
गृहस्थ एक तपोवन है, जीवन-साधना इसी में रहकर करें
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विवाह भी सृष्टि के अन्य प्रयोजनों की तरह एक छोटा सा अनुबन्ध है। जिसमें महत्ता हर व्यक्ति की अपनी ही रहती है। अपने भाग्य और भविष्य का निर्माण हर किसी को अपने हाथों ही करना होता है। परिस्थितियों की प्रतिक्रिया मनःस्थिति के अनुरूप होती है। विवाह को सफल बनाने में साथी जितना योगदान देता है उससे असंख्य गुनी भूमिका अपनी होती है। विवाह करना हो तो साथी से अनुकम्पा एवं अनुकूलता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए वरन् यह मानकर चलना चाहिए कि किसी अनाथ असहाय को सक्षम, समर्थ बनाना है और इसके लिए उदारतापूर्वक अनुदान देते रहना है। इससे कम में न तो मित्रता निभती है और न साथ रहने का आनन्द मिलता है। साथी के सद्व्यवहार की अपेक्षा करते रहने से तो सन्तोष की आशा धूमिल ही बनती जायेगी, जिस प्रकार अपना मन दूसरे पक्ष की सहायता से सुखी बनना चाहता है— अपने में न तो कुछ दोष दिखाई पड़ता है और न बदलने जैसा कोई स्वभाव दीखता है। हो सकता है साथी की मनःस्थिति भी वैसी ही हो और वह हमीं से तरह-तरह की आशा अपेक्षाएं संजोये बैठा हो।
अब प्रश्न उठता है कि जब अनुदानों की वर्षा कर सकने योग्य क्षमता उत्पन्न करने पर ही विवाह की सफलता निर्भर है और जीवन रस समर्पण करने पर ही मित्रता निभने का आनन्द मिलता है तो विवाह किया भी जाय या नहीं? इस प्रश्न का दुहरा उत्तर है—जो आत्म निर्भर नहीं हैं वे अन्धे-पंगे की जोड़ मिलाकर किसी तरह अपना काम चलाऊ सन्तोष प्राप्त करें। पर जिनके सामने कोई उच्च आदर्श है, वे तब तक ठहरें—जब तक कि उन्हें लक्ष्य की ओर कदम से कदम मिलाकर साथ चलने वाला एवं सच्चा सहयोग दे सकने की मनःस्थिति और परिस्थिति वाला साथी न मिल जाय।
जिन्हें भौतिक सुखों के प्रति ही आकर्षण है, उन्हें जहां भी थोड़ी उपयुक्तता जंचे वहां बिना बहुत अधिक सोच विचार किये सम्बन्ध जोड़ सकते हैं। काम चलाऊ विवाहों में लाभ-हानि बराबर है। लाभ यह है कि वासना के लिए व्यवस्थित मार्ग मिल जाता है और गड़बड़ फैलने का खतरा सीमित हो जाता है। गृह व्यवस्था के साथ सहयोग मिल जाता है, तब सुख-दुःख की घड़ियों में किसी कदर सहयोग मिलता है। किन्तु यहां ध्यान यही रखा जाता है कि इतना भी मिलेगा तब, अब अपने को प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने की कला आती हो। अनाथ और असमर्थ होने की स्थिति में तो भिक्षुकों की मिलने वाली यत्किंचित् सहायता के बदले अपनी अन्तरात्मा बेचनी पड़ती है। अस्तु काम चलाऊ विवाहों के बन्धन में बन्धने से पूर्व भी इतनी क्षमता तो प्राप्त कर ही लेनी चाहिए जिसके बल पर साथी को सीधा खड़ा हो सकने में सफलता मिल सके।
सामान्य स्तर के विवाहों में साथी का सहयोग मिलता है, पर बदले में उसका ऋण साथ ही साथ चुकाते चलना पड़ता है। आत्माओं के मिलन का आदर्श बहुत ऊंचा है, वह कहीं-कहीं और कभी-कभी ही झलक दिखाते देखा जाता है। आमतौर से आदान-प्रदान की नीति की कार्यान्वित होती है। पति का सहयोग पत्नी प्रायः तब पाती है जब शरीर से श्रम और मन से अनुकूलता की कीमत चुकाती है।
पत्नी का सहयोग तब मिलता है जब उसकी तथा उसके उदर से उत्पन्न हुए बालकों के लिए अपनी भौतिक तथा मानसिक उपलब्धियों का प्रायः समूचा अंश निचोड़ा जाता है। सामान्य कहे जाने वाले व्यावहारिक विवाहों में आदान-प्रदान का इतना मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है। कम मूल्य में अधिक लाभ देने वाली किसी भी भाग्य-लाटरी की छप्पर फाड़कर बरस पड़े और आरोग्य होने की स्थिति में एक दूसरे पक्ष की उदारता से गृहस्थ जीवन सुखद बन पड़े तो उसे अपवाद-चमत्कार ही समझा जाना चाहिए।
विवाह को सफल बनाने के लिए यदि उपयुक्त जोड़ीदार तलाश करना हो तो उसके लिए अत्युक्तिपूर्ण नहीं वरन् यथार्थ जानकारी प्राप्त की जानी चाहिए। इस सिद्धान्त से कोई भी इनकार नहीं करेगा। इस प्रकार की ढूंढ़ खोज में जासूसी, गुप्तचरी जैसा झंझट उठाकर, भागदौड़ करके शकल, सूरत, रूप सौन्दर्य धन वैभव शिक्षा चरित्र तथा गुण कर्म स्वभाव के बारे में अपेक्षित सूचनाएं प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। ताकि पीछे पश्चाताप की गुंजायश शेष न रहे। यह प्रक्रिया उचित भी है, उपयुक्त भी। इसके बावजूद रूप, धन एवं गुण कर्म, स्वभाव के आधार पर की गई परख भी अधूरी तथा ओछी है, क्योंकि इस कसौटी पर कस लेने के उपरान्त भी यह निश्चिन्तता नहीं हो सकती कि गृहस्थ सुख पूर्वक चल पायेगा। दूसरा व्यक्ति कभी भी बदल सकता है या इसके सम्बन्ध में जो निष्कर्ष निकाला गया था वह गलत भी हो सकता है।
