
सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन- सत्संग से
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कोई सद्विचार तभी तक सद्विचार हैं जब तक उसका आधार सदाशयता है, अन्यथा वह असद्विचारों के साथ ही गिना जायेगा। चूँकि मनुष्य के जीवन में हर प्रकार और हर कोटि के असद्विचार विष की तरह ही त्याज्य हैं, उन्हें त्याग देने में ही कुशल, क्षेम, कल्याण तथा मंगल है।
वे सारे विचार जिनके पीछे दूसरों और अपनी आत्मा का हित सन्निहित हो सद्विचार ही होते हैं। सेवा एक सद्विचार है। जीवमात्र की निःस्वार्थ सेवा करने से किसी को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो होता दीखता नहीं। दीखता है उस व्रत की पूर्ति में किया जाने वाला त्याग और बलिदान। जब मनुष्य अपने स्वार्थ का त्याग कर सेवा करता है, तभी उसका कुछ हित- साधन कर सकता है। स्वार्थी और सांसारिक लोग सोच सकते हैं कि अमुक व्यक्ति में कितनी कम समझ है, जो अपनी हित- हानि करके अकारण ही दूसरों का हित- साधन करता रहता है। निश्चय ही मोटी आँखों और छोटी बुद्धि से देखने पर किसी का सेवा- व्रत उसकी मूर्खता ही लगेगी। किन्तु यदि उस व्रती से पता लगाया जाय तो विदित होगा कि दूसरों की सेवा करने में वह जितना त्याग करता है, वह उस सुख- शान्ति की तुलना में एक तृण से भी अधिक नगण्य है, जो उसकी आत्मा अनुभव करती है।
एक छोटे से त्याग का सुख आत्मा के एक बन्धन को तोड़ देता है। देखने में हानिकर लगने पर भी अपना वह हर विचार सद्विचार ही है जिसके पीछे परहित अथवा आत्महित का भाव अन्तर्हित हो। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य लोक नहीं, परलोक ही है। इसकी प्राप्ति एकमात्र सद्विचारों की साधना द्वारा ही हो सकती है। अस्तु आत्म- कल्याण और आत्म- शान्ति के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए सद्विचारों की साधना करते ही रहना चाहिये।
असद्विचारों के जाल में फँस जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। अज्ञान, अबोध अथवा असावधानी से ऐसा हो सकता है। यदि यह पता चले कि हम किसी प्रकार असद्विचारों के पास में फँस गए हैं तो इसमें चिन्तित अथवा घबराने की कोई बात नहीं है। यह बात सही है कि असद्विचारों में फँस जाना बड़ी घातक घटना है। किन्तु ऐसी बात नहीं कि इसका कोई उपचार अथवा उपाय न हो सके। संसार में ऐसा कोई भी भव- रोग नहीं है, जिसका निदान अथवा उपाय न हो। असद्विचारों से मुक्त होने के भी अनेक उपाय हैं। पहला उपाय तो यही है कि उन कारणों का तुरन्त निवारण कर देना चाहिए जो कि असद्विचारों में फँसाते रहे हैं। यह कारण हो सकते हैं— कुसंग, अनुचित साहित्य का अध्ययन, अवांछनीय वातावरण ।
खराब मित्रों और संगी- साथियों के सम्पर्क में रहने से मनुष्य के विचार दूषित हो जाते हैं। अस्तु ऐसे अवांछनीय संग का तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। इस त्याग में सम्पर्कजन्य संस्कार अथवा मोह का भाव आड़े आ सकता है। कुसंग त्याग में दुःख अथवा कठिनाई अनुभव हो सकती है। लेकिन नहीं, आत्म- कल्याण की रक्षा के लिए उस भ्रामक कष्ट को सहना ही होगा और मोह का वह अशिव बन्धन तोड़कर फेंक देना ही होगा। कुसंग त्याग के इस कर्तव्य में किन्हीं साधु पुरुषों के सुसंग की सहायता ली जा सकती है। बुरे और अविचारी मित्रों के स्थान पर अच्छे, भले और सदाचारी मित्र, सखा और सहचर खोजे और अपने साथ लिए जा सकते हैं अन्यथा अपनी आत्मा सबसे सच्ची और अच्छी मित्र है। एकमात्र उसी के सम्पर्क में चले जाना चाहिए ।
