
प्रसन्नता का वास्तविक स्वरूप
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इस स्थिति को देखते हुए तो यही समझ आता है कि या तो मनुष्य प्रसन्नता के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचानता अथवा वह अपनी वाँछित वस्तु को पाने के लिए जिस दिशा में प्रयत्न करता है वह ही गलत है। इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।
लोगों में अधिकतर एक सामान्य धारणा यह रहा करती है कि यदि उनके पास अधिक पैसा हो, साधन- सुविधाएँ हों तो वे प्रसन्न रह सकते हैं। ऐसी धारणाओं वाले लोग सदैव साधन सुविधाओं के लिए रोते- रिरियाते रहने के बजाय एक बाद दृष्टि उठाकर उन लोगों की ओर क्यों नहीं देखते कि प्रचुरता से परिपूर्ण होने पर भी क्या वे सुखी हैं, प्रसन्न और सन्तुष्ट हैं? यदि धन- दौलत तथा साधन सुविधाएँ ही प्रसन्नता की हेतु होतीं तो संसार का हर धनवान अधिक से अधिक सुखी और सन्तुष्ट होता किन्तु ऐसा कहाँ है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि वैभव और विभूति वास्तविक प्रसन्नता का कारण नहीं है। प्रसन्नता प्राप्ति का हेतु मानकर इन भौतिक विभूतियों के लिए रोते- मरते रहना बुद्धिमानी नहीं हैं।
बल, बुद्धि और विद्या को भी प्रसन्नता का हेतु मानने की एक सभ्य प्रथा है। किन्तु यह ऐश्वर्य भी वास्तविक प्रसन्नता का वाहन नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर शिक्षित प्रसन्न दिखाई देता और हर अशिक्षित अप्रसन्न। ऐसा भी देखने में नहीं आता। जिस प्रकार अनेक धनवान अप्रसन्न और निर्धन प्रसन्न देखे जा सकते हैं उसी प्रकार अनेक विद्वान क्षुब्ध तथा कम पढ़े- लिखे लोग प्रसन्न मिल सकते हैं। बड़े- बड़े बलवान आहें भरते और साधारण सामर्थ्य वाले व्यक्ति हँसी- खुशी से जीवन बिताते मिल सकते हैं।
इस प्रकार विचार करने से पता चलता है कि वास्तविक प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसको किसी शक्ति अथवा साधन के बल पर प्राप्त किया जा सके। साधनों की झोली फैलाकर प्रसन्नता की तलाश में दौड़ने वाले कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते, और वास्तविक बात तो यह है कि जो जितना अधिक प्रसन्नता के पीछे दौड़ते हैं वे उतने ही अधिक निराश होते हैं। उनका यह निरर्थक श्रम उस अबोध हरिण की तरह ही शोचनीय होता है जो पानी के भ्रम में मरु मरीचिका के पीछे दौड़ते हैं अथवा बालक की तरह कौतुकपूर्ण है जो आगे पड़ी हुई अपनी छाया को पकड़ने के लिए दौड़ता है। प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका पीछा करने की जरूरत है। वह तो अवसर आने पर स्वयं ही आकर मनो- मन्दिर में हँसने लगती है। उसके आने का एक अवसर तो यही होता है जब हम उसको पाने के लिए कम से कम लालायित, व्यग्र और चिन्तित होते हैं।
प्रसन्नता प्राप्ति का मुख्य रहस्य यह है कि मनुष्य अपने लिए सुख की कामना छोड़कर अपना जीवन दूसरों की प्रसन्नता में नियोजित करे। दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयत्न में जो कष्ट प्राप्त होता है वह भी प्रसन्नता ही देता है। छोटा- मोटा कष्ट तो दूर, देश भक्त तथा अनेकों परोपकारियों ने अपने प्राण देने पर भी अनिवर्चनीय प्रसन्नता प्राप्त की है। इतिहास ऐसे बलिदानियों से भरा पड़ा है कि जिस समय उनको मृत्युवेदी पर प्राण- हरण के लिये लाया गया उस समय उनके मुख पर जो आह्लाद, जो तेज, जो मुस्कान और जो प्रसन्नता देखी गई, वह काल के अनन्त पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई है।
एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन की किसी न किसी ऐसी घटना का स्मरण करके समझ सकता है कि जब उसने कोई परोपकार का काम किया तब उसके हृदय में प्रसन्नता की कितनी गहरी अनुभूति हुई थी। जिस दिन यह सोचने के बजाय कि आज हम अपने लिये अधिक से अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, यदि यह सोचकर दिन का काम प्रारम्भ किया जाए कि आज हम दूसरों के लिए अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, तो वह दिन आपके लिए बहुत अधिक प्रसन्नता का दिन होगा।
साधारण मनोरंजन, कार्यों तथा व्यवहारों में इस रहस्य को आये दिन देखा जा सकता है कि जो काम दूसरों को प्रसन्न करने वाले होते हैं अथवा जिन कामों से हम दूसरों को प्रसन्न कर पाते हैं वे ही काम हमें अधिक से अधिक प्रसन्न किया करते हैं। एक खिलाड़ी गेंद खेलता है और विपक्षी पर एक गोल कर देता है तो उसे अपनी सफलता पर प्रसन्नता होती है, किन्तु तभी जब उसके साथी भी प्रसन्न होते हैं। यदि किसी कारण से उसकी यह सफलता दर्शकों अथवा साथियों को प्रसन्न न कर पाये तो उसे स्वयं भी प्रसन्नता न होगी। एक शिल्पी भवन अथवा मंदिर बनाता है। यद्यपि वह उसका नहीं होता तथापि वह इसलिये प्रसन्न होता है कि उसका यह काम दूसरों को प्रसन्न कर सकता है। इसी प्रकार कोई चित्रकार, कलाकार अथवा कवि कोई रचना करता है तो उसे प्रसन्नता होती है, उसे अपनी कृति अच्छी लगती है। किन्तु उसकी प्रसन्नता में वास्तविकता तभी आती है जब दूसरे भी प्रसन्न होते हैं। संयोगवश यदि उसका सृजन अन्य किसी की प्रसन्नता का सम्पादन न कर सके तो अपनी होते हुए भी कला में कोई रुचि न रहेगी वह उसे बेकार समझेगा और उसकी प्रसन्नता जाती रहेगी।
वास्तविकता प्रसन्नता का मूल रहस्य दूसरों की प्रसन्नता में निहित हैं। जो परोपकारी व्यक्ति दूसरों के सुख के लिए जीते हैं उनके कार्य औरों की सेवा रूप होते हैं। वे अपने जीवन में साधन शून्य रहने पर भी प्रसन्न सन्तुष्ट एवं सुखी रहते हैं। जिसकी जीवन में वास्तविक प्रसन्नता की जिज्ञासा हो वह अपने जीवन को यज्ञमय बनाये, नित्य निरंतर दूसरों का हित साधन करे जिससे कि वह अपनी वांछित वस्तु प्रसन्नता को नित्य निरन्तर पाता रहे।
विचार का चरित्र से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जिसके विचार जिस स्तर के होंगे, उसका चरित्र भी उसी कोटि का होगा। जिसके विचार क्रोध प्रधान होंगे वह चरित्र से भी लड़ाकू और झगड़ालू होगा। जिसके विचार कामुक और स्त्रैण होंगे, उसका चरित्र वासनाओं और विषय- भोग की जीती जागती तस्वीर ही मिलेगा। विचारों के अनुरूप ही चरित्र का निर्माण होता है, यह प्रकृति का अटल नियम है। चरित्र मनुष्य की सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति है। उससे ही सम्मान, प्रतिष्ठा, विश्वास और श्रद्धा की प्राप्ति होती है। वही मानसिक और शारीरिक शक्ति का मूल आधार है। चरित्र की उच्चता ही उच्च जीवन का मार्ग निर्धारित करती है और उस पर चल सकने की क्षमता दिया करती है।