इस क्षेत्र की सफलता का एक मात्र सूत्र है अपने में उस दूरदर्शिता और सदाशयता का होना जिसके सहारे दूसरे को सुधारा या बदला जा सकता है। यदि वैसा न बन पड़े तो ताल-मेल बिठाने वाला एक पक्षीय प्रयास भी किया जा सकता है। साथी के सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध होने पर भी परिष्कृत आदर्शवादिता अपनाएं रहकर इस प्रकार का चिन्तन रखा जा सकता है जिसके कारण अपने कर्तव्य पालन की प्रतिक्रिया आत्मसंतोष का सत्परिणाम प्रस्तुत करती रहे। साथी के अनुपयुक्त आचरण से निराशा होनी तो स्वाभाविक है, पर इतने पर भी एक पक्षीय कर्तव्य पालन टकराव की स्थिति से बचाए रह सकता है और अपने सद्व्यवहार का आनन्द अपनी प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि एवं प्रतिच्छाया से अपने को आशान्वित किये रह सकता है। ऐसी दशा में यह संभावना भी बनी रहती है कि रस्सी की रगड़ से पत्थर पर निशान बन जाये और कठोरता बरतने वाला पाषाण हृदय भी कालान्तर में कोमल बन जाये। ऐसे परिवर्तन और सुधार के असंख्य उदाहरण हम अपने इर्द-गिर्द ढूंढ़ सकते हैं। इसके विपरीत उन उदाहरणों की कमी नहीं जिनमें कटुता कर्कशता, आक्षेप, अपमान, अविश्वास जैसे विषाक्त तत्व मिलते जाने पर मन फट गये और कभी एकता की स्थिति उलट कर उपेक्षा और विद्वेष में परिणत हो गई।
जब तक दूसरे की सहायता से, कृपा-अनुकम्पा से मनोरथ सिद्ध करने की बात मन में रहेगी तब तक परावलम्बन की स्थिति बनी रहेगी और पराधीन परमुखापेक्षी जिस तरह आशा निराशा के झूले में झूलते रहते हैं वैसी ही दुर्दशा अपनी भी होती रहेगी। अनुकूलता दिखाई गई तो सन्तोष, प्रतिकूलता बरती गई तो रोष क्रंदन। भला यह भी कोई बात रही। स्वावलम्बन से कम में किसी को चैन नहीं। स्वाधीनता बिना किसी की गति नहीं।
विवाह चाहे सोद्देश्य ही अथवा लोक प्रवाह का गठबन्धन। दोनों ही दशा में दोनों पक्षों को अपना उत्तर दायित्व निभाने और विवाह सुख की पूरी-पूरी कीमत चुकाने की तैयारी करनी चाहिए। इसमें जितनी कमी रहेगी, उतनी ही इस प्रयोग में असफलता हाथ लगेगी और सुख की आशा को जंजाल जैसी निराशा में परिणत होने की संभावना रहेगी।
सच तो यह है कि विवाह तो उन्हें ही करना चाहिए जिनमें इस स्तर का आत्मविश्वास विकसित हो गया हो कि जैसे भी साथी से पाला पड़ेगा, उसे गला धुला कर अपने ढांचे में ढाल लिया जायेगा। इस प्रयास में कठोरता और अहंकार की नीति सफल नहीं होती। उदारता विश्वास और आत्मीयता की सघन संवेदनाएं ही पत्थर को पानी बना देने में सफल होती है।
वस्तुतः विवाह आसमान से बरसने वाली सुविधा का वरदान नहीं, कठोर कर्तव्य का निर्वाह है। उसमें पाने की आशा कम और देने की तैयारी अधिक करके ही चलना चाहिए। सुख-दुःख में समान रूप से भागीदार बनने वाला—एक घनिष्ठ साथी प्राप्त करने के लिए ही दो आत्माएं विवाह बन्धन में बंधती हैं। सन्तानोत्पादन उसके बाद का गौण उद्देश्य है। सन्तानोत्पादन या वंशवृद्धि ही विवाह का प्रयोजन होता तो उसके लिए नर नारी को एक साथ रहना कदापि आवश्यक नहीं होता। मनुष्येत्तर प्राणी जिस प्रकार प्रजनन करते हैं और काम सेवन के बाद एक-दूसरे से अलग स्वच्छन्द सर्वत्र स्वतन्त्र हो जाते हैं, उसी प्रकार नर नारी भी काम सेवन के बाद स्वतन्त्र स्वच्छन्द रह सकते थे। परन्तु ऐसा नहीं होता। इसका कारण यही है कि नर को एक घनिष्ठ आत्मीय सहयोगी चाहिए जो नारी के रूप में उसके व्यक्तित्व का पूरक भी बनता हो और नारी को भी अपने व्यक्तित्व का पूरक चाहिए जो उसे प्रेम, संरक्षण और स्नेह, सहयोग प्रदान कर सके।
किन्तु कितने दम्पत्ति हैं, जो एक दूसरे की यह अपेक्षा पूरी कर पाते हैं? एक दूसरे के लिए प्रेम, त्याग, बलिदान का व्रत लेने के बाद भी क्यों अधिकांश दंपत्ति एक दूसरे से असन्तुष्ट रहते हैं? इसमें किसी एक पक्ष का दोष नहीं है। दोनों ही पक्ष एक दूसरे से अनावश्यक अपेक्षाएं करने लगते हैं और वे अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो खिन्न, असन्तुष्ट, क्षुब्ध एवं शिकायती स्वभाव के बन जाते हैं।
उदाहरण के लिए बहुत-सी पत्नियां समझने लगती हैं विवाह के बाद उनका सारा उत्तरदायित्व पति ने सम्हाल लिया। विवाह के बाद उनका एक ही काम है साज-श्रृंगार से रहना खूब ठाटबाट बनाना और मौज-मजे उड़ाना। पति कमा कर लाये और उसकी सुख-सुविधा के लिए पर्याप्त साधन जुटाये। यह दृष्टिकोण अपनाने वाली स्त्रियां अपने पति के लिए साथी-सहचर होने के स्थान पर उन पर एक दुर्वह भार ही सिद्ध होती हैं। किसी विद्वान ने इसी तथ्य को इंगित करते हुए लिखा है कि ‘‘युवतियां प्रायः विवाह के समय अपने पति का हाथ पकड़ती हैं तो उसका प्रकट उद्देश्य यह होता है कि वे एक दूसरे के साथी-सहचर बनकर जीवन निभायेंगे। हाथ पकड़ने की यह रस्म आजीवन मैत्री की प्रतिज्ञा के तौर पर सम्पन्न की जाती है। परन्तु होता यह है कि विवाह के बाद स्त्रियां अपने पति के कन्धों पर चढ़ जाती हैं और उन पर बोझ बन जाती हैं।’’ सभी स्त्रियों के सम्बन्ध में नहीं तो अधिकांश स्त्रियों के सम्बन्ध में यह सर्वथा-सत्य है। रोज नई मांगें करना, रोज नई फरमाइशें रखना, रोज नये साधन-सुविधाओं के लिए जिद करना, बोझ बनना नहीं तो और क्या है?
