दी के आठवें दशक में को जिन मानसिक संकट का सामना करना पड़ रहा है, तलाक उसका मुख्य कारण है।’’
पाश्चात्य देशों में तलाक भले ही आम बात बन गयी हो लेकिन बच्चों पर इसकी बहुत बुरी प्रतिक्रिया होती है। विशेषज्ञों का कहना है कि तलाक की सूचना चाहे जितनी सावधानी से दी जाय, उससे हर बच्चे को असहनीय आघात लगता है। ऐसे बच्चे हटी हो जाते हैं, बात-बात पर क्रोध करने लग जाते हैं। ये बच्चे अपने तज दिये जाने और प्रेम से वंचित होने के भय से भी पीड़ित रहते हैं। कई बार बच्चों के मन में यह बात गहराई से जम जाती है कि मां बाप दोनों में से एक व्यक्ति ही तलाक के लिए जिम्मेदार है। जिसके प्रति उनका अविश्वास हो जाता है उसके प्रति मन ही मन घृणा की भावना पनपने लगती है।
अयोवा स्थित चाइल्ड गाइडेंस सेन्टर के प्रधान मनोवैज्ञानिक जॉन टेडेस्को का कहना है ‘‘ये बच्चे बड़े हो जाने के कारण इतना तो समझ जाते हैं कि क्या हो रहा है लेकिन उन्हें इस अवस्था में स्थिति को सम्हालने की जानकारी नहीं होती।’’ कम उम्र के बच्चों को ऐसी स्थिति में गहरा सदमा पहुंचता है। बच्चों की सदा आकांक्षा रहती है कि वे किसी तरह मां-बाप में फिर से मेल करा दें।
तलाक के परिणाम स्वरूप पारिवारिक विघटन के साथ आर्थिक दबाव भी पड़ता है। मुकदमे बाजी का खर्च, दो-दो घरों की पृथक् व्यवस्था हो जाने से आर्थिक असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। सेंसर ब्यूरो की नवीनतम सूचना के अनुसार तलाकशुदा, परित्यक्ता, पुनर्विवाहित अथवा अविवाहित रहने वाली माताओं में से केवल 25 प्रतिशत को ही बच्चों का खर्च मिलता है। अर्थाभाव में शेष बच्चे दीन-हीन, अनाथों जैसा जीवन बिताते हैं।
जिन बच्चों को अधिकार में लेने के लिए मुकदमें लड़े जाते हैं, उन बच्चों की तो और भी दयनीय दशा हो जाती है। मां-बाप के साथ-साथ न्यायालय भी इन फैसलों को निबटाने में निरन्तर संघर्षरत रहते हैं। देश की न्याय शक्ति का अधिकांश भाग इसी में निकल जाता है। कई अभिभावक तो ऐसे होते हैं जो बच्चों को अपने संरक्षण में रखना भी नहीं चाहते। जिन बच्चों पर मां-बाप का संयुक्त अधिकार हो जाता है तब बच्चों के लिए दो अलग-अलग घरों में माता-पिता के साथ निर्वाह करना बहुत कठिन और उलझाव वाला सिद्ध होता है।
तलाक का आघात सहने के बाद बच्चों को सम्हालने में बहुत दिन लग जाते हैं, फिर भी वे सामान्य जीवन क्रम नहीं अपना पाते। अमेरिका की प्रसिद्ध समाजसेविका बौलर स्टीन और जॉन केलो ने विभिन्न परीक्षणों के उपरान्त निष्कर्ष निकाला है कि तलाक के बाद अधिकांश बच्चे सदा उदासीन बने रहते हैं। भावुक बच्चे इस आघात को भूल नहीं पाते। वे रह-रह कर तलाक से पहले के जीवन को याद करते और उसी के लिए तरसते हैं।
टैपलवेथ के पादरी अर्ल ग्रोलमेन तलाक को मृत्यु से भी अधिक भयंकर मानते हैं। उनका कहना है ‘‘मृत्यु अन्त ले आती है, जीवन के साथ जुड़े सुख-दुःख भी समाप्त हो जाते हैं, लेकिन तलाक में अन्त होता ही नहीं, उसका नारकीय अभिशाप जीवन पर्यन्त जुड़ा रहता है।’’
