हमारी वसीयत और विरासत (भाग 118): चौथा और अंतिम निर्देशन
गुरुदेव ने कहा— ‘‘अब तक जो बताया और कराया गया है, वह नितांत स्थानीय था और सामान्य भी। ऐसा जिसे वरिष्ठ मानव कर सकते हैं। भूतकाल में करते भी रहे हैं। तुम अगला काम सँभालोगे, तो यह सारे कार्य दूसरे तुम्हारे अनुवर्ती लोग आसानी से करते रहेंगे। जो प्रथम कदम बढ़ाता है, उसे अग्रणी होने का श्रेय मिलता है। पीछे तो ग्रह-नक्षत्र भी— सौरमंडल के सदस्य भी अपनी-अपनी कक्षा पर बिना किसी कठिनाई के ढर्रा चला ही रहे हैं।”
“अगला काम इससे भी बड़ा है। स्थूल वायुमंडल और सूक्ष्म वातावरण इन दिनों इतने विषाक्त हो गए हैं, जिससे मानवी गरिमा ही नहीं, सत्ता भी संकट में पड़ गई है। भविष्य बहुत भयानक दीखता है। इससे परोक्षतः लड़ने के लिए हमें-तुम्हें वह सब कुछ करना पड़ेगा, जिसे अद्भुत एवं अलौकिक कहा जा सके।”
“धरती का घेरा— वायु, जल और जमीन तीनों ही विषाक्त हो रहे हैं। वैज्ञानिक कुशलता के साथ अर्थलोलुपता के मिल जाने से चल पड़े यंत्रीकरण ने सर्वत्र विष बिखेर दिया है और ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का जोखिम हर किसी के सिर पर मँडराने लगा है। अणु-आयुधों के अनाड़ियों के हाथों प्रयोगों का खतरा इतना बड़ा है कि उसके तनिक-से व्यतिक्रम पर सब कुछ भस्मसात् हो सकता है। प्रजा की उत्पत्ति बरसाती घास-पात की तरह हो रही है। यह खाएँगे क्या? रहेंगे कहाँ? इन सब विपत्तियों-विभीषिकाओं से विषाक्त वायुमंडल धरती को नरक बना देगा।”
“जिस हवा में लोग साँस ले रहे हैं, उसमें जो भी साँस लेता है, वह अचिंत्य चिंतन अपनाता और दुष्कर्म करता है। दुर्गति हाथों-हाथ सामने आती जाती है। यह अदृश्य लोक में भर गए विकृत वातावरण का प्रतिफल है। इस स्थिति में जो भी रहेगा, नर-पशु और नर-पिशाच जैसे क्रिया-कृत्य करेगा। भगवान की इस सर्वोत्तम कृति धरती और मानवसत्ता को इस प्रकार नरक बनते देखने में व्यथा होती है। महाविनाश की संभावना से कष्ट होता है। इस स्थिति को बदलने, इस समस्या का समाधान करने के लिए भारी गोवर्द्धन पर्वत उठाना पड़ेगा; लंबा समुद्र छलाँगना पड़ेगा। इसके लिए वामन जैसे बड़े कदम उठाने के लिए तुम्हें बुलाया गया है।”
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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