निम्नाचरण के व्यक्ति समाज में नीची दृष्टि से ही देखे जाते हैं। उनकी गतिविधि अधिकतर समाज विरोधी ही रहती है। अनुशासन और मर्यादा जो कि वैयक्तिक से लेकर राष्ट्रीय जीवन की दृढ़ता की आधार- शिला है, निम्नाचरण व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखती है। आचरणहीन व्यक्ति और एक साधारण पशु के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। जिसने अपनी यह बहुमूल्य सम्पत्ति खो दी उसने मानो सब कुछ खो दिया। सब कुछ पा लेने पर भी चरित्र का अभाव मनुष्य को आजीवन दरिद्री ही बनाये रखता है।
मनुष्यों से भरी इस दुनियाँ में अधिकांश संख्या ऐसों की ही है, जिन्हें एक तरह से अर्ध मनुष्य ही कहा जा सकता है। वे कुछ ही प्रवृत्तियों और कार्यों में पशुओं से भिन्न होते हैं, अन्यथा वे एक प्रकार से मानव- पशु ही होते हैं। इसके विपरीत कुछ मनुष्य बड़े ही सभ्य, शिष्ट और शालीन होते हैं। उनकी दुनियाँ सुन्दर और कलाप्रिय होती है। इसके आगे भी एक श्रेणी चली गई है, जिनको महापुरुष, ऋषि- मुनि और देवता कह सकते हैं। समान हाथ- पैर और मुँह, नाक, कान के होते हुए भी और एक ही वातावरण में रहते मनुष्यों में यह अन्तर क्यों दिखलाई देता है? इसका आधारभूत कारण विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य के विचार जिस अनुपात में जितने अधिक विकसित होते चले जाते हैं, उसका स्तर पशुता से श्रेष्ठता की ओर उठता चला जाता है। असुरत्व, पशुत्व, ऋषित्व अथवा देवत्व और कुछ नहीं, विचारों के ही स्तरों के नाम हैं। यह विचार- शक्ति ही है, जो मनुष्य को देवता अथवा राक्षस बना सकती है।
लोगों में अधिकतर एक सामान्य धारणा यह रहा करती है कि यदि उनके पास अधिक पैसा हो, साधन- सुविधाएँ हों तो वे प्रसन्न रह सकते हैं। ऐसी धारणाओं वाले लोग सदैव साधन सुविधाओं के लिए रोते- रिरियाते रहने के बजाय एक बाद दृष्टि उठाकर उन लोगों की ओर क्यों नहीं देखते कि प्रचुरता से परिपूर्ण होने पर भी क्या वे सुखी हैं, प्रसन्न और सन्तुष्ट हैं? यदि धन- दौलत तथा साधन सुविधाएँ ही प्रसन्नता की हेतु होतीं तो संसार का हर धनवान अधिक से अधिक सुखी और सन्तुष्ट होता किन्तु ऐसा कहाँ है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि वैभव और विभूति वास्तविक प्रसन्नता का कारण नहीं है। प्रसन्नता प्राप्ति का हेतु मानकर इन भौतिक विभूतियों के लिए रोते- मरते रहना बुद्धिमानी नहीं हैं।
बल, बुद्धि और विद्या को भी प्रसन्नता का हेतु मानने की एक सभ्य प्रथा है। किन्तु यह ऐश्वर्य भी वास्तविक प्रसन्नता का वाहन नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर शिक्षित प्रसन्न दिखाई देता और हर अशिक्षित अप्रसन्न। ऐसा भी देखने में नहीं आता। जिस प्रकार अनेक धनवान अप्रसन्न और निर्धन प्रसन्न देखे जा सकते हैं उसी प्रकार अनेक विद्वान क्षुब्ध तथा कम पढ़े- लिखे लोग प्रसन्न मिल सकते हैं। बड़े- बड़े बलवान आहें भरते और साधारण सामर्थ्य वाले व्यक्ति हँसी- खुशी से जीवन बिताते मिल सकते हैं।
