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“इसके लिए तुम्हें एक से पाँच बनकर पाँच मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा। कुंती के समान अपनी एकाकी सत्ता को निचोड़कर पाँच देवपुत्रों को जन्म देना होगा, जिन्हें भिन्न-भिन्न मोर्चों पर भिन्न-भिन्न भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेंगी।’’
मैंने बात के बीच में विक्षेप करते हुए कहा— ‘‘यह तो आपने परिस्थितियों की बात कही। इतना सोचना और समस्या का समाधान खोजना आप बड़ों का काम है। मुझ बालक को तो काम बता दीजिए और सदा की तरह कठपुतली के तारों को अपनी उँगलियों में बाँधकर नाच नचाते रहिए। परामर्श मत कीजिए। समर्पित को तो केवल आदेश चाहिए। पहले भी आपने जब कोई मूक आदेश स्थूलतः या सूक्ष्म संदेश के रूप में भेजा है, उसमें हमने अपनी ओर से कोई ननुनच नहीं की। गायत्री के चौबीस महापुरश्चरणों के संपादन से लेकर स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने तक, लेखनी पकड़ने से लेकर विराट यज्ञायोजन तक एवं विशाल संगठन खड़ा करने से लेकर करोड़ों की स्थापनाएँ करने तक आपकी आज्ञा, संरक्षण एवं मार्गदर्शन ने ही सारी भूमिका निभाई है। दृश्य रूप में हम भले ही सबके समक्ष रहे हों, हमारा अंतःकरण जानता है कि यह सब कराने वाली सत्ता कौन है? फिर इसमें हमारा सुझाव कैसा; सलाह कैसी? परिस्थितियों के संदर्भ में आपका जो भी निर्देश होगा, वह करेंगे। इस शरीर का एक-एक कण, रक्त की एक-एक बूँद, चिंतन-अंतःकरण आपको— विश्वमानवता को समर्पित है।’’ उनने प्रसन्नवदन स्वीकारोक्ति प्रकट की एवं परावाणी से निर्देश व्यक्त करने का उन्होंने संकेत किया।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में 3 एवं 4 नवम्बर 2025 को राज्य स्थापना दिवस उत्साहपूर्वक मनाया जा रहा है। इस अवसर पर 3 नवम्बर को राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयीय एकल एवं समूह नृत्य प्रतियोगिता का भव्य आयोजन किया गया।
कार्यक्रम का शुभारंभ विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने दीप प्रज्वलन के साथ किया। तत्पश्चात राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए प्रतिभागियों ने मनमोहक नृत्य प्रस्तुतियों से मंच को जीवंत कर दिया। प्रस्तुतियों में सांस्कृतिक विविधता और एकता का अद्भुत संगम देखने को मिला, जिसने सभी उपस्थित जनों को भावविभोर कर दिया।
कार्यक्रम के समापन पर आदरणीय डॉ. पंड्या जी ने सभी प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र एवं पुरस्कार प्रदान किए और उनके उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएँ दीं।
इस अवसर पर विश्वविद्यालय के अधिकारीगण, आचार्यगण एवं विद्यार्थीगण बड़ी संख्या में उपस्थित रहे और कार्यक्रम को सफल बनाया।













A group of 18 participants from Divine Values School, Ecuador visited Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar from 26th October to 3rd November to study Ayurveda, Plant Medicine, Yagyopathy, Marma Therapy, Naturopathy, and other Indic Vedic Knowledge Systems aimed at propagating the Ayurvedic tradition globally.
During their visit, the group interacted with Respected Dr. Chinmay Pandya, Pro-Vice Chancellor, Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, gaining insights into India’s spiritual and scientific heritage.
Today, a valediction ceremony was held, marking the successful completion of their learning journey at DSVV, celebrating the confluence of ancient Indian wisdom and global curiosity.





