Thursday 10, July 2025
शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, आषाढ़ 2025
पंचांग 10/07/2025 • July 10, 2025
आषाढ़ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), आषाढ़ | पूर्णिमा तिथि 02:06 AM तक उपरांत प्रतिपदा | नक्षत्र पूर्वाषाढ़ा | इन्द्र योग 09:37 PM तक, उसके बाद वैधृति योग | करण विष्टि 01:55 PM तक, बाद बव 02:06 AM तक, बाद बालव |
जुलाई 10 गुरुवार को राहु 02:06 PM से 03:49 PM तक है | चन्द्रमा धनु राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:28 AM सूर्यास्त 7:16 PM चन्द्रोदय 7:19 PM चन्द्रास्त 5:26 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु वर्षा
V. Ayana दक्षिणायन
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - आषाढ़
- अमांत - आषाढ़
तिथि
- शुक्ल पक्ष पूर्णिमा
- Jul 10 01:37 AM – Jul 11 02:06 AM
- कृष्ण पक्ष प्रतिपदा
- Jul 11 02:06 AM – Jul 12 02:08 AM
नक्षत्र
- पूर्वाषाढ़ा - Jul 10 04:49 AM – Jul 11 05:56 AM

!! गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ !!

अमृतवाणी:- गुरु पूर्णिमा सन्देश 1986 : हमारे 50 वर्षों का सफर | पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी

अमृत सन्देश:- आध्यात्मिकता के गुण और भगवान की भक्ति | Adyatmikta Ke Gun Aur Bhagwan Ki Bhakti
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन




आज का सद्चिंतन (बोर्ड)



आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 10 July 2025 !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

अमृतवाणी: समाज के प्रति हमारे कर्त्तव्य क्या होने चाहिए ? पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
समाज के प्रति हमारे कुछ कर्त्तव्य और फर्ज हैं, समाज के लिए हमको कुछ काम करना चाहिए-त्याग करना चाहिए। ये माद््दा जब विकसित हो जाये, मनुष्य थोड़ी सी अपने अंदर समर्थता अनुभव करने लगे तब उसके बाद का तीसरा चरण ये होता कि हमें संघर्ष करने के लिए विशाल प्लान बनाना चाहिए। वो प्लान बनाने का अभी समय नहीं आया क्योंकि हम अभी ज्ञान की बात कर रहें हैं, हम अभी रचनात्मक कार्यक्रमों को दिशाएँ दे रहे हैं, लेकिन जहाँ कहीं भी इस तरह का माद्दा पाया जाय कम से कम उसका स्वरूप तो खड़ा किया जाना चाहिए। हमको एक ऐसी लोकवाहिनी-युग सेना खड़ी करनी चाहिए जो अनीति कि विरुद्ध और अवांछनीयता के विरुद्ध, अनावश्यक बातों के विरुद्ध और रूढ़वादिता के विरुद्ध-मूढ़ता के विरुद्ध लोहा ले।