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Books - समर्थ गुरु रामदास

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


अध्यात्मवाद का समर्थन

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आनंदवन भुवन का स्वप्न-

देशोद्धार की भावना श्री समर्थ गुरु के मन में इतनी अधिक थी कि एक दिन स्वप्न में भी उन्होंने इसी इच्छा की पुर्ति का दर्शन किया। इसका वर्णन करते उन्होंने लिखा है कि - वे आनंदवन भुवन '' (काशी) को चल दिए ह?। वहाँ देवगण स्वधर्म के दोषों को नष्ट करते हैं। म्लेच्छ रूपी दैत्यों को डुबा देने के लिए वहाँ बड़ी धाम हो रही है। हिंदुस्तान प्रबल हो गया है और उसने पापियों को नष्ट कर डाला। उनके विरुद्ध प्रत्यक्ष प्रभु रामचंद्र ने शस्त्र हाथ में लिया है। अब पापमुर्ति औरंगजेब नष्ट हो गया है, म्लेच्छों का संहार हो गया है और उसके तोड़े- फोड़े हुए 'क्षेत्र '' फिर से बसा दिए गए है। अब स्नान- संध्या के लिए पानी है और 'आनंदवन भुवन '' में जप−तप और अनुष्ठान होने लगे है। रामवरदायिनी माता भवानी भी नष्ट चांडालों को खाने के लिए राजा के साथ चल पड़ी। पूर्व काल में माता ने भक्तों का रक्षण किया था। अब भी वह भक्तों का संरक्षण करती है। '' इस प्रकार श्री समर्थ ने अपने समकालीन सभी श्रेणियों के व्यक्तियों को देश और धर्म की रक्षा के लिए प्रेरणा दी और वह महाराष्ट्र शासन के रूप में सफल भी हुई।

अध्यात्मवाद का समर्थन-

भारतीय समाज की दुर्बलता का एक मुख्य कारण वहाँ का बहुदेववाद का सिद्धांत भी रहा है। यद्यपि प्राचीन मनीषियों ने एंकोS हं बहुस्यामि '' कहकर इसका समाधान कर दिया, पर सर्वसाधारण इस तत्त्व को समझने में असमर्थ ही रहे! परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज विविध संप्रदायों में बँट गया और उसमें विभिन्नता और निर्बलता आ गई। शैव और वैष्णवों में तो न जाने कितने पुराने समय से संघर्ष होता आया है और उसके परिणामस्वरूप भारतीय- राष्ट्र की शक्ति क्षीण है। श्री समर्थ ने इस तथ्य को समझा और इस राष्ट्र- संगठन '' बाधा स्वरूप माना। यद्यपि उन्होंने प्रधान रूप में रामोपासना का प्रचार किया और हनुमान जी के सैकड़ों छोटे−बड़े मंदिर स्थापित कराए, पर उन्होंने यह भी कह दिया कि- वह राम '' परमात्मा के रूप में एक है और हम देश- काल के प्रभाव से जिन अनेक देवी−देवताओं की पूजा- उपासना करते हैं, वे सब उसी आत्म -तत्त्व के रूपांतर हैं। इस बात को उन्होंने दास-बोध '' के विविध देवता' अध्याय में बड़े अच्छे और मनोरंजक ढंग से प्रकट किया है-

'हे गजवदन! मैं '' नमस्कार करता हूँ। महिमा को पता नहीं चलता। छोटे सभी को तम्ही विद्या बुद्धि देते हो। हे सरस्वती! तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम्हीं से चारों वाचाओं का स्फुरण होता है। तुम्हारा वास्तविक स्वरूप जानने वाले लोग बहुत थोड़े हैं। चतुरानन! तुम धन्य हो। तुम्हीं ने सृष्टि की रचना की तथा शास्त्र प्रकट किए। हे! विष्णु तुम धन्य हो। तुम्हीं पालन करते हो और एक ही अंश से सब '' को दिन पर दिन बढ़ाते रहते हो और उनसे सब काम कराते हो। हे भोले शंकर! तुम धन्य हो। तुम्हारी देन का अंत नहीं है और तुम निरंतर राम का नाम जपते रहते हो। हे इंद्रदेव! तुम धन्य हो। तुम सब देवताओं के भी देवता या उनमें मुख्य हो। भला इंद्रलोक के वैभव को मैं कैसे बतला सकता हूँ? हे धर्मराज। तुम धन्य हो। धर्म- अधर्म सब जानते हो। तुम प्राणी मात्र के मन की बात जान लेते हो। हे व्यंकटेश। तुम्हारी महिमा !। अच्छे लोग तुम्हारे यहाँ खड़े होकर अन्न खाते है हे वनशंकरी! तुम भी धन्य हो तुम अनेक प्रकार के शाक खाती हो। सिवा ऐसा कौन है, जो इस प्रकार चुन- चुनकर भोजन करता। हे परम बलवान् हनुमान्! तुम धन्य हो। तुम उड़द के बड़ी की बहुत बड़ी माला पहिनते हो। हे तुलसी भवानी! तुम धन्य हो। तुम भक्तों पर '' सदा प्रसन्न रहती हो। हे पांडुरंग! तुम धन्य हो। तुम्हारे यहाँ सदा कथा की धूम मची रहती है। हे क्षेत्रपाल! तुम धन्य हो। तुमने बहुत- से लोगों को भक्तिमार्ग में लगाया है। राम, कृष्ण आदि अवतारों की महिमा तो अपार ही है। उन्हीं के कारण बहुत- से लोग उपासना में तत्पर हुए हैं। ''