परम पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी के पावन आशीर्वाद तथा आदरणीय प्रतिकुलपति डॉ. चिन्मय पंड्या जी के प्रेरणादायी मार्गदर्शन में, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार की एम.ए. (पत्रकारिता एवं जनसंचार) की छात्राएं गौरी दीक्षित एवं नंदनी ने आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) द्वारा आयोजित राष्ट्रीय अंतर-विश्वविद्यालय लघु वीडियो प्रतियोगिता 2025 में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया।
दोनों छात्राओं द्वारा निर्मित वृत्तचित्र फिल्म को राष्ट्रीय स्तर पर तीसरा स्थान प्राप्त हुआ। इस उपलब्धि से विश्वविद्यालय को गौरव और पहचान प्राप्त हुई है। यह सफलता देव संस्कृति विश्वविद्यालय की उस सतत प्रतिबद्धता का प्रतीक है, जिसके माध्यम से संस्थान रचनात्मक, मूल्यनिष्ठ और सामाजिक रूप से जागरूक मीडिया पेशेवरों का निर्माण कर रहा है।
प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करने के उपरांत छात्राओं ने आदरणीय प्रतिकुलपति डॉ. चिन्मय पंड्या जी से भेंट की। डॉ. पंड्या जी ने दोनों छात्राओं को हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आशीर्वाद प्रदान करते हुए उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की।
कैसा मुसीबत का समय है। आदमी को मालूम तो है, पर नहीं भी है। बकरे को जब काटने के दिन आते हैं, तो उसके कुछ सेकंड और कुछ मिनट पहले तक वह भी चारा खाता रहता है, पानी पीता रहता है और आपस में टकराव मारता रहता है। यह ध्यान नहीं है कि हमारा क्या बुरा समय आने वाला है।
आज ऐसी ही विभीषिकाओं से समय घिरा हुआ है। आदमी का चाल-चलन, आदमी का चिंतन, आदमी का चरित्र, आदमी का व्यवहार जिस तरीके से घटिया हो गए हैं, उससे नेचर बहुत नाखुश हो गई है। अदृश्य जगत में ऐसा भयावह वातावरण पैदा हो गया है कि रोज प्रकृति के प्रकोप की घटनाएँ आप सुनते रहते हैं।
प्रकृति का प्रकोप होता है तो आए दिन महामारियाँ फैलती हैं, आए दिन भूकंप आते हैं, आए दिन दूसरी मुसीबतें आती हैं। मुसीबतों का चारों ओर अंधकार आज के जमाने में छाया हुआ है। कल के बारे में कोई नहीं जानता। महायुद्ध के पश्चात हमारा क्या होगा, कल के बारे में कोई नहीं जानता।
बढ़ी हुई जनसंख्या का परिणाम क्या होगा, कोई जानता नहीं है। आज की आपाधापी जिस तरीके से आदमी को हैरान और परेशान करने पर तुली हुई है, उसके परिणाम क्या होंगे, आज ही कौन अच्छी दिशा है। लेकिन कल के दिन हमारे और भी भयंकर परिणाम आने की बात दिखाई पड़ती है।
अपराध बे-तरीके से बढ़ते चले जाते हैं। हर आदमी का स्वभाव उच्छृंखल और अपराधी होता चला जाता है। वर्जनाएँ, जिसके अंतर्गत कहा गया था कि आदमी को मर्यादाओं में रहना चाहिए, आदमी बे-तरीके से दौड़ता हुआ चला जा रहा है। इसके परिणाम तो खराब होने ही वाले हैं।
इस सृष्टि का नियत नियम ऐसा है—कर्म को भरना पड़ता है। कर्म के भरने वाले परिणाम को कोई नहीं मेट सकता। जहर खाने के बाद में बचाव करने की आशा कौन करेगा? आग में हाथ देने के बाद में बचाव किया था कौन करेगा? आज भी इसी तरीके की परिस्थितियाँ हैं, जिसमें कि आप और हम, सारी दुनिया के लोग, जिसमें संपन्न लोग भी शामिल हैं, गरीब लोग भी शामिल हैं, भारतीय भी शामिल हैं, प्रवासी भी शामिल हैं, अन्यान्य लोग भी शामिल हैं—एक तरह की मुसीबत में गिरे हुए हैं।
