Wednesday 06, August 2025
शुक्ल पक्ष द्वादशी, श्रवण
पंचांग 06/08/2025 • August 06, 2025
श्रावण शुक्ल पक्ष द्वादशी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), श्रावण | द्वादशी तिथि 02:08 PM तक उपरांत त्रयोदशी | नक्षत्र मूल 12:59 PM तक उपरांत पूर्वाषाढ़ा | वैधृति योग 07:17 AM तक, उसके बाद विष्कुम्भ योग | करण बालव 02:08 PM तक, बाद कौलव 02:23 AM तक, बाद तैतिल |
अगस्त 06 बुधवार को राहु 12:23 PM से 02:03 PM तक है | चन्द्रमा धनु राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:43 AM सूर्यास्त 7:02 PM चन्द्रोदय 5:11 PM चन्द्रास्त 3:13 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु वर्षा
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - श्रावण
- अमांत - श्रावण
तिथि
- शुक्ल पक्ष द्वादशी
- Aug 05 01:12 PM – Aug 06 02:08 PM
- शुक्ल पक्ष त्रयोदशी
- Aug 06 02:08 PM – Aug 07 02:28 PM
नक्षत्र
- मूल - Aug 05 11:22 AM – Aug 06 12:59 PM
- पूर्वाषाढ़ा - Aug 06 12:59 PM – Aug 07 02:01 PM
एक बार जब मैं लगभग 12 वर्ष का था, अपने ताऊ जी के यहाँ अजमेर गया हुआ था। एक दिन ताऊ जी के साथ स्टेशन पर गया। ताऊ जी किसी कार्यवश वहाँ रह गये और मुझ से घर लौटने को कहा। वहाँ से लौट कर मैं आ रहा था कि बड़े डाकखाने के सामने के तिराहे से मार्ग भूल कर दूसरी सड़क पर चल दिया। दस-पाँच कदम ही आगे बढ़ा था कि मुझे एक आवाज मालूम पड़ी कि मेरी मातृ भाषा (गुजराती) में कोई कह रहा है- ‘अरे तिमने क्या जाय छै’ (अरे उधर कहाँ जाता है)। मैंने मुड़ कर देखा, कोई नहीं था, मेरी भूल मुझे मालूम पड़ी और वापिस तिराहे पर आकर अपने घर आ गया। रास्ते में इस पर विचार किया और अब तक अनुभव करता हूँ कि वह ईश्वर की आवाज थी।
भूले हुए लोगों को सन्मार्ग पर लाने के लिए ऐसी ही आकाशवाणी ईश्वर हर एक के लिए किया करता है, किन्तु कैसे दुःख की बात है कि लोग उस पर ध्यान न देकर उलटे मार्ग पर ही चलते जा रहे हैं।
(श्री सोमनाथ जी नागर, मथुरा)
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1942
मेरा अटल विश्वास है कि जहाँ धर्म है, वहाँ यश है, जहाँ अधर्म है, वह क्षय है। मेरे जिले में कई दैवी संपत्तियां हैं, जो सत् पर आरुढ़ रह कर अपना वैभव बढ़ा चुके हैं तथा बढ़ा रहे हैं। इसी तरह अधर्म से नाश होता हुआ भी देखता हूँ। मेरी 43 वर्ष की आयु इस संसार में गत हो चुकी है। बचपन से ही सत्संगति में रहा। मैट्रिक में पढ़ता था, तब भी अच्छी संगति थी। मादक द्रव्यों की बात तो दूर, कभी पान, तम्बाकू तक का भी सेवन नहीं करता। प्रातः चार बजे उठना, ईश्वर भजन में लीन हो जाना, सूर्योदय से पूर्व नदी पर स्नान के लिए पहुँचना और आसन, प्राणायाम, हवन, जप आदि से निवृत्त होकर 8 बजे घर आना और गृह कार्यों में लग जाना। दोपहर को आधे घन्टे और शाम को ढाई घंटे फिर भजन करना। रात को सामूहिक प्रार्थना करना, यह मेरा नित्य नियम है। 12 साल से यह कार्यक्रम नियमित रूप से चल रहा है।
नियमित धार्मिक कार्यों का अत्युत्तम फल में सदैव अनुभव करता हूँ। आपत्तियाँ, कष्ट और चिन्ताओं से मैं बचा रहता हूँ। सभी कार्य यथाविधि सरलतापूर्वक चलते रहते हैं। चारों ओर दिव्य आनन्द की लहरें दौड़ती दृष्टिगोचर होती है। दुख रूप असत्य का परित्याग कर देने से सुखरूप सत्य शेष रह जाता है। जो सत्य धर्म पर आरुढ़ हैं, ईश्वर उनके लिए सुख−शांति की व्यवस्था करता है। इस सिद्धान्त पर विश्वास करता हुआ मैं उसकी सचाई का पूरी तरह अनुभव करता हूँ।
(ले.-राजकुमार हरभगत सिंह जी भंडरा, स्टेट)
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1942

अपने अंग अवयवों से | Apne Ang Avyavon Se | सूक्ष्मीकरण साधना में लिखा एक विशेष निर्देश पत्र

