
ये मासूम भटकने न पायें
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किशोरों के घर से भागने की घटना एक आम बात हो गई है। इस प्रकार की घटनायें समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो द्वारा प्रसारित होती रहती हैं। भावी पीढ़ी में बढ़ती हुई यह प्रवृत्ति अभिभावकों एवं समाज के लिए गम्भीर समस्या बनती जा रही है। माता-पिता एवं अभिभावकों को उनके घर से भागने से आन्तरिक कष्ट होता है और बच्चों का भविष्य भी प्रायः अन्धकारपूर्ण हो जाता है। ये किशोर सामान्यतः असामाजिक तत्वों के हाथ में पड़ जाते हैं जो इनकी क्षमता का उपयोग अवांछनीय प्रयोजनों में करते देखे जाते हैं।
नगरों के बाल अपराध की घटनायें इन दिनों तेजी से बढ़ती जा रही हैं। अधिकांश बाल अपराध ऐसे ही बच्चों द्वारा किये जाते हैं। जिन असामाजिक तत्वों के चंगुल में ये एक बार फंस जाते हैं, फिर जीवन भर उनके इशारों पर नाचने के लिए विवश होते हैं। चोरी, जेबकटी, स्मगलिंग से लेकर भीख मांगने जैसे अनैतिक कृत्यों में इन अबोध बच्चों का भरपूर उपयोग किया जाता है। बाल सुलभ मस्तिष्क में अपराध वृत्ति के कुसंस्कार जड़ जमाते चले जाते हैं और आगे चलकर ये बच्चे ही बड़े अपराधी बन जाते हैं। जो समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते थे, वे ही अभिशाप सिद्ध होते हैं।
बच्चों के घर छोड़कर निकल जाने की प्रवृत्ति इन दिनों प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसे देखते हुए यह प्रतीत होता है कि कहीं कोई भारी त्रुटि हो रही है, जिसके कारण बच्चे ऐसे कदम उठाने में भी नहीं झिझकते। इस समस्या के निदान के लिए बाह्य उपचारों की उपेक्षा समस्या के मूल में जाना होगा जिसके कारण बच्चे अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ते हैं।
बच्चों का अधिकांश समय परिवार में व्यतीत होता है। माता-पिता के स्नेह, दुलार एवं भावनाओं के पोषण से बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जहां एक ओर अभिभावकों के स्नेह-प्यार से बच्चे का विकास सम्भव है, वही दूसरी ओर अपेक्षा एवं तिरष्कार भाव से उसके कोमल हृदय पर कुठाराघात होता है। अभिभावकों के भावनात्मक बन्धनों से ही बालक परिवार एवं परिजनों को सुख का केन्द्र मानता है और उससे अलग होने की कल्पना भी उसके लिए असह्य होती है। इसके विपरीत उपेक्षा एवं तिरस्कार का भाजन बनने पर वह परिवार में अपने आपको अनुपयोगी समझने लगता है। परिणाम स्वरूप घर के प्रति विरोध, आक्रोश, विद्रोह जैसी घातक भावनायें बच्चे के मन में पनपने लगती हैं। अपने ही घर परिवार में वह परायापन अनुभव करने लगता है और पलायनवादी बन जाता है। यहां से उसके अन्धकारपूर्ण जीवन का प्रारम्भ हो जाता है।
बालक का घर से विमुख हो जाना अभिभावकों के प्रति एक खुली चुनौती है। बच्चों में बढ़ती हुई इस प्रवृत्ति का मूल कारण ढूंढ़ने पर पता चलता है कि वस्तुतः माता-पिता ही दोषी हैं। बच्चों के प्रति कर्तव्यों और दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह न करने से ही ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। बच्चे का हृदय बड़ा ही संवेदनशील होता है, उसके मन पर भले बुरे व्यवहार की अमिट छाप पड़ जाती है। परिजनों का स्नेहपूर्ण व्यवहार उसके भावी विकास में सहायक होता है। दुर्व्यवहार, कठोर आचरण एवं उपेक्षा से उनकी कोमल भावनाओं को ठेस पहुंचती है। एक ही माता-पिता के दो बच्चों में योग्यता, रुचि, बुद्धि, प्रतिभा में भिन्नता होना स्वाभाविक है। अभिभावकों की इच्छा के प्रतिकूल होने पर उसे उपहास, अपमान, आक्षेप, तिरस्कार का भाजन बनना पड़ता है। इस भावनात्मक आघात से मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और बच्चा मन ही मन क्षुब्ध होकर घर से चुपचाप निकल जाने का रास्ता अपनाता है।