क्या फिर दुनिया का विनाश ही होना है? विनाश नहीं होगा। जिस भगवान ने इस दुनिया को इतनी बेहतरीन दुनिया बनाया है कि जैसे अब तक ब्रह्मांड के किसी भी जगह पता नहीं चला कि इतनी खूबसूरत दुनिया, इतना खूबसूरत ग्रह कहीं और भी है क्या। जिस कलाकार ने इस दुनिया को बनाया है, वह आसानी से मिटने वाला नहीं है।
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य

आत्मकल्याण के साधक को उसकी प्राप्ति के मार्ग में सब से अधिक रोड़ा है तो यह काम है। काम विजय के बिना आत्म साक्षात्कार सम्भव नहीं हो सकता। काम को वश कर सर्वोत्तम दृष्टि प्राप्त करने के लिये अनेक साधन हैं। पर उन सब साधकों में गायत्री सर्वश्रेष्ठ है।
गायत्री की उपासना के प्रथम रूप में मातृरूप है, जिसमें सभी दिव्यताएं मौजूद हैं, करने पर अल्प समय में ही सब स्त्रियों में मातृभाव उत्पन्न होने लग जाता है जिससे कर्मरूपी शत्रु का दमन और सर्वात्म भाव का मार्ग खुल जाता है।
अब इस मार्ग में प्रगति शीघ्र होने में बाधा नहीं रहती। धीरे-धीरे साधक की दृष्टि विशाल होने लगती है। गायत्री माता का साक्षात्कार केवल स्त्रियों में ही नहीं अपितु प्राणी मात्र में होने लगता है। सब में उसको उसकी अनुभूति होने लगती है। मानवता का ध्येय साध्य होने में गायत्री उपासना ही मेरे विचार में सर्वश्रेष्ठ है।
नित्य प्रातः और सायं संध्या-समय एकान्त में मन एकाग्र कर गायत्री माता के रूप में स्थूल रूप से ध्यान करें। उसमें सत्चित् और आनन्द का आरोप करें। उसकी सर्व व्यापकता, सर्व शक्ति मानत्व का अनुभव कर ध्यान करें। सभी स्त्रियों को गायत्री माता के रूप में देखें। उनके शरीर, मन और बुद्धि का प्रकाश गायत्री माँ ही है। सो विचार दृढ़ करता जाए। इस प्रकार धीरे धीरे पर तीव्र अभ्यास से दृष्टि विशाल होती है। बुद्धि में प्रकाश की प्राप्ति है। ईर्ष्या, द्वेष, वैरत्व हिंसा का समूल उच्छेद होता है। सब चराचर में उसी ‘माँ’ को दिव्य झाँकी होने लगती है।
अन्य साधनों से भी यह लाभ हो सकता है, परन्तु जितना शीघ्र कामवासना का त्याग गायत्री साधना से होता है, अन्य साधनों से नहीं होता यह मेरा विश्वास है।
अतः जो अधिक काम वासना का स्थान शीघ्र करना चाहता हो वह गायत्री की साधना करे तो वह अपना ध्येय शीघ्र प्राप्त कर लेगा। यह पंक्तियाँ में किसी पढ़े सुने आधार पर नहीं कहता वरन् अपनी गायत्री उपासना में अनुभव के आधार पर उपलब्ध हुए सुदृढ़ विश्वास को प्रकट कर रहा हूँ।
अखण्ड ज्योति 1951 जुलाई

गुरुदेव ने कहा— ‘‘अब तक जो बताया और कराया गया है, वह नितांत स्थानीय था और सामान्य भी। ऐसा जिसे वरिष्ठ मानव कर सकते हैं। भूतकाल में करते भी रहे हैं। तुम अगला काम सँभालोगे, तो यह सारे कार्य दूसरे तुम्हारे अनुवर्ती लोग आसानी से करते रहेंगे। जो प्रथम कदम बढ़ाता है, उसे अग्रणी होने का श्रेय मिलता है। पीछे तो ग्रह-नक्षत्र भी— सौरमंडल के सदस्य भी अपनी-अपनी कक्षा पर बिना किसी कठिनाई के ढर्रा चला ही रहे हैं।”
“अगला काम इससे भी बड़ा है। स्थूल वायुमंडल और सूक्ष्म वातावरण इन दिनों इतने विषाक्त हो गए हैं, जिससे मानवी गरिमा ही नहीं, सत्ता भी संकट में पड़ गई है। भविष्य बहुत भयानक दीखता है। इससे परोक्षतः लड़ने के लिए हमें-तुम्हें वह सब कुछ करना पड़ेगा, जिसे अद्भुत एवं अलौकिक कहा जा सके।”