असद्विचारों के जन्म और विस्तार का एक बड़ा कारण असद्साहित्य का पठन- पाठन भी है। जासूसी, अपराध और अश्लील शृंगार में भरे सस्ते साहित्य को पढ़ने से भी विचार दूषित हो जाते हैं। गन्दी पुस्तकें पढ़ने से जो छाया मस्तिष्क पर पड़ती है, वह ऐसी रेखाएँ बना देती है जिनके द्वारा असद्विचारों का आवागमन होने लगता है। विचार, विचारों को भी उत्तेजित करते हैं। एक विचार अपने समान ही दूसरे विचारों को उत्तेजित करता और बढ़ाता है।
इसलिए गन्दा साहित्य पढ़ने वाले लोगों का अश्लील चिन्तन करने का व्यसन हो जाता है। बहुत से ऐसे विचार जो मनुष्य के जाने हुए नहीं होते यदि उनका परिचय न कराया जाय तो न तो उनकी याद आए और न उनके समान दूसरे विचारों का ही जन्म हो। गन्दे साहित्य में दूसरों द्वारा लिखे अवांछनीय विचारों से अनायास ही परिचित हो जाता है और मस्तिष्क में गन्दे विचारों की वृद्धि हो जाती है। अस्तु, गन्दे विचारों से बचने के लिए अश्लील और असद् साहित्य का पठन- पाठन वर्जित रखना चाहिए।
असद्विचारों से बचने के लिए अवांछनीय साहित्य का पढ़ना बन्द कर देना अधूरा उपचार है। उपचार पूरा तब होता है, जब उसके स्थान पर सद्- साहित्य का अध्ययन किया जाय। मानव- मस्तिष्क कभी खाली नहीं रह सकता। उसमें किसी न किसी प्रकार के विचार आते- जाते ही रहते हैं। बार- बार निषेध करते रहने से किन्हीं गन्दे विचारों का तारतम्य तो टूट सकता है किन्तु उनसे सर्वथा मुक्ति नहीं मिल सकती। संघर्ष की स्थिति में वे कभी चले भी जायेंगे और कभी आ भी जायेंगे। अवांछनीय विचारों से पूरी तरह बचने का सबसे सफल उपाय यह है कि मस्तिष्क में सद्विचारों को स्थान दिया जाए। असद्विचारों को प्रवेश पाने का अवसर ही न मिलेगा।
मस्तिष्क में हर समय सद्विचार ही छाये रहें इसका उपाय यही है कि नियमित रूप से नित्य सत्साहित्य का अध्ययन करते रहा जाय। वेद, पुराण, गीता, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त अच्छे और ऊँचे विचारों वाले साहित्यकारों की पुस्तकें सत्साहित्य की आवश्यकता पूरी कर सकती हैं। यह पुस्तकें स्वयं अपने आप खरीदी भी जा सकती हैं और सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत पुस्तकालयों से भी प्राप्त की जा सकती हैं। आजकल न तो अच्छे और सस्ते साहित्य की कमी रह गई है और न पुस्तकालयों और वाचनालयों की कमी। आत्म- कल्याण के लिए इन आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाना ही चाहिए।
समाज में फैली हुई अन्धता, मूढ़ता तथा कुरीतियों का कारण अज्ञान- अन्धकार होता है। अन्धकार में भ्रम होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार अँधेरे में वस्तुस्थिति का ठीक ज्ञान नहीं हो पाता, पास रखी हुई चीज का स्वरूप यथावत दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार अज्ञान के दोष से स्थिति, विषय आदि का ठीक आभास नहीं होता। वस्तुस्थिति के ठीक ज्ञान के अभाव में कुछ- का सूझने और होने लगता है। विचार और उनसे प्रेरित कार्य के गलत हो जाने पर मनुष्य को विपत्ति, संकट अथवा भ्रम में पड़कर अपनी हानि कर लेना स्वाभाविक ही है।
