
बृहत् परिवार पनपें—पारस्परिक सौहार्द्र बढ़े!
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देश काल की आवश्यकता के अनुरूप मनुष्य के चिन्तन में समय-समय पर परिवर्तन आता रहा है। विचारकों एवं चिन्तकों ने युग की मांग को देखते हुए अनेकों प्रकार के विचार दिए हैं जो अपने समय में समाज के नव निर्माण एवं विकास में विशेष रूप से सहायक रहे हैं। अविकसित समाज के लिए कभी राजतन्त्र शासन व्यवस्था के लिए अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हो चुका है। पर अब उसकी उपयोगिता जाती रही जिन देशों में वह प्रणाली विद्यमान है, देर सवेर जागृत जन मानस उसे समाप्त कर ही देगा। डिक्टेटर शिप- राजतन्त्र का ही बदला हुआ रूप, कुछ समय बाद प्रकट हुआ। रूस, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में कुछ समय तक वह भी सफल रहा। युग की मांग ने क्रान्तियों को जन्म दिया और समाज ने उस निरंकुश शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंका, थोड़े समय के हेर-फेर से कितने ही देशों में क्रान्तियां हुईं। रूस तथा जर्मनी में शनैः शनैः डिक्टेटर शिप प्रणाली समाप्त हुई।
शासन प्रणाली में हेर फेर आगे भी चलता रहा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में समाजवादी विचार धारा की हवा चली और वह प्रचण्ड होती चली गयी। प्रजातन्त्र और साम्यवाद भी समाज व्यवस्था के रूप में उभरकर आये जिन्होंने विश्व के अधिकांश देशों को प्रभावित किया। पूंजीवाद भी समाजवाद की आड़ में सांस लेता रहा और आज भी किन्हीं किन्हीं देशों में अपना अस्तित्व किसी न किसी रूप में बनाये हुए है। पर कल नहीं तो परसों वह भी दुनिया से सिर पर पैर रखकर भागने वाला है। विश्व मानव यह अनुभव करने लगा है कि बढ़ती हुई जनसंख्या एवं इसकी मांगों की पूर्ति पूंजीवादी व्यवस्था के रहते समुचित ढंग से नहीं हो सकती। कुछ व्यक्ति अमीर बनते जांय और कुछ को एक समय की रोटी भी नसीब न हो, मानवता को अब यह मंजूर नहीं। जिन्होंने किसी तरह विपुल सम्पत्ति एकत्रित कर ली है और उसे दबाये हुए हैं देर सबेर उन्हें स्वेच्छा अथवा अनिच्छा से समाज को समर्पित करना होगा। जाग्रत विश्व मानस अगले दिनों जबरन उन्हें यह कदम उठाने को बाध्य करेगा।
युग की आवश्यकता के अनुरूप दो प्रणालियां अधिक लोकप्रिय हो रही हैं लोकतन्त्र और साम्यवाद। दोनों के मौलिक सिद्धान्तों में थोड़ा अन्त है अन्यथा लक्ष्य एक ही है समाजवादी व्यवस्था कायम करना। दोनों में से उपयोगी कौन है यह विवादास्पद विषय है। सम्बद्ध विषय का विश्लेषण करना यहां अपना लक्ष्य नहीं है। वादों की चर्चा इसलिए करनी पड़ी ताकि उनमें समाहित समाज निर्माण के कुछ उपयोगी सिद्धान्तों की व्याख्या की जा सके जो समस्त मानव जाति के लिए उपयोगी हैं। उदाहरणार्थ कम्युनिज्म की कम्यून प्रणाली सिद्धांततः एक ऐसी सुन्दर व्यवस्था है जो समाज के पुनर्गठन में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है।