“धरती का घेरा— वायु, जल और जमीन तीनों ही विषाक्त हो रहे हैं। वैज्ञानिक कुशलता के साथ अर्थलोलुपता के मिल जाने से चल पड़े यंत्रीकरण ने सर्वत्र विष बिखेर दिया है और ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का जोखिम हर किसी के सिर पर मँडराने लगा है। अणु-आयुधों के अनाड़ियों के हाथों प्रयोगों का खतरा इतना बड़ा है कि उसके तनिक-से व्यतिक्रम पर सब कुछ भस्मसात् हो सकता है। प्रजा की उत्पत्ति बरसाती घास-पात की तरह हो रही है। यह खाएँगे क्या? रहेंगे कहाँ? इन सब विपत्तियों-विभीषिकाओं से विषाक्त वायुमंडल धरती को नरक बना देगा।”
“जिस हवा में लोग साँस ले रहे हैं, उसमें जो भी साँस लेता है, वह अचिंत्य चिंतन अपनाता और दुष्कर्म करता है। दुर्गति हाथों-हाथ सामने आती जाती है। यह अदृश्य लोक में भर गए विकृत वातावरण का प्रतिफल है। इस स्थिति में जो भी रहेगा, नर-पशु और नर-पिशाच जैसे क्रिया-कृत्य करेगा। भगवान की इस सर्वोत्तम कृति धरती और मानवसत्ता को इस प्रकार नरक बनते देखने में व्यथा होती है। महाविनाश की संभावना से कष्ट होता है। इस स्थिति को बदलने, इस समस्या का समाधान करने के लिए भारी गोवर्द्धन पर्वत उठाना पड़ेगा; लंबा समुद्र छलाँगना पड़ेगा। इसके लिए वामन जैसे बड़े कदम उठाने के लिए तुम्हें बुलाया गया है।”
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
आप सभी जानते हैं कि जब रात्रि समाप्त होती है, उत्तर-पूर्व दिशा से ही सूरज निकलता है। सूरज के निकलने की कोई और दिशा है ही नहीं। जब चारों ओर अंधकार छाया हुआ होता है, जब हर एक आदमी ठोकर खाता हुआ फिरता है, न दिशा का ज्ञान है, न वस्तु का ज्ञान है, सब जगह घोर अंधेरा छाया हुआ है और निशाचर, जिसमें उल्लूक भी शामिल है, बिच्छू, साँप भी शामिल हैं, चोर, भूत-पलीत भी शामिल हैं, सब घूमते-फिरते रहते हैं। भले आदमी शांति के खर्राटे लेकर सोए रहते हैं। ऐसे अंधकार के समय में, जब चारों ओर निस्तब्धता छाई रहती है, हलचलों का नाम भी दिखाई नहीं पड़ता, नींद की खुमारी सब पर चढ़ी रहती है। ऐसे घोर अंधकार के समय में, सुनसान सब जगह हो जाता है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता है।
उस अंधकार को दूर करने के लिए जब कभी सूरज निकलता है, जब कभी उषाकाल आता है, ब्रह्म मुहूर्त आता है, तो उसके लिए देखना पूरब ही पड़ता है। प्राची अपने साथ उषाकाल लाती है, ब्रह्म मुहूर्त लाती है। प्रातःकाल में ही सूरज की लालिमा चमकती है और वह घोर अंधकार, जो और किसी तरह दूर नहीं हो सकता, उसको मिटाने के लिए और कोई समर्थ नहीं हो सकता था, वह केवल प्राची से उदय होने वाले सूर्य के द्वारा ही उदय होता है। यह आप दिन और हर दिन देखते हैं।
लेकिन एक ऐसी बात भी है, जो आपको कभी-कभी देखने को मिलती है। कभी-कभी समय ऐसे बुरे बदल जाते हैं कि चारों ओर अंधकार जैसी परिस्थितियाँ छा जाती हैं। लोग रास्ता भूल जाते हैं। भ्रम, भ्रांतियाँ और विकृतियाँ आदमी के मस्तिष्क के ऊपर इतनी छा जाती हैं कि न आदमी को अपने निजी कर्तव्यों का ज्ञान रहता है, न सामाजिक उत्तरदायित्व का ध्यान रखता है। ऐसे भटकाव की स्थिति में, ऐसी मुसीबत आकर खड़ी हो जाती है जैसे कि आज आप देख रहे हैं। चारों ओर मुसीबतों का माहौल है, चारों ओर भय और आशंका का आतंक भरा वातावरण छाया हुआ है।
