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सद्भावना ही श्रेष्ठ है।
आपरा की सद्भावना अनिवार्य है। हर परस्पर सन्देह और संशय करके तो भय को ही उत्पन्न करेंगे और एक दूसरे का हास और अन्ततः नाश ही करेंगे। हमें आपस में विचार करना सीखना होगा। विश्वास की भित्ति पवित्रता है और पवित्र हृदयों में ही विश्वास उत्पन्न होता है। पवित्र हृदय और निर्मल बुद्धि में सद्भावना का उदय होता है। सद्भावना परम आवश्यक है। सद्भावना से ही आपस का दृष्टिकोण सम्यक् बनता है। सद्भावना के अभाव में तो एक दूसरे में सन्देह और भय की ही उत्पत्ति है। हम आपस में क्यों एक दूसरे से भय करें।
भय की जाँच की जाय तो इसका छिपा हुआ कारण निजी या सामूहिक स्वार्थ ही होता है, और जब वह स्वार्थ किसी देश और जाति भर में फैल जाता है तो एक दूसरे राष्ट्र पर सन्देह होने लगता है। जब राष्ट्र आपस में एक दूसरे ...
सद्भावना ही श्रेष्ठ है। (अंतिम भाग)
जो व्यवहार हम चाहते हैं कि लोग हमसे करें, वैसा व्यवहार हमें स्वयं भी औरों से करना चाहिए। कोई नहीं चाहता कि उससे छल हो तो वह स्वयं किसी को क्यों छले? प्रायः लोग अपने से तो भला व्यवहार चाहते हैं पर दूसरों से सरल सीधा व्यवहार नहीं करना चाहते। यही कारण आपस के सन्देह का होता है। क्या एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की राष्ट्रीयता को भंग करके वहाँ के लोगों को पददलित करके अपना स्वार्थ पूरा करे? पर इतिहास साक्षी है कि सबल राष्ट्रों ने ऐसा किया है। लूट-खसोट ही नहीं मानवता के नाते भी भुला दिये गये और विजित देख के लोग दास बनाये गये उनके उद्योग धंधे नष्ट किये गये और उन्हें बुरी तरह दबाया गया और यह सब विजित लोगों के ही हितों के नाम पर किया गया। यह क्यों हो सका? कारण स्पष्ट है विजित देशों में जब सहानुभूति नही...
इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 1)
क्रिया या कलेवर एक जैसे होने पर भी व्यक्तियों की वास्तविकता एक जैसी नहीं हो सकती। किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की फिल्म बनाने वाले सुरत का आदमी ढूँढ़ निकालते हैं और उससे ऐक्टिंग भी वैसा ही करा लेते हैं। इतने पर भी वह नर वैसा नहीं हो सकता, जैसा कि वह मृत व्यक्ति था। सूर, कबीर, मीरा, तुलसी, चैतन्य,विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर आदि पर फिल्में बन चुकी हैं। जिनने पाठ किये है, वे देखने वाले को असली या नकली के भ्रम में डाल देते हैं। ’बहुरूपिये’ कई−कई तरह के वेष बदल कर दर्शकों को चक्कर में डाल देते हैं और अपनी कला का पुरस्कार पाते है। इतने पर भी वे उस असली के स्थान पर नहीं पहुँच सकते, जिसकी कि नकल बनाई गई थी।
आज साधु−ब्राह्मणों की नकल बनाने वाले बहुरूपियों की—ऐक्टरों ...
10% का हक
एक बहुत अमीर आदमी ने रोड के किनारे एक भिखारी से पूछा.. "तुम भीख क्यूँ मांग रहे हो जबकि तुम तन्दुरुस्त हो...??"
भिखारी ने जवाब दिया... "मेरे पास महीनों से कोई काम नहीं है...
अगर आप मुझे कोई नौकरी दें तो मैं अभी से भीख मांगना छोड़ दूँ"
अमीर मुस्कुराया और कहा.. "मैं तुम्हें कोई नौकरी तो नहीं दे सकता ..
लेकिन मेरे पास इससे भी अच्छा कुछ है...
क्यूँ नहीं तुम मेरे बिज़नस पार्टनर बन जाओ..."
भिखारी को उसके कहे पर यकीन नहीं हुआ...
"ये आप क्या कह रहे हैं क्या ऐसा मुमकिन है...?"
"हाँ मेरे पास एक चावल का प्लांट है.. तुम चावल बाज़ार में सप्लाई करो और जो भी मुनाफ़ा होगा उस...
इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 2)
वर्तमान साधु−ब्राह्मणों का दरवाजा खटखटाते हमें एक युग बीत गया। उन्हें नीच−ऊँच समझाने में जितना श्रम किया और समय लगाया, उसे सर्वथा व्यर्थ चला गया ही समझना चाहिए। निराश होकर ही हमें इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा है कि सड़ी वस्तु को पुनः स्वस्थ स्थिति में नहीं लाया जा सकेगा। हमें नई पौध लगाने और नई हरियाली उगाने के लिए अभिनव प्रयत्न करने होंगे। उसी का आरम्भ कर भी रहे हैं।
विश्वास किया जाना चाहिए कि आदर्शवादिता अभी पूरी तरह अपंग नहीं हो गई हैं। महामानव स्तर की भावनायें सर्वथा को विलिप्त नहीं हो गई हैं। लोभ और मोह ने मनुष्य को जकड़ा तो जरूर है, पर वह ग्रहण पूरा खग्रास नहीं है। सूर्य का एक ऐसा कोना अभी भी खाली है और उतने से भी काम चलाऊ प्रकाश किरणें विस्तृत होती रह सकती है। ...
इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 3)
साधु−संस्था को पुनर्जीवित करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं, जिसके सहारे आपत्ति ग्रस्त मानवता की प्राणरक्षा की जा सके। समस्याओं के काल−पाश में गर्दन फंसाये हुए इस सुन्दर विश्व को मरण से केवल साधु ही बचा सकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक दूसरे का मुँह न ताका जाय, वरन् इस आपत्ति−काल से जूझने के लिए अपना ही कदम बढ़ाया जाय।
अखण्ड−ज्योति परिवार की मणिमाला से एक से एक बढ़कर रत्न मौजूद है। समय आने पर उनके मूल्यवान् अस्तित्व का परिचय हर किसी को मिल सकता हे। अब उसी का समय आ पहुँचा। हमें समय की पुकार पूरी करने के लिए स्वयं ही आगे आना चाहिए।
यो साधु और ब्राह्मण का एक समान जीवन−क्रम होता है और उसी विधि से पूरी जिन्दगी की रूपरेखा बनाने की ...
इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 4)
पुरे समय के लिए तत्काल भावनात्मक नव−निर्माण को ब्राह्मणोचित परम्परा का निर्वाह करने के लिए हर किसी को नहीं कहा जा सकता। जिनने पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे कर लिये हैं, उन्हें वानप्रस्थ में प्रवेश करने के लिए बहुत दिनों से कहा जा रहा है। जुलाई 73 की अखण्ड−ज्योति में इस संदर्भ में अधिक जोर दिया गया है और जो घर की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो चुके उन्हें परमार्थिक−जीवन में प्रवेश करने के लिए वानप्रस्थ में प्रवेश करने का अनुरोध किया गया है। दूसरे स्तर के क्लिष्ट वानप्रस्थ वे होंगे —जो अभी शेष जीवन पुरी तरह इस महान लक्ष्य के लिए समर्पित करने की स्थिति में तो नहीं है, पर अधिकाधिक साहस इसके लिए जुटाते रहेंगे।
अब इस श्रृंखला में एक नई कड़ी और जोड़ी जा रही है कि ...
इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (अन्तिम भाग)
संन्यास के आदर्श बहुत ऊँचे हैं। उन्हें निबाहना पूरा समय देने वाले शिथिल प्रकृति मनुष्यों के लिए सम्भव नहीं। इसके प्रतिबन्ध बड़े हैं। भिक्षाटन आज की स्थिति के उपयुक्त नहीं रहा। जिस-तिस का जैसा-तैसा अपमान अवज्ञा और उपेक्षा पूर्वक मिला कुधान्य किसी संन्यासी की बुद्धि को सतोगुणी एवं सन्तुलित नहीं रहने देता। ऐसी-ऐसी अनेक कठिनाइयों के कारण आज की परिस्थितियों में संन्यास से प्रति हम असहमति प्रकट करते रहें हैं और यही कहते रहें है कि परमार्थ प्रयोजन के लिए जीवन समर्पण करने वालों के लिए वानप्रस्थ ही उपयुक्त है। उसमें घर परिवार के साथ सम्बन्ध बनाये रहने की सुविधा है। साथ ही प्रतिबन्ध में उतने कड़े नहीं है। हरिजन शब्द की तरह आज संन्यास भी निठल्ले, अकर्मण्य लोगों का पर्यायवाची बन गया है। इसलिए भी हम व...
विचार शक्ति के चमत्कार:-
विचार अपने आप में एक चिकित्सा है। शुभ कामना, सत्परामर्श रूपी विचारों का बीजारोपण यही प्रयोजन सिद्ध करते हैं। विचार संप्रेषण, विचारों से वातावरण का निर्माण, विचार विभीषिका इसी सूक्ष्म विचार शक्ति के स्थूल परिणाम हैं। महर्षि अरविन्द व रमण ने मौन साधना की व अपनी विचार शक्ति को सूक्ष्म स्तर पर क्रियान्वित किया जिसका परिणाम था कि वातावरण में संव्याप्त विक्षोभ मिटाया जा सका तथा स्वतंत्रता आन्दोलन की लहर फैली। सारी क्रांतियाँ विचारों के स्तर से ही आरम्भ हुई हैं। साम्यवाद-प्रजातन्त्र विचार संयमजन्य सामर्थ्य की देन है। विचारों की आँधी जब आती है तो प्रचण्ड तूफान की तरह सबको अपनी लपेट में ले लेती है। बुद्ध और गांधी के समय भी इसी प्रकार आँधी आयी जिसने सूक्ष्म स्तर पर जन-जन को प्रभावित किया व पर...
मजबूत आधारशिला रखना है
युग निर्माण योजना की मजबूत आधारशिला रखे जाने का अपना मन है। यह निश्चित है कि निकट भविष्य में ही एक अभिनव संसार का सृजन होने जा रहा है। उसकी प्रसव पीड़ा में अगले दस वर्ष अत्यधिक अनाचार, उत्पीड़न, दैवीय कोप, विनाश और क्लेश, कलह से भरे बीतने हैं। दुष्प्रवृत्तियों का परिपाक क्या होता है, इसका दंड जब भरपूर मिल लेगा, तब आदमी बदलेगा। यह कार्य महाकाल करने जा रहा है। हमारे हिस्से में नवयुग की आस्थाओं और प्रक्रियाओं को अपना सकने योग्य जनमानस तैयार करना है। लोगों को यह बताना है कि अगले दिनों संसार का एक राज्य, एक धर्म, एक अध्यात्म, एक समाज, एक संस्कृति, एक कानून, एक आचरण, एक भाषा और एक दृष्टिकोण बनने जा रहा है, इसलिए जाति, भाषा, देश, सम्प्रदाय आदि की संकीर्णताएँ छोड़ें और विश्वमानव की एकता की, वसुधैव क...