इसका मतलब यह नहीं है कि पत्नियां ही पूरी तरह दोषी हैं। इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहन कौन देता है? कौन उचित अनुचित मांगों और प्रस्तावों को मानकर, पूरा कर, नई-नई मांगें करने का द्वारा खोलता है? निश्चित ही छूट पति की ओर से प्राप्त होती है? पति की ओर से यह छूट क्यों होती है? इसका एक कारण तो यह है कि पुरुष स्त्री को अपना साथी-सहचर समझने की अपेक्षा उसे खिलौना और मनोरंजन का साधन ज्यादा समझता है। स्पष्ट ही इसके पीछे अमर्यादित काम सेवन की प्रवृत्ति है। पति अपनी काम वासना को तृप्त रखने और पत्नी को नित नूतन रूप में आकर्षक देखने के लिए उसकी साज-श्रृंगार जैसी मांगों को मानता चलता है और पत्नी जाने-अनजाने ही पति की इस कमजोरी का लाभ उठाने लगती है या उसका दोहन करने की दिशा में प्रवृत्त हो जाती है।
दूसरे, कई लोग यह सोचते हैं कि मिलने-जुलने वालों में, जाति-बिरादरी में, सभा-सोसाइटियों में, मित्र परिचितों में परिवारों में उसकी पत्नी जितनी ही ज्यादा बनठन कर जाएगी उतनी ही उनकी सम्पन्नता की धाक जमेगी। इस दृष्टिकोण के लोग स्वयं फटेहाली में रहकर भी पत्नी को एक शो पीस या सजीली संवारी गुड़िया की तरह रखने को ज्यादा महत्व देते हैं और उसे आर्थिक दृष्टि से अपने लिए एक बोझा बना लेते हैं। सभ्य कहे जाने वाले तथाकथित ऊंची सोसायटी के लोगों की बात जाने दें, गांव-गंवाई के लोग भी स्त्रियों को बनठन कर रहने की बात को इतना महत्व देते हैं कि देहातों में एक हाथी पालने और घर में एक औरत रखने का खर्च बराबर है की कहावत आम प्रचलित है।
पुरुषों द्वारा स्त्रियों की इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने का जहां तक प्रश्न है, उसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन पुरुष या पति अपनी पत्नी से जो अपेक्षाएं करता है, वे भी सब की सब एकदम उचित नहीं कही जा सकतीं। कहा जा चुका है कि पति-पत्नी को ज्यादातर कामसेवन का एक उपकरण, एक खिलौना मात्र समझता है और इस समझ के कारण पत्नी के साथ अनाचार तथा अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ करता रहता है। पत्नी का स्वास्थ्य भी बिगड़ता है और अपना भी। फायदा किसी भी पक्ष को नहीं होता, दोनों ही घाटे में रहते हैं। कई बार तो अनाचार इस सीमा को भी पार कर जाता है कि पत्नी बेचारी तंग आ जाती है। समाज और कानून की दृष्टि में यह कामाचरण भले ही निन्दनीय हो पर मानवीय दृष्टिकोण से इसे दुराचार की ही संज्ञा दी जायेगी। इस तरह के दुराचरण से तंग आकर पत्नियां प्रायः जर्जर स्वास्थ वाली हो जाती हैं। उनका स्वभाव चिड़चिड़ा और शरीर थका, मन बुझा बुझा-सा रहने लगता है। वे अपनी सम्वेदनाओं को व्यक्त भले ही न करें, पर समझने यही लगती हैं पति के लिए वह मात्र खिलौना हैं। जिससे जब चाहा खेल लिया। पति पत्नी के इस स्तर के सम्बन्धों पर व्यंग करते हुए किसी लेखक ने अपनी पत्नी को सामाजिक मान्यता प्राप्त एक ही व्यक्ति के लिए सुरक्षित वेश्या तक कह डाला है।
विचार किया जाना चाहिए कि जीवन साथी का चुनाव क्या इसलिए किया जाता है कि एक को सवार होने, चढ़ने और बैठने के लिए कोई कन्धा मिल जाए और दूसरे को खेलने मनोरंजन करने के लिए कोई खिलौना? कोई भी विचारशील व्यक्ति इसका उत्तर ‘हां’ में नहीं दे सकता। इन बातों को, जिनका दाम्पत्य सम्बन्धों में सुई की नोंक के हजारवें हिस्से के बराबर महत्व है, सब कुछ मान लेना और सर्व प्रधान महत्व देना हर दृष्टि से अनुचित ही है। अब तक यह दृष्टि बनी रहेगी तब तक पत्नी पति के लिए भार बनी रहेगी और पति पत्नी के लिए दुश्मन की तरह व्यवहार करने वाला दम्भी मित्र।
स्थिति को बदला जाना चाहिए और दाम्पत्य जीवन के सम्बन्ध में प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण साफ रहना चाहिए कि इन सम्बन्धों की सार्थकता न आर्थिक संरक्षण में है न कामुक खिलवाड़ में। अपितु इसकी सार्थकता निश्छल प्रेम, सेवा, सहयोग, सहानुभूति, त्याग, बलिदान और सहिष्णुता जैसे आदर्शों को अपनाने, उनका अभ्यास और व्यक्तित्व में विकास करने में है। पति या पत्नी के रूप में हमें अपना आत्मिक विकास करने और जीवन यात्रा को सहज सरल ढंग से पूरी करने के लिए एक साथी मिला है, इस मान्यता को आस्था के रूप में स्थापित कर लिया जाए तो कोई कारण नहीं है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष के लिए बोझ बने या भार सिद्ध हो।