इस प्रकार विचार करने से पता चलता है कि वास्तविक प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसको किसी शक्ति अथवा साधन के बल पर प्राप्त किया जा सके। साधनों की झोली फैलाकर प्रसन्नता की तलाश में दौड़ने वाले कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते, और वास्तविक बात तो यह है कि जो जितना अधिक प्रसन्नता के पीछे दौड़ते हैं वे उतने ही अधिक निराश होते हैं। उनका यह निरर्थक श्रम उस अबोध हरिण की तरह ही शोचनीय होता है जो पानी के भ्रम में मरु मरीचिका के पीछे दौड़ते हैं अथवा बालक की तरह कौतुकपूर्ण है जो आगे पड़ी हुई अपनी छाया को पकड़ने के लिए दौड़ता है। प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका पीछा करने की जरूरत है। वह तो अवसर आने पर स्वयं ही आकर मनो- मन्दिर में हँसने लगती है। उसके आने का एक अवसर तो यही होता है जब हम उसको पाने के लिए कम से कम लालायित, व्यग्र और चिन्तित होते हैं।
प्रसन्नता प्राप्ति का मुख्य रहस्य यह है कि मनुष्य अपने लिए सुख की कामना छोड़कर अपना जीवन दूसरों की प्रसन्नता में नियोजित करे। दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयत्न में जो कष्ट प्राप्त होता है वह भी प्रसन्नता ही देता है। छोटा- मोटा कष्ट तो दूर, देश भक्त तथा अनेकों परोपकारियों ने अपने प्राण देने पर भी अनिवर्चनीय प्रसन्नता प्राप्त की है। इतिहास ऐसे बलिदानियों से भरा पड़ा है कि जिस समय उनको मृत्युवेदी पर प्राण- हरण के लिये लाया गया उस समय उनके मुख पर जो आह्लाद, जो तेज, जो मुस्कान और जो प्रसन्नता देखी गई, वह काल के अनन्त पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई है।
एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन की किसी न किसी ऐसी घटना का स्मरण करके समझ सकता है कि जब उसने कोई परोपकार का काम किया तब उसके हृदय में प्रसन्नता की कितनी गहरी अनुभूति हुई थी। जिस दिन यह सोचने के बजाय कि आज हम अपने लिये अधिक से अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, यदि यह सोचकर दिन का काम प्रारम्भ किया जाए कि आज हम दूसरों के लिए अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, तो वह दिन आपके लिए बहुत अधिक प्रसन्नता का दिन होगा।
साधारण मनोरंजन, कार्यों तथा व्यवहारों में इस रहस्य को आये दिन देखा जा सकता है कि जो काम दूसरों को प्रसन्न करने वाले होते हैं अथवा जिन कामों से हम दूसरों को प्रसन्न कर पाते हैं वे ही काम हमें अधिक से अधिक प्रसन्न किया करते हैं। एक खिलाड़ी गेंद खेलता है और विपक्षी पर एक गोल कर देता है तो उसे अपनी सफलता पर प्रसन्नता होती है, किन्तु तभी जब उसके साथी भी प्रसन्न होते हैं। यदि किसी कारण से उसकी यह सफलता दर्शकों अथवा साथियों को प्रसन्न न कर पाये तो उसे स्वयं भी प्रसन्नता न होगी। एक शिल्पी भवन अथवा मंदिर बनाता है। यद्यपि वह उसका नहीं होता तथापि वह इसलिये प्रसन्न होता है कि उसका यह काम दूसरों को प्रसन्न कर सकता है। इसी प्रकार कोई चित्रकार, कलाकार अथवा कवि कोई रचना करता है तो उसे प्रसन्नता होती है, उसे अपनी कृति अच्छी लगती है। किन्तु उसकी प्रसन्नता में वास्तविकता तभी आती है जब दूसरे भी प्रसन्न होते हैं। संयोगवश यदि उसका सृजन अन्य किसी की प्रसन्नता का सम्पादन न कर सके तो अपनी होते हुए भी कला में कोई रुचि न रहेगी वह उसे बेकार समझेगा और उसकी प्रसन्नता जाती रहेगी।
