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Books - सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति

Media: TEXT
Language: HINDI
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विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

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डॉ. एफ. ई. विल्स, डॉ. लेलाड काडल राबर्ट मैक कैरिसन आदि अनेक स्वास्थ्य शास्त्रियों ने दीर्घायु के रहस्य ढूँढ़े। प्राकृतिक जीवन, सन्तुलित और शाकाहार, परिश्रमशील जीवन, संयमित जीवन शतायुष्य के लिए यही सब नियम माने गये हैं, लेकिन कई बार ऐसे व्यक्ति देखने में आये जो इन नियमों की अवहेलना करके, रोगी और बीमार रहकर भी सौ वर्ष की आयु से अधिक जिये। इससे इन वैज्ञानिकों को भी भ्रम बना रहा कि दीर्घायुष्य का रहस्य कहीं और छिपा हुआ है। इसके लिए उसकी खोज निरंतर जारी रहीं।अमेरिका के दो वैज्ञानिक डॉ. ग्रानिक और डॉ. बिरेन बहुत दिनों तक खोज करने के बाद इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचे कि दीर्घ जीवन का सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क एवं ज्ञान से है। उनका कहना है कि अनुसंधान के समय 92 और इस आयु के ऊपर के जितने भी लोग मिले वह सब अधिकतर पढ़ने वाले थे। आयु बढ़ने के साथ- साथ जिनकी ज्ञान वृद्धि भी होती है वे दीर्घजीवी होते हैं पर पचास की आयु पार करने के बाद जो पढ़ना बन्द कर देते हैं— जिनका ज्ञान नष्ट होने लगता है, जल्दी ही मृत्यु के ग्रास हो जाते हैं।दोनों स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मस्तिष्क जितना पढ़ता है उतना ही उसमें चिन्तन करने की शक्ति आती है। व्यक्ति जितना सोचता, विचारता रहता है, उसका नाड़ी मण्डल उतना ही तीव्र रहता है। हम यह सोचते हैं कि देखने का काम हमारी आँखें करती हैं, सुनने का काम कान, साँस लेने का काम फेफड़े, पेट भोजन पचाने और हृदय रक्त परिभ्रमण का काम करता है। विभिन्न अंग अपना- अपना काम करके शरीर की गतिविधि चलाते हैं। पर यह हमारी भूल है। सही बात यह है कि नाड़ी मण्डल की सक्रियता से ही शरीर के सब अवयव क्रियाशील होते हैं, इसलिए मस्तिष्क जितना क्रियाशील होगा शरीर उतना ही क्रियाशील होगा। मस्तिष्क के मंद पड़ने का अर्थ है शरीर के अंग- प्रत्यंगों की शिथिलता और तब मनुष्य की मृत्यु शीघ्र ही हो जावेगी। इससे जीवित रहने के लिए पढ़ना बहुत आवश्यक है। ज्ञान की धारायें जितनी तीव्र होंगी उतनी ही आयु भी लम्बी होगी।
आर्क्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘हैल्थ’ का शाब्दिक अर्थ ‘शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा से पुष्ट होना’ लिखा है। अर्थात् मस्तिष्क जितना पुष्ट रहता है, शरीर उतना ही पुष्ट होगा और मस्तिष्क के पुष्ट होने का एक ही उपाय है ज्ञान वृद्धि। शास्त्रकारों ने भी ज्ञान वृद्धि को ही अमरता का साधना कहा है। भारतीय ऋषि- मुनियों का दीर्घजीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सभी ऋषि दीर्घजीवी हुए हैं, उनके जीवनक्रम में ज्ञानार्जन ही सबसे बड़ी विशेषता रही है। इसके लिए तो उन्होंने वैभव विलास का जीवन तक ठुकरा दिया था। वे निरंतर अध्ययन में लगे रहते थे जिससे उनका नाड़ी संस्थान कभी शिथिल न होने पाता था और वे दो- दो, चार- चार सौ वर्ष तक हँसते- खेलते जीते रहते थे।पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वशिष्ठ, विश्वामित्र, दुर्वासा, व्यास आदि की आयु कई- कई सौ वर्ष की थी। जामवन्त की कथा लगती कपोल कल्पित है पर अमेरिकी वैज्ञानिकों का कथन सत्य है तो उस कल्पना को भी निराधार नहीं कहा जा सकता है। कहते हैं जामवन्त बड़ा विद्वान् था। वेद उपनिषद् उसे कण्ठस्थ थे वह निरन्तर पढ़ा ही करता था और इस स्वाध्यायशीलता के कारण ही उसने लम्बा जीवन प्राप्त किया था। वामन अवतार के समय वह युवक था। रामचन्द्र का अवतार हुआ तब यद्यपि उसका शरीर काफी वृद्ध हो गया था पर उसने रावण के साथ युद्ध में भाग लिया था। उसी जामवन्त के कृष्णावतार में भी उपस्थित होने का वर्णन आता है।
