
कष्टों का निवारण
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‘अखंड ज्योति’ के पाठकों में से अनेकों को कई प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक कष्ट होंगे। बाहरी परिस्थितियाँ विपरीत होने या दूसरों के आक्रमण से चिन्तित होंगे। कइयों को भाग्य और ईश्वर से शिकायत होगी। कुछ घर वालों, मित्रों और अफसरों के व्यवहार से असंतुष्ट होंगे। वे यथा साध्य इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए प्रयत्न किया करते हैं। परन्तु फल कोई संतोषजनक नहीं होता। कठिनाइयाँ ज्यों की त्यों बनी रहती हैं।
इस समस्या पर विचार करने के लिए कुछ गहरा उतरना होगा। गहरा अन्वेषण करने पर पता चलता है कि बाह्य परिस्थितियों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वे आन्तरिक परिस्थितियों की छाया मात्र हैं। मनुष्य का बीज रूप वास्तविक जीवन, उसका आन्तरिक जीवन है। जैसा बीज होगा वैसा पौधा उगेगा, जैसी इच्छा होगी वैसा फल मिलेगा। विचार बीज है और परिस्थितियाँ उनके फल। पत्ते-पत्ते को सींचने पर भी जिस प्रकार सूखा हुआ पेड़ हरा नहीं होता उसी प्रकार बाहरी दुख शोकों को दूर करने के तात्कालिक उपाय करने पर भी उनकी जड़ नहीं कटती। तात्कालिक सहायता के बल पर क्षणिक शाँति मिल सकती है परन्तु जो रोग की पूरी चिकित्सा चाहते हैं उन्हें मूल कारण को तलाश करना पड़ेगा। मुरझाये हुए वृक्ष को हरा करने के लिए उसकी जड़ों का निरीक्षण करना होगा और खाद पानी द्वारा वहीं सिंचन करना पड़ेगा।
मानस तत्व वेत्ता जानते है कि कर्म भोग को छोड़ कर परिस्थितियाँ अपने आप नहीं आती वरन् वे जान-बूझ कर बुलाई जाती हैं। इसमें आश्चर्य की कुछ भी बात नहीं है। आप के कपड़ों पर गंदगी लगी होगी तो मक्खियाँ भिनभिनाएंगी, साफ होंगे तो वे पास भी नहीं फटकेंगी। नाली में यदि कीचड़ सड़ेगी तो कीड़े पैदा होंगे अन्यथा कुछ भी खराबी न होगी। मन की इच्छाओं की जब पूर्ति नहीं होती तभी दुख होता है। यदि जरूरतें ही कम रखी जायें तो दुख किस बात का? मन बहुत-सी चीजें माँगता है और वह नहीं मिल पातीं तो क्षोभ उत्पन्न होता है। उस अभाव की पूर्ति के लिए पाप कर्म किये जाते हैं। और पापों का निश्चित परिणाम दुख है। दूसरी बात यह भी है कि विचार अपने अनुकूल परिस्थितियों को ही आकर्षित करते हैं। जो भिखारी दो सेर आटा पाने की ही अन्तिम इच्छा करता है वह राजा नहीं हो सकता। महत्वाकाँक्षी ही महत्व को प्राप्त करते हैं। सेनापति होने का स्वप्न देखने वाला नेपोलियन ही एक महान विजेता हो सका था।
