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आत्मचिंतन के क्षण
उन्नति के मार्ग किसी के लिए प्रतिबन्धित नहीं हैं। वे सबके लिए समान रूप से खुले हैं। परमात्मा के विधान में अन्याय अथवा पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं है। जो व्यक्ति अपने अंदर जितने अधिक गुण, जितनी अधिक क्षमता और जितनी अधिक योग्यता विकसित कर लेगा, उसी अनुपात में उतनी ही अधिक विभूतियों का अधिकारी बन जायेगा।
असंख्यों बार यह परीक्षण हो चुके हैं कि दुष्टता किसी के लिए भी लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। जिसने भी उसे अपनाया वह घाटे में रहा और वातावरण दूषित बना। अब यह परीक्षण आगे भी चलते रहने से कोई लाभ नहीं। हम अपना जीवन इसी पिसे को पीसने में-परखे को परखने में न गँवायें तो ही ठीक है। अनीति को अपनाकर सुख की आकाँक्षा पूर्ण करना किसी के लिए भी संभव नहीं हो सकता तो हमारे लिए ही अनहोनी बात संभव कै...
आत्मचिंतन के क्षण
ऐसा विचार मत करो कि उसका भाग्य उसे जहाँ-तहाँ भटका रहा है और इस रहस्यमय भाग्य के सामने उसका क्या बस चल सकता है। उसको मन से निकाल देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी तरह के भाग्य से मनुष्य बड़ा है और बाहर की किसी भी शक्ति की अपेक्षा प्रचण्ड शक्ति उसके भीतर मौजूद है, इस बात को जब तक वह नहीं समझ लेगा, तब तक उसका कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
ऐसा कोई नियम नहीं है कि आप सफलता की आशा रखे बिना, अभिलाषा किये बिना, उसके लिए दृढ़ प्रयत्न किये बिना ही सफलता प्राप्त कर सकें । प्रत्येक ऊँची सफलता के लिए पहले मजबूत, दृढ़, आत्म-श्रद्धा का होना अनिवार्य है। इसके बिना सफलता कभी मिल नहीं सकती। भगवान् के इस नियमबद्ध और श्रेष्ठ व्यवस्थायुक्त जगत् में भाग्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
जिसने...
आत्मचिंतन के क्षण
श्रेष्ठता दैवी संपत्ति है। जिसमें सद्गुण हैं, सद्विचार हैं, सद्भाव हैं, वस्तुतः वही सच्चा सम्पत्तिवान् है। हमारी आकांक्षाएँ विचारधाराएँ, चेष्टाँए, अभिलाषएँ, क्रियाएँ, अनुभूतियाँ श्रेष्ठ होनी चाहिए। हम जो कुछ सोचें, जो कुछ करें, वह आत्मा के गौरव के अनुरूप हो। पानी और दूध मिला हुआ हो, तो हंस उसमें दूध को पीता है और पानी को छोड़ देता है, यही कार्य पद्धति हमारी भी होनी चाहिए।
आत्मबल वृद्धि के लिए उपासना, आत्मशोधन और परमार्थ तीनों का ही समावेश आवश्यक है। भगवान् का नित्य स्मरण करें, अपने दोष- दुर्गुणों से नित्य संघर्ष करें और उन्हें हटावें। सद्गुणों औैैर योग्यताओं को बढ़ाने के लिए नित्य पुरुषार्थ करें। पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरी ईमानदारी और तत्परतापूर्...
आत्मचिंतन के क्षण
हे पाठक गण।
अपने प्रत्येक कार्य को आप स्वयं पूर्ण करें। किसी भी काम को दूसरे पर न छोडें। दूसरे के सहारे की आशा तनिक भी न रखें। अपने लिये ऐसे कार्यों का चुनाव करें, जिन्हें आप स्वयं अपने बल- बूते पर पूरे कर सकें। दूसरों के भरोसे कल्पना के बड़े- बड़े महल न बनावें। दूसरों के बल बूते आपको स्वर्ग का भी राज्य, अपार धन सम्पत्तियों का अधिकार, उच्च पद प्रतिष्ठा भी मिले, तो उसे ठुकरा दें।
अस्वाद व्रत अपने आप में एक महाव्रत है। यह एक ऐसा महाव्रत है, जिसे महात्मागान्धी एवं बिनोवा जैसे अनेकों महामानवों ने अपनाया और उस आधार पर अपने आहार- विहार को उत्तरोत्तर शुद्ध- सात्विक बनाते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए। सप्ताह में एक दिन भी इसे पालन किया जाय,...
आत्मचिंतन के क्षण
मन का, मस्तिष्क का नाश करने में अप्रसन्नता से बढ़कर और कोई घातक शत्रु नहीं। जिसका चित्त किसी न किसी कारण दुखी बना ही रहता है। जो आशंका, भय, असफलता से चिन्तित रहता है, जिसे द्वेष, कुढ़न, शोक, आवेश, उद्वेग घेरे रहते हैं, जो अहंकार से गर्दन फुलाये रहता है सीधे मुँह किसी से बात करना जिसे सुहाता नहीं ऐसे बद मिज़ाज आदमी अपनी मानसिक शक्तियों का सत्यानाश करते रहते हैं।
जिसे अपनी महानता का, अपने आत्म गौरव का ध्यान है, वह नीच विचारों और पतित कर्मों को नहीं अपना सकता अतएव उसकी उच्च विचारधारा और उत्तम कार्यप्रणाली अपने आप ही स्वचालित डायनुमा की तरह प्राणशक्ति की बिजली उत्पन्न करती है और साधक का प्राणमय कोष सुविकसित होता चलता है।
कठिनाइयों से, प्रतिकूलताओं से घिरे होने पर भी ...