आप देखते हैं न, एटम बम की विभीषिकाओं के बारे में किस कदर बातें अखबारों में छपती रहती हैं। आप पढ़ते हैं न, किस कदर हवा के जहरीली हो जाने की वजह से और संसार में तापमान बढ़ जाने की वजह से कैसी मुसीबतें आने वाली हैं।
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य

भारतीय धर्म में नारी की असाधारण महत्ता है। क्योंकि मानव जाति की उद्गम गंगोत्री नारी ही है। ऋषियों ने नारी को प्रत्यक्ष देवताओं में गिना है और उसके प्रति पूज्य भावना रखने का मनुष्य मात्र को उपदेश दिया है। बेटी, बहिन और माता के तीनों ही रूप में नारी को भारतीय पुरुष सदा से दैवी भावनाओं के साथ सिर झुकाता रहा है। यह पूज्य भावना ही हिन्दू जाति की वह श्रेष्ठता थी जिसके कारण वह संसार का सिरमौर रहा। भगवान मनु ने स्पष्ट शब्दों में कहा था “जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। और जहाँ वे तिरष्कृत होती हैं वहाँ (उन्नति के) सब प्रयत्न निष्फल होते हैं।”
विकार पूर्ण वासना की, दूषित दृष्टि की, यहाँ सदा से निन्दा की जाती रही है। ‘रमणी’ नारी का घृणित और विकृत रूप है। स्त्री की जहाँ शंकराचार्य प्रभृति महात्माओं ने निन्दा की है, उससे दूर रहने का आदेश किया है, वह रमणी रूप ही है। माता के रूप में भगवती आद्य शक्ति की स्वयं शंकराचार्य जी ने भी अत्यन्त भावना पूर्ण स्तुति की है।
आज लोगों की आँखों में कीचड़ भर गई है वे वस्तु स्थिति को नहीं देख पर रहे। रमणी और कामना की विषैली प्रतिमूर्ति बनाकर नारी को देखा जा रहा है, आज सिनेमा, नाटक, उपन्यास, चित्र, संगीत, कला आदि में स्त्री को विलास सामग्री के रूप उपस्थित किया जा रहा है। तरुणी, नवयौवना, अर्ध नग्न, विलासिनी, विकार ग्रस्त, भाव भंगिमा वाली नारी का आज पुरुष समाज चिन्तन करता है उससे इन्द्रिय सुख की ही कामना करता है बेटी को वात्सल्य, बहिन का सौहार्द, माता की आराधना, लोग भूलते से जा रहे हैं।
इस दूषित दृष्टि का कितना दुष्परिणाम होता है इसे आज का मन्द बुद्धि जन समाज नहीं समझता। प्राचीन काल के ऋषि मुनि समझते थे। शारीरिक निरोगता, बलिष्ठता, दीर्घ जीवन, मानसिक संतुलन, पारिवारिक सुव्यवस्था, सुसंतति, पारस्परिक विश्वास, रक्त शुद्धि, पितृ भक्ति, पवित्रता, आदि लाभों से मनुष्य जाति तभी लाभान्वित हो सकती है। जब दृष्टि में पवित्रता हो आत्मिक लाभ तो इस तत्व के बिना हो ही नहीं सकता। नारी जैसे पूजनीय परम पवित्र तत्व के प्रति कुविचारों की दोष दृष्टि रहेगी तो उसका यह आध्यात्मिक तिरस्कार समाज का नाश कर देगा उसे पतन के गर्त में गिरने से कोई बचा न सकेगा। भगवान मनु का वचन असत्य नहीं हो सकता कि ‘यदि नारी का तिरस्कार होगा तो (उन्नति के) सब प्रयत्न निष्फल होंगे।’
अखण्ड ज्योति द्वारा गायत्री प्रचार का जो आन्दोलन चलाया जा रहा है, उसमें मुझे सर्वोत्कृष्ट लाभ यह पड़ दिखाई पड़ता है कि ईश्वर की, नारी (गायत्री) के रूप में आराधना करने के स्त्री जाति के प्रति पवित्रता, आदर और श्रद्धा की भावना का जन समाज में विकास होगा। गायत्री उपासनाओं में कुमारी कन्याओं की पूजा होती है। ध्यान और पूजन में अमित सौंदर्य की प्रति मूर्ति गायत्री के प्रति मातृभावना स्थापित करनी पड़ती है। इस प्रकार मनुष्य नारी के जिन पुत्री, बहिन और माता के निर्मल स्वरूपों को भूलता जाता है उनको पुनः हृदयंगम कर सकेगा।