तीन देशों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिन्होंने कौटुम्बिक समाज व्यवस्था को साकार रूप प्रायोगिक रूप में देना आरम्भिक कर दिया है। इजराइल, क्यूबा और चीन- इन देशों में संयुक्त जीवन के छुट-पुट प्रयोग चल पड़े हैं। इजराइल एक छोटा सा देश है जिसकी आबादी मात्र डेढ़ करोड़ है इस ने इस दिशा में प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किया है। संयुक्त कौटुम्बिक प्रणाली के आधार पर जीवन यापन कर रहे समुदाय को इजराइल में क्युत्सा या दगेनिया कहते हैं। इसका प्रथम प्रयोग फिलिस्तीन में 1910 में आरम्भ किया गया। संयुक्त रूप से कृषि फार्मों में काम करने तथा उत्पादन का आवश्यकतानुसार उपयोग करने का यह अभिनव प्रयास छोटे स्तर पर सीमित व्यक्तियों को लेकर किया गया पर वह अत्यन्त सफल रहा। यह आरम्भिक प्रयास इसराइल वासियों के लिए प्रेरक बना। उन्होंने सोचा कि एकाकी रहने और सम्पदा का अकेले उपभोग करने की नीति भले ही तात्कालिक अच्छी लगे पर समाज के लिए वह अत्यन्त हानिकारक है। उपयोगी विचारधाराएं और व्यवस्थाएं दे सबेर वरेण्य होती हैं। यह सिद्धान्त अक्षरशः सही उतरते इजराइल में देखा गया। इजराइल, की राजनीति—अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां क्या हैं, कितनी उचित हैं, इस विवाद में पड़ना अपना उद्देश्य नहीं है। किसी भी राष्ट्र की आन्तरिक गृह व्यवस्था कैसी आदर्श होनी चाहिये, उसके नमूने के रूप में यहां यह चर्चा की जा रही है।
कम्यून व्यवस्था पर आधारित दर्गेनिया के प्रयोग से अन्यों को प्रेरणा मिली। अन्य स्थानों पर भी इस प्रकार के सामूहिक जीवन पद्धति के प्रयोग आरम्भ हो गये। एक आंकड़े के अनुसार सन 1960 तक ऐसे गांवों की संख्या पांच सौ तक जा पहुंची जहां कम्यून प्रणाली की जीवन पद्धति को लोगों ने सहर्ष स्वीकार किया। अनुमान है कि इजराइल के एक हजार गांव संयुक्त कौटुम्बिक प्रणाली की व्यवस्था द्वारा परिचालित हैं। लगभग पांच लाख व्यक्ति दर्गेनिया में संयुक्त रूप से रहते हैं। एशिया के पश्चिमी छोर पर प्रतिकूलताओं के बीच जूझते हुए इजराइल जैसे छोटे से राष्ट्र ने संयुक्त जीवन क्रम का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है वह अद्भुत है। संकीर्ण स्वार्थ परता से विरत होकर एक बृहत्तर परिवार को अंगीकार करने का यह प्रयास अपने में बेमिसाल है। दर्गेनिया, ने अनेकों प्रकार की समस्याओं का एक व्यावहारिक हल प्रस्तुत किया है।
इजराइल की अपनी एक अनोखी संस्कृति है। यहूदी एक सदी पूर्व तक सारी दुनिया में बिखरे हुए थे। हर देश में उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी हालत में यहूदियों को संगठित करने के लिए ‘जीयोनिस्ट’ नामक संगठन खड़ा हुआ जिसका लक्ष्य था समस्त यहूदी जाति को एकत्रित करना तथा फिलिस्तीन राष्ट्र में बसाना। अभियान का प्रतिफल यह निकला कि फिलिस्तीन में संसार के कोने-कोने से यहूदी युवक युवतियां एकत्रित होने लगे। आर्थिक विपन्नता अवरोध बनकर सामने आयी। पर श्रमनिष्ठ राष्ट्र का निर्माण उनका प्रमुख लक्ष्य था। युवा वर्ग ने कम्यून- सह जीवन की प्रणाली को सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास के लिए-श्रेयष्कर माना। हिलमिल कर रहने, काम करने और अपनी रोटी मिल बांट कर खाने की उन्होंने सद्भाव भरी नीति अपनायी। इस तरह आवश्यकता आविष्कार की जननी बनी और सामुदायिक सह जीवन की नींव पड़ी। यह प्रणाली कालान्तर में इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि स्थान-स्थान पर गांव-गांव में सहजीवन के प्रयोग चलने लगे समाज शास्त्रियों का मत है कि इजराइल को इस संगठित एवं मजबूत राष्ट्र के रूप में विकसित करने का सबसे अधिक श्रेय कौटुम्बिक सहजीवन प्रणाली को है।