गृहस्थ जीवन को एक योगाभ्यास की तरह व्यतीत करने और दाम्पत्य संबंधों का उपयोग अपना आत्मिक विकास करने के लिए किसी ने यह स्वर्णिम सूत्र बताया है कि, ‘अपने साथी का स्वभाव और रुचि समझो, उसे उचित ढंग से सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न करो और उसी के अनुरूप व्यवहार अपनाओ।’ जब दोनों पक्ष एक दूसरे के अनुरूप व्यवहार करने, एक दूसरे को संतुष्ट रखने, एक दूसरे का ध्यान रखने और एक दूसरे को महत्व देने की नीति अपनायेंगे तो स्वाभाविक ही दोनों में एक सामंजस्य उत्पन्न होगा।
एक दूसरे को सन्तुष्ट रखने के सम्बन्ध में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों का स्वभाव पूरी तरह मेल नहीं खाता। पति पत्नी की रुचि और प्रकृति भी भिन्न-भिन्न हो सकती है। हो सकता है कि अधिकांश मामलों में दोनों की पसन्द एक हो, पर सभी मामलों में ऐसा होगा यह नहीं कहा जा सकता। कौन-सा पक्ष, कब, किसकी बात को महत्व दे? इस विषय में कोई नियम या आचार संहिता नहीं बनाई जा सकती लेकिन यह सच है कि रुचि और पद्धति की इस भिन्नता के कारण ही अधिकांश विग्रह खड़े होते हैं। इस सम्बन्ध में दोनों पक्ष एक दूसरे के प्रति समझपूर्ण रवैया अपनाएं तो सरलता से सामंजस्य स्थापित हो सकता है। दूसरे की रुचि में अपनी सहमति व्यक्त करना तो उचित है पर अपनी रुचि में दूसरे को दबाना गलत है। कहीं कोई अनुचित अवांछनीय दिखाई दे तो बात दूसरी है, अन्यथा दूसरे को अपने अनुकूल बनाने की बात ही अधिक श्लाघनीय और सुखद परिणाम प्रस्तुत करने वाली सिद्ध होती है।
यह स्थिति अभ्यास से ही प्राप्त होती है और अभ्यास के दौरान रुचि वैचित्र्य या मतभेदों के कारण कई बार पति पत्नी में झगड़े भी हो जाते हैं। हालांकि यह कोई अनहोनी दुर्घटना नहीं है, परन्तु अहं जब इतना उन्मत्त हो उठता है कि आपसी विग्रह औरों से चर्चा का विषय बन जाये तो अनर्थ ही पैदा होता है। घर में तो झगड़े होने के कुछ देर बाद शांत भी हो जाते हैं, सुलभ समझौता हो जाता है। इसकी चर्चा यदि बाहर फैल गई तो औरों को हंसने का मौका मिल जाता है और विग्रह शांत हो जाने के बाद भी लोगों में उपहास, निन्दा आदि का क्रम चलता रहता है।
इस स्थिति में यह भी होता है कि झगड़ा शांत होने के बाद, यदि उसकी चर्चा किसी ने अन्यत्र में चला दी और दूसरे पक्ष को उसका पता चल गया तो वह शांत हुआ विग्रह पुनः उठ खड़ा होता है। फिर आपसी सुलह समझौते की स्थिति नहीं रह जाती, बल्कि दोनों के लिए एक चुनौती बन जाती है। अतएव उस चुनौती पूर्ण स्थिति को उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहिये और आपसी मतभेदों को आपस में हो सुलह समझ लेना चाहिए।
आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करें। जब तक घर के किसी आवश्यक कार्य में कोई बाधा न पड़ती हो या इस स्वतन्त्रता के कारण कोई विशेष असुविधा उत्पन्न न होती हो तो तब तक एक दूसरे की स्वतन्त्रता में कोई दखल न दिया जाये। उदाहरण के लिए किसी एक पक्ष को खाली समय पढ़ने लिखने में बिताने की इच्छा है और दूसरे पक्ष को गाने-बजाने में तो न तो पढ़ने-लिखने वाले के गाने-बजाने वाले को रोकना चाहिए और नहीं गाने बजाने वाले को पढ़ने-लिखने वाले को अपना संगीत सुनने के लिए बाध्य करना चाहिए, स्वेच्छा से कोई किसी का साथ सहयोग देने लगे तो बात दूसरी है अन्यथा दबाव देकर, आग्रह का संकोच उत्पन्न कर किसी को भी बाध्य नहीं करना चाहिये।
स्मरण रखा जाना चाहिए कि अपने को दूसरे की रुचि के अनुकूल बनाना जहां सामंजस्य पैदा करता और हार्दिकता बढ़ाता है वही दूसरे को अपनी रुचि के अनुसार बांधना या उसकी रुचि से विमुख करना बुरी प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। इससे अरुचि और घृणा ही जन्मती है, प्रेम और सामंजस्य नहीं। सामंजस्य का एक दूसरा आधार एक दूसरे से सन्तुष्ट रहना भी है। दुनिया में एक से एक बढ़कर स्त्रियां हैं। कई बार कल्पना उठती हैं कि इस व्यक्ति से विवाह न होता और अमुक स्त्री या अमुक पुरुष जीवन साथी बनता तो कितना अच्छा रहता? संभव है आज जो अपना जीवन साथी है, उसके स्थान पर जिसके जीवन साथी होने की कामना की जा रही है, वह कामना साकार हो जाती तो दाम्पत्य जीवन अपेक्षाकृत अधिक सूखकर हो सकता था।
परन्तु ऐसा नहीं हुआ, यह सोचकर असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं है और हो जाता यह सोचकर रीझने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। इस तरह की कल्पना मन को तो खिन्न बनाती है, कदाचित इस तरह के मनोभावों को व्यक्त कर दिया गया तो वर्तमान में जो सुखद सम्भावनायें हैं उन्हें भी नष्ट करके रख देती हैं। अपने साथी से सन्तुष्ट रहना और उसे सन्तुष्ट रखने के लिए यथासम्भव प्रयत्न करना, वर्तमान स्थिति को उससे भी बेहतर बनाने का उपाय है, जिसकी केवल कल्पना ही की जाती है।