सामयिक परिस्थितियों में भी अधिकाँश का कारण अपना स्वभाव ही होता है। मुहल्ले वाले तुम्हें बुरा बताते हैं, झगड़े लगाते हैं और दुर्व्यवहार करते हैं। उन सब से अलग-अलग लड़ोगे तो भी शायद इच्छित शाँति को प्राप्त न कर सकोगे। सोचना चाहिए कि मेरे अंदर वास्तव में वे दुर्गुण कौन से हैं जो इतने लोगों को मेरा विरोधी बनाये हुए है। तुम्हारे अंदर यदि कड़ुआ बोलने, अनुचित हस्तक्षेप करने, लोक विरोधी काम करने की आदतें हैं तो उन्हें सुधारो, बस, सारे शत्रु मिट जायेंगे। तुम्हें कोई नौकर नहीं रखता। तो मालिकों को मत कोसो। अपने अंदर वह योग्यता प्राप्त करो जिसके होने पर हर जगह से आमंत्रण मिलता है। सद्गुण मनुष्य की वह सम्पत्ति हैं जिनके होने पर उसका हर जगह आदर होना चाहिए। हर किसी का प्रेम और सहानुभूति प्राप्त होनी चाहिए। जब साधु स्वभाव काले पुरुष भी तुम्हारा विरोध कर रहे हों तो देखो कि हमारे अंदर कौन-कौन से दुर्गुण आ छिपे हैं। कई लोगों में यह कमी होती है कि जन साधारण में फैले हुए झूठे भ्रम को दूर नहीं कर सकते और अकारण लोगों के कोप का भाजन बनते हैं। उन्हें चाहिए कि सत्य बात को लोगों के सामने प्रकट करके अपनी निर्दोषिता साबित करें।
भय करने डरने और घबरा जाने के दुर्गुण ऐसे हैं जो दूसरों को अपने ऊपर अत्याचार करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिनका स्वभाव निर्भय रहने का, हर प्रकार की कठिनाइयों का मुकाबला करने का होता है उन पर ज्यादती करने वाले झिझकते हैं। कहते हैं कि हिम्मत के सामने तलवार की धार भी मुड़ जाती है। धनाभाव के बारे में भी यही बात है जिसका पूरा ध्यान और मनोयोग धन संचय के साधनों में लगा हुआ नहीं है वह धनपति नहीं हो सकता। स्वास्थ्य को बढ़ाने की जिसकी प्रबल मनोकामना नहीं है वह पहलवान कैसे बन सकेगा?
बीमारी से ग्रसित हो जाने या किसी अन्य संकट में फंस जाने पर उससे मुक्त होने के लिए भी अपना आन्तरिक बल चाहिए। सदाशा और शुभ भविष्य का दृढ़ विश्वास कठिनाई से निकाल सकते हैं। आत्म विश्वास की जितनी मदद, बीस मित्र मिलकर भी नहीं कर सकते। आत्म निर्भरता वह संजीवनी बूटी है जिसे पीकर मुर्दे जी पड़ते हैं और बुड्ढे जवान हो जाते हैं इसके मुकाबले का और कोई ‘टानिक’ विश्व भर में अविष्कृत नहीं हो सका है।
तात्पर्य यह है कि बाहर की जो कुछ भी भली बुरी परिस्थितियाँ तुम्हें घेरे हुए हैं वह तो फूल पत्तियाँ हैं इनकी जड़ आन्तरिक जीवन में है। उन्हें बदलना चाहते हो, अपने जीवन में परिवर्तन करना चाहते हो, कष्टों से छुटकारा पाना चाहते हो, आगे का जीवन सुखी बनाना चाहते हो तो केवल बाहरी दौड़ धूप करके संतुष्ट मत हो जाओ, इससे तुम्हें स्थायी शाँति नहीं मिल सकेगी। आत्यंतिक निवृत्ति तो तभी होगी जब उसके मूल स्त्रोत का उपचार किया जाएगा।
यदि तुम अपने वर्तमान जीवन से असंतुष्ट हो, उन्नति और विकास की आकाँक्षा करते हो तो अपना आन्तरिक जीवन टटोल डालो। उसमें से बुरी आदतों, नीच वासनाओं, दुष्ट वृत्तियों को निकाल डालो। इससे तुम्हारा मार्ग साफ हो जाएगा और उसकी सारी कठिनाईयाँ दूर हो जायेंगी। आत्म बल, दृढ़ता और तीव्र इच्छा शक्ति को बढ़ाओं अपने अंदर शुभ वृत्तियों और सद्गुण को आने दो इन्हीं के आधार पर उन्नति के पथ पर सरपट दौड़ते चले जाओगे।