बाल मनोवैज्ञानिक एवं अपराध विशेषज्ञ डा. दस्तूर ने विभिन्न परीक्षणों के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि—बच्चों के घर से भागने में सबसे प्रमुख कारण है—पारिवारिक परिवेश। इस अर्थ प्रधान युग में मां-बाप के पास समय नहीं है कि वे बच्चों को सही ढंग से समझने का प्रयास कर सकें, उनकी इच्छा रुचि का पता लगा सकें उन्हें समुचित स्नेह-प्यार दे सकें। वे बच्चों से खुलकर हंस-बोल नहीं सकते तथा स्वयं उनके सामने ‘रिजर्व’ रहने का मिथ्या-ढोंग करते हैं। ऐसी परिस्थिति से बच्चा एकाकीपन अनुभव करने लगता है। इस एकाकीपन, उपेक्षा भाव से बच्चा परिजनों से टूट जाता और उन्हें छोड़ देने से भी नहीं हिचकिचाता।
केवल उपेक्षा एवं अपमान से ही इस प्रवृत्ति का बढ़ावा मिलता हो—ऐसी बात नहीं। अत्यधिक स्नेह के नाम पर बच्चे की हर उचित-अनुचित इच्छा पूरी करना भी अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होता है। बचपन की सुसम्पन्न परिस्थितियों के कारण बच्चे में विपन्न परिस्थितियों से लड़ने की सामर्थ्य समाप्त हो जाती है। विलासिता एवं ऐशोआराम के अभ्यस्त होने के कारण जीवन में छोटी से छोटी कठिनाई आने पर उनसे तालमेल बिठा पाना प्रायः उनसे असम्भव हो जाता है। गरीबी के दिन आने पर उनकी इच्छायें पूर्ण होनी असम्भव हो जाती हैं। उसकी पूर्ति के लिए वे घर से इस आशा के साथ बाहर निकलते हैं कि अधिक सम्पत्ति उपार्जित करेंगे। क्षमता एवं अनुभव के अभाव में सफलता प्राप्त करना तो दूर की बात है, भूखों मरने की भी नौबत आती है। ऐसे बच्चे शहरों में मारे-मारे घूमते हैं तथा बदमाशों के चंगुल में आने पर अनैतिक धन्धे करने के लिए मजबूर बन जाते हैं।
भौतिक उपलब्धियों का भी जीवन में अपना महत्व है परन्तु जो सम्पन्नता श्रम की वृत्ति को समाप्त कर दे वह मानव जीवन के लिए अहितकर है। आज अधिकांश सम्पन्न परिवारों में बच्चों को सुख साधन अधिकाधिक देकर उनकी क्षमता एवं श्रम शक्ति को कुंठित कर दिया जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करने की उनमें क्षमता नहीं रहती। गरीबी के दिन आने पर ऐसे बच्चे कम में गुजारा करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। अर्थ उपार्जन का कोई और उपाय न मिलने पर घर से भाग कर बाहर कमाने का एक ही रास्ता उन्हें दिखाई देता है।
इस प्रवृत्ति से बच्चों को बचाने के लिए माता-पिता पर यह दायित्व आता है कि बच्चों को स्नेह-सद्भाव से तो वंचित न रखें, पर साथ ही उनकी गतिविधियों पर भी बराबर ध्यान रखें। उनमें बचपन से श्रमशीलता का अभ्यास डालें। यदि मोहवश उन्हें श्रम के अभ्यास से वंचित रखा गया तो वह आगे चल कर घातक ही सिद्ध होगा।
शिक्षा में अरुचि होने के कारण भी बच्चों में यह प्रवृत्ति पनपती है। जो बच्चे पढ़ाई में रुचि नहीं लेते या पढ़ने में कमजोर होते हैं, उन्हें घर पर अभिभावकों की प्रताड़ना और स्कूल में अध्यापकों द्वारा दंडित होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में या तो आत्महीनता की ग्रन्थि बन जाती हैं या बच्चे में बदला लेने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है। जब दबाववश स्कूल में जाने के लिए वह मजबूर होता है तो घर से भागने का रास्ता ही दिखाई देता है।
