हमारी वसीयत और विरासत (भाग 116): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
पिछले दिनों बार-बार हिमालय जाने और एकांत साधना करने का निर्देश निबाहना पड़ा। इसमें क्या देखा? इसकी जिज्ञासा बड़ी आतुरतापूर्वक सभी करते हैं। उनका तात्पर्य, किन्हीं यक्ष, गंधर्व, राक्षस, वेताल, सिद्धपुरुष से भेंट-वार्त्ता रही हो। उनकी उछल-कूद देखी हो। अदृश्य और प्रकट होने वाले कुछ जादुई गुटके लिए हों। इन जैसी घटनाएँ सुनाने का मन होता है। वे समझते हैं कि हिमालय माने जादू का पिटारा। वहाँ जाते ही कोई करामाती बाबा डिब्बे में से भूत की तरह उछल पड़ते होंगे और जो कोई उस क्षेत्र में जाता है, उसे उन कौतूहलों— करतूतों को दिखाकर मुग्ध करते रहते होंगे। वस्तुतः हिमालय हमें अधिक अंतर्मुखी होने के लिए जाना पड़ा। बहिरंग जीवन पर घटनाएँ छाई रहती हैं और अंतःक्षेत्र पर भावनाएँ। भावनाओं का वर्चस्व ही अध्यात्मवाद है। कामनाओं और वस्तुओं की घुड़-दौड़— भौतिकवाद। चूँकि अपना जीवनक्रम दोनों का संगम रहा है, इसलिए बीच-बीच में एकांत में बहिरंग के जमे हुए प्रभावों को निरस्त करने की आवश्यकता पड़ती रही है। आत्मा को प्रकृति-सान्निध्य से जितना बन पड़ा उतना हटाया है और आत्मा को परमात्मा के साथ जितना निकट ला सकना संभव था, उतना हिमालय के अज्ञातवास में किया है। आहार-विहार में परिस्थितिवश अधिक सात्त्विकता का समावेश होता ही रहा है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात हुई है— उच्चस्तरीय भाव-संवेदनाओं का उन्नयन और रसास्वादन। इसके लिए व्यक्तियों की— साधनों की— परिस्थितियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसा भी भला-बुरा सामने प्रस्तुत है, उसी पर अपने भावचिंतन का आरोपण करके ऐसा स्वरूप बनाया जा सकता है, जिससे कुछ-का-कुछ दीखने लगे। कण-कण में भगवान की— उसकी रस-संवेदना की झाँकी होने लगे।
जिनने हमारी ‘सुनसान के सहचर’ पुस्तक पढ़ी है, उनने समझा होगा कि सामान्य घटनाओं और परिस्थितियों में भी अपनी उच्च भावनाओं का समावेश करके किस प्रकार स्वर्गीय उमंगों से भरा-पूरा वातावरण गठित किया जा सकता है और उसमें निमग्न रहकर सत-चित्-आनंद की अनुभूति हो सकती है। यह भी एक उच्चस्तरीय सिद्धि है। इसे हस्तगत करके हम इसी सर्वसाधारण जैसी जीवनचर्या में निरत रहते हुए स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की तरह आनंदमग्न रहते रहे हैं।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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