अन्धकार के समान अज्ञान में भी एक अनजान भय समाया रहता है। रात के अन्धकार में रास्ता चलने वालों को दूर के पेड़- पौधे, ठूँठ, स्तूप तथा मील के पत्थर तक चोर- डाकू, भूत- प्रेत आदि दिखाई देने लगते हैं। अन्धकार में जब भी जो चीज दिखाई देगी वह शंकाजनक ही होगी, विश्वास अथवा उत्साहजनक नहीं। घर में रात के समय में पेशाब, शौच आदि के लिए आने- जाने वाले अपने माता- पिता, बेटे- बेटियाँ तक अन्धकाराच्छन्न होने के कारण चोर, डाकू या भूत- चुड़ैल जैसे भान होने लगते हैं और कई बार तो लोग उनकी पहचान न कर सकने के कारण टोक उठते हैं या भय से चीख मार बैठते हैं। यद्यपि उनके वे स्वजन पता चलने पर भूत- चुड़ैल अथवा चोर- डाकू नहीं निकले जो कि न पहचानने से पूर्व थे किन्तु अन्धकार के दोष से वे भय एवं शंका के विषय बने। भय का निवास वास्तव में न तो अन्धकार में होता है और न वस्तु में, उसका निवास होता है उस अज्ञान में जो अँधेरे के कारण वस्तुस्थिति का ज्ञान नहीं होने देता।
ज्ञान के अभाव में जनसाधारण भ्रांतिपूर्ण एवं निराधार बातों को उसी प्रकार समझ लेता है जिस प्रकार हिरन मरु- मरीचिका में जल का विश्वास कर लेता है और निरर्थक ही उसके पीछे दौड़- दौड़कर जान तक गँवा देता है। अज्ञान का परिणाम बड़ा ही अनर्थकारी होता है। अज्ञान के कारण ही समाज में अनेकों अन्ध- विश्वास फैल जाते हैं। स्वार्थी लोग किसी अन्ध- परम्परा को चलाकर जनता में यह भय उत्पन्न कर देते हैं कि यदि वे उक्त परम्परा अथवा प्रथा को नहीं मानेंगे तो उन्हें पाप लगेगा जिसके फलस्वरूप उन्हें लोक में अनर्थ और परलोक में दुर्गति का भागी बनना पड़ेगा। अज्ञानी लोग ‘भय से प्रीति’ होने के सिद्धान्तानुसार उक्त प्रथा- परम्परा में विश्वास एवं आस्था करने लगते हैं और तब उसकी हानि को देखते हुए भी अज्ञान एवं आशंका के कारण उसे छोड़ने को तैयार नहीं होते। मनुष्य आँखों देखी हानि अथवा संकट से उतना नहीं डरते जितना कि अनागत आशंका से। अज्ञानजन्य भ्रम जंजाल में फँसे मनुष्य का दीन- दुःखी रहना स्वाभाविक ही है।
यही कारण है कि ऋषियों ने ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ का सन्देश देते हुए मनुष्यों को अज्ञान की यातना से निकलने के लिए ज्ञान- प्राप्ति का पुरुषार्थ करने के लिए कहा है। भारत का आध्यात्म- दर्शन ज्ञान- प्राप्ति के उपायों का प्रतिपादक है। अज्ञानी व्यक्ति को शास्त्रकारों ने अन्धे की उपमा दी है। जिस प्रकार बाह्य- नेत्रों के नष्ट हो जाने से मनुष्य भौतिक जगत का स्वरूप जानने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में बौद्धिक अथवा विचार- जगत की निर्भ्रान्त जानकारी नहीं हो पाती। बाह्य जगत के समान मनुष्य का एक आत्मिक जगत भी है, जो कि ज्ञान के अभाव में वैसे ही तमसाच्छन्न रहता है जैसे आँखों के अभाव में यह संसार।