बच्चों में प्रारंभ में ही शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए प्रयास करना चाहिए। भावी जीवन के लिए उनकी क्या उपयोगिता और महत्ता है—यह समझना चाहिए। स्कूली पढ़ाई के अतिरिक्त घर में भी नियमित पढ़ने का अभ्यास डालने और प्रोत्साहन देते रहने से बच्चे की रुचि को सहज ही इस दिशा में मोड़ा जा सकता है। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो काफी प्रयत्न करने के बाद भी अध्ययन में रुचि नहीं लेते—ऐसे बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा के उपरान्त उनकी रुचि के अनुसार किसी व्यापार अथवा उद्योग कार्य में लगाया जा सकता है। ऐसा देखा गया है कि जो बच्चे शिक्षा में पिछड़ जाते हैं वे व्यापार अथवा उद्योग के क्षेत्र में सफल हो जाते हैं। रुचि न होने पर भी शिक्षा के लिए अत्यधिक दबाव देने और विद्यालय जाने के लिए बाध्य किये जाने पर, इनसे बचने के लिए घर से निकल जाने का रास्ता ही चुनते हैं।
गांव के बच्चों में शहरी तड़क-भड़क का भी एक आकर्षण होता है। बुरे लड़को के सम्पर्क में आकर बच्चे घर से निकल पड़ते हैं। सिनेमा, पार्क व दर्शनीय स्थलों पर प्रारम्भ में घूमना तो अच्छा लगता है, लेकिन शीघ्र ही जीवन की कठोर वास्तविकता से परिचित होने पर भूख मिटाने के लिए अपराध वृत्ति की अपनाते हैं।
बच्चों में घूमने-फिरने की सहज ही इच्छा होती है। अतः माता-पिता को बच्चों के लिए इस रुचि का ध्यान रखते हुए समय-समय पर स्वयं पर्यटन के लिए ले जाना चाहिए। इससे बच्चे की जिज्ञासा और उत्सुकता का समाधान तो होगा ही व्यक्तित्व विकास और ज्ञान सम्वर्धन में भी समुचित योगदान मिलेगा।
बच्चों का घर से भाग जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में सिनेमा का सर्वाधिक हाथ रहा है। नयी पीढ़ी को दिग्भ्रान्त करने का प्रमुख दोषी सिनेमा ही है। जनमानस की पशु प्रवृत्तियों को भड़काने तथा निकृष्ट गतिविधियों को अपनाने के लिए सिनेमा की निरन्तर बाध्य कर रहा है। समाज का अनिवार्य अंग बच्चा भला इससे कैसे अछूता रह सकता है। सिनेमा वर्तमान समय में अपराधों की वृद्धि में किस प्रकार सहयोग दे रहा है, इसका वर्णन मद्रास के चीफ मैट्रीपोलिटन मजिस्ट्रेट ने एक मुकदमें में कहा था—‘‘सिनेमा इस युग का अभिशाप है। इसने मानवीय कुलों में रहने वाले असंख्यों लड़के एवं लड़कियों के भविष्य को अन्धकार के गर्त में सदा के लिए डाल दिया है।’’
शहरों की चकाचौंध एवं काल्पनिक प्रसंगों ने किशोरों को उनके स्वाभाविक जीवन से अलग कर दिया है। इसके माध्यम से किशोर एवं किशोरियां बिना अपनी प्रतिभा, क्षमता एवं परिस्थितियों पर विचार किये भावुकतावश स्वयं भी हीरो-हीरोइन बनने के लिए परिवार और समाज के सारे नैतिक बन्धनों को तोड़कर निकल जाते हैं और जब वास्तविकता के धरातल पर पैर रखते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है। लोगों द्वारा व्यंग्य कसे जाने एवं शर्म के कारण तो वापस आ नहीं सकते। मजबूरीवश जीवन के बाकी दिन भीख मांगकर, जेबकटी, वैश्यावृत्ति, चोरी जैसे अनैतिक कार्यों में पूरे करते हैं।