इस प्रकार दाम्पत्य जीवन में सामंजस्य उत्पन्न करने के अनेकों उपाय हैं। उनका सूझबूझ के साथ उपयोग करना चाहिये और किसी भी पक्ष को यह अनुभव करने का मौका नहीं देना चाहिये कि हम गृहस्थी का बोझ ढो रहे हैं। दूसरे शब्दों में पति पत्नी को सच्चे मित्र, अभिन्न सहयोगी सहचर और एक मन-एक प्राण बनकर जीवन को सही ढंग से जीना सीखना चाहिए। इस तपोवन में रहकर ही यह योगाभ्यास किया जा सकता है।
अब प्रश्न उठता है कि जब अनुदानों की वर्षा कर सकने योग्य क्षमता उत्पन्न करने पर ही विवाह की सफलता निर्भर है और जीवन रस समर्पण करने पर ही मित्रता निभने का आनन्द मिलता है तो विवाह किया भी जाय या नहीं? इस प्रश्न का दुहरा उत्तर है—जो आत्म निर्भर नहीं हैं वे अन्धे-पंगे की जोड़ मिलाकर किसी तरह अपना काम चलाऊ सन्तोष प्राप्त करें। पर जिनके सामने कोई उच्च आदर्श है, वे तब तक ठहरें—जब तक कि उन्हें लक्ष्य की ओर कदम से कदम मिलाकर साथ चलने वाला एवं सच्चा सहयोग दे सकने की मनःस्थिति और परिस्थिति वाला साथी न मिल जाय।
जिन्हें भौतिक सुखों के प्रति ही आकर्षण है, उन्हें जहां भी थोड़ी उपयुक्तता जंचे वहां बिना बहुत अधिक सोच विचार किये सम्बन्ध जोड़ सकते हैं। काम चलाऊ विवाहों में लाभ-हानि बराबर है। लाभ यह है कि वासना के लिए व्यवस्थित मार्ग मिल जाता है और गड़बड़ फैलने का खतरा सीमित हो जाता है। गृह व्यवस्था के साथ सहयोग मिल जाता है, तब सुख-दुःख की घड़ियों में किसी कदर सहयोग मिलता है। किन्तु यहां ध्यान यही रखा जाता है कि इतना भी मिलेगा तब, अब अपने को प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने की कला आती हो। अनाथ और असमर्थ होने की स्थिति में तो भिक्षुकों की मिलने वाली यत्किंचित् सहायता के बदले अपनी अन्तरात्मा बेचनी पड़ती है। अस्तु काम चलाऊ विवाहों के बन्धन में बन्धने से पूर्व भी इतनी क्षमता तो प्राप्त कर ही लेनी चाहिए जिसके बल पर साथी को सीधा खड़ा हो सकने में सफलता मिल सके।
सामान्य स्तर के विवाहों में साथी का सहयोग मिलता है, पर बदले में उसका ऋण साथ ही साथ चुकाते चलना पड़ता है। आत्माओं के मिलन का आदर्श बहुत ऊंचा है, वह कहीं-कहीं और कभी-कभी ही झलक दिखाते देखा जाता है। आमतौर से आदान-प्रदान की नीति की कार्यान्वित होती है। पति का सहयोग पत्नी प्रायः तब पाती है जब शरीर से श्रम और मन से अनुकूलता की कीमत चुकाती है।
पत्नी का सहयोग तब मिलता है जब उसकी तथा उसके उदर से उत्पन्न हुए बालकों के लिए अपनी भौतिक तथा मानसिक उपलब्धियों का प्रायः समूचा अंश निचोड़ा जाता है। सामान्य कहे जाने वाले व्यावहारिक विवाहों में आदान-प्रदान का इतना मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है। कम मूल्य में अधिक लाभ देने वाली किसी भी भाग्य-लाटरी की छप्पर फाड़कर बरस पड़े और आरोग्य होने की स्थिति में एक दूसरे पक्ष की उदारता से गृहस्थ जीवन सुखद बन पड़े तो उसे अपवाद-चमत्कार ही समझा जाना चाहिए।
विवाह को सफल बनाने के लिए यदि उपयुक्त जोड़ीदार तलाश करना हो तो उसके लिए अत्युक्तिपूर्ण नहीं वरन् यथार्थ जानकारी प्राप्त की जानी चाहिए। इस सिद्धान्त से कोई भी इनकार नहीं करेगा। इस प्रकार की ढूंढ़ खोज में जासूसी, गुप्तचरी जैसा झंझट उठाकर, भागदौड़ करके शकल, सूरत, रूप सौन्दर्य धन वैभव शिक्षा चरित्र तथा गुण कर्म स्वभाव के बारे में अपेक्षित सूचनाएं प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। ताकि पीछे पश्चाताप की गुंजायश शेष न रहे। यह प्रक्रिया उचित भी है, उपयुक्त भी। इसके बावजूद रूप, धन एवं गुण कर्म, स्वभाव के आधार पर की गई परख भी अधूरी तथा ओछी है, क्योंकि इस कसौटी पर कस लेने के उपरान्त भी यह निश्चिन्तता नहीं हो सकती कि गृहस्थ सुख पूर्वक चल पायेगा। दूसरा व्यक्ति कभी भी बदल सकता है या इसके सम्बन्ध में जो निष्कर्ष निकाला गया था वह गलत भी हो सकता है।