सद्ज्ञान में ही वह सृजनात्मक शक्ति सन्निहित है, जो मनुष्य को प्रगति-पथ पर चढ़ने की प्रेरणा देती एवं सहायता करती है। इसलिए प्रगति के आकांक्षी व्यक्ति को सत्साहित्य के माध्यम एवं सत्संग के द्वारा सद्ज्ञान को सद्विचारों से समृद्ध करते रहना चाहिए, ताकि वह उनकी सृजनात्मक शक्ति के सहारे उत्कर्ष की ऊँची मंजिलें पार करता चला जाए।
वे सारे विचार जिनके पीछे दूसरों और अपनी आत्मा का हित सन्निहित हो सद्विचार ही होते हैं। सेवा एक सद्विचार है। जीवमात्र की निःस्वार्थ सेवा करने से किसी को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो होता दीखता नहीं। दीखता है उस व्रत की पूर्ति में किया जाने वाला त्याग और बलिदान। जब मनुष्य अपने स्वार्थ का त्याग कर सेवा करता है, तभी उसका कुछ हित- साधन कर सकता है। स्वार्थी और सांसारिक लोग सोच सकते हैं कि अमुक व्यक्ति में कितनी कम समझ है, जो अपनी हित- हानि करके अकारण ही दूसरों का हित- साधन करता रहता है। निश्चय ही मोटी आँखों और छोटी बुद्धि से देखने पर किसी का सेवा- व्रत उसकी मूर्खता ही लगेगी। किन्तु यदि उस व्रती से पता लगाया जाय तो विदित होगा कि दूसरों की सेवा करने में वह जितना त्याग करता है, वह उस सुख- शान्ति की तुलना में एक तृण से भी अधिक नगण्य है, जो उसकी आत्मा अनुभव करती है।
एक छोटे से त्याग का सुख आत्मा के एक बन्धन को तोड़ देता है। देखने में हानिकर लगने पर भी अपना वह हर विचार सद्विचार ही है जिसके पीछे परहित अथवा आत्महित का भाव अन्तर्हित हो। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य लोक नहीं, परलोक ही है। इसकी प्राप्ति एकमात्र सद्विचारों की साधना द्वारा ही हो सकती है। अस्तु आत्म- कल्याण और आत्म- शान्ति के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए सद्विचारों की साधना करते ही रहना चाहिये।
असद्विचारों के जाल में फँस जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। अज्ञान, अबोध अथवा असावधानी से ऐसा हो सकता है। यदि यह पता चले कि हम किसी प्रकार असद्विचारों के पास में फँस गए हैं तो इसमें चिन्तित अथवा घबराने की कोई बात नहीं है। यह बात सही है कि असद्विचारों में फँस जाना बड़ी घातक घटना है। किन्तु ऐसी बात नहीं कि इसका कोई उपचार अथवा उपाय न हो सके। संसार में ऐसा कोई भी भव- रोग नहीं है, जिसका निदान अथवा उपाय न हो। असद्विचारों से मुक्त होने के भी अनेक उपाय हैं। पहला उपाय तो यही है कि उन कारणों का तुरन्त निवारण कर देना चाहिए जो कि असद्विचारों में फँसाते रहे हैं। यह कारण हो सकते हैं— कुसंग, अनुचित साहित्य का अध्ययन, अवांछनीय वातावरण ।
खराब मित्रों और संगी- साथियों के सम्पर्क में रहने से मनुष्य के विचार दूषित हो जाते हैं। अस्तु ऐसे अवांछनीय संग का तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। इस त्याग में सम्पर्कजन्य संस्कार अथवा मोह का भाव आड़े आ सकता है। कुसंग त्याग में दुःख अथवा कठिनाई अनुभव हो सकती है। लेकिन नहीं, आत्म- कल्याण की रक्षा के लिए उस भ्रामक कष्ट को सहना ही होगा और मोह का वह अशिव बन्धन तोड़कर फेंक देना ही होगा। कुसंग त्याग के इस कर्तव्य में किन्हीं साधु पुरुषों के सुसंग की सहायता ली जा सकती है। बुरे और अविचारी मित्रों के स्थान पर अच्छे, भले और सदाचारी मित्र, सखा और सहचर खोजे और अपने साथ लिए जा सकते हैं अन्यथा अपनी आत्मा सबसे सच्ची और अच्छी मित्र है। एकमात्र उसी के सम्पर्क में चले जाना चाहिए ।