दूर की क्यों कहें ‘पेंटर मार्फेस’ ने ही अपने भारत के इतिहास में ‘‘नूमिस्देको हुआ’’ नामक एक ऐसे व्यक्ति का वर्णन किया है जो सन् 1566 ई० में 370 की आयु में मरा था। इस व्यक्ति के बारे में इतिहासकार ने लिखा है कि मृत्यु के समय भी उसे अतीत की घटनाएँ इतनी स्पष्ट याद थीं जैसे अभी वह कल की बातें हो। यह व्यक्ति प्रतिदिन 6 घण्टे से कम नहीं पढ़ता था। डॉ० लेलार्ड कार्डेल लिखते हैं— ‘‘मैंने शिकागो निवासिनी श्रीमती ल्यूसी जे० से भेंट की तब उनकी आयु 108 वर्ष की थी। मैं जब उनके पास गया तब वे पढ़ रही थीं। बात- चीत के दौरान पता चला कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज है वे प्रतिदिन नियमित रूप से पढ़ती हैं।’’
प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ० आत्माराम और अन्य कई वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि योग से अपने हृदय और नाड़ी आदि की गति पर नियन्त्रण रखकर उन्हें स्वस्थ रखा जा सकता है। यह क्रिया मस्तिष्क से विचारों की तरंगें उत्पन्न करके की जाती है। अध्ययनशील व्यक्तियों में यह क्रिया स्वाभाविक रूप से चलती रहती है इसलिए यदि शरीर देखने में दुबला है तो भी उसमें आरोग्य और दीर्घ जीवन की सम्भावनाएँ अधिक पाई जायेंगी।
‘‘मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने से शरीर बचा नहीं रह सकता। इससे साफ हो जाता है कि मस्तिष्क ही शरीर में जीवन का मुख्य आधार है उसे जितना स्वस्थ और परिपुष्ट रखा जा सके मनुष्य उतना ही दीर्घजीवी हो सकता है।’’ उक्त वैज्ञानिकों की यदि यह सम्मति सही है तो ऋषियों के दीर्घजीवन का मूल कारण उनकी ज्ञान वृद्धि ही मानी जायेगी और आज के व्यस्त और दूषित वातावरण वाले युग में सबसे महत्त्वपूर्ण साधन भी यही होगा कि हम अपने दैनिक कार्यक्रमों में स्वाध्याय को निश्चित रूप से जोड़कर रखें और अपने जीवन की अवधि लम्बी करते चलें।
जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं क्योंकि एक स्थायी प्रसन्नता जीवन का चरम लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य- जीवन में प्रसन्नता का नितान्त अभाव हो जाये तो उसका कुछ समय चल सकना भी असम्भव हो जाये।
यह बात सत्य है कि मानव- जीवन में अनुपात दुःख- क्लेश का ही अधिक देखने में आता है। तब भी लोग शौक से जी रहे हैं। इसका कारण यही है कि बीच- बीच में उन्हें प्रसन्नता भी प्राप्त होती रहती है, और उसके लिए उन्हें नित्य नई आशा बनी रहती है। प्रसन्नता जीवन के लिए संजीवनी तत्त्व है। मनुष्य को उसे प्राप्त करना ही चाहिये। प्रसन्नावस्था में ही मनुष्य अपना तथा समाज का भला कर सकता है, विषण्णावस्था में नहीं।
प्रसन्नता वांछनीय भी है और लोग उसे पाने के लिये निरन्तर प्रयत्न भी करते रहते हैं। किन्तु फिर भी कोई उसे अपेक्षित अर्थ में पाता दिखाई नहीं देता। क्या धनवान, क्या बालक और क्या वृद्ध किसी से भी पूछ देखिये क्या आप जीवन में पूर्ण सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं? उत्तर अधिकतर नकारात्मक ही मिलेगा। उसका पूरक दूसरा प्रश्न भी कर देखिये— तो क्या आप उसके लिये प्रयत्न नहीं करते? नब्बे प्रतिशत से अधिक उत्तर यही मिलेगा— ‘‘कि प्रयत्न तो अधिक करते हैं किन्तु प्रसन्नता मिल ही नहीं पाती।’’ निःसन्देह मनुष्य की यह असफलता आश्चर्य ही नहीं दुःख का विषय है।
कितने खेद का विषय है कि आदमी किसी एक विषय अथवा वस्तु के लिये प्रयत्न करे और उसको प्राप्त न कर सके। ऐसा भी नहीं कि कोई उसे प्राप्त करने में कम श्रम करता हो अथवा प्रयत्नों में कोताही रखता हो। मनुष्य सम्पूर्ण अणु- क्षण एकमात्र प्रसन्नता प्राप्त करने में ही तत्पर एवं व्यस्त रहता है। वह सोते- जागते, उठते- बैठते, चलते- फिरते जो कुछ भी अच्छा- बुरा करता है सब प्रसन्नता प्राप्त करने के मन्तव्य से। किन्तु खेद है कि वह उसे उचित रूप से प्राप्त नहीं कर पाता।
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