इस क्षेत्र की सफलता का एक मात्र सूत्र है अपने में उस दूरदर्शिता और सदाशयता का होना जिसके सहारे दूसरे को सुधारा या बदला जा सकता है। यदि वैसा न बन पड़े तो ताल-मेल बिठाने वाला एक पक्षीय प्रयास भी किया जा सकता है। साथी के सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध होने पर भी परिष्कृत आदर्शवादिता अपनाएं रहकर इस प्रकार का चिन्तन रखा जा सकता है जिसके कारण अपने कर्तव्य पालन की प्रतिक्रिया आत्मसंतोष का सत्परिणाम प्रस्तुत करती रहे। साथी के अनुपयुक्त आचरण से निराशा होनी तो स्वाभाविक है, पर इतने पर भी एक पक्षीय कर्तव्य पालन टकराव की स्थिति से बचाए रह सकता है और अपने सद्व्यवहार का आनन्द अपनी प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि एवं प्रतिच्छाया से अपने को आशान्वित किये रह सकता है। ऐसी दशा में यह संभावना भी बनी रहती है कि रस्सी की रगड़ से पत्थर पर निशान बन जाये और कठोरता बरतने वाला पाषाण हृदय भी कालान्तर में कोमल बन जाये। ऐसे परिवर्तन और सुधार के असंख्य उदाहरण हम अपने इर्द-गिर्द ढूंढ़ सकते हैं। इसके विपरीत उन उदाहरणों की कमी नहीं जिनमें कटुता कर्कशता, आक्षेप, अपमान, अविश्वास जैसे विषाक्त तत्व मिलते जाने पर मन फट गये और कभी एकता की स्थिति उलट कर उपेक्षा और विद्वेष में परिणत हो गई।
जब तक दूसरे की सहायता से, कृपा-अनुकम्पा से मनोरथ सिद्ध करने की बात मन में रहेगी तब तक परावलम्बन की स्थिति बनी रहेगी और पराधीन परमुखापेक्षी जिस तरह आशा निराशा के झूले में झूलते रहते हैं वैसी ही दुर्दशा अपनी भी होती रहेगी। अनुकूलता दिखाई गई तो सन्तोष, प्रतिकूलता बरती गई तो रोष क्रंदन। भला यह भी कोई बात रही। स्वावलम्बन से कम में किसी को चैन नहीं। स्वाधीनता बिना किसी की गति नहीं।
विवाह चाहे सोद्देश्य ही अथवा लोक प्रवाह का गठबन्धन। दोनों ही दशा में दोनों पक्षों को अपना उत्तर दायित्व निभाने और विवाह सुख की पूरी-पूरी कीमत चुकाने की तैयारी करनी चाहिए। इसमें जितनी कमी रहेगी, उतनी ही इस प्रयोग में असफलता हाथ लगेगी और सुख की आशा को जंजाल जैसी निराशा में परिणत होने की संभावना रहेगी।
सच तो यह है कि विवाह तो उन्हें ही करना चाहिए जिनमें इस स्तर का आत्मविश्वास विकसित हो गया हो कि जैसे भी साथी से पाला पड़ेगा, उसे गला धुला कर अपने ढांचे में ढाल लिया जायेगा। इस प्रयास में कठोरता और अहंकार की नीति सफल नहीं होती। उदारता विश्वास और आत्मीयता की सघन संवेदनाएं ही पत्थर को पानी बना देने में सफल होती है।
वस्तुतः विवाह आसमान से बरसने वाली सुविधा का वरदान नहीं, कठोर कर्तव्य का निर्वाह है। उसमें पाने की आशा कम और देने की तैयारी अधिक करके ही चलना चाहिए। सुख-दुःख में समान रूप से भागीदार बनने वाला—एक घनिष्ठ साथी प्राप्त करने के लिए ही दो आत्माएं विवाह बन्धन में बंधती हैं। सन्तानोत्पादन उसके बाद का गौण उद्देश्य है। सन्तानोत्पादन या वंशवृद्धि ही विवाह का प्रयोजन होता तो उसके लिए नर नारी को एक साथ रहना कदापि आवश्यक नहीं होता। मनुष्येत्तर प्राणी जिस प्रकार प्रजनन करते हैं और काम सेवन के बाद एक-दूसरे से अलग स्वच्छन्द सर्वत्र स्वतन्त्र हो जाते हैं, उसी प्रकार नर नारी भी काम सेवन के बाद स्वतन्त्र स्वच्छन्द रह सकते थे। परन्तु ऐसा नहीं होता। इसका कारण यही है कि नर को एक घनिष्ठ आत्मीय सहयोगी चाहिए जो नारी के रूप में उसके व्यक्तित्व का पूरक भी बनता हो और नारी को भी अपने व्यक्तित्व का पूरक चाहिए जो उसे प्रेम, संरक्षण और स्नेह, सहयोग प्रदान कर सके।
किन्तु कितने दम्पत्ति हैं, जो एक दूसरे की यह अपेक्षा पूरी कर पाते हैं? एक दूसरे के लिए प्रेम, त्याग, बलिदान का व्रत लेने के बाद भी क्यों अधिकांश दंपत्ति एक दूसरे से असन्तुष्ट रहते हैं? इसमें किसी एक पक्ष का दोष नहीं है। दोनों ही पक्ष एक दूसरे से अनावश्यक अपेक्षाएं करने लगते हैं और वे अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो खिन्न, असन्तुष्ट, क्षुब्ध एवं शिकायती स्वभाव के बन जाते हैं।
उदाहरण के लिए बहुत-सी पत्नियां समझने लगती हैं विवाह के बाद उनका सारा उत्तरदायित्व पति ने सम्हाल लिया। विवाह के बाद उनका एक ही काम है साज-श्रृंगार से रहना खूब ठाटबाट बनाना और मौज-मजे उड़ाना। पति कमा कर लाये और उसकी सुख-सुविधा के लिए पर्याप्त साधन जुटाये। यह दृष्टिकोण अपनाने वाली स्त्रियां अपने पति के लिए साथी-सहचर होने के स्थान पर उन पर एक दुर्वह भार ही सिद्ध होती हैं। किसी विद्वान ने इसी तथ्य को इंगित करते हुए लिखा है कि ‘‘युवतियां प्रायः विवाह के समय अपने पति का हाथ पकड़ती हैं तो उसका प्रकट उद्देश्य यह होता है कि वे एक दूसरे के साथी-सहचर बनकर जीवन निभायेंगे। हाथ पकड़ने की यह रस्म आजीवन मैत्री की प्रतिज्ञा के तौर पर सम्पन्न की जाती है। परन्तु होता यह है कि विवाह के बाद स्त्रियां अपने पति के कन्धों पर चढ़ जाती हैं और उन पर बोझ बन जाती हैं।’’ सभी स्त्रियों के सम्बन्ध में नहीं तो अधिकांश स्त्रियों के सम्बन्ध में यह सर्वथा-सत्य है। रोज नई मांगें करना, रोज नई फरमाइशें रखना, रोज नये साधन-सुविधाओं के लिए जिद करना, बोझ बनना नहीं तो और क्या है?
