
अभय
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(महात्मा गाँधी)
भगवान् ने गीता के 16 वें अध्याय में दैवी संपादक वर्णन करते हुए इसकी गणना प्रथम की है। यह श्लोक की संगति बैठाने के लिए किया है, या अभय को प्रथम स्थान मिलना चाहिए, इसलिए। इस विवाद में न पड़ूंगा; इस प्रकार का निर्णय करने की मुझमें योग्यता भी नहीं है। मेरी राय में तो यदि अभय को अनायास ही प्रथम स्थान मिला हो, तो भी उसके योग्य ही है। बिना अभय के दूसरी सम्पत्तियाँ नहीं मिल सकती। बिना अभय के सत्य की शोध कैसी ? बिना अभय के अहिंसा का पालन कैसा ? हरि का मार्ग है शूरो का नहीं कायर का काम, देखे सत्य ही हरि है, वही राम है, वही नारायण, वही वासुदेव। कायर अर्थात् भयभीत, डरपोक, शूर अर्थात् भयमुक्त तलवार आदि से सज्ज नहीं। तलवार शौर्य की संज्ञा नहीं भय की निशानी है।
अभय अर्थात् समस्त बाह्य भयों से मुक्ति-मौत का भय माल लुटने का भय, कुटुम्ब परिवार-सम्बन्धी भय, शस्त्र-प्रहार का भय, आबरू-इज्जत का भय, किसी को बुरा लगने का भय यों भय की वंशावली जितनी जितनी बढ़ावें, बढ़ायी जा सकती है। सामान्यतया यह कहा जाता है कि एक मौत का भय जीत लेने से सब भय, पर जीत लेने से सब भय पर जीत मिल जाती है। लेकिन वह ठीक नहीं लगता। बहुतेरे (बिछोह) मौत का डर छोड़ते हैं, पर वे ही नाना प्रकार के दुखों से दूर भागते हैं, कोई स्वयं मरने को तैयार होते हैं कई सगे सम्बन्धियों का वियोग नहीं सह सकते। कुछ कंजूस इन सब को छोड़ देते है, पर संचित धन को छोड़ते कतराते हैं। कुछ अपनी मानी हुई आबरू-प्रतिष्ठा की सत्ता के लिए अनेक अकार्य करने को तैयार होते रहते हैं। डडडड दूसरे लोक-निन्दा के भय से, सीधा मार्ग जानते हुए उसे ग्रहण करने में झिझकते हैं। पर सत्य शोधक के लिये तो इन सब भयों को तिलांजलि दिये ही छुटकारा। हरिश्चंद्र की तरह पामाल होने की उसकी तैयारी होनी चाहिए। हरिश्चंद्र की कथा चाहे काल्पनिक हो, परन्तु चूँकि समस्त आत्मदर्शियों का यही अनुभव है, अतः इस कथा की कीमत किसी भी ऐतिहासिक कथा की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है और हम सबके लिए संग्रहणीय तथा माननीय है।
इस व्रत का सर्वथा पालन लगभग अशक्य है भय मात्र से तो वही मुक्त हो सकता है जिसे आत्मसाक्षात्कार हुआ हो। अभय अमूर्छ स्थिति की पराकाष्ठा-हद है। निश्चय से, सतत प्रयत्न से और आत्मा पर श्रद्धा बढ़ने से अभय की मात्रा बढ़ सकती है। मैं आरंभ ही में कह चुका हूँ कि हमें बाह्य भयों से मुक्त होना है। अन्तर में जो शत्रु वास करते हैं उनसे तो डर कर ही चलना है। काम, क्रोध आदि का भय सच्चा भय है इन्हें जीत लें तो बाह्य भयों का उपद्रव अपने आप मिट जाय। भय मात्र देह के कारण है। देह संबंधी राम-आसक्ति-दूर हो तो अभय सहज ही प्राप्त हो। इस दृष्टि से विचार करने पर हमें पता लगेगा कि भय मात्र हमारी कल्पना की सृष्टि है। धन में से, कुटुम्ब में से, शरीर में से, ‘ममत्व’ को दूर कर देने पर भय कहाँ रह जाता है। ‘तेन त्यक्तेन मुँजी था’ यह रामबाण वचन है। कुटुम्ब, धन, देह जैसे-के-तैसे रहेंगे, पर उनके सम्बन्धी की अपनी कल्पना हमें बदल देनी होगी। ये ‘हमारे’ नहीं ‘मेरे’ नहीं, ईश्वर के हैं; मैं भी उसी का हूँ; मेरा अपना इस जगत में कुछ भी नहीं है, तो फिर मुझे भय किस का हो सकता है ? इसी से उपनिषदधर ने कहा है कि ‘उसका त्याग करके उसे माँगों।’ अर्थात् हम उसके मालिक न रह कर केवल रक्षक बनें। जिसकी ओर से हम रक्षा करते हैं, वह उसकी रक्षा के लिए आवश्यक शक्ति और सामग्री हमें देगा यों यदि हम स्वामी मिट कर सेवक बनें, शून्यव्रत रहें, तो सहज ही समस्त भयों को जीत लें; सहज ही शान्ति प्राप्त करें और सत्यनारायण के दर्शन करें।