अपने अंग अवयवों से | Apne Ang Avyavon Se | Pt Shriram Sharma Acharya

इंद्र गायत्री मंत्र | Indra Gayatri Mantra | रक्षा-शक्ति, शत्रु, भूत-प्रेत, अनिष्ट आक्रमणों से रक्षा

बुद्ध की नमन परंपरा : अहंकार को छोड़कर ही ईश्वरीय मार्ग पर चलना संभव है। | Rishi Chintan

आप हैं गुरू रूप भगवन्, आप ही दिनमान हैं |

अमृतवाणी:- पीले वस्त्र की मर्यादा | Pile Vastra Ki Maryada पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

आलस्य न करना ही अमृत पद है। | Aalasya Na Karna Hi Amrit Pad Hai | Pt Shriram Sharma Acharya
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







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नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 06 August 2025 !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

अमृतवाणी: आध्यात्मिकता के गुण और भगवान की भक्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
विज्ञानमय चक्र, विज्ञानमय कोश, जिसको हम हृदय चक्र कहते हैं बेटे, मनुष्य की करुणा से ताल्लुक होता है, दया से ताल्लुक होता है, मुलायमियत से ताल्लुक रखता है, कोमलता से ताल्लुक रखता है, सेवा से ताल्लुक रखता है, श्रद्धा से ताल्लुक रखता है, भक्ति से ताल्लुक रखता है। यह गुण अगर आपके भीतर से पैदा होने लगे तो बेटे, आप विश्वास रखना, विश्वास रखना कि भगवान आपके भीतर, हृदय में प्रवेश कर रहे हैं। हृदय में प्रवेश कर रहे हैं। और जिसके हृदय में भगवान विराजमान हैं, उनकी हैसियत हनुमान की तरीके से होनी चाहिए।
हनुमान जी से सीता जी ने वो माला दी और वो चबा चबा के फेंकने लगे, फेंकने लगे। तो उन्होंने, सीता जी ने पूछा — "हमने इतनी कीमती माला आपको दी है, और क्यों फेंकते हैं?" उन्होंने कहा — "हमारे हृदय में भगवान विराजमान हैं।"
"अरे नहीं, हृदय में क्या भगवान विराजमान हो सकते हैं?" उन्होंने अपना कलेजा, हृदय चीर के दिखाया। यह दिखाया कि देखिए, हृदय में हमारे बैठे हुए हैं। हनुमान की तरीके से हो सकते हैं।
इसमें चीरने की जरूरत नहीं है, ऑपरेशन कराने की जरूरत नहीं है, और इसमें आपको एक्स-रे खिंचवाने की जरूरत नहीं है कि देखिए भगवान हमारे हृदय में हैं।
बेटे, भगवान मनुष्य के हृदय में करुणा के रूप में, दया के रूप में, उदारता के रूप में, सेवा के रूप में और शालीनता के रूप में आते हैं।
और इस तरीके से आप में आयें, तो आप भगवान के भक्त। और भगवान के भक्तों को जो अनुग्रह परमपिता से मिलते रहे हैं, और अनुग्रहों को पाकर के जिस तरीके से वो फलते और फूलते रहे हैं, अपनी नाव में स्वयं पार होते रहे हैं, अपनी नाव में बिठा करके असंख्यों को पार करते रहे हैं, वो रास्ता अभी भी — वो राजमार्ग जहाँ का तहाँ, वो राजमार्ग रुका नहीं है।
न आपके लिए रुका है, न किसी के लिए रुका था। न भगवान ने, न किसी और भक्तों ने कोई और रास्ता ढूंढा। आपके लिए कोई नया रास्ता बन सकता है, अपने व्यावहारिक प्रवृत्ति का जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए अगर कदम बढ़ा सकते हो, तो मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ।
और मैं आपसे वायदा कर सकता हूँ कि वो आध्यात्मिकता के जो गुण और भगवान की भक्ति के जो महत्व बताए गए हैं, वो सौ फीसदी सही हैं। उसका आप भी लाभ उठा सकते हैं। मैंने भी लाभ उठाने की कोशिश की, और वैसे ही पाया, जैसे कि ऋषियों ने लिखा है।
अखण्ड-ज्योति से
किसी भी कार्य की सिद्धि में आलस्य सबसे बड़ा बाधक है, उत्साह की मन्दता प्रवृत्ति में शिथिलता लाती है। हमारे बहुत से कार्य आलस्य के कारण ही सम्पन्न नहीं हो पाते। दो मिनट के कार्य के लिए आलसी व्यक्ति फिर करूंगा, कल करूंगा-करते-करते लम्बा समय यों ही बिता देता है। बहुत बार आवश्यक कार्यों का भी मौका चूक जाता है और फिर केवल पछताने के आँतरिक कुछ नहीं रह जाता।