ये लोहा किस तरह से लिया जाय, यह स्थानीय परिस्थितियों पर टिका हुआ है। लड़ाई के लिए एक नीति निर्धारित की जा सकती है, उसका स्वरूप नहीं बनाया जा सकता। किस मोर्चे पर कब गोली चलाई जायेगी या छुपकर बैठा जायेगा या आगे बढ़ा जायेगा या पीछे हटा जायेगा, यह उस समय के सेनापति का काम है। पहले से उस मोर्चे की रूपरेखा नहीं बन सकती जैसे कि रचनात्मक कार्यक्रमों और ज्ञानयज्ञ के कार्यक्रमों की रूपरेखा बना दी गयी है। संघर्ष के बारे में उसका स्वरूप उस समय की परिस्थितियों पर टिका हुआ है। कहाँ अवांछनीयता कितनी ज्यादा है और कहाँ आदमी का क्रोध ज्यादा से ज्यादा उफन रहा है और कहाँ जनता सहयोग करने के लिए प्रस्तुत है, वहीं उस तरह के कमजोर मोर्चों को हमको पहले लेकर चलना चाहिए और जहाँ हमारी सफलता की आशा हो, पहले उन कामों को लेना चाहिए।बहरहाल काम कहाँ से शुरू किया जाय और अंत कहाँ किया जाय ये पीछे की बात है, लेकिन हमको ये विश्वास होना चाहिए और मानकर चलना चाहिए कि नया युग लाने से पहले-व्यक्ति का निर्माण करने से पहले हमको अवांछनीय तत्वों से जूझना ही पड़ेगा, लड़ना ही पड़ेगा। उस लड़ाई के लिए हमको अपने लोगों को भी तैयार करना चाहिए, स्वयं भी तैयार होना चाहिए और एक लोकवाहिनी संघर्ष सेना होनी चाहिए और इस तरह की छावनियाँ बनायी जानी चाहिए जहाँ कुछ आदमियों के खाने-पीने का भी इंतजाम हो, रहने-सहने का इंतजाम हो, जो अपने जीवन को हथेली पर रखकर के केवल पाप और अनाचार के विरुद्ध उसी तरीके से संघर्ष करें, जिस तरह से सुरक्षा सेनाएँ किया करती हैं और प्राचीनकाल के क्षत्रिय काम किया करते थे।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
अखण्ड-ज्योति से
संत कबीर कहते है कि गुरु गोविन्द दोनों खड़े है। मैं पहले किसके चरण स्पर्श करूं? अंततः गुरु की बलिहारी लेते है कि है गुरुवर! यदि आप न होते तो मुझे गोविन्द की परमतत्त्व की ईश्वरत्व की प्राप्ति न हुई होती गुरु का महत्व इतना अधिक बताया गया है हमारे साँस्कृतिक वाङ्मय में बिना उसका स्मरण किये हमारा कोई कार्य सफल नहीं होता। गुरुतत्त्व को जानने मानने उस पर अपनी श्रद्धा और अधिक गहरी जमाते हुए अपना अंतरंग न्यौछावर करने का पर्व है गुरुपूर्णिमा व्यास पूर्णिमा।
गुरु वस्तुतः शिष्य को गढ़ता है एक कुम्भकार की तरह। इस कार्य में उसे कहीं चोट भी लगानी पड़ती है कुसंस्कारों का निष्कासन भी करना पड़ता है तथा कहीं अपने हाथों की थपथपाहट से उसे प्यारा का पोषण देकर उसमें सुसंस्कारों का प्रवेश भी वह कराता है। यह वस्तुतः एक नये व्यक्तित्व को गढ़ने की प्रक्रिया का नाम है। संत कबीर ने इसलिए गुरु को कुम्हार कहते हुये शिष्य को कुम्भ बताया है। मटका बनाने के लिये कुम्भकार को अंदर हाथ लगाकर बाहर से चोट लगानी पड़ती है कि कहीं कोई कमी तो रह नहीं गयी। छोटी-सी कमी मटके में कमजोरी उसके टूटने का कारण बन सकती है।
गुरु ही एक ऐसी प्राणी है जिससे शिष्य के आत्मिक सम्बन्धी की सम्भावनायें बनती है प्रगाढ़ होती चली जाती है। शेष पारिवारिक सामाजिक प्राणियों से शारीरिक मानसिक-भावनात्मक सम्बन्ध तो होते है आध्यात्मिक स्तर का उच्चस्तरीय प्रेम तो मात्र गुरु से ही होता है। गुरु अर्थात् मानवीय चेतना का मर्मज्ञ मनुष्य में उलट फेर कर सकने में उसका प्रारब्ध तक बदल सकने में समर्थ एक सर्वज्ञ। सभी साधक गुरु नहीं बन सकते। कुछ ही बन पाते व जिन्हें वे मिल जाते है, वे निहाल हो जाते है।
