
कर्तव्य धर्म में योगसाधना
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चिरकालीन आध्यात्मिक साधना के बाद बहुत दिनों तक कठोर तपस्या करने के पश्चात उसे कुछ सिद्धियाँ प्राप्त होने लगी थीं। युवा संन्यासी एक दिन वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। डाल पर बैठे हुए पक्षी ने जो पर फड़फड़ाये तो वहाँ की सूखी पत्तियाँ झड़ पड़ीं। तरुण ने क्रोध से ऊपर की ओर आँख उठाई तो क्षण भर में जलता-झुलसता हुआ पक्षी नीचे आ गिरा। संन्यासी को अपनी सफलता पर बड़ी प्रसन्नता हुई। उस प्रसन्नता में अहंकार भी छिपा हुआ था। ओ हो, मैं इतनी सिद्धि तो प्राप्त कर चुका तपस्वी की बाछैं खिल उठीं।
भिक्षाटन द्वारा ही उसकी उदर पूर्ति होती थी। दूसरे दिन भी नित्य की भाँति वह भिक्षा पात्र लेकर अन्न लेने के लिए निकला। वही याचक था, वही भिक्षा पात्र, वही मार्ग लेकिन आज तपसी के साथ अहंकार का दर्प और भी था। वन्य प्रदेश को पार करता हुआ निकट की नगरी में वह पहुँचा। पहले ही घर में उसने ‘भिक्षाँ देहि’ की आवाज लगाई थी कि भीतर से निराशाजनक उत्तर मिला। भीतर से गृहस्वामिनी ने कहा-”थोड़ी देर ठहरिये महाराज! ज़रा फुरसत पालूँ तब भिक्षा दूँगी।”
संन्यासी का नवजात मानस पुत्र इस प्रकार का उत्तर पाने के लिये तैयार न था। उसके अहंकार ने कहा, एक तुच्छ स्त्री का इतना साहस! मुझ सिद्ध योगी को चार दानों के लिये उसके दरवाजे पर ‘फुरसत’ तक के लिए खड़ा रहना पड़ेगा? नीति कहती है कि छोटा मनुष्य जब महत्व प्राप्त करता है, तो उसे दूसरे लोग अपने सामने तृणवत् दिखाई पड़ने लगते हैं। संन्यासी के मन में पक्षियों को जला डालने वाला ब्रह्म तेज जागृत होने लगा।
तमतमाते हुए चेहरे पर भौंहों को टेढ़ी किये हुए वह क्रुद्ध संन्यासी कुछ सोच ही रहा था कि भीतर से आवाज आई। -योगिराज? दर्प मत कीजिये। हम लोग पक्षी नहीं है।”
तरुण अवाक् रह गया। उसका क्रोध कपूर की तरह उड़ गया अब तो वह अचंभे में डूबा हुआ था। कैसे इस स्त्री ने जाना कि मैंने पक्षी को जलाया था? कैसे इसने जाना कि मैं वैसे ही विचार इसके लिए कर रहा हूँ यह गृहस्थ स्त्री जो तपश्चर्या और योगसाधना के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानती, कैसे मनोगत विचारों को जान लेती है और कैसे भूतकाल की घटनाओं का ज्ञान रखती है? संन्यासी बड़ी दुविधा में पड़ गया। इतने में वह स्त्री भिक्षा लेकर बाहर निकल आई। भिक्षा लेने से पूर्व संन्यासी आग्रहपूर्वक उससे पूछने लगा कि-’माता तूने वह दोनों गुप्त बातें जिन्हें मेरे अतिरिक्त और दूसरा कोई मनुष्य नहीं जानता तूने क्यों कर जाना? क्या तू कोई योग साधना करती है?