चीन में भी किसानों के अलग-अलग कम्यून हैं। कार्य क्षेत्र दो भागों में बंटा हुआ है। प्रोडक्शन टीन अन्न उत्पादन का कार्य संयुक्त रूप से करती है। प्रोडक्शन ब्रिग्रेड उत्पादित माल को वितरित करती है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार चीन में कम्यून में सदस्यों की संख्या एक जैसी नहीं होती। कृषि के जिए उन्हें जो जमीन मिलती है उसकी मात्रा सदस्यों की संख्या के ऊपर निर्भर करती है। कम्यूनिस्ट सरकार होने के कारण चीन की कम्यून व्यवस्था उसके ही नियन्त्रण में है। कृषि के सामूहिक प्रयोग से चीन का उत्पादन कुछ दशकों में असामान्य गति से बढ़ा है। अन्न के क्षेत्र में आज चीन आत्मनिर्भर है। इसका प्रमुख श्रेय उस सहजीवन के प्रयोग को है। क्यूबा में भी इस तरह के कम्यून स्थान-स्थान पर बने हैं। उनके सदस्य एक साथ रहते साथ-साथ काम करते तथा उपार्जित सम्पदा को मिल बांट कर उपभोग करते हैं।
संयुक्त जीवन क्रम के लॉर्जर फैमिली के प्रयोग अपने यहां भी चल पड़ें तो इसके कितने ही लाभ हैं। छोटी-छोटी जोतो के कारण समय श्रम और सम्पदा का एक बड़ा भाग व्यर्थ चला जाता तथा उत्पादन भी गिरता है। सामूहिक खेती करने की परम्परा शुरू हो जाय तो इससे उत्पादन तो बढ़ेगा ही समय श्रम और धन की बचत होगी। बड़े परिवार अपने देश में कुछ दशकों पूर्व तक समस्त विश्व के लिए एक आदर्श थे। पर वे टूटते गये और अब उनका यत्किंचित् उदाहरण ही देखने को मिलता है। उनका पुनर्गठन नवीन परिस्थितियों में कर सकना सम्भव है, हर व्यक्ति अपनी रोटी स्वयं पकाये इसके स्थान पर सामूहिक व्यवस्था बन सके तो इससे हर व्यक्ति को लाभ पहुंचेगा। दूसरे देशों में अपने ढंग से सहजीवन के प्रयोग आरम्भ किये हैं। उनसे प्रेरणा लेकर देश को परिस्थितियों के अनुरूप गैर सरकारी स्तर पर भी देहातों एवं शहरों दोनों ही स्थानों पर कृषि उद्योग ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी कम्यून प्रणाली के सृजनात्मक प्रयास आरम्भ किये जा सकते हैं।
इजरायल, क्यूबा व चीन के उदाहरण हमारे सामने हैं संयुक्त कुटुम्ब प्रथा तो भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। इस राष्ट्र में स्वर्ग युग के दिनों में नैतिक मूल्यों की पराकाष्ठा का मूल कारण था—वृहत परिवार। न कहीं कोई मुकदमा होता था—न ग्रह कलह। सभी कुछ निपटारा उस वृहत परिवार की परिधि में हो जाया करता था। आज भी इस देश में यह प्रथा जहां-जहां भी जीवित है, वहां सुख-समृद्धि के साथ शान्ति-उल्लास भरा स्वर्ग जैसा दृश्य देखा जा सकता है। वृहत परिवार मात्र अपने कौटुम्बिक सहजीवियों का ही हो यह अनिवार्य नहीं। वह तो एक समूह विशेष का भी हो सकता है, कार्य के आधार पर उस वर्ग विशेष का भी। सहकारी प्रयोगों से लाभों की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। वस्तुतः सहकारी स्तर पर लॉर्जर फैमिली के स्वरूप को अपना कर ही हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के स्वप्न को साकार करने की बात विचार कर सकते हैं। यह कोई असंभव दुष्कर कार्य नहीं है। पहले राष्ट्र के स्तर पर, फिर महाद्वीप के तथा फिर विश्व के स्तर पर इस प्रकार के कम्यून्स बनाये जा सकते हैं जो विश्व परिवार के लघु संस्करण हों। वर्तमान राष्ट्रों की सीमाएं तो कृत्रिम हैं—मानव-निर्मित हैं। भावनाओं के स्तर पर इन सीमा बन्धनों को तोड़कर विश्व