''पर इन सब देवताओं का मूल यह अंतरात्मा है। भू-मंडल के सब लोग इसी को प्राप्त होते हैं। यही अनेक प्रकार के देवताओं का रूप धारण करके बैठा है, यही अनेक शक्तियों के रूप में प्रकट हुआ है और यही सब वैभवों का भोग करने वाला है। विचार करने से जान पड़ता है कि इसका विस्तार बहुत अधिक है। यही अनेक देवताओं और मनुष्यों का रूप धारण करके बराबर आता- जाता रहता है। कीर्ति और अपकीर्ति, बहुत अधिक निंदा और बहुत अधिक स्तुति सबका भोग यही करता है। अंतर्निष्ठ ज्ञानी ही इस पर पूरा- पूरा विचार करते है और अंत:भ्रष्ट इसी में डूब जाते हैं, क्योंकि वे बाहरी लोकाचार में ही डूबे रहते हैं। ''

दासबोध '' वास्तव में समयानुकूल शिक्षाओं का भांडागार है। यद्यपि वर्तमान समय में अधिकांश महाराष्ट्रीय ब्राह्मण गीता, रामायण या विष्णु सहस्र नाम इत्यादि की तरह प्रतिदिन उसके भी कुछ पृष्ठों का पाठ कर लेते हैं, पर समर्थ गुरु का उद्देश्य वास्तव में यह नहीं था। वे राष्ट्र के एक सच्चे संगठनकर्ता थे, इसलिए धर्म- चर्चा, उपासना आदि के माध्यम से इन्होंने लोगों की अंधविश्वास की भावना को दूर करके कर्तव्यपरायण बनने की शिक्षा दी है।। धर्म की शक्ति संसार में सबसे अधिक प्रबल है, हमारे शास्त्रों में तो स्पष्टतः कहा गया है- जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म करेगा। '' इसका आशय यही है पूजा ,उपासना, अवश्य देवार्चन जप, पाठ आदि उसी का नाम है, जो आडंबर और अंधश्रद्धा को त्यागकर धर्म तत्त्व को समझकर उसका पालन करता है। श्री समर्थ दासबोध '' में कहते है-

'साधु का मूल लक्षण यह है कि- सदा अपने वास्तविक स्वरूप को समझता रहे। संसार में रहते हुए भी उसमें लिप्त न हो। वह जब अपने स्वरूप को समझ लेता है तो उसे संसार की चिंता जरा भी नहीं होती। ''

यद्यपि सभी संत पुरुषों ने आत्मा को पहिचानने तथा भौतिक पदार्थों को क्षणभंगुर मानने की शिक्षा दी है, पर सांसारिक व्यवहार में इस भावना का उपयोग करने की तरफ थोड़े ही लोगों ने ध्यान दिया है। इस से श्री समर्थ एकमात्र ऐसे धर्म- नेता थे, जिन्होंने धार्मिक प्रचार खुले तौर पर राष्ट्रीय संगठन को सुदृढ़ बनाने का काम लिया और उसके द्वारा मुगल बादशाहत जैसी विशाल सत्ता पर करारा प्रहार करके उसे जर्जर बना दिया।

इस प्रकार श्री समर्थ ने भारतीय समाज को चैतन्य होकर अपना न्यायानुकूल अधिकार प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार से प्रेरित किया। वे यद्यपि निरंतर जप-तप करते रहते थे ,पर वे केवल भजनानंदी अथवा धर्म-शास्त्रों का प्रवचन करने वाले नहीं थे। वे जनता के सच्चे शिक्षक थे और अध्यात्म तथा व्यवहार का समन्वय करके ऐसा मार्गदर्शन करते थे, जिससे सांसारिक बाधाओं का निराकरण होकर लौकिक और पारलौकिक से मानव जीवन सफल हो सके। उन्होंने अपनी इस कार्य- से महाराष्ट्र में ऐसी जाग्रति उत्पन्न कर दी कि वहाँ विदेशी शासन का सर्वथा अत हो गया और आगे चलकर समग्र देश पर उसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

श्री समर्थ वर्णाश्रम- धर्म के अनुयायी थे, इसलिए उन्होंने समाज में ब्राह्मणों की प्रधानता का समर्थन किया और उन्हीं को मुख्य रूप से अपना शिष्य बनाकर संगठन कार्य को आगे बढ़ाया। कुछ लेखकों ने उन पर ब्राह्मण- पक्षपाती होने का दोषारोपण किया है, पर कुछ भी हो, उन्हीं के उपदेशों से महाराष्ट्र में स्वजातीय शासन कायम हो सका, जिसने भारत में मुसलमानी शासन के अंत करने में बहुत बड़ा काम किया। वह तो उसी अवसर पर अंग्रेजों के बीच में पड़ने के कारण परिस्थितियाँ फिर बदल गईं, अन्यथा श्री समर्थ अद्भुत कार्यशीलता और उपदेशों के प्रभाव से एक स्वाधीन भारतीय राष्ट्र का उद्भव सर्वथा संभव था। आज भी उनके उपदेशों से हम जातीयता की रक्षा और धर्म के व्यावहारिक रूप को समझने में समर्थ हो सकते हैं।

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