बच्चे राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं। परिवार एवं समाज की उनसे बड़ी अपेक्षायें होती हैं। घर से पलायन करने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए माता-पिता से लेकर समाज के अग्रणी नेतृत्व करने वाले व्यक्ति एवं शिक्षा-शास्त्री बच्चों की इच्छाओं-उपेक्षाओं एवं रुचि पर ध्यान दें, तदनुरूप साधन उपलब्ध करें तभी इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जाना सम्भव है।
नगरों के बाल अपराध की घटनायें इन दिनों तेजी से बढ़ती जा रही हैं। अधिकांश बाल अपराध ऐसे ही बच्चों द्वारा किये जाते हैं। जिन असामाजिक तत्वों के चंगुल में ये एक बार फंस जाते हैं, फिर जीवन भर उनके इशारों पर नाचने के लिए विवश होते हैं। चोरी, जेबकटी, स्मगलिंग से लेकर भीख मांगने जैसे अनैतिक कृत्यों में इन अबोध बच्चों का भरपूर उपयोग किया जाता है। बाल सुलभ मस्तिष्क में अपराध वृत्ति के कुसंस्कार जड़ जमाते चले जाते हैं और आगे चलकर ये बच्चे ही बड़े अपराधी बन जाते हैं। जो समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते थे, वे ही अभिशाप सिद्ध होते हैं।
बच्चों के घर छोड़कर निकल जाने की प्रवृत्ति इन दिनों प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसे देखते हुए यह प्रतीत होता है कि कहीं कोई भारी त्रुटि हो रही है, जिसके कारण बच्चे ऐसे कदम उठाने में भी नहीं झिझकते। इस समस्या के निदान के लिए बाह्य उपचारों की उपेक्षा समस्या के मूल में जाना होगा जिसके कारण बच्चे अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ते हैं।
बच्चों का अधिकांश समय परिवार में व्यतीत होता है। माता-पिता के स्नेह, दुलार एवं भावनाओं के पोषण से बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जहां एक ओर अभिभावकों के स्नेह-प्यार से बच्चे का विकास सम्भव है, वही दूसरी ओर अपेक्षा एवं तिरष्कार भाव से उसके कोमल हृदय पर कुठाराघात होता है। अभिभावकों के भावनात्मक बन्धनों से ही बालक परिवार एवं परिजनों को सुख का केन्द्र मानता है और उससे अलग होने की कल्पना भी उसके लिए असह्य होती है। इसके विपरीत उपेक्षा एवं तिरस्कार का भाजन बनने पर वह परिवार में अपने आपको अनुपयोगी समझने लगता है। परिणाम स्वरूप घर के प्रति विरोध, आक्रोश, विद्रोह जैसी घातक भावनायें बच्चे के मन में पनपने लगती हैं। अपने ही घर परिवार में वह परायापन अनुभव करने लगता है और पलायनवादी बन जाता है। यहां से उसके अन्धकारपूर्ण जीवन का प्रारम्भ हो जाता है।
बालक का घर से विमुख हो जाना अभिभावकों के प्रति एक खुली चुनौती है। बच्चों में बढ़ती हुई इस प्रवृत्ति का मूल कारण ढूंढ़ने पर पता चलता है कि वस्तुतः माता-पिता ही दोषी हैं। बच्चों के प्रति कर्तव्यों और दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह न करने से ही ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। बच्चे का हृदय बड़ा ही संवेदनशील होता है, उसके मन पर भले बुरे व्यवहार की अमिट छाप पड़ जाती है। परिजनों का स्नेहपूर्ण व्यवहार उसके भावी विकास में सहायक होता है। दुर्व्यवहार, कठोर आचरण एवं उपेक्षा से उनकी कोमल भावनाओं को ठेस पहुंचती है। एक ही माता-पिता के दो बच्चों में योग्यता, रुचि, बुद्धि, प्रतिभा में भिन्नता होना स्वाभाविक है। अभिभावकों की इच्छा के प्रतिकूल होने पर उसे उपहास, अपमान, आक्षेप, तिरस्कार का भाजन बनना पड़ता है। इस भावनात्मक आघात से मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और बच्चा मन ही मन क्षुब्ध होकर घर से चुपचाप निकल जाने का रास्ता अपनाता है।
