हमारी वसीयत और विरासत (भाग 117): चौथा और अंतिम निर्देशन
चौथी बार गत वर्ष पुनः हमें एक सप्ताह के लिए हिमालय बुलाया गया। संदेश पूर्ववत् संदेश रूप में आया। आज्ञा के परिपालन में विलंब कहाँ होना था। हमारा शरीर सौंपे हुए कार्यक्रमों में खटता रहा है, किंतु मन सदैव दुर्गम हिमालय में अपने गुरु के पास रहा है। कहने में संकोच होता है, पर प्रतीत ऐसा भी होता है कि गुरुदेव का शरीर हिमालय रहता है और मन हमारे इर्द-गिर्द मँडराता रहता है। उनकी वाणी अंतराल में प्रेरणा बनकर गूँजती रहती है। उसी चाबी के कसे जाने पर हृदय और मस्तिष्क का पेंडुलम धड़कता और उछलता रहता है।
यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्मशरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना-क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने पर पिसे को पीसना भर रह जाता है। मार्ग देखा-भाला था। दिनचर्या बनी बनाई थी। गोमुख से साथ मिल जाना और तपोवन तक सहज जा पहुँचना, यही क्रम पुनः चला। उनका सूक्ष्मशरीर कहाँ रहता है? क्या करता है? यह हमने कभी नहीं पूछा। हमें तो भेंट का स्थान मालूम है— मखमली गलीचा। ब्रह्मकमल की पहचान हो गई थी। उसी को ढूँढ़ लेते और उसी को प्रथम मिलन पर गुरुदेव के चरणों पर चढ़ा देते। अभिवंदन-आशीर्वाद के शिष्टाचार में तनिक भी देर न लगती और काम की बात तुरंत आरंभ हो जाती। यही प्रकरण इस बार भी दुहराया गया। रास्ते में मन सोचता आया कि जब भी, जितनी बार भी बुलाया गया है, तभी पुराना स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा है। इस बार भी संभवतः वैसा ही होगा। शान्तिकुञ्ज छोड़ने के उपरांत संभवतः अब इसी ऋषिप्रदेश में आने का आदेश मिलेगा और इस बार कोई काम पिछले अन्य कामों की तुलना में बड़े कदम के रूप में उठाना होगा। यह रास्ते के संकल्प-विकल्प थे। अब तो प्रत्यक्ष भेंट हो रही थी।
अब तक के कार्यों पर उनने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। हमने इतना ही कहा— ‘‘काम आप करते हैं और श्रेय मुझ जैसे वानर को देते हैं। समग्र समर्पण कर देने के उपरांत यह शरीर और मन दीखने भर के लिए ही अलग है। वस्तुतः यह सब कुछ आपकी ही संपदा है। जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा तोड़-मोड़कर आप ही उपयोग कर लेते हैं।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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