हमारे जीवन का बहुत बड़ा भाग आलस्य में ही बीतता है अन्यथा उतने समय में कार्य तत्पर रहे तो कल्पना से अधिक कार्य-सिद्धि हो सकती है। इसका अनुभव हम प्रतिपल कार्य में संलग्न रहने वाले मनुष्यों के कार्य कलापों द्वारा भली-भाँति कर सकते हैं। बहुत बार हमें आश्चर्य होता है कि आखिर एक व्यक्ति इतना काम कब एवं कैसे कर लेता है। स्वर्गीय पिताजी के बराबर जब हम तीन भाई मिल कर भी कार्य नहीं कर पाते, तो उनकी कार्य क्षमता अनुभव कर हम विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। जिन कार्यों को करते हुए हमें प्रातःकाल 9-10 बज जाते हैं, वे हमारे सो कर उठने से पहले ही कर डालते थे।
जब कोई काम करना हुआ, तुरन्त काम में लग गये और उसको पूर्ण करके ही उन्होंने विश्राम किया। जो काम आज हो सकता है, उसे घंटा बाद करने की मनोवृत्ति, आलस्य की निशानी है। एक-एक कार्य हाथ में लिया और करते चले गये तो बहुत से कार्य पूर्ण कर सकेंगे, पर बहुत से काम एक साथ लेने से- किसे पहले किया जाय, इसी इतस्ततः में समय बीत जाता है और एक भी काम पूरा और ठीक से नहीं हो पाता। अतः पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कल के लिए न छोड़, तत्काल कर डालिए, कहा भी है-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥
दूसरी बात ध्यान में यह रखनी है कि एक साथ अधिक कार्य हाथ में न लिये जायं, क्योंकि इससे किसी भी काम में पूरा मनोयोग एवं उत्साह नहीं रहने से सफलता नहीं मिल सकेगी। अतः एक-एक कार्य को हाथ में लिया जाय और क्रमशः सबको कर लिया जाय अन्यथा सभी कार्य अधूरे रह जायेंगे और पूरे हुए बिना कार्य का फल नहीं मिल सकता। जैन धर्म में कार्य सिद्धि में बाधा देने वाली तेरह बातों को तेरह काठियों (रुकावट डालने वाले) की संज्ञा दी गई है। उसमें सबसे पहला काठिया ‘आलस्य’ ही है। बहुत बार बना बनाया काम तनिक से आलस्य के कारण बिगड़ जाता है।
प्रातःकाल निद्रा भंग हो जाती है, पर आलस्य के कारण हम उठकर काम में नहीं लगते। इधर-उधर उलट-पुलट करते-करते काम का समय गंवा बैठते हैं। जो व्यक्ति उठकर काम में लग जाता है, वह हमारे उठने के पहले ही काम समाप्त कर लाभ उठा लेता है। दिन में भी आलसी व्यक्ति विचार में ही रह जाता है, करने वाला कमाई कर लेता है। अतः प्रति समय किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए। कहावत भी है ‘बैठे से बेगार भली’। निकम्मे आदमी में कुविचार ही घूमते हैं। अतः निकम्मेपन को हजार खराबियों की जड़ बतलाया गया है।
मानव जीवन बड़ा दुर्लभ होने से उसका प्रति क्षण अत्यन्त मूल्यवान है। जो समय जाता है, वापिस नहीं आता। प्रति समय आयु क्षीण हो रही है, न मालूम जीवन दीप कब बुझ जाय। अतः क्षण मात्र भी प्रमाद न करने का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है। महात्मा गौतम गणधर को सम्बोधित करते हुए उन्होंने उत्तराध्ययन-सूत्र में ‘समयं गोयम मा पमायए’ आदि- बड़े सुन्दर शब्दों में उपदेश दिया है। जिसे पुनः-पुनः विचार कर प्रमाद का परिहार कर कार्य में उद्यमशील रहना परमावश्यक है। जैन दर्शन में प्रमाद निकम्मे पन के ही अर्थ में नहीं, पर समस्त पापाचरण के आसेवन के अर्थ में है। पापाचरण करके भी जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ ही न गंवाइये।
आलस्य के कारण हम अपनी शक्ति से परिचित नहीं होते- अनन्त शक्ति का अनुभव नहीं कर पाते और शक्ति का उपयोग न कर, उसे कुँठित कर देते हैं। किसी भी यन्त्र एवं औजार का आप उपयोग करते रहते हैं तो ठीक और तेज रहता है। उपयोग न करने से पड़ा-पड़ा जंग लगकर बरबाद और निकम्मा हो जाता है। उसी प्रकार अपनी शक्तियों को नष्ट न होने देकर सतेज बनाइये। आलस्य आपका महान शत्रु है। इसको प्रवेश करने का मौका ही न दीजिए एवं पास में आ जाए तो दूर हटा दीजिए। सत्कर्मों में तो आलस्य तनिक भी न करे क्योंकि “श्रेयाँसि बहु विघ्नानि” अच्छे कामों में बहुत विघ्न जाते हैं। आलस्य करना है, तो असत् कार्यों में कीजिए, जिससे आप में सुबुद्धि उत्पन्न हो और कोई भी बुरा कार्य आप से होने ही न पावे।
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1949 पृष्ठ 12
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