असद्विचारों के जन्म और विस्तार का एक बड़ा कारण असद्साहित्य का पठन- पाठन भी है। जासूसी, अपराध और अश्लील शृंगार में भरे सस्ते साहित्य को पढ़ने से भी विचार दूषित हो जाते हैं। गन्दी पुस्तकें पढ़ने से जो छाया मस्तिष्क पर पड़ती है, वह ऐसी रेखाएँ बना देती है जिनके द्वारा असद्विचारों का आवागमन होने लगता है। विचार, विचारों को भी उत्तेजित करते हैं। एक विचार अपने समान ही दूसरे विचारों को उत्तेजित करता और बढ़ाता है।
इसलिए गन्दा साहित्य पढ़ने वाले लोगों का अश्लील चिन्तन करने का व्यसन हो जाता है। बहुत से ऐसे विचार जो मनुष्य के जाने हुए नहीं होते यदि उनका परिचय न कराया जाय तो न तो उनकी याद आए और न उनके समान दूसरे विचारों का ही जन्म हो। गन्दे साहित्य में दूसरों द्वारा लिखे अवांछनीय विचारों से अनायास ही परिचित हो जाता है और मस्तिष्क में गन्दे विचारों की वृद्धि हो जाती है। अस्तु, गन्दे विचारों से बचने के लिए अश्लील और असद् साहित्य का पठन- पाठन वर्जित रखना चाहिए।
असद्विचारों से बचने के लिए अवांछनीय साहित्य का पढ़ना बन्द कर देना अधूरा उपचार है। उपचार पूरा तब होता है, जब उसके स्थान पर सद्- साहित्य का अध्ययन किया जाय। मानव- मस्तिष्क कभी खाली नहीं रह सकता। उसमें किसी न किसी प्रकार के विचार आते- जाते ही रहते हैं। बार- बार निषेध करते रहने से किन्हीं गन्दे विचारों का तारतम्य तो टूट सकता है किन्तु उनसे सर्वथा मुक्ति नहीं मिल सकती। संघर्ष की स्थिति में वे कभी चले भी जायेंगे और कभी आ भी जायेंगे। अवांछनीय विचारों से पूरी तरह बचने का सबसे सफल उपाय यह है कि मस्तिष्क में सद्विचारों को स्थान दिया जाए। असद्विचारों को प्रवेश पाने का अवसर ही न मिलेगा।
मस्तिष्क में हर समय सद्विचार ही छाये रहें इसका उपाय यही है कि नियमित रूप से नित्य सत्साहित्य का अध्ययन करते रहा जाय। वेद, पुराण, गीता, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त अच्छे और ऊँचे विचारों वाले साहित्यकारों की पुस्तकें सत्साहित्य की आवश्यकता पूरी कर सकती हैं। यह पुस्तकें स्वयं अपने आप खरीदी भी जा सकती हैं और सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत पुस्तकालयों से भी प्राप्त की जा सकती हैं। आजकल न तो अच्छे और सस्ते साहित्य की कमी रह गई है और न पुस्तकालयों और वाचनालयों की कमी। आत्म- कल्याण के लिए इन आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाना ही चाहिए।
समाज में फैली हुई अन्धता, मूढ़ता तथा कुरीतियों का कारण अज्ञान- अन्धकार होता है। अन्धकार में भ्रम होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार अँधेरे में वस्तुस्थिति का ठीक ज्ञान नहीं हो पाता, पास रखी हुई चीज का स्वरूप यथावत दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार अज्ञान के दोष से स्थिति, विषय आदि का ठीक आभास नहीं होता। वस्तुस्थिति के ठीक ज्ञान के अभाव में कुछ- का सूझने और होने लगता है। विचार और उनसे प्रेरित कार्य के गलत हो जाने पर मनुष्य को विपत्ति, संकट अथवा भ्रम में पड़कर अपनी हानि कर लेना स्वाभाविक ही है।