वास्तविकता प्रसन्नता का मूल रहस्य दूसरों की प्रसन्नता में निहित हैं। जो परोपकारी व्यक्ति दूसरों के सुख के लिए जीते हैं उनके कार्य औरों की सेवा रूप होते हैं। वे अपने जीवन में साधन शून्य रहने पर भी प्रसन्न सन्तुष्ट एवं सुखी रहते हैं। जिसकी जीवन में वास्तविक प्रसन्नता की जिज्ञासा हो वह अपने जीवन को यज्ञमय बनाये, नित्य निरंतर दूसरों का हित साधन करे जिससे कि वह अपनी वांछित वस्तु प्रसन्नता को नित्य निरन्तर पाता रहे।
विचार का चरित्र से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जिसके विचार जिस स्तर के होंगे, उसका चरित्र भी उसी कोटि का होगा। जिसके विचार क्रोध प्रधान होंगे वह चरित्र से भी लड़ाकू और झगड़ालू होगा। जिसके विचार कामुक और स्त्रैण होंगे, उसका चरित्र वासनाओं और विषय- भोग की जीती जागती तस्वीर ही मिलेगा। विचारों के अनुरूप ही चरित्र का निर्माण होता है, यह प्रकृति का अटल नियम है। चरित्र मनुष्य की सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति है। उससे ही सम्मान, प्रतिष्ठा, विश्वास और श्रद्धा की प्राप्ति होती है। वही मानसिक और शारीरिक शक्ति का मूल आधार है। चरित्र की उच्चता ही उच्च जीवन का मार्ग निर्धारित करती है और उस पर चल सकने की क्षमता दिया करती है।
निम्नाचरण के व्यक्ति समाज में नीची दृष्टि से ही देखे जाते हैं। उनकी गतिविधि अधिकतर समाज विरोधी ही रहती है। अनुशासन और मर्यादा जो कि वैयक्तिक से लेकर राष्ट्रीय जीवन की दृढ़ता की आधार- शिला है, निम्नाचरण व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखती है। आचरणहीन व्यक्ति और एक साधारण पशु के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। जिसने अपनी यह बहुमूल्य सम्पत्ति खो दी उसने मानो सब कुछ खो दिया। सब कुछ पा लेने पर भी चरित्र का अभाव मनुष्य को आजीवन दरिद्री ही बनाये रखता है।
मनुष्यों से भरी इस दुनियाँ में अधिकांश संख्या ऐसों की ही है, जिन्हें एक तरह से अर्ध मनुष्य ही कहा जा सकता है। वे कुछ ही प्रवृत्तियों और कार्यों में पशुओं से भिन्न होते हैं, अन्यथा वे एक प्रकार से मानव- पशु ही होते हैं। इसके विपरीत कुछ मनुष्य बड़े ही सभ्य, शिष्ट और शालीन होते हैं। उनकी दुनियाँ सुन्दर और कलाप्रिय होती है। इसके आगे भी एक श्रेणी चली गई है, जिनको महापुरुष, ऋषि- मुनि और देवता कह सकते हैं। समान हाथ- पैर और मुँह, नाक, कान के होते हुए भी और एक ही वातावरण में रहते मनुष्यों में यह अन्तर क्यों दिखलाई देता है? इसका आधारभूत कारण विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य के विचार जिस अनुपात में जितने अधिक विकसित होते चले जाते हैं, उसका स्तर पशुता से श्रेष्ठता की ओर उठता चला जाता है। असुरत्व, पशुत्व, ऋषित्व अथवा देवत्व और कुछ नहीं, विचारों के ही स्तरों के नाम हैं। यह विचार- शक्ति ही है, जो मनुष्य को देवता अथवा राक्षस बना सकती है।