बाल मनोवैज्ञानिक एवं अपराध विशेषज्ञ डा. दस्तूर ने विभिन्न परीक्षणों के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि—बच्चों के घर से भागने में सबसे प्रमुख कारण है—पारिवारिक परिवेश। इस अर्थ प्रधान युग में मां-बाप के पास समय नहीं है कि वे बच्चों को सही ढंग से समझने का प्रयास कर सकें, उनकी इच्छा रुचि का पता लगा सकें उन्हें समुचित स्नेह-प्यार दे सकें। वे बच्चों से खुलकर हंस-बोल नहीं सकते तथा स्वयं उनके सामने ‘रिजर्व’ रहने का मिथ्या-ढोंग करते हैं। ऐसी परिस्थिति से बच्चा एकाकीपन अनुभव करने लगता है। इस एकाकीपन, उपेक्षा भाव से बच्चा परिजनों से टूट जाता और उन्हें छोड़ देने से भी नहीं हिचकिचाता।
केवल उपेक्षा एवं अपमान से ही इस प्रवृत्ति का बढ़ावा मिलता हो—ऐसी बात नहीं। अत्यधिक स्नेह के नाम पर बच्चे की हर उचित-अनुचित इच्छा पूरी करना भी अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होता है। बचपन की सुसम्पन्न परिस्थितियों के कारण बच्चे में विपन्न परिस्थितियों से लड़ने की सामर्थ्य समाप्त हो जाती है। विलासिता एवं ऐशोआराम के अभ्यस्त होने के कारण जीवन में छोटी से छोटी कठिनाई आने पर उनसे तालमेल बिठा पाना प्रायः उनसे असम्भव हो जाता है। गरीबी के दिन आने पर उनकी इच्छायें पूर्ण होनी असम्भव हो जाती हैं। उसकी पूर्ति के लिए वे घर से इस आशा के साथ बाहर निकलते हैं कि अधिक सम्पत्ति उपार्जित करेंगे। क्षमता एवं अनुभव के अभाव में सफलता प्राप्त करना तो दूर की बात है, भूखों मरने की भी नौबत आती है। ऐसे बच्चे शहरों में मारे-मारे घूमते हैं तथा बदमाशों के चंगुल में आने पर अनैतिक धन्धे करने के लिए मजबूर बन जाते हैं।
भौतिक उपलब्धियों का भी जीवन में अपना महत्व है परन्तु जो सम्पन्नता श्रम की वृत्ति को समाप्त कर दे वह मानव जीवन के लिए अहितकर है। आज अधिकांश सम्पन्न परिवारों में बच्चों को सुख साधन अधिकाधिक देकर उनकी क्षमता एवं श्रम शक्ति को कुंठित कर दिया जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करने की उनमें क्षमता नहीं रहती। गरीबी के दिन आने पर ऐसे बच्चे कम में गुजारा करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। अर्थ उपार्जन का कोई और उपाय न मिलने पर घर से भाग कर बाहर कमाने का एक ही रास्ता उन्हें दिखाई देता है।
इस प्रवृत्ति से बच्चों को बचाने के लिए माता-पिता पर यह दायित्व आता है कि बच्चों को स्नेह-सद्भाव से तो वंचित न रखें, पर साथ ही उनकी गतिविधियों पर भी बराबर ध्यान रखें। उनमें बचपन से श्रमशीलता का अभ्यास डालें। यदि मोहवश उन्हें श्रम के अभ्यास से वंचित रखा गया तो वह आगे चल कर घातक ही सिद्ध होगा।
शिक्षा में अरुचि होने के कारण भी बच्चों में यह प्रवृत्ति पनपती है। जो बच्चे पढ़ाई में रुचि नहीं लेते या पढ़ने में कमजोर होते हैं, उन्हें घर पर अभिभावकों की प्रताड़ना और स्कूल में अध्यापकों द्वारा दंडित होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में या तो आत्महीनता की ग्रन्थि बन जाती हैं या बच्चे में बदला लेने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है। जब दबाववश स्कूल में जाने के लिए वह मजबूर होता है तो घर से भागने का रास्ता ही दिखाई देता है।