परिवार बसाने की बात सोची जाय और उसे क्रियान्वित करने के प्रयास विशाल स्तर पर चल पड़ें तो फिर विश्व शान्ति मात्र एक व्याख्यान या लेखन का विषय नहीं—वास्तविकता बन जायेगा। जब तीन राष्ट्र जो विश्व की लगभग एक चौथाई आबादी के बराबर है, ऐसा सोच व कर दिखा सकते हैं तो शेष के लिये यह कोई सम्भव कार्य नहीं। विचारशील व्यक्ति जुट पड़ें तो यू. एन. ओ. शान्ति सम्मेलनों के प्रयास एक तरफ रखे रह जायेंगे और कम्यून व्याख्या एक ओर। यदि ऐसा हो सके तो सचमुच यह विश्व वसुधा के लिए एक सौभाग्य भरा वरदान होगा।
शासन प्रणाली में हेर फेर आगे भी चलता रहा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में समाजवादी विचार धारा की हवा चली और वह प्रचण्ड होती चली गयी। प्रजातन्त्र और साम्यवाद भी समाज व्यवस्था के रूप में उभरकर आये जिन्होंने विश्व के अधिकांश देशों को प्रभावित किया। पूंजीवाद भी समाजवाद की आड़ में सांस लेता रहा और आज भी किन्हीं किन्हीं देशों में अपना अस्तित्व किसी न किसी रूप में बनाये हुए है। पर कल नहीं तो परसों वह भी दुनिया से सिर पर पैर रखकर भागने वाला है। विश्व मानव यह अनुभव करने लगा है कि बढ़ती हुई जनसंख्या एवं इसकी मांगों की पूर्ति पूंजीवादी व्यवस्था के रहते समुचित ढंग से नहीं हो सकती। कुछ व्यक्ति अमीर बनते जांय और कुछ को एक समय की रोटी भी नसीब न हो, मानवता को अब यह मंजूर नहीं। जिन्होंने किसी तरह विपुल सम्पत्ति एकत्रित कर ली है और उसे दबाये हुए हैं देर सबेर उन्हें स्वेच्छा अथवा अनिच्छा से समाज को समर्पित करना होगा। जाग्रत विश्व मानस अगले दिनों जबरन उन्हें यह कदम उठाने को बाध्य करेगा।
युग की आवश्यकता के अनुरूप दो प्रणालियां अधिक लोकप्रिय हो रही हैं लोकतन्त्र और साम्यवाद। दोनों के मौलिक सिद्धान्तों में थोड़ा अन्त है अन्यथा लक्ष्य एक ही है समाजवादी व्यवस्था कायम करना। दोनों में से उपयोगी कौन है यह विवादास्पद विषय है। सम्बद्ध विषय का विश्लेषण करना यहां अपना लक्ष्य नहीं है। वादों की चर्चा इसलिए करनी पड़ी ताकि उनमें समाहित समाज निर्माण के कुछ उपयोगी सिद्धान्तों की व्याख्या की जा सके जो समस्त मानव जाति के लिए उपयोगी हैं। उदाहरणार्थ कम्युनिज्म की कम्यून प्रणाली सिद्धांततः एक ऐसी सुन्दर व्यवस्था है जो समाज के पुनर्गठन में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है।
तीन देशों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिन्होंने कौटुम्बिक समाज व्यवस्था को साकार रूप प्रायोगिक रूप में देना आरम्भिक कर दिया है। इजराइल, क्यूबा और चीन- इन देशों में संयुक्त जीवन के छुट-पुट प्रयोग चल पड़े हैं। इजराइल एक छोटा सा देश है जिसकी आबादी मात्र डेढ़ करोड़ है इस ने इस दिशा में प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किया है। संयुक्त कौटुम्बिक प्रणाली के आधार पर जीवन यापन कर रहे समुदाय को इजराइल में क्युत्सा या दगेनिया कहते हैं। इसका प्रथम प्रयोग फिलिस्तीन में 1910 में आरम्भ किया गया। संयुक्त रूप से कृषि फार्मों में काम करने तथा उत्पादन का आवश्यकतानुसार उपयोग करने का यह अभिनव प्रयास छोटे स्तर पर सीमित व्यक्तियों को लेकर किया गया पर वह अत्यन्त सफल रहा। यह आरम्भिक प्रयास इसराइल वासियों के लिए प्रेरक बना। उन्होंने सोचा कि एकाकी रहने और सम्पदा का अकेले उपभोग करने