विश्व के प्रायः सभी देशों में तलाक ने पारिवारिक जीवन को बुरी तरह क्षत-विक्षत किया है। ब्रिटेन में भारी संख्या में ऐसे बच्चे हैं, जो अपने माता-पिता को जानते ही नहीं। वहां 920000 परिवार ऐसे हैं जिनमें बच्चों को माता या पिता दोनों में से किसी का एक संरक्षण प्राप्त है।
इसके साथ ही प्रतिवर्ष 50000 की संख्या में ऐसे अधूरे परिवार बढ़ जाते हैं। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार आज ब्रिटेन में हर आठ परिवारों में से एक परिवार अधूरा है।
केवल अमेरिका में तलाक के पश्चात पुनर्विवाह हुए सौतेले मां-बाप की संख्या लगभग 40 लाख और 28 वर्ष से कम उम्र के अवयस्क सौतेले बच्चों की संख्या आठ लाख, पचास हजार है। तलाक के पश्चात पुनर्विवाह इस आशा के साथ किया जाता है कि संभवतः अब का पारिवारिक जीवन अधिक सुखी रहेगा, लेकिन ऐसा होता नहीं। उसके परिणाम भी लगभग उतने ही भयंकर होते हैं जितने कि तलाक के कारण हुए थे। दाम्पत्य जीवन में विग्रह उत्पन्न तो होता है, परिवार के सौतेले सदस्यों के साथ भी सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता।
सौतेले परिवार में प्रवेश करने वाले बच्चों को दो बार भावनात्मक अघात सहना पड़ता है। पहली बार तब, जब अपने अभिभावक को तलाक लेने से रोक नहीं पाते और दूसरी बार तब, जब वे दूसरी शादी रोकने में असफल रहते हैं।
प्रसिद्ध विचारक आर्यर नौर्टन ने तलाक की समस्या पर गहराई से चिन्तन करने के उपरान्त कहा कि ‘‘तलाक के कारण परिवार में अस्थिरता आ जाने से सामाजिक परम्पराएं भी दोषपूर्ण हो जायेंगी, यह समय ही बतायेगा। क्योंकि पारिवारिक परम्पराओं के माध्यम से ही सामाजिक मान्यताएं बनती हैं।’’
विश्व के मूर्धन्य समाज शास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि तलाक पारस्परिक विग्रहों, मतभेदों का समाधान नहीं है। तलाक से एक तात्कालिक समस्या से छुटकारा पा लिया जाय तो भी अनेक प्रकार की नई समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन पर्यन्त दूसरों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाते—अविश्वस्त ही बने रहते हैं। बच्चों का भविष्य सदा के लिए अन्धकारमय हो जाता है। सर्वविदित है कि बच्चे का व्यक्तित्व माता-पिता के सम्मिलित प्रयास प्यार दुलार पाकर बनता विकसित होता है। माता-पिता में से एक के भी अलग हो जाने से उनके ऊपर गहरा आघात पहुंचता है। मन-मस्तिष्क के कोमल तन्तु इस योग्य नहीं होते कि इस प्रचण्ड आघात को सहन कर सकें। फलतः वे टूट से जाते हैं। स्नेह प्यार के अभाव से हृदय में जो खाई पड़ जाती है वह कभी नहीं पटती सदा बनी रहती है। व्यक्तित्व मनोविज्ञान के क्षेत्र में एक नवीन तथ्य उजागर हुआ है कि माता-पिता के स्नेह से वंचित रहने वाले बच्चों का समुचित विकास नहीं हो पाता भले ही उनके स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था क्यों न जुटा दी जाय। बाल अपराध की घटनाओं के आंकड़ों में भी ऐसे ही बच्चों की संख्या सबसे अधिक पायी जाती है जो बचपन में माता-पिता की स्नेह छत्र-छाया से वंचित बने रहे हैं।
