
देश भ्रमण और सामाजिक स्थिति का निरीक्षण
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"भिक्षा निर्भय स्थिति है। भिक्षा से महानता प्रकट होती है और ईश्वर की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, उससे स्वतंत्रता भी मिल जाती है। यदि स्वदेश-दशा का ज्ञान प्राप्त करना हो तो इसके लिए निःसंदेह भिक्षावृत्ति' से बढ़कर कोई अन्य साधन नहीं है। ग्राम हो चाहे नगर- घर-घर छान डालना चाहिए और 'भिक्षा' के 'मिस' से छोटे-बड़े सब प्रकार के लोगों की परीक्षा कर डालनी चाहिए। ऐसा करने से लोगों के सुख-दु:ख मालूम होते हैं। उनके ज्ञान का लाभ भी अपने को मिल सकता है और अपने विचारों को उन पर प्रकट करने का अवसर मिलता है।" समर्थ गुरु रामदास ने भिक्षा' की सराहना तो की है, पर उन्हीं लोगों के लिए-जो जन-सेवा का व्रत धारण करके केवल जीवन-रक्षा के लायक कम से कम सामग्री से अपना काम चलाते हों। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि, यदि कोई भिक्षा के लिए बहुत-सा अन्न लाएँ तो उसमें से एक मुट्ठी लेकर बाकी लौटा देना चाहिए। अर्थात् समाज की दानरूपी थाती का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, वरन् उसमें से अपने लिए कम से कम लेकर अपना जीवन समाज-सेवा के लिए अर्पण कर देना चाहिए। इस प्रकार सेवा-धर्म पालन करने वाले का 'भिक्षा' ग्रहण करना सार्थक कहा जा सकता है। इससे विपरीत भिक्षा को मुफ्त का माल समझकर पेट भरने का साधन बना लेना तो महा निंदनीय कर्म और हरामखोरी ही है।
पुराने समय में जितने भी संत और धर्म संस्थापक हुए थे, उन सबने ऐसी ही यात्राएँ की थीं। आद्य शंकराचार्य यद्यपि बहुत छोटी-३२ वर्ष की आयु तक ही जीवित रहे, पर उन्होंने अपना संपूर्ण जीवनयात्रा करने में ही लगाया और भारतवर्ष के एक-एक कोने को छान डाला। इसी का परिणाम था कि उनको अपनी धर्म-संस्था को ऐसा दृढ़ और देशव्यापी संगठन बनाने में सफलता मिली, जो बारह-सौ वर्ष से अच्छी तरह कायम है और अभी तक देश में अपना पर्याप्त प्रभाव बनाए हुए हैं। रामभक्ति के महान् प्रचारक गोस्वामी तुलसीदास जी ने दूर-दूर तक की यात्राएँ करके ही वह अनुभव प्राप्त किया था, जिसके आधार पर 'रामचरित मानस' जैसा अमर ग्रंथ लिखा जा सका। गुरुनानक देव की यात्राएँ तो सबसे बढ़-चढ़कर थीं। उन्होंने भारतवर्ष के प्रत्येक भाग की ही पूरी तरह से यात्रा नहीं की, वरन् ईरान और मक्का तक पहुँचे। महाप्रभु चैतन्य ने भी समाजोद्धार का कार्य करने से पूर्व दक्षिण और पश्चिम के सब तीर्थों की यात्रा कर ली थी। वर्तमान समय में स्वामी विवेकानंद ने देश और विदेशों में भारतीय संस्कृति का झंडा गाड़ने के पूर्व समस्त भारत का भ्रमण करके देश और समाज की दशा का गंभीतापूर्वक निरीक्षण किया था।