की नीति भले ही तात्कालिक अच्छी लगे पर समाज के लिए वह अत्यन्त हानिकारक है। उपयोगी विचारधाराएं और व्यवस्थाएं दे सबेर वरेण्य होती हैं। यह सिद्धान्त अक्षरशः सही उतरते इजराइल में देखा गया। इजराइल, की राजनीति—अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां क्या हैं, कितनी उचित हैं, इस विवाद में पड़ना अपना उद्देश्य नहीं है। किसी भी राष्ट्र की आन्तरिक गृह व्यवस्था कैसी आदर्श होनी चाहिये, उसके नमूने के रूप में यहां यह चर्चा की जा रही है।
कम्यून व्यवस्था पर आधारित दर्गेनिया के प्रयोग से अन्यों को प्रेरणा मिली। अन्य स्थानों पर भी इस प्रकार के सामूहिक जीवन पद्धति के प्रयोग आरम्भ हो गये। एक आंकड़े के अनुसार सन 1960 तक ऐसे गांवों की संख्या पांच सौ तक जा पहुंची जहां कम्यून प्रणाली की जीवन पद्धति को लोगों ने सहर्ष स्वीकार किया। अनुमान है कि इजराइल के एक हजार गांव संयुक्त कौटुम्बिक प्रणाली की व्यवस्था द्वारा परिचालित हैं। लगभग पांच लाख व्यक्ति दर्गेनिया में संयुक्त रूप से रहते हैं। एशिया के पश्चिमी छोर पर प्रतिकूलताओं के बीच जूझते हुए इजराइल जैसे छोटे से राष्ट्र ने संयुक्त जीवन क्रम का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है वह अद्भुत है। संकीर्ण स्वार्थ परता से विरत होकर एक बृहत्तर परिवार को अंगीकार करने का यह प्रयास अपने में बेमिसाल है। दर्गेनिया, ने अनेकों प्रकार की समस्याओं का एक व्यावहारिक हल प्रस्तुत किया है।
इजराइल की अपनी एक अनोखी संस्कृति है। यहूदी एक सदी पूर्व तक सारी दुनिया में बिखरे हुए थे। हर देश में उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी हालत में यहूदियों को संगठित करने के लिए ‘जीयोनिस्ट’ नामक संगठन खड़ा हुआ जिसका लक्ष्य था समस्त यहूदी जाति को एकत्रित करना तथा फिलिस्तीन राष्ट्र में बसाना। अभियान का प्रतिफल यह निकला कि फिलिस्तीन में संसार के कोने-कोने से यहूदी युवक युवतियां एकत्रित होने लगे। आर्थिक विपन्नता अवरोध बनकर सामने आयी। पर श्रमनिष्ठ राष्ट्र का निर्माण उनका प्रमुख लक्ष्य था। युवा वर्ग ने कम्यून- सह जीवन की प्रणाली को सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास के लिए-श्रेयष्कर माना। हिलमिल कर रहने, काम करने और अपनी रोटी मिल बांट कर खाने की उन्होंने सद्भाव भरी नीति अपनायी। इस तरह आवश्यकता आविष्कार की जननी बनी और सामुदायिक सह जीवन की नींव पड़ी। यह प्रणाली कालान्तर में इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि स्थान-स्थान पर गांव-गांव में सहजीवन के प्रयोग चलने लगे समाज शास्त्रियों का मत है कि इजराइल को इस संगठित एवं मजबूत राष्ट्र के रूप में विकसित करने का सबसे अधिक श्रेय कौटुम्बिक सहजीवन प्रणाली को है।
चीन में भी किसानों के अलग-अलग कम्यून हैं। कार्य क्षेत्र दो भागों में बंटा हुआ है। प्रोडक्शन टीन अन्न उत्पादन का कार्य संयुक्त रूप से करती है। प्रोडक्शन ब्रिग्रेड उत्पादित माल को वितरित करती है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार चीन में कम्यून में सदस्यों की संख्या एक जैसी नहीं होती। कृषि के जिए उन्हें जो जमीन मिलती है उसकी मात्रा सदस्यों की संख्या के ऊपर निर्भर करती है। कम्यूनिस्ट सरकार होने के कारण चीन की कम्यून व्यवस्था उसके ही नियन्त्रण में है। कृषि के सामूहिक प्रयोग से चीन का उत्पादन कुछ दशकों में असामान्य गति से बढ़ा है। अन्न के क्षेत्र में आज चीन आत्मनिर्भर है। इसका प्रमुख श्रेय उस सहजीवन के प्रयोग को है। क्यूबा में भी इस तरह के कम्यून स्थान-स्थान पर बने हैं। उनके सदस्य एक साथ रहते साथ-साथ काम करते तथा उपार्जित सम्पदा को मिल बांट कर उपभोग करते हैं।
