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Books - सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


विचारों का व्यक्तित्व एवं चरित्र पर प्रभाव

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Normal 0 false false false EN-US X-NONE X-NONE MicrosoftInternetExplorer4 भावनाओं और विचारों का प्रभाव स्थूल शरीर पर पड़े बिना नहीं रहता। बहुत समय तक प्रकृति के इस स्वाभाविक नियम पर न तो विश्वास किया गया न उपयोग। लोगों को इस विषय में जरा भी चिन्ता नहीं थी कि मानसिक स्थितियों का प्रभाव बाह्य स्थिति पर पड़ सकता है और आन्तरिक जीवन का कोई सम्बन्ध मनुष्य के बाह्य जीवन से भी हो सकता है। दोनों को एक दूसरे से प्रथक मानकर गतिविधि चलती रही। आज जो शरीर शास्त्री अथवा चिकित्सक यह मानने लगे हैं की विचारों का शारीरिक स्थिति से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है, वे पहले बहुत समय तक औषधियों जैसी जड़ वस्तुओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है-   इसके प्रयोग पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये रहे।

इससे वे चिकित्सा के क्षेत्र में आन्तरिक स्थिति का लाभ उठाने के विषय में काफी पिछड़ गये। चिकित्सक अब धीरे- धीरे इस बात का महत्त्व समझने और चिकित्सा में मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं। मानस चिकित्सा का एक शास्त्र ही अलग बनता और विकास करता चला जा रहा है। अनुभवी लोगों का विश्वास है कि यदि यह मानस चिकित्सा शास्त्र पूरी तरह विकसित और पूर्ण हो गया तो कितने ही रोगों में औषधियों के प्रयोग की आवश्यकता कम हो जायेगी। लोग अब यह मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के जीवन में के अधिकाँश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में निहित रहता है। यदि उनको बदला जाय तो रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुए है।

शरीर रचना के सम्बन्ध में जाँच करने वाले एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने अपनी प्रयोगशाला में तरह- तरह के परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य का शरीर अर्थात् हड्डियाँ, माँस, स्नायु आदि मनुष्य की मनोदशा के अनुसार एक वर्ष में बिल्कुल परिवर्तित हो जाते हैं और कोई- कोई भाग तो एक- दो सप्ताह में ही बदल जाते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि चिकित्सा के क्षेत्र में मानसोपचार का बहुत महत्त्व है। सच बात तो यह है कि आरोग्य प्राप्ति का प्रभावशाली उपाय आन्तरिक स्थिति का अनुकूल प्रयोग ही है। औषधियों तथा तरह- तरह की जड़ी- बूटियों का उपयोग कोई स्थाई लाभ नहीं करता, उनसे तो रोग के बाह्य लक्षण दब भर जाते हैं, रोग का मूल कारण नष्ट नहीं होता। जीवनी शक्ति जो आरोग्य का यथार्थ आधार है, मनोदशाओं के अनुसार बढ़ती- घटती रहती है। यदि रोगी के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाय कि वह अधिक से अधिक प्रसन्न तथा उल्लसित रहने लगे तो उसकी जीवनी- शक्ति बढ़ जायेगी, जो अपने प्रभाव से रोग को निर्मूल कर सकती है|

बहुत बार देखने में आता है कि डाक्टर रोगी के घर जाता है, और उसे खूब अच्छी तरह देख- भाल कर चला जाता है। कोई दवा नहीं देता तब भी रोगी अपने को दिन भर भला- चंगा अनुभव करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यही होता है कि वह बुद्धिमान डाक्टर अपने साथ रोगी के लिए अनुकूल वातावरण लाता है और अपनी गतिविधि से ऐसा विश्वास छोड़ जाता है कि रोगी की दशा ठीक है, दवा देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इससे रोगी तथा रोगी के अभिभावकों का यह विचार दृढ़ हो जाता है कि रोग ठीक हो रहा है। विचारों का अनुकूल प्रभाव जीवन तत्त्व को प्रोत्साहित करता है और बीमार की तकलीफ कम हो जाती है।