सभी देशों में यह प्रवृत्ति दिनों दिन बढ़ती जा रही है। अमेरिका, ब्रिटेन का मात्र उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। अन्यान्य विकसित राष्ट्रों की स्थिति भी विशेष अच्छी नहीं है। बढ़ती हुई इस मनोवृत्ति के अनेकों सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं। एक सीमा तक वे कारण सही भी हो सकते हैं, किन्तु सबसे मुख्य कारण है—एकांगी भौतिकवादी जीवन दर्शन को आश्रय देना, जिसमें वस्तुओं एवं तात्कालिक सुखों को ही महत्व दिया जाता है। बुद्धि भी इन्हीं की पक्षधर बनी रहती है। भाव सम्वेदना की उपेक्षा होने लगती है जिसे परिपोषित एवं विकसित करने के लिए तात्कालिक सुखों में कटौती करनी एवं स्वार्थों की बलि देनी पड़ती है। उल्लेखनीय है कि पति पत्नी के रिश्ते भौतिक सुखोपभोग के बौद्धिक धरातल पर नहीं भावनात्मक आधारों पर टिके होते हैं। जब सम्पूर्ण जीवन दर्शन की उपयोगिता वादी मान्यता से अनुप्राणित है तो भला पति-पत्नी के आपसी रिश्ते ही क्यों कर अप्रभावित करें। जहां एक दूसरे का मूल्यांकन, उपयोगिता एवं प्रत्यक्ष लाभों के आधार पर किया जाने लगा तो भला भावना के सूक्ष्म संवेदनशील तन्तु अपनी सुरक्षा कहां तक कर पाते हैं और टूट जाते हैं। इसकी परिणति परस्पर विग्रहों से बढ़कर तलाक के रूप में होती है। बिखरा दाम्पत्य जीवन और अनाथ होते मासूम बच्चे यही आज के भौतिकवादी दर्शन की देन है। कोई भी भावनाशील ऐसी प्रगति का समर्थन नहीं करेगा।
दाम्पत्य जीवन की अनबन, मनोमालिन्य एवं मनमुटावों के कारण होने वाले विवाह विच्छेदों से अबोध मासूम बच्चों को कितनी अधिक वेदना सहनी पड़ती है यह तो वही अनुभव कर सकता है जो भुक्त भोगी हो अथवा बच्चों के अन्तरंग में हो रही भावनात्मक उथल-पुथल की अनुभूति कर सके। कभी-कभी ऐसी मर्मस्पर्शी घटनाएं प्रस्तुत होती हैं जो इन अबोधों की अन्तर्व्यथा को प्रकट करती है। क्वालालम्पुर (मलेशिया) के न्यायालय में तलाक का एक ऐसा केस आया जिसमें माननीय न्यायाधीश की करुणा बच्चों के प्रति उमड़ पड़ी और उन्हें अपने निर्णय में तलाक जैसी प्रवृत्ति को परिवार के लिए एक अभिशाप के रूप में सम्बोधित करना पड़ा। दैनिक पत्र नव भारत टाइम्स 20 अक्टूबर 1981 के अंक में घटना का सारांश इस प्रकार प्रकाशित हुआ था।
कुछ वर्षों पूर्व एक भारतीय महिला का विवाह मलेशियाई युवक से हुआ आरम्भिक दिनों में पति-पत्नी के आपसी सम्बन्ध में माधुर्य पूर्ण बने रहे। दो बच्चियां होने के बाद छोटी-छोटी बातों पर अनबन शुरू हुई। कलह और मन मुटाव क्रमशः बढ़ता ही गया। बढ़ते-बढ़ते स्थिति तलाक तक जा पहुंची। एक भारतीय न्यायालय में पत्नी ‘पुष्पा’ ने संघर्षों से छुटकारा पाने के लिए केस प्रस्तुत किया। साथ ही दोनों बच्चों को अपने साथ रखने की अनुमति भी मांगी। न्यायालय ने एक अन्तरिम आदेश द्वारा श्रीमती पुष्पा को लड़कियों को साथ रखने की अनुमति दी। पिता को भी अपनी बच्चियों से अपार स्नेह था भारतीय न्यायालय में असफल होने के बाद उसने मलेशिया की नागरिकता के आधार पर सम्बद्ध क्वालालम्पुर के हाईकोर्ट में एक याचिका प्रस्तुत की। जिसमें यह निवेदन