स्त्री ने विनम्र होकर कहा-पुत्र! संन्यासी होना, विशेष वर्ण के वस्त्र धारणा करना या कुछ निर्धारित क्रियाएं करना ही योग साधना नहीं है। सच्चे हृदय से अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना भी योग है और यह भी वैसी ही ऊंची साधना है जैसी समाधि लगाना। मैं बिलकुल साधारण स्त्री हूँ। मेरे पति बीमार हैं। जिस समय तू भिक्षा के लिए आया उस समय मैं उनकी आवश्यक सुश्रूषा कर रही थी, इसलिए तुझे थोड़ा ठहरने के लिए मैंने कहा था। मैंने अपने पति को ईश्वर समझ कर आदर भाव से उनकी सेवा की है, और सदैव उनकी आज्ञा का अनुसरण किया है यही मेरी योगसाधना है और यही मेरी तपश्चर्या है इसी के आधार पर गुप्त बातों को जान लेने का मुझे अभ्यास हो गया है।
संन्यासी को इतने से ही संतोष न हुआ। वह विस्तारपूर्वक इसका तत्व ज्ञान जानना चाहता था कि कर्तव्य धर्म का पालन करना ही क्यों कर योग साधना की समता कर सकता है। वह अशिक्षित स्त्री पण्डित नहीं थी और न थी शास्त्रकार। वह तर्क और प्रमाणों द्वारा संन्यासी का समाधान करने में समर्थ न थी, इसलिये उसने कहा-पुत्र मैं तुझे अच्छी तरह इस विषय को समझा नहीं सकूँगी इसलिये तू अमुक नगर में चला जा, वहाँ अमुक मुहल्ले में एक कसाई माँस की दुकान करता है, वह तुझे इसका सारा रहस्य समझा सकेगा।
वह भिक्षा माँगने आया था पर उलझनों का एक जंजाल ले चला। इस अशिक्षित ग्रामीण स्त्री को गुप्त ज्ञान की सिद्धि देख कर उसे बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा था, पर यह सुन कर तो उस आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा कि नित्य पशु-पक्षियों की हत्या करने वाला और माँस जैसा अभक्ष पदार्थ बेचने वाला मनुष्य आध्यात्म तत्व का उपदेश करेगा। जिज्ञासा इतनी तीव्र हो उठी कि बिना उसका समाधान हुए उसे चैन नहीं मिल रहा था। भिक्षा लेकर अपनी कुटी को लौटने का विचार उसने छोड़ दिया और सीधा कसाई के नगर की ओर चल पड़ा।
कड़ी मंजिलें पार करते-करते कितने ही दिन पश्चात् साधु उस नगर में पहुँचा। पूछता-पूछता जब वह नियत स्थान तक पहुँचा तो देखा कि हृष्ट-पुष्ट कसाई हाथ में छुरी लिये हुए माँस काट रहा है और अपने ग्राहकों को बेच रहा है। कसाई की निगाह सामने खड़े हुए साधु पर गई तो उसने नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और उचित आसन देते हुए उनके यहाँ तक आने पर मार्ग में जो-जो घटनाएं घटीं थी उन सबका जिक्र उसने स्वयं ही कर डाला और कहा आप अमुक स्त्री के कहने पर सिद्धियों का रहस्य मालूम करने आये हैं। थोड़ी देर विराजिये, दुकान बन्द करके घर चलूँगा तो आपकी योग्यतानुसार आपकी सेवा करने का प्रयत्न करूंगा। आश्चर्यचकित संन्यासी व्याध के दिये हुए आसन पर बैठ गया और कर्म की गहन गति के बारे में अपनी अल्पज्ञता का अनुभव करने लगा।
संध्या समय दुकान बन्द करके कसाई उस संन्यासी को लेकर अपने घर पहुँचा। बाहर चबूतरे पर उन्हें बिठाकर स्वयं अपने घर गया और वृद्ध माता-पिता को स्नान भोजन आदि कराकर वापिस आया। और तब साधु के निकट बैठकर उसके हाथ जोड़ कर पूछा-कहिये भगवन् मेरे लिए क्या आज्ञा है? संन्यासी ने आध्यात्म तत्व सम्बन्धी अपने गूढ़ प्रश्न किये और कसाई ने सबका संतोषजनक उत्तर दिया। वह प्रश्नोत्तर महाभारत में ‘व्याध गीता’ के नाम से मौजूद है।
उन उत्तरों को सुन कर संन्यासी बड़ा चकराया और पूछने लगा कि इतना विमल ज्ञान होने पर भी ऐसा पाप कर्म क्यों करते हो? कसाई ने उत्तर दिया भगवन् कर्म की अच्छाई-बुराई उसके बाह्य रूप से नहीं वरन् करने वाले की अच्छी बुरी भावना के अनुसार ईश्वर नापता है। संसार में कोई भी कर्म न तो अच्छा है न बुरा। करने वाले की नीयत के अनुसार उस पर अच्छाई-बुराई का रंग चढ़ता है। न्यायाधीश फाँसी की सजा देता हुआ भी हत्या के पाप का भागी नहीं होता।
योगसाधन एक कर्मकाण्ड है जिसके द्वारा आध्यात्मिक पवित्रता और एकाग्रता का संपादन होता है और इन्हीं दो तत्वों के आधार पर दिव्य तत्वों की प्राप्ति होती है। किन्तु कर्मकाण्ड एक ही प्रकार का नहीं है, उसके अनेक रूप हो सकते हैं। अपने कर्तव्य धर्म को पवित्र भावनाओं और परमार्थ बुद्धि से पालन करता हुआ एक साधारण या नीच कोटि का कहलाने वाला मनुष्य भी वैसी ही सफलता प्राप्त कर सकता है, जैसे कि एक उच्च कोटि का तपस्वी।