आत्मचिंतन के क्षण
गंगा गोमुख से निकलती है और जमुना जमुनोत्री से, नर्मदा का अवतरण अमरकंटक के एक छोटे से कुण्ड से होता है। मान सरोवर से ब्रह्मपुत्र निकलती है, शांतिकुंज ऐसे अनेकों प्रवाहों को प्रवाहित कर रहा है, जिसका प्रभाव न केवल भारत को वरन् समूचे विश्व को एक नई दिशा में घसीटता हुआ ले चले।
निःसन्देह प्रार्थना में अमोघ शक्ति है। परोपकार आत्म कल्याण और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही उसका सदुपयोग होना चाहिए। आत्म कल्याण और संसार की भलाई से प्रेरित प्रार्थनायें ही सार्थक हो सकती हैं। जब असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृंत गमय के श्रद्धापूरित भाव उद्गार अंतःकरण से उठेंगे, तो निश्चय ही जीवन में एक नया प्रकाश प्रस्फुटित होगा।
यह सुनिश्चित है कि लोगों की आस्था...
आत्मचिंतन के क्षण
हे मनुष्य! इस संसार में दुःख का कारण असन्तोष है और सन्तोष ही सुख है। जिन्हें सुख की क ामना हो, वे सन्तुष्ट रहा करें। सन्तोष एक महान् अध्यात्मिक भाव है, जो मनुष्य के हृदय की विशालता को व्यक्त करता है। धैर्य, सहन शक्ति, त्याग और उदारता ये सब सन्तोष का अनुगमन करते हैं। सन्तोषी पुरुषों में शेष सभी सद्गुण और शुभ संस्कार स्वतः आ जाते हैं।
क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी। विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नंदनं वनम्। अर्थात् मनुष्य का विनाश क्रोध के कारण होता है और तृष्णा वैतरणी नदी के समान है, जिसका कभी अन्त नहीं होता। विद्या कामधेनु के समान है तथा सन्तोष नन्दन वन के समान है।
विज्ञान और अध्यात्म अन्योन्याश्रित है। एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की गति नहीं। व...
आत्मचिंतन के क्षण
आशा की जानी चाहिए कि नव- सृजन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मनीषो, समय दानी धनी आदि प्रतिभावान अपनी- अपनी श्रद्धांजलि लेकर नवयुग के अभिनव सृजन में आगे बढ़ेगें और कहने लायक योगदान देंगे। इक्कीसवीं सदीं का उज्ज्वल भविष्य विनिर्मित करने के लिए इस प्रकार का सहयोग आवश्यक है और अनिवार्य भी।
‘‘उद्घरेदात्मनात्मानं’’ अपना उद्धार आप करो। अपनी प्रगति का पथ स्वयं प्रशस्त करो। जो माँगना है, अपने जीवन देवता से माँगो। बाहर दीखने वाली हर वस्तु का उद्गम केन्द्र अपना ही अन्तरंग है। आत्म देव की साधना ही जीवन देवता की उपासना है।
राम के कर्त्तव्य पालन में ,भरत के त्याग- तप में मीरा के प्रेम में, हरिश्चन्द्र के सत्य व्रत में, दधीचि के दान में, कृष्ण के अना...
आत्मचिंतन के क्षण
आशा आध्यात्मिक जीवन का शुभ आरम्भ है। आशावादी व्यक्ति सर्वत्र परमात्मा की सत्ता विराजमान देखता है। उसे सर्वत्र मंगलमय परमात्मा की मंगलदायककृपा बरसती दिखाई देती है। सच्ची शान्ति, सुख और सन्तोष मनुष्य की निराशावादी प्रवृत्ति के करण नहीं, अपने ऊपर अपनी शक्ति पर विश्वास करने से होता है।
गृहस्थाश्रम की सफलता तीन बातों पर निर्भर करती है। पहला गृहस्थ- जीवन के पूर्व की तैयारी, दूसरे पति- पत्नी के दाम्पत्य जीवन में आने का ध्येय, तीसरा गृहस्थ जीवन में एक दूसरे का व्यवहार और उनका कर्तव्य पालन।
तेजस्विता तपश्चर्या की उपलब्धि है, जो निजी जीवन में संयम, साधना और सामाजिक जीवन में परमार्थ परायणता के फलस्वरूप उद्भूत होती है। संयम- अर्थात् अनुशासन का, नीति...
आत्मचिंतन के क्षण
प्रेम गंगा की भाँति वह पवित्र जल है, जिसे जहाँ छिडका जाय, वहीं पवित्रता पैदा करेगा। उसमें आदर्शेंकी अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है। आदर्श रहित प्यार को ही मोह कहते हैं। दूरदर्शिता, विवेकशीलता, शालीनता, पवित्रता, सदाशयता जैसे गुणों का भरपूर समावेश प्रेम में होता है। उसमें इन्हीं गुणों की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। मोह इन विशेषताओं से रहित होता है।
दृष्टिकोण में संयम, सहकार, सन्तुलन स्नेह, सद्भाव, श्रम, साहस जैसे सद्गुणों का महत्व समझने और अपने स्वभाव, व्यवहार को सज्जनोचित बनाने की उपयोगिता समाविष्ट हो सके, तो समझना चाहिए कि आज गई- गुजरी स्थिति होने पर भी कल इन्हीं विशेषताओं के कारण उज्ज्वल भविष्य का सरंजाम जुटाना सुनिश्चित है।
धर्म व्यक्तित्...