किया गया था कि लड़कियों को पिता ‘असद’ के साथ रहने का आदेश दिया जाय। अदालत ने याचिका खारिज करते हुए भारतीय कोर्ट द्वारा दिये गए निर्णय को सही माना तथा निर्णय दिया कि बालिकाएं अपनी मां के साथ ही रहें। उल्लेखनीय बात केस के निर्णय का वह अंश है जो माननीय न्यायाधीश श्री अजायब सिंह द्वारा तलाक के विषय में सुनाया गया। फैसला सुनाते हुए उन्होंने कहा कि पति-पत्नी के आपसी सम्बन्ध विच्छेद के बाद किसके पास रहें, इस प्रश्न को लेकर निर्णय देना अत्यन्त दुखदाई होता है। प्रस्तुत केस में मां-बाप का बच्चों के प्रति अगाध स्नेह है, यह बात निर्विवाद सत्य है। लड़कियों को अपनी मां से गहरा प्यार है पर पिता के प्रति भी घृणा नहीं है। लड़कियां माता पिता दोनों से ही अलग रहना नहीं चाहती हैं। ऐसी स्थिति में कोर्ट को भी निर्णय देने में भारी असमंजस का सामना करना पड़ रहा है।
न्यायाधीश महोदय ने आगे कहा कि इस मामले में एक विकल्प यह हो सकता है कि एक लड़की मां को दे दी जाय तथा दूसरी पिता को। लेकिन यह भी संभव नहीं है क्योंकि दोनों लड़कियों को आपस में भी बहुत प्यार है। अतएव इन दोनों को एक दूसरे से अलग कर देना न्याय नहीं अन्याय होगा। ऐसी विषम स्थिति में तथ्यों पर ध्यान देने से पता चलता है कि मां की आर्थिक परिस्थितियां पिता की तुलना में कहीं अधिक अच्छी हैं। अन्य पक्षों पर भी विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि मां पिता अपेक्षा बच्चों की देखभाल अधिक अच्छी प्रकार कर सकेगी। अस्तु न्यायालय यह निर्णय देता है कि लड़कियों को देख-रेख तो मां करे पर पिता को भी उनसे मिलते रहने की अनुमति दी जाती है।
यह तो मासूमों की वेदना का एक उदाहरण मात्र है। अधिकांशतः तलाक की घटनाओं में अबोध बालकों को ऐसी ही मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ती है। पर अहमन्यता से ग्रसित आप सी सामंजस्य बिठा पाने की क्षमता से रहित पति-पत्नी के कठोर हृदयों पर इन मासूमों की व्यथा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तलाक द्वारा एक दूसरे से छुट्टी पा लेने का मार्ग सरल तो दिखायी पड़ता है पर इन बेचारों के साथ अन्धकार मय भविष्य शुष्क एवं नीरस जीवन का अभिशाप सदा सर्वदा के लिए जुड़ जाता है। अपने लिए न सही इन मासूम बालकों के भविष्य के लिए तो पति-पत्नी को द्रवित होना चाहिए तथा छोटे-छोटे मतभेदों के कारण तलाक जैसे विघटनकारी मार्ग का अवलम्बन नहीं ही लेना चाहिए।
तर्क तथ्य एवं प्रमाण इसी बात की पुष्टि करते हैं कि तलाक आपसी मनमुटाव का स्थाई समाधान नहीं है। पति-पत्नी को एक दूसरे से छुट्टी पा लेने के बाद कितनी ही सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। उनकी तुलना छोटे-मोटे मनमुटावों से पैदा होने वाली कठिनाइयों से करने पर ज्ञात होता है कि बाद की समस्यायें कहीं अधिक भयावह एवं प्रताड़ना देने वाली होती हैं। अपने देश के परिवारों में घुलते हुए इस विष को तत्काल रोका जाना चाहिए। यह भावनात्मक आधारों को टूटने से बचाने और उसे सतत परिपुष्ट करते रहने से ही सम्भव है।