बच्चों में प्रारंभ में ही शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए प्रयास करना चाहिए। भावी जीवन के लिए उनकी क्या उपयोगिता और महत्ता है—यह समझना चाहिए। स्कूली पढ़ाई के अतिरिक्त घर में भी नियमित पढ़ने का अभ्यास डालने और प्रोत्साहन देते रहने से बच्चे की रुचि को सहज ही इस दिशा में मोड़ा जा सकता है। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो काफी प्रयत्न करने के बाद भी अध्ययन में रुचि नहीं लेते—ऐसे बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा के उपरान्त उनकी रुचि के अनुसार किसी व्यापार अथवा उद्योग कार्य में लगाया जा सकता है। ऐसा देखा गया है कि जो बच्चे शिक्षा में पिछड़ जाते हैं वे व्यापार अथवा उद्योग के क्षेत्र में सफल हो जाते हैं। रुचि न होने पर भी शिक्षा के लिए अत्यधिक दबाव देने और विद्यालय जाने के लिए बाध्य किये जाने पर, इनसे बचने के लिए घर से निकल जाने का रास्ता ही चुनते हैं।
गांव के बच्चों में शहरी तड़क-भड़क का भी एक आकर्षण होता है। बुरे लड़को के सम्पर्क में आकर बच्चे घर से निकल पड़ते हैं। सिनेमा, पार्क व दर्शनीय स्थलों पर प्रारम्भ में घूमना तो अच्छा लगता है, लेकिन शीघ्र ही जीवन की कठोर वास्तविकता से परिचित होने पर भूख मिटाने के लिए अपराध वृत्ति की अपनाते हैं।
बच्चों में घूमने-फिरने की सहज ही इच्छा होती है। अतः माता-पिता को बच्चों के लिए इस रुचि का ध्यान रखते हुए समय-समय पर स्वयं पर्यटन के लिए ले जाना चाहिए। इससे बच्चे की जिज्ञासा और उत्सुकता का समाधान तो होगा ही व्यक्तित्व विकास और ज्ञान सम्वर्धन में भी समुचित योगदान मिलेगा।
बच्चों का घर से भाग जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में सिनेमा का सर्वाधिक हाथ रहा है। नयी पीढ़ी को दिग्भ्रान्त करने का प्रमुख दोषी सिनेमा ही है। जनमानस की पशु प्रवृत्तियों को भड़काने तथा निकृष्ट गतिविधियों को अपनाने के लिए सिनेमा की निरन्तर बाध्य कर रहा है। समाज का अनिवार्य अंग बच्चा भला इससे कैसे अछूता रह सकता है। सिनेमा वर्तमान समय में अपराधों की वृद्धि में किस प्रकार सहयोग दे रहा है, इसका वर्णन मद्रास के चीफ मैट्रीपोलिटन मजिस्ट्रेट ने एक मुकदमें में कहा था—‘‘सिनेमा इस युग का अभिशाप है। इसने मानवीय कुलों में रहने वाले असंख्यों लड़के एवं लड़कियों के भविष्य को अन्धकार के गर्त में सदा के लिए डाल दिया है।’’
शहरों की चकाचौंध एवं काल्पनिक प्रसंगों ने किशोरों को उनके स्वाभाविक जीवन से अलग कर दिया है। इसके माध्यम से किशोर एवं किशोरियां बिना अपनी प्रतिभा, क्षमता एवं परिस्थितियों पर विचार किये भावुकतावश स्वयं भी हीरो-हीरोइन बनने के लिए परिवार और समाज के सारे नैतिक बन्धनों को तोड़कर निकल जाते हैं और जब वास्तविकता के धरातल पर पैर रखते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है। लोगों द्वारा व्यंग्य कसे जाने एवं शर्म के कारण तो वापस आ नहीं सकते। मजबूरीवश जीवन के बाकी दिन भीख मांगकर, जेबकटी, वैश्यावृत्ति, चोरी जैसे अनैतिक कार्यों में पूरे करते हैं।
बच्चे राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं। परिवार एवं समाज की उनसे बड़ी अपेक्षायें होती हैं। घर से पलायन करने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए माता-पिता से लेकर समाज के अग्रणी नेतृत्व करने वाले व्यक्ति एवं शिक्षा-शास्त्री बच्चों की इच्छाओं-उपेक्षाओं एवं रुचि पर ध्यान दें, तदनुरूप साधन उपलब्ध करें तभी इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जाना सम्भव है।