इसका मतलब यह नहीं है कि पत्नियां ही पूरी तरह दोषी हैं। इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहन कौन देता है? कौन उचित अनुचित मांगों और प्रस्तावों को मानकर, पूरा कर, नई-नई मांगें करने का द्वारा खोलता है? निश्चित ही छूट पति की ओर से प्राप्त होती है? पति की ओर से यह छूट क्यों होती है? इसका एक कारण तो यह है कि पुरुष स्त्री को अपना साथी-सहचर समझने की अपेक्षा उसे खिलौना और मनोरंजन का साधन ज्यादा समझता है। स्पष्ट ही इसके पीछे अमर्यादित काम सेवन की प्रवृत्ति है। पति अपनी काम वासना को तृप्त रखने और पत्नी को नित नूतन रूप में आकर्षक देखने के लिए उसकी साज-श्रृंगार जैसी मांगों को मानता चलता है और पत्नी जाने-अनजाने ही पति की इस कमजोरी का लाभ उठाने लगती है या उसका दोहन करने की दिशा में प्रवृत्त हो जाती है।
दूसरे, कई लोग यह सोचते हैं कि मिलने-जुलने वालों में, जाति-बिरादरी में, सभा-सोसाइटियों में, मित्र परिचितों में परिवारों में उसकी पत्नी जितनी ही ज्यादा बनठन कर जाएगी उतनी ही उनकी सम्पन्नता की धाक जमेगी। इस दृष्टिकोण के लोग स्वयं फटेहाली में रहकर भी पत्नी को एक शो पीस या सजीली संवारी गुड़िया की तरह रखने को ज्यादा महत्व देते हैं और उसे आर्थिक दृष्टि से अपने लिए एक बोझा बना लेते हैं। सभ्य कहे जाने वाले तथाकथित ऊंची सोसायटी के लोगों की बात जाने दें, गांव-गंवाई के लोग भी स्त्रियों को बनठन कर रहने की बात को इतना महत्व देते हैं कि देहातों में एक हाथी पालने और घर में एक औरत रखने का खर्च बराबर है की कहावत आम प्रचलित है।
पुरुषों द्वारा स्त्रियों की इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने का जहां तक प्रश्न है, उसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन पुरुष या पति अपनी पत्नी से जो अपेक्षाएं करता है, वे भी सब की सब एकदम उचित नहीं कही जा सकतीं। कहा जा चुका है कि पति-पत्नी को ज्यादातर कामसेवन का एक उपकरण, एक खिलौना मात्र समझता है और इस समझ के कारण पत्नी के साथ अनाचार तथा अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ करता रहता है। पत्नी का स्वास्थ्य भी बिगड़ता है और अपना भी। फायदा किसी भी पक्ष को नहीं होता, दोनों ही घाटे में रहते हैं। कई बार तो अनाचार इस सीमा को भी पार कर जाता है कि पत्नी बेचारी तंग आ जाती है। समाज और कानून की दृष्टि में यह कामाचरण भले ही निन्दनीय हो पर मानवीय दृष्टिकोण से इसे दुराचार की ही संज्ञा दी जायेगी। इस तरह के दुराचरण से तंग आकर पत्नियां प्रायः जर्जर स्वास्थ वाली हो जाती हैं। उनका स्वभाव चिड़चिड़ा और शरीर थका, मन बुझा बुझा-सा रहने लगता है। वे अपनी सम्वेदनाओं को व्यक्त भले ही न करें, पर समझने यही लगती हैं पति के लिए वह मात्र खिलौना हैं। जिससे जब चाहा खेल लिया। पति पत्नी के इस स्तर के सम्बन्धों पर व्यंग करते हुए किसी लेखक ने अपनी पत्नी को सामाजिक मान्यता प्राप्त एक ही व्यक्ति के लिए सुरक्षित वेश्या तक कह डाला है।
विचार किया जाना चाहिए कि जीवन साथी का चुनाव क्या इसलिए किया जाता है कि एक को सवार होने, चढ़ने और बैठने के लिए कोई कन्धा मिल जाए और दूसरे को खेलने मनोरंजन करने के लिए कोई खिलौना? कोई भी विचारशील व्यक्ति इसका उत्तर ‘हां’ में नहीं दे सकता। इन बातों को, जिनका दाम्पत्य सम्बन्धों में सुई की नोंक के हजारवें हिस्से के बराबर महत्व है, सब कुछ मान लेना और सर्व प्रधान महत्व देना हर दृष्टि से अनुचित ही है। अब तक यह दृष्टि बनी रहेगी तब तक पत्नी पति के लिए भार बनी रहेगी और पति पत्नी के लिए दुश्मन की तरह व्यवहार करने वाला दम्भी मित्र।
स्थिति को बदला जाना चाहिए और दाम्पत्य जीवन के सम्बन्ध में प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण साफ रहना चाहिए कि इन सम्बन्धों की सार्थकता न आर्थिक संरक्षण में है न कामुक खिलवाड़ में। अपितु इसकी सार्थकता निश्छल प्रेम, सेवा, सहयोग, सहानुभूति, त्याग, बलिदान और सहिष्णुता जैसे आदर्शों को अपनाने, उनका अभ्यास और व्यक्तित्व में विकास करने में है। पति या पत्नी के रूप में हमें अपना आत्मिक विकास करने और जीवन यात्रा को सहज सरल ढंग से पूरी करने के लिए एक साथी मिला है, इस मान्यता को आस्था के रूप में स्थापित कर लिया जाए तो कोई कारण नहीं है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष के लिए बोझ बने या भार सिद्ध हो।
गृहस्थ जीवन को एक योगाभ्यास की तरह व्यतीत करने और दाम्पत्य संबंधों का उपयोग अपना आत्मिक विकास करने के लिए किसी ने यह स्वर्णिम सूत्र बताया है कि, ‘अपने साथी का स्वभाव और रुचि समझो, उसे उचित ढंग से सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न करो और उसी के अनुरूप व्यवहार अपनाओ।’ जब दोनों पक्ष एक दूसरे के अनुरूप व्यवहार करने, एक दूसरे को संतुष्ट रखने, एक दूसरे का ध्यान रखने और एक दूसरे को महत्व देने की नीति अपनायेंगे तो स्वाभाविक ही दोनों में एक सामंजस्य उत्पन्न होगा।
