Friday 01, August 2025
शुक्ल पक्ष अष्टमी, श्रवण 2025
पंचांग 01/08/2025 • August 01, 2025
श्रावण शुक्ल पक्ष अष्टमी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), श्रावण | अष्टमी | नक्षत्र स्वाति 03:40 AM तक उपरांत विशाखा | शुभ योग 05:30 AM तक, उसके बाद शुक्ल योग | करण विष्टि 06:11 PM तक, बाद बव |
अगस्त 01 शुक्रवार को राहु 10:43 AM से 12:23 PM तक है | चन्द्रमा तुला राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:40 AM सूर्यास्त 7:06 PM चन्द्रोदय 12:30 PM चन्द्रास्त 11:21 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु वर्षा
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - श्रावण
- अमांत - श्रावण
तिथि
- शुक्ल पक्ष अष्टमी [ वृद्धि तिथि ]
- Aug 01 04:58 AM – Aug 02 07:23 AM
नक्षत्र
- स्वाति - Aug 01 12:41 AM – Aug 02 03:40 AM
- विशाखा - Aug 02 03:40 AM – Aug 03 06:35 AM

अमृतवाणी:- अहिंसा के योद्धा बुद्ध | Ahinsa Ke Yodha Buddh पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

ध्यान:- भावना प्रेम का ध्यान | Bhavna Prem Ka Dhyan | Shraddhey Dr. Pranav Pandya, Rishi Chintan
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 01 August 2025 !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

