
आदर्श साधु जनसेवक के लक्षण
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इस प्रकार किसी मठ की अध्यक्षता करने वाले साधु की उन्होंने जो कल्पना की है, वह वर्तमान समय के किसी समाज- सेवी नेता से मिलती- जुलती ही है। ऐसे व्यक्ति साधु के वेश में रहते हुए भी समाज के संचालक और मार्गदर्शक होते हैं, पर उनकी विशेषता यह थी कि इस प्रकार लोकहित के कार्यों में भाग लेने पर भी वे उसे निःस्वार्थ भाव से ही करते थे और स्वयं सब प्रकार के माया-मोह और बंधनों से बचे रहते थे। इसीलिए उन्होंने महंत को समाज- संचालन की आज्ञा देते हुए यह भी चेतावनी दी थी कि सांसारिक झगड़ों का समाधान करते हुए उनको स्वयं उनमें नहीं फँस जाना चाहिए- वह सब उपाधियों में मिलना भीं जानता है और अपने आपको उनसे अलिप्त' रखना भी जानता है। वह सब जगह रहता है, पर ढूँढ़ने पर कहीं नहीं मिलता और अंतरात्मा की तरह सब जगह रहने पर भी गुप्त रहता है। कोई प्राणी अंतरात्मा से रहित नहीं होता, तो भी यदि उसे देखना चाहें तो वह दिखाई नहीं पड़ती और अदृश्य होकर ही सब काम चलाती है। महंत भी अंतरात्मा की तरह ही होता है। सब लोगों को अच्छी- अच्छी बातें बतलाकर उन्हें चतुर बनाता है और स्कूल तथा सूक्ष्म सब प्रकार की विद्याओं की व्यवस्था करता है। वह स्वयं अपने बल से चतुर बनता है और सदा प्रयत्न करता है, पर उनमें लिप्त नहीं होता। ज्ञानी की महंती' इसी प्रकार की होती है, वह नीति और न्याय की रक्षा करना जानता है। न स्वयं अन्याय करता है और न दूसरों को करने देता है तथा विकट अवसर आ पड़ने पर भी उससे पार पाने का उपाय करना भी जानता है।
आज भारत में पाए जाने वाले एक करोड़ साधु '' तथा भिक्षु' नामधारियों की समस्या के कारण हम परेशान होते रहते हैं और उनको समाज का एक असह्य भार समझकर उनके निवारण की योजनाएँ बनाया करते है। पर यदि ये साधु '' समर्थ गुरु के बतलाए आदर्श के अनुयायी होते, समाज से नाम मात्र के लिए निर्वाह के साधन लेकर उनके अनेक संगठनात्मक और रचनात्मक कार्यों की पूर्ति करते रहते तो कौन उनको बुरा कह सकता था अथवा उनसे पीछा छुड़ाने की बात सोच सकता था? साधु '' की पदवी निस्संदेह बहुत ऊँची है और उसका आशय संसार के उपकार के लिए आत्म- त्याग करना ही है। समर्थ गुरु रामदास ऐसे ही साधु थे और उस आपत्तिकाल में हिंदू- धर्म और समाज की दुर्दशा को देखकर उन्होंने ऐसे ही आत्म-बलिदानी स्वयं- सेवकों '' का निर्माण और संगठन किया था। यही कारण था कि महाराज शिवाजी जैसे महान् शासक को उन्हें गुरु बनाना गौरवास्पद जान पड़ा और उन्होंने अपना राज्य तथा सर्वस्व उनके चरणों पर भेंट करके स्वयं एक कार्यवाहक की हैसियत से ही उसका संचालन किया।