एक दूसरे को सन्तुष्ट रखने के सम्बन्ध में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों का स्वभाव पूरी तरह मेल नहीं खाता। पति पत्नी की रुचि और प्रकृति भी भिन्न-भिन्न हो सकती है। हो सकता है कि अधिकांश मामलों में दोनों की पसन्द एक हो, पर सभी मामलों में ऐसा होगा यह नहीं कहा जा सकता। कौन-सा पक्ष, कब, किसकी बात को महत्व दे? इस विषय में कोई नियम या आचार संहिता नहीं बनाई जा सकती लेकिन यह सच है कि रुचि और पद्धति की इस भिन्नता के कारण ही अधिकांश विग्रह खड़े होते हैं। इस सम्बन्ध में दोनों पक्ष एक दूसरे के प्रति समझपूर्ण रवैया अपनाएं तो सरलता से सामंजस्य स्थापित हो सकता है। दूसरे की रुचि में अपनी सहमति व्यक्त करना तो उचित है पर अपनी रुचि में दूसरे को दबाना गलत है। कहीं कोई अनुचित अवांछनीय दिखाई दे तो बात दूसरी है, अन्यथा दूसरे को अपने अनुकूल बनाने की बात ही अधिक श्लाघनीय और सुखद परिणाम प्रस्तुत करने वाली सिद्ध होती है।
यह स्थिति अभ्यास से ही प्राप्त होती है और अभ्यास के दौरान रुचि वैचित्र्य या मतभेदों के कारण कई बार पति पत्नी में झगड़े भी हो जाते हैं। हालांकि यह कोई अनहोनी दुर्घटना नहीं है, परन्तु अहं जब इतना उन्मत्त हो उठता है कि आपसी विग्रह औरों से चर्चा का विषय बन जाये तो अनर्थ ही पैदा होता है। घर में तो झगड़े होने के कुछ देर बाद शांत भी हो जाते हैं, सुलभ समझौता हो जाता है। इसकी चर्चा यदि बाहर फैल गई तो औरों को हंसने का मौका मिल जाता है और विग्रह शांत हो जाने के बाद भी लोगों में उपहास, निन्दा आदि का क्रम चलता रहता है।
इस स्थिति में यह भी होता है कि झगड़ा शांत होने के बाद, यदि उसकी चर्चा किसी ने अन्यत्र में चला दी और दूसरे पक्ष को उसका पता चल गया तो वह शांत हुआ विग्रह पुनः उठ खड़ा होता है। फिर आपसी सुलह समझौते की स्थिति नहीं रह जाती, बल्कि दोनों के लिए एक चुनौती बन जाती है। अतएव उस चुनौती पूर्ण स्थिति को उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहिये और आपसी मतभेदों को आपस में हो सुलह समझ लेना चाहिए।
आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करें। जब तक घर के किसी आवश्यक कार्य में कोई बाधा न पड़ती हो या इस स्वतन्त्रता के कारण कोई विशेष असुविधा उत्पन्न न होती हो तो तब तक एक दूसरे की स्वतन्त्रता में कोई दखल न दिया जाये। उदाहरण के लिए किसी एक पक्ष को खाली समय पढ़ने लिखने में बिताने की इच्छा है और दूसरे पक्ष को गाने-बजाने में तो न तो पढ़ने-लिखने वाले के गाने-बजाने वाले को रोकना चाहिए और नहीं गाने बजाने वाले को पढ़ने-लिखने वाले को अपना संगीत सुनने के लिए बाध्य करना चाहिए, स्वेच्छा से कोई किसी का साथ सहयोग देने लगे तो बात दूसरी है अन्यथा दबाव देकर, आग्रह का संकोच उत्पन्न कर किसी को भी बाध्य नहीं करना चाहिये।
स्मरण रखा जाना चाहिए कि अपने को दूसरे की रुचि के अनुकूल बनाना जहां सामंजस्य पैदा करता और हार्दिकता बढ़ाता है वही दूसरे को अपनी रुचि के अनुसार बांधना या उसकी रुचि से विमुख करना बुरी प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। इससे अरुचि और घृणा ही जन्मती है, प्रेम और सामंजस्य नहीं। सामंजस्य का एक दूसरा आधार एक दूसरे से सन्तुष्ट रहना भी है। दुनिया में एक से एक बढ़कर स्त्रियां हैं। कई बार कल्पना उठती हैं कि इस व्यक्ति से विवाह न होता और अमुक स्त्री या अमुक पुरुष जीवन साथी बनता तो कितना अच्छा रहता? संभव है आज जो अपना जीवन साथी है, उसके स्थान पर जिसके जीवन साथी होने की कामना की जा रही है, वह कामना साकार हो जाती तो दाम्पत्य जीवन अपेक्षाकृत अधिक सूखकर हो सकता था।
परन्तु ऐसा नहीं हुआ, यह सोचकर असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं है और हो जाता यह सोचकर रीझने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। इस तरह की कल्पना मन को तो खिन्न बनाती है, कदाचित इस तरह के मनोभावों को व्यक्त कर दिया गया तो वर्तमान में जो सुखद सम्भावनायें हैं उन्हें भी नष्ट करके रख देती हैं। अपने साथी से सन्तुष्ट रहना और उसे सन्तुष्ट रखने के लिए यथासम्भव प्रयत्न करना, वर्तमान स्थिति को उससे भी बेहतर बनाने का उपाय है, जिसकी केवल कल्पना ही की जाती है।
इस प्रकार दाम्पत्य जीवन में सामंजस्य उत्पन्न करने के अनेकों उपाय हैं। उनका सूझबूझ के साथ उपयोग करना चाहिये और किसी भी पक्ष को यह अनुभव करने का मौका नहीं देना चाहिये कि हम गृहस्थी का बोझ ढो रहे हैं। दूसरे शब्दों में पति पत्नी को सच्चे मित्र, अभिन्न सहयोगी सहचर और एक मन-एक प्राण बनकर जीवन को सही ढंग से जीना सीखना चाहिए। इस तपोवन में रहकर ही यह योगाभ्यास किया जा सकता है।