मेरी गायत्री आन्दोलन के प्रति बड़ी श्रद्धा है। शक्ति भर इस पुण्य कार्य में भाग लेती हूँ। मेरा विश्वास है कि आचार्य जी का यह प्रयत्न भारतीय नारी जाति के लिए वैसा ही उन्नायक सिद्ध होगा जैसा कि पूज्य बापू का हरिजन आन्दोलन करोड़ों भूल मानवों में प्राण संसार करने वाला सिद्ध हुआ। मैं उस सुन्दर भविष्य का आशाजनक स्वप्न देखती हूँ जब कि पुरुषों के हृदय में नारी के प्रति पुण्य भावनाएँ रहेगी और फलस्वरूप यह भारत भूमि सम्पूर्ण सुख साधनों से परिपूर्ण होकर देव भूमि बनेगी। भगवान करे यह गायत्री आन्दोलन सफल हो।
अखण्ड ज्योति 1951 जुलाई

चौथी बार गत वर्ष पुनः हमें एक सप्ताह के लिए हिमालय बुलाया गया। संदेश पूर्ववत् संदेश रूप में आया। आज्ञा के परिपालन में विलंब कहाँ होना था। हमारा शरीर सौंपे हुए कार्यक्रमों में खटता रहा है, किंतु मन सदैव दुर्गम हिमालय में अपने गुरु के पास रहा है। कहने में संकोच होता है, पर प्रतीत ऐसा भी होता है कि गुरुदेव का शरीर हिमालय रहता है और मन हमारे इर्द-गिर्द मँडराता रहता है। उनकी वाणी अंतराल में प्रेरणा बनकर गूँजती रहती है। उसी चाबी के कसे जाने पर हृदय और मस्तिष्क का पेंडुलम धड़कता और उछलता रहता है।
यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्मशरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना-क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने पर पिसे को पीसना भर रह जाता है। मार्ग देखा-भाला था। दिनचर्या बनी बनाई थी। गोमुख से साथ मिल जाना और तपोवन तक सहज जा पहुँचना, यही क्रम पुनः चला। उनका सूक्ष्मशरीर कहाँ रहता है? क्या करता है? यह हमने कभी नहीं पूछा। हमें तो भेंट का स्थान मालूम है— मखमली गलीचा। ब्रह्मकमल की पहचान हो गई थी। उसी को ढूँढ़ लेते और उसी को प्रथम मिलन पर गुरुदेव के चरणों पर चढ़ा देते। अभिवंदन-आशीर्वाद के शिष्टाचार में तनिक भी देर न लगती और काम की बात तुरंत आरंभ हो जाती। यही प्रकरण इस बार भी दुहराया गया। रास्ते में मन सोचता आया कि जब भी, जितनी बार भी बुलाया गया है, तभी पुराना स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा है। इस बार भी संभवतः वैसा ही होगा। शान्तिकुञ्ज छोड़ने के उपरांत संभवतः अब इसी ऋषिप्रदेश में आने का आदेश मिलेगा और इस बार कोई काम पिछले अन्य कामों की तुलना में बड़े कदम के रूप में उठाना होगा। यह रास्ते के संकल्प-विकल्प थे। अब तो प्रत्यक्ष भेंट हो रही थी।
अब तक के कार्यों पर उनने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। हमने इतना ही कहा— ‘‘काम आप करते हैं और श्रेय मुझ जैसे वानर को देते हैं। समग्र समर्पण कर देने के उपरांत यह शरीर और मन दीखने भर के लिए ही अलग है। वस्तुतः यह सब कुछ आपकी ही संपदा है। जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा तोड़-मोड़कर आप ही उपयोग कर लेते हैं।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य


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