कुछ समय पूर्व कुछ वैज्ञानिकों ने इस सत्य का पता लगाने के लिए कि क्या मनुष्य के शरीर पर आन्तरिक भावनाओं का कोई प्रभाव पड़ता है, एक परीक्षण किया। उन्होंने विभिन्न प्रवृत्ति के आदमियों को एक कोठरी में बन्द कर दिया। उनमें से कोई क्रोधी, कोई विषयी और कोई नशों का व्यसनी था। थोड़ी देर बाद गर्मी के कारण उन सबको पसीना आ गया। उनके पसीने की बूँदें लेकर अलग- अलग विश्लेषण किया गया और वैज्ञानिकों ने उनके पसीने में मिले रासायनिक तत्त्वों के आधार पर उसके स्वभाव घोषित कर दिये जो बिल्कुल ठीक थे |

मानसिक दशाओं अथवा विचार- धाराओं का शरीर पर प्रभाव पड़ता है, इसका एक उदाहरण बड़ा ही शिक्षाप्रद है- एक माता को एक दिन किसी बात पर बहुत क्रोध हो गया। पाँच मिनट बाद उसने उसी आवेश की अवस्था में अपने बच्चे को स्तनपान कराया और एक घण्टे के भीतर ही बच्चे की हालत खराब हो गई और उसकी मृत्यु हो गई। शव परीक्षा के परिणाम से विदित हुआ कि मानसिक क्षोभ के कारण माता का रक्त तीक्ष्ण परमाणुओं से विषैला हो गया और उसके प्रभाव से उसका दूध भी विषाक्त हो गया था, जिसे पी लेने से बच्चे की मृत्यु हो गई।

इसके विपरीत जो आत्मविश्वास, उत्साह- साहस और पुरुषार्थ भावना से भरे विचार रखता है। सोचता है कि उसकी शक्ति सब कुछ कर सकने में समर्थ है। उसकी योग्यता इस योग्य है कि वह अपने लायक हर काम कर सकता है। उसमें परिश्रम और पुरुषार्थ के प्रति लगन है। उसे संसार में किसी की सहायता के लिए बैठे नहीं रहना है। वह स्वयं ही अपना मार्ग बनायेगा और स्वयं ही अपने आधार पर, उस पर अग्रसर होगा- ऐसा आत्मविश्वासी और आशावादी व्यक्ति अभाव और प्रतिकूलता में भी आगे बढ़ जाता है।

यही कारण है कि शिशु- पालन के नियमों में माता को परामर्श दिया गया है कि बच्चे को एकान्त में तथा निश्चिन्त एवं पूर्ण प्रसन्न मनोदशा में स्तन- पान कराये। क्षोभ अथवा आवेग की दशा में दूध पिलाना बच्चे के स्वास्थ्य तथा संस्कारों के लिए हानिप्रद होता है। जिन माताओं के दूध पीते बच्चे, रोगी, रोने वाले, चिड़चिड़े अथवा क्षीणकाय होते हैं, उसका मुख्य कारण यही रहता है कि वे माताएँ स्तनपान के वांछित नियमों का पालन नहीं करतीं अन्यथा वह आयु तो बच्चों के स्वस्थ- तन्दुरुस्त होने की होती है।

इस नियम की वास्तविकता का प्रमाण कोई भी अपने अनुभव के आधार पर पा सकता है। वह दिन याद करें कि जिस दिन कोई दुर्घटना देखी हो। चाहे उस दुर्घटना का सम्बन्ध अपने से न रहा हो तब भी उसे देखकर मानसिक स्थिति पर जो प्रभाव पड़ा उसके कारण शरीर सन्न रह गया, चलने की शक्ति कम हो गई, खड़ा रहना मुश्किल पड़ गया, शरीर में सिहरन अथवा कम्पन पैदा हो गई, आँसू आ गये अथवा मुख सूख गया। उसके बाद भी जब- जब उस भयंकर घटना का विचार मस्तिष्क में आता रहा शरीर पर बहुत बार उसका प्रभाव होता रहा।