संयुक्त जीवन क्रम के लॉर्जर फैमिली के प्रयोग अपने यहां भी चल पड़ें तो इसके कितने ही लाभ हैं। छोटी-छोटी जोतो के कारण समय श्रम और सम्पदा का एक बड़ा भाग व्यर्थ चला जाता तथा उत्पादन भी गिरता है। सामूहिक खेती करने की परम्परा शुरू हो जाय तो इससे उत्पादन तो बढ़ेगा ही समय श्रम और धन की बचत होगी। बड़े परिवार अपने देश में कुछ दशकों पूर्व तक समस्त विश्व के लिए एक आदर्श थे। पर वे टूटते गये और अब उनका यत्किंचित् उदाहरण ही देखने को मिलता है। उनका पुनर्गठन नवीन परिस्थितियों में कर सकना सम्भव है, हर व्यक्ति अपनी रोटी स्वयं पकाये इसके स्थान पर सामूहिक व्यवस्था बन सके तो इससे हर व्यक्ति को लाभ पहुंचेगा। दूसरे देशों में अपने ढंग से सहजीवन के प्रयोग आरम्भ किये हैं। उनसे प्रेरणा लेकर देश को परिस्थितियों के अनुरूप गैर सरकारी स्तर पर भी देहातों एवं शहरों दोनों ही स्थानों पर कृषि उद्योग ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी कम्यून प्रणाली के सृजनात्मक प्रयास आरम्भ किये जा सकते हैं।
इजरायल, क्यूबा व चीन के उदाहरण हमारे सामने हैं संयुक्त कुटुम्ब प्रथा तो भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। इस राष्ट्र में स्वर्ग युग के दिनों में नैतिक मूल्यों की पराकाष्ठा का मूल कारण था—वृहत परिवार। न कहीं कोई मुकदमा होता था—न ग्रह कलह। सभी कुछ निपटारा उस वृहत परिवार की परिधि में हो जाया करता था। आज भी इस देश में यह प्रथा जहां-जहां भी जीवित है, वहां सुख-समृद्धि के साथ शान्ति-उल्लास भरा स्वर्ग जैसा दृश्य देखा जा सकता है। वृहत परिवार मात्र अपने कौटुम्बिक सहजीवियों का ही हो यह अनिवार्य नहीं। वह तो एक समूह विशेष का भी हो सकता है, कार्य के आधार पर उस वर्ग विशेष का भी। सहकारी प्रयोगों से लाभों की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। वस्तुतः सहकारी स्तर पर लॉर्जर फैमिली के स्वरूप को अपना कर ही हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के स्वप्न को साकार करने की बात विचार कर सकते हैं। यह कोई असंभव दुष्कर कार्य नहीं है। पहले राष्ट्र के स्तर पर, फिर महाद्वीप के तथा फिर विश्व के स्तर पर इस प्रकार के कम्यून्स बनाये जा सकते हैं जो विश्व परिवार के लघु संस्करण हों। वर्तमान राष्ट्रों की सीमाएं तो कृत्रिम हैं—मानव-निर्मित हैं। भावनाओं के स्तर पर इन सीमा बन्धनों को तोड़कर विश्व परिवार बसाने की बात सोची जाय और उसे क्रियान्वित करने के प्रयास विशाल स्तर पर चल पड़ें तो फिर विश्व शान्ति मात्र एक व्याख्यान या लेखन का विषय नहीं—वास्तविकता बन जायेगा। जब तीन राष्ट्र जो विश्व की लगभग एक चौथाई आबादी के बराबर है, ऐसा सोच व कर दिखा सकते हैं तो शेष के लिये यह कोई सम्भव कार्य नहीं। विचारशील व्यक्ति जुट पड़ें तो यू. एन. ओ. शान्ति सम्मेलनों के प्रयास एक तरफ रखे रह जायेंगे और कम्यून व्याख्या एक ओर। यदि ऐसा हो सके तो सचमुच यह विश्व वसुधा के लिए एक सौभाग्य भरा वरदान होगा।