अन्धकार के समान अज्ञान में भी एक अनजान भय समाया रहता है। रात के अन्धकार में रास्ता चलने वालों को दूर के पेड़- पौधे, ठूँठ, स्तूप तथा मील के पत्थर तक चोर- डाकू, भूत- प्रेत आदि दिखाई देने लगते हैं। अन्धकार में जब भी जो चीज दिखाई देगी वह शंकाजनक ही होगी, विश्वास अथवा उत्साहजनक नहीं। घर में रात के समय में पेशाब, शौच आदि के लिए आने- जाने वाले अपने माता- पिता, बेटे- बेटियाँ तक अन्धकाराच्छन्न होने के कारण चोर, डाकू या भूत- चुड़ैल जैसे भान होने लगते हैं और कई बार तो लोग उनकी पहचान न कर सकने के कारण टोक उठते हैं या भय से चीख मार बैठते हैं। यद्यपि उनके वे स्वजन पता चलने पर भूत- चुड़ैल अथवा चोर- डाकू नहीं निकले जो कि न पहचानने से पूर्व थे किन्तु अन्धकार के दोष से वे भय एवं शंका के विषय बने। भय का निवास वास्तव में न तो अन्धकार में होता है और न वस्तु में, उसका निवास होता है उस अज्ञान में जो अँधेरे के कारण वस्तुस्थिति का ज्ञान नहीं होने देता।
ज्ञान के अभाव में जनसाधारण भ्रांतिपूर्ण एवं निराधार बातों को उसी प्रकार समझ लेता है जिस प्रकार हिरन मरु- मरीचिका में जल का विश्वास कर लेता है और निरर्थक ही उसके पीछे दौड़- दौड़कर जान तक गँवा देता है। अज्ञान का परिणाम बड़ा ही अनर्थकारी होता है। अज्ञान के कारण ही समाज में अनेकों अन्ध- विश्वास फैल जाते हैं। स्वार्थी लोग किसी अन्ध- परम्परा को चलाकर जनता में यह भय उत्पन्न कर देते हैं कि यदि वे उक्त परम्परा अथवा प्रथा को नहीं मानेंगे तो उन्हें पाप लगेगा जिसके फलस्वरूप उन्हें लोक में अनर्थ और परलोक में दुर्गति का भागी बनना पड़ेगा। अज्ञानी लोग ‘भय से प्रीति’ होने के सिद्धान्तानुसार उक्त प्रथा- परम्परा में विश्वास एवं आस्था करने लगते हैं और तब उसकी हानि को देखते हुए भी अज्ञान एवं आशंका के कारण उसे छोड़ने को तैयार नहीं होते। मनुष्य आँखों देखी हानि अथवा संकट से उतना नहीं डरते जितना कि अनागत आशंका से। अज्ञानजन्य भ्रम जंजाल में फँसे मनुष्य का दीन- दुःखी रहना स्वाभाविक ही है।
यही कारण है कि ऋषियों ने ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ का सन्देश देते हुए मनुष्यों को अज्ञान की यातना से निकलने के लिए ज्ञान- प्राप्ति का पुरुषार्थ करने के लिए कहा है। भारत का आध्यात्म- दर्शन ज्ञान- प्राप्ति के उपायों का प्रतिपादक है। अज्ञानी व्यक्ति को शास्त्रकारों ने अन्धे की उपमा दी है। जिस प्रकार बाह्य- नेत्रों के नष्ट हो जाने से मनुष्य भौतिक जगत का स्वरूप जानने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में बौद्धिक अथवा विचार- जगत की निर्भ्रान्त जानकारी नहीं हो पाती। बाह्य जगत के समान मनुष्य का एक आत्मिक जगत भी है, जो कि ज्ञान के अभाव में वैसे ही तमसाच्छन्न रहता है जैसे आँखों के अभाव में यह संसार।
सद्ज्ञान में ही वह सृजनात्मक शक्ति सन्निहित है, जो मनुष्य को प्रगति-पथ पर चढ़ने की प्रेरणा देती एवं सहायता करती है। इसलिए प्रगति के आकांक्षी व्यक्ति को सत्साहित्य के माध्यम एवं सत्संग के द्वारा सद्ज्ञान को सद्विचारों से समृद्ध करते रहना चाहिए, ताकि वह उनकी सृजनात्मक शक्ति के सहारे उत्कर्ष की ऊँची मंजिलें पार करता चला जाए।