मनोवैज्ञानिकों तथा चिकित्सा शास्त्रियों का कहना है कि आज रोगियों की बड़ी संख्या में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो वास्तव में किसी रोग से पीड़ित हों। अन्य या बहुतायत ऐसे ही रोगियों की होती है, जो किसी न किसी काल्पनिक रोग के शिकार होते हैं। आरोग्य का विचारों से बहुत बड़ा सम्बन्ध होता है। जो व्यक्ति अपने प्रति रोगी होने, निर्बल और असमर्थ होने का भाव रखते हैं और सोचते रहते हैं कि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। उन्हें आँख, नाक, कान, पेट, पीठ का कोई न कोई रोग लगा ही रहता है। बहुत कुछ उपाय करने पर भी वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं रह पाते। ऐसे अशिव विचारों को धारण करने वाले वास्तव में कभी भी स्वस्थ नहीं रह पाते। यदि उनको कोई रोग नहीं भी होता है तो भी उनकी इस अशिव विचार साधना के फलस्वरूप कोई न कोई रोग उत्पन्न हो जाता है और वे वास्तव में रोगी बन जाते।

इसके विपरीत जो स्वास्थ्य सम्बन्धी सद्विचारों की साधना करते हैं, वे रोगी होने पर भी शीघ्र चंगे हो जाया करते हैं। रोगी इस प्रकार सोचने के अभ्यस्त होते हैं। वे उपचार के अभाव में भी स्वास्थ्य लाभ कर लेते हैं। मेरा रोग साधारण है, मेरा उपचार ठीक- ठीक पर्याप्त ढंग से हो रहा है, दिन- दिन मेरा रोग घटता जाता है और मैं अपने अन्दर एक स्फूर्ति, चेतना और आरोग्य की तरंग अनुभव करता हूँ। मेरे पूरी तरह स्वस्थ हो जाने में अब ज्यादा देर नहीं है। इसी प्रकार जो निरोग व्यक्ति भूलकर भी रोगों की शंका नहीं करता और अपने स्वास्थ्य से प्रसन्न रहता है। जो कुछ खाने को मिलता है, खाता और ईश्वर को धन्यवाद देता है, वह न केवल आजीवन निरोग ही रहता है, बल्कि दिन- दिन उसकी शक्ति और सामर्थ्य भी बढ़ती जाती है।

जीवन की उन्नति और विकास के सम्बन्ध में भी यहीं बात लागू होती है। जो व्यक्ति दिन रात यही सोचता रहता है कि उसके पास साधनों का अभाव है। उसकी शक्ति सामर्थ्य और योग्यता कम है, उसे अपने पर विश्वास नहीं है। संसार में उसका साथ देने वाला कोई नहीं है। विपरीत परिस्थितियाँ सदैव ही उसे घेरे रहती हैं। वह निराशावादी व्यक्ति जीवन में जरा भी उन्नति नहीं कर सकता। फिर चाहे उसे कुबेर का कोष ही क्यों न दे दिया जाय और संसार के सारे अवसर ही क्यों न उसके लिए सुरक्षित कर दिये जाय।

इसके विपरीत जो आत्मविश्वास, उत्साह- साहस और पुरुषार्थ भावना से भरे विचार रखता है। सोचता है कि उसकी शक्ति सब कुछ कर सकने में समर्थ है। उसकी योग्यता इस योग्य है कि वह अपने लायक हर काम कर सकता है। उसमें परिश्रम और पुरुषार्थ के प्रति लगन है। उसे संसार में किसी की सहायता के लिए बैठे नहीं रहना है। वह स्वयं ही अपना मार्ग बनायेगा और स्वयं ही अपने आधार पर, उस पर अग्रसर होगा- ऐसा आत्मविश्वासी और आशावादी व्यक्ति अभाव और प्रतिकूलता में भी आगे बढ़ जाता है।

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