रामकृष्ण कहते थे सामान्य गुरु कान फूँकते है जब कि अवतारों पुरुष श्रेष्ठ महापुरुष सतगुरु-प्राण फूँकते है। उनका स्पर्श, दृष्टि व कृपा ही पर्याप्त हैं। ऐसे गुरु जब आते है तब अनेकों विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द, गुरु विरजानन्द, संत एकनाथ, गुरु जनार्दन नाथ, पंत निवृत्ति नाथ, गुरु गहिनी नाथ, योगी अनिर्वाण, गुरु स्वामी निगमानन्द, आद्य शंकराचार्य, गुरु गोविन्दपाद कीनाराम, गुरु कालूराम तैलंग स्वामी, गुरु भगीरथ स्वामी, महाप्रभु चैतन्य, गुरु ईश्वरपुरी जैसी महानात्माएं विनिर्मित हो जाती है। अंदर से गुरु का हृदय प्रेम से लबालब होता है बाहर से उसका व्यवहार कैसा भी हों। बाहर से उसका व्यवहार कैसा भी हो। उसके हाथ में तो हथौड़ा है जो अहंकार को चकनाचूर कर डालता है ताकि एक नया व्यक्ति विनिर्मित हो।
गुरु का अर्थ है सोयों में जगा हुआ व्यक्ति, अंधों में आँख वाला व्यक्ति अंधों में आँख वाला व्यक्ति। गुरु का अर्थ है वहाँ अब सब कुछ मिट गया है मात्र परमात्मा ही परमात्मा है वहाँ बस! ऐसे क्षणों में जब हमें परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, सद्गुरु ही उपयोगी हो सकता है क्योंकि वह हमारे जैसा है
मनुष्य जैसा है हाड़ माँस मज्जा का है फिर भी हमसे कुछ ज्यादा ही है। जो हमने नहीं जाना उसने जाना है। हम कल क्या होने वाले है, उसकी उसे खबर है। वह हमारा भविष्य है, हमारी समस्त सम्भावनाओं का द्वार है। गुरु एक झरोखा है, जिससे दूरस्थ परमात्मा रूपी आकाश को हम देख सकते है।
वे अत्यन्त सौभाग्यशाली कहे जाते है जिन्हें सद्गुरु के दर्शन हुए। जो दर्शन नहीं कर पाए पर उनके शक्ति प्रवाह से जुड़ गये व अपने व्यक्तित्व में अध्यात्म चेतना के अवतरित होने की पृष्ठभूमि बनाते रहे, वे भी सौभाग्यशाली तो है ही जो गुरु की विचार चेतना से जुड़े गया वह उनके अनुदानों का अधिकारी बन गया। शर्त केवल एक ही है पात्रता का सतत् अभिवर्धन तथा गहनतम श्रद्धा का गुरु के आदर्शों पर आरोपण। जो इतना कुछ अंशों में भी कर लेता है वह उनका उतने ही अंशों में उत्तराधिकारी बनता चला जाता है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी दोनों ही आज हमारे बीच स्थूल शरीर से नहीं है किन्तु ऋषियुग्म रूपी गुरुसत्ता की सूक्ष्म व कारण शक्ति का प्रवाह यथावत् और भी प्रखर रूप में हम सबके बीच विद्यमान है। आवश्यकता है सही रूप में उनसे जुड़ने की। यों दीक्षित तो ढेरों उनसे जुड़ने की। ये दीक्षित तो ढेरों उनसे हो सकते हैं किन्तु दीक्षा का मूल अर्थ अपनी इच्छा उन्हें दी अपना अहं समर्पित कर स्वयं को खाली किया ऐसा जीवन में उतारने वाले कुछ सौ या हजार ही हो सकते हैं। ये ही सच्चे अर्थों में उनके शिष्य कहे जा सकते हैं। अनुदान के पात्र भी ये ही हो सकते हैं।