अमृतवाणी: संत एकनाथ और गधे की कथा पं श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
संत एकनाथ कंधे पर काँवड़ पे रख करके, वो ले जा रहे थे गंगाजल रामेश्वरम् पर चढ़ाने के लिए।
रास्ते में एक गधा मिला, जो अपने प्राण त्याग रहा था प्यास की वजह से, प्यास की वजह से।
संत एकनाथ ने यह मुनासिब समझा — एक के प्राण की रक्षा होती हो, वो ज़्यादा अच्छी है।
देवता प्रसन्न होते हों तो क्या हर्ज है, बैकुंठ न मिलता हो तो क्या हर्ज की बात है।
उन्होंने गंगाजल उतारा।
उस गधे को, जिस गधे के स्थान पर कहीं पानी नहीं मिल रहा था, एक घड़ा उनके गंगाजल के बाहर रखा हुआ था, उतार के गधे के मुँह में डाल दिया।
गधे ने लंबी साँस खींची और यह कहा — "भाई साहब, एक और अगर घड़ा मिल जाता पानी, तो शायद हम इस लायक हो जाते कि जंगल में से निकल जाते।"
संत एकनाथ ने दूसरा वाला घड़ा, जो रामेश्वरम् पर चढ़ाने के लिए सुरक्षित रखा था, उसको उठाया और गधे के मुँह में डाल दिया।
दोनों गंगाजल के घड़े पीकर के, गधा खड़ा हो गया और हँसने लगा और यह कहने लगा — "आओ संत एकनाथ, हम और आप छाती से छाती मिलाकर के मिलें।"
उन्होंने कहा — "चल, चल। गधे के साथ में क्यों मिलूँगा छाती मिलाकर के? मैं गधा थोड़े ही हूँ!"
"तो कौन हैं आप?"
"हम तो रामेश्वरम् हैं।"
"यहाँ कैसे पड़े हुए थे?"
"हम यह तलाश करने के लिए पड़े हुए थे — किसी के दिल भी है क्या?
हृदय भी है क्या?
हृदय, हृदय मीन्स करुणा।
करुणा भी किसी के अंदर है क्या?
दर्द भी किसी के अंदर होता है क्या?
संवेदनाएँ भी किसी के अंदर रहती हैं क्या?
दूसरों की सहानुभूति रखने वाले भी दुनिया में कहीं रहते हैं क्या?"
"हम यह देखने गए थे।
संत का लिबास पहने हुए ढेरों आदमी घूमते थे, और हमने वो आदमी, करुणा से ओतप्रोत, देखा नहीं।
हम यह देखने के लिए गए थे कि, है तो हम रामेश्वरम् पर — संत का कहीं हमको साक्षात्कार मिल जाए, संत का दर्शन मिल जाए, तो हमारी आँखें धन्य हो जाएँ।
हमने आपको देख लिया — संत के रूप में, आपकी भरी हुई हृदय की करुणा को देख कर के।
और आप संत हैं।
आइए, आपको छाती से लगाएँ — संत हैं।"
यह संत एकनाथ ने गधे को छाती से लगाया और यह कहा —
"हमने भी, हमने भी भगवान को पा लिया।
पीड़ित के रूप में, पतित के रूप में।
पतित और पीड़ा — दोनों हाथ भगवान पसारे हुए बैठे हैं।
पीड़ा पुकारती है — 'हम पीड़ा हैं, आप कुछ मदद कर सकते हो तो हमारी कीजिए।'
और पतित पुकारता है — 'आप हमारी मदद कर सकते हो तो ऊँचा उठा दीजिए।'
पीड़ा और पतन, पीड़ा और पतन, पीड़ा और पतन — यह बेटे, भगवान के दो हाथ हैं।
जो यह माँगते हैं कि आप कुछ हमको दें, तो फिर हम आपको दें।
संत एकनाथ ने कहा —
"हमने आपको पीड़ित के रूप में, दुखियारे के रूप में, पतित के रूप में पा लिया, और हम आपको छाती से लगाते हैं।"
उन्होंने कहा —
"आपको हमने सहृदय के रूप में, सज्जन के रूप में पा लिया, और हम छाती से लगाते हैं।"
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
सच यही है कि सारा अस्तित्व एक है और हममें से कोई उस अस्तित्व से अलग-थलग नहीं है। हम कोई द्वीप नहीं है, हमारी सीमाएँ काम चलाऊ हैं। हम किन्हीं भी सीमाओं पर समाप्त नहीं होते। सच कहेें, तो कोई दूसरा है ही नहीं, तो फिर दूसरे के साथ जो घट रहा है, वह समझो अपने ही साथ घट रहा है। भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध अथवा महर्षि पतंञ्जलि ने जो अङ्क्षहसा की महिमा गायी, उसके पीछे भी यही अद्वैत दर्शन है। इसका मतलब इतना ही है कि शिष्य होते हुए भी यदि तुम किसी को चोट पहुँचा रहे हो, या दु:ख पहुँचा रहे हो अथवा मार रहे हो, तो दरअसल तुम गुरुघात या आत्मघात ही कर रहे हो, क्योंकि गुरुवर की चेतना में तुम्हारी अपनी चेतना के साथ समस्त प्राणियों की चेतना समाहित है।
ध्यान रहे जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है, तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय में उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा नहीं कि आज ही अनन्त काल तक यह झंकार सुनी जायेगी। हमारा नामोनिशाँ भले ही न रहे। लेकिन हमने जो कभी चाहा, किया, सोच, भावना बनायी थी, वह सब इस अस्तित्व में गूँजती रहेगी। क्योंकि हममें से कोई यहाँ से भले ही मिट जाये, लेकिन कहीं और प्रकट हो जायेगा।
जो लहर मिट गयी है, उसका जल भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही है, दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर नीचे जुड़ी हुई हैं और जिस जल से उठ रही हैं यह लहर, उसी जल से गिरने वाली लहर वापस लौट रही है। इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं हैं। यह एक ही सागर का खेल है। हम सब भी लहरों से ज्यादा नहीं है। इस जगत्ï में सभी कुछ लहरवत् हैं।
परमेश्वर से एक हो चुके चेतना महासागर की भाँति है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न किये जाये। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचाते हैं, दु:ख पहुँचाते हैं, तो हम किसी और को नहीं, सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं को दु:खी करते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने बैल को चोट पहुँचायी। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर की पाँव पर उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्त:करण पीड़ा से भर गया।
क्या हम सचमुच ही अपने भगवान से प्रेम से करते हैं एवं उनमें भक्ति है? यदि हाँ तो फिर हमारे अन्त:करण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि सभी में भगवान ही समाये हैं। सभी स्थानों पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसलिए हमारे अपने मन में किसी के प्रति कोई भी द्वेष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस जगत् में ईश्वर, खुदा से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए लोगों को सर्वदा ही श्रेष्ठ चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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