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Magazine - Year 1941 - Version 2

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प्रेम और सेवा

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आध्यात्मिक साधनाओं के अनेक मार्ग हैं। विभिन्न मतों के अनुसार अलग-अलग साधनाएं प्रचलित हैं। रास्ते पृथक हैं, पर उनका केन्द्र एक ही है। वे सब सत्यनारायण के निकट ले पहुँचते हैं। आध्यात्मिकता उर्ध्व गति है। पर्वत पर ऊपर की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयत्न करते रहने वाला जिस प्रकार देर सबेर में एक न एक दिन सर्वोच्च शिखर पर पहुँच ही जाता है, उसी प्रकार अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाने वाला, सत्य का अवलम्बन ग्रहण करने वाला एक न एक दिन-कठिनाई से या आसानी से परमात्म-सत्ता के निकट पहुँच ही जाता है।

साधनाओं के अलग-अलग मार्ग होने पर भी उनमें से कोई एक साधक को चुनना होता है। वह अपने अनुभव या किसी पथप्रदर्शक की सम्मति से अपने लिये रास्ता चुनता है। एक व्यक्ति कई मार्गों पर एक साथ नहीं चल सकता। सब मार्ग सच्चे होने पर भी रुचि, बुद्धि, सुविधा के अनुसार किसी एक को स्वीकार करना पड़ता है। सब पगडंडियों पर एक साथ चलने का प्रयत्न कोई बुद्धिमान रास्ता पार नहीं करता, इसी प्रकार अन्य साधनाओं से द्वेष न करता हुआ एक जिज्ञासु अपने लिये अपनी स्वतन्त्र साधना चुनता है और यदि उस पर ही दृढ़तापूर्वक अन्त तक आरुढ़ रहा, तो अपने चरम लक्ष तक पहुँच जाता है।

मार्गों की सरलता और कठिनाइयों के सम्बन्ध में अनुभव भिन्न-भिन्न है। नाम संकीर्तन से लेकर निर्जल और निराहार साधनाएं तक है। इन सभी साधकों को संतोष मिलता है, परन्तु सरलता और कठिनता का महत्व अपनी-अपनी दृष्टि में अलग है। राजयोग से लेकर हठयोग और तन्त्रयोग तक की साधना अपनी अपनी रुचि के अनुसार प्रयोग में आती है। परन्तु मनुष्य प्राणी की शक्ति कमजोर और स्वभाव कोमल होने के कारण लौकिक और पारलौकिक कार्यों में सरलता ढूंढ़ता है। सरलता, सुविधा एवं सरसता के मार्ग सब को पसन्द होते हैं। आध्यात्मिक साधनाओं की विभिन्नता का यह भी एक कारण है कि जिसे जो मार्ग सरल और सुविधाजनक प्रतीत हुआ है, उसने पिछले मार्गों की अपेक्षा उसी अनुभूत सरल मार्ग का प्रतिपादन किया है।

‘अखण्ड ज्योति’ कार्यालय में निरन्तर कई-कई पत्र ऐसे आते रहते हैं, जिनमें पाठक अपने लिए कोई साधना मार्ग निर्धारित करने के सम्बन्ध में हमारी सम्मति चाहतें हैं। इनमें से अलग-अलग जिज्ञासुओं को उनकी स्थिति के अनुसार पृथक-पृथक सम्मति देनी पड़ती है, फिर भी दो साधन ऐसे हैं जो समान रूप से सब के लिए उपयोगी हैं, और बाल वृद्ध, स्त्री पुरुष सभी के लिए इनका पालन करना सरल, सरस और सुन्दर है। साथ ही फल की दृष्टि से भी यह इतने ही महत्वपूर्ण है जितने कि अन्य कठोर साधन।