जिसने परमपूज्य गुरुदेव के अस्सी वर्ष के तथा परमवंदनीय माताजी के सत्तर वर्ष के जीवन के थोड़े से भी हिस्से को देखा है तो उन्हें वहाँ अगाध स्नेह की गंगोत्री बहती मिली है। इतना प्यार इस सीमा तक स्नेह जितना कि सगी माँ भी पुत्र को नहीं दे सकती, गुरुवर ने व मातृ सत्ता ने अपनी पापी से पापी संतान से भी किया। जिसने उनकी इस प्रेम धार में बहकर उनके ज्ञानरूपी नौका में बैठने भर की हिम्मत कर ली, वह तर गया। जो डर गया। जो नहीं देख पाये उस दिव्य गुरुसत्ता को वह उनकी वसीयत और विरासत और धरोहर से उस प्राण ऊर्जा को पाते है। पूज्यवर ने जो कुछ भी लिखकर रख दिया एवं प्रवचनों में कह गये वह एक प्रकार से शक्तिपात का एक माध्यम बन गया। ऋतम्भरा प्रज्ञा का दूरदर्शी विवेकशीलता का जागरण जो परिजनों के मन में उनके सत्साहित्य के पठन मनन उनकी चर्चा से लीला प्रसंगों के श्रवण से हुआ वह शक्तिपात नहीं तो और क्या हैं।
लाखों नहीं, करोड़ों व्यक्तियों के जीवन की दिशाधारा को आमूलचूल बदल देने का कार्य कभी -कभी इस धरती पर सम्भवामि युगे-युगे कहकर आने वाली सत्ता ही करती है। वह कार्य इस युग में भी ऋषि युग्म की कारण सत्ता द्वारा सम्पन्न हो रहा है यह देखा व अनुभव किया जा सकता है। असंभव को भी संभव कर दिखाना महाकाल के स्तर की सत्ता की ही बात है। समय को पहचानना व सद्गुरु की पहचान कर उनसे अनन्य भाव से जुड़ जाना ही इस समय की सबसे बड़ी समझदारी है यह तथ्य भली-भाँति हृदयंगम कर लिया जाना चाहिये।
गायत्री परिवार-युगनिर्माण अनेकों को जलाता रहा है तो उसका भी एक ही कारण है वह है उसकी निष्ठा प्रामाणिकता तथा अविरल बहती स्नेह की धार। गुरुपर्व इसी गुरुता को स्मरण रखने का पर्व है। यदि गुरुसत्ता के जीवन में आ जाय तो हमारा जीवन धन्य बन जाय। शिष्यत्व सार्थक हो जाय।
श्रद्धा की परिपक्वता समर्पण की पूर्णता शिष्य में अनन्त सम्भावनाओं के द्वार खोल देती है। शास्त्र पुस्तकें तो जानकारी भर देते है किन्तु पूज्यवर जैसी गुरुसत्ता स्वयं में जीवन्त शास्त्र होते है। उनकी एक झलक भर देख कर अपने जीवन में उतारने जीवन में उतारने का प्रयास ही शिष्य का सही अर्थों में गुरुवरण है। गुरुवरण का गुरु से एकत्व की अनुभूति का अर्थ है परमात्मा से एकात्मता। गुरु देह नहीं है सत्ता है शक्ति का पुँज है। देह जाने पर भी क्रियाशीलता यथावत् बरकरार रहती है, वस्तुतः वह बहुगुणित हो सक्रियता के परिणाम में और अधिक व्यापक हो जाती है।
हमें विश्वास रखना चाहिये कि गुरुसत्ता देह से हमारे बीच न हो हमारा वह सूक्ष्म कारण रूप में सतत् मार्गदर्शन करेगी। हम गुरुतत्त्व को नित्य जीवन में धारण करते रहने का अपना कर्तव्य पूरा करते रहें तो शेष कार्य वह स्वतः कर लेगी।
अखण्ड ज्योति- जुलाई 1995
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