‘प्रेम’ और ‘सेवा’ यह दो मार्ग ऐसे हैं, जिनको स्वीकार करने मात्र से शान्ति का आविर्भाव होता है। सच पूछा जाय तो मनुष्य जीवन के यह दो नेत्र है जिनके द्वारा अज्ञानान्धकार से भरे हुए इस भवसागर में से भी अपना मार्ग ढूंढ़ लेता है और भ्रम की उलझनों में बिना फँसे ईश्वरीय सत्य की ओर बढ़ता जाता है। यह दोनों गुण मानस लोक के सूर्य चन्द्र है जिनके प्रकाश से दिव्य ज्योति का आविर्भाव होता है। हृदय की यह दो निर्झरिणी है, जिनके प्रवाह में जीवन के सारे पाप-ताप धुलते रहते हैं। प्रेम और सेवा, आनन्द और शान्ति के दूसरे रूप है। जिस हृदय में प्रेम है वहाँ उत्साह, उल्लास आनन्द भरा रहेगा, जहाँ सेवा है, वहाँ शान्ति, सन्तोष और शीतलता का स्रोत उमड़ता रहेगा। जिन हृदयों ने प्रेम और सेवा का धर्म स्वीकार कर लिया है वे धन्य है। तीनों लोक के भौतिक सुख उनके आनन्द की तुलना नहीं कर सकते।

हम जो कुछ चराचर जगत देख रहे हैं यह परमात्मा की पवित्र प्रतिमा है। पाषाण प्रतिमाएं, भावना के अनुरूप ही फलदायिनी होती हैं, फिर इसमें तनिक संदेह नहीं है कि चराचर प्राणियों में, संसार के सब पदार्थों में प्रभु का रूप देखें तो वह उनमें दिखाई दे। तत्वतः जीव ईश्वर का ही अंश है। फिर ईश्वर की ऐसी सजीव प्रतिमाओं को सामने छोड़ कर, उसे तलाश करने के लिए और कहाँ भटकना चाहिए? भावुक भक्तों को दिव्य नेत्रों से जब प्रभु की झाँकी मिल जाती है, वे आनन्द विभोर हो जाते हैं। प्रभु की साक्षात प्रतिमाओं को यदि हम ईश्वरीय भावनाओं से देखने लगे तो कितना सुख उपलब्ध होगा इसे एक बार अनुभव करके जाना जा सकता है।

संसार को मायाजाल या भवसागर समझेंगे तो वह वैसा ही बन कर तुम्हें बाँधने आवेगा। उसके पेट में से भाग कर नहीं जा सकते मछलियाँ तालाब में दोष ढूंढ़े तो अपने चित्त को दुखी करने के अतिरिक्त और क्या लाभ उठा सकेंगी। संसार झूठा नहीं है। हमारी वासना झूठी है। स्वार्थ और लोभ झूठा है। प्राणी मात्र को अपना पूज्य समझ कर उनकी सेवा में दत्तचित्त रहें तो ठीक वैसी ही मानसिक अवस्था हो सकती है, जैसी कि किसी निर्जन गुफा में रह कर योगाभ्यास में लीन रहने पर होती है। यह बात व्यवहार में कठिन नहीं है। हम अपना दैनिक कर्तव्य करते हुए प्रेम और सेवा का व्यवहार संपूर्ण प्राणियों के साथ कर सकते हैं। यहाँ एक भ्रम उत्पन्न हो सकता है। मान लीजिये कि कोई दुष्ट स्वभाव का मनुष्य हमारे घर में घुस आता है और चोरी आदि करना चाहता है, ऐसे समय में क्या उसका प्रतिकार न करना चाहिए?

जिज्ञासुओं को जानना चाहिए कि हर व्यक्ति की मन-मर्जी पूरा करना या वह जो कुछ कर रहा है, उसे ही करते रहने देना यह उसकी सेवा नहीं हुई, यह तो उसके साथ शत्रुता करना है। बुरे आचरण करना आत्मा का धर्म नहीं है, यह तो पापों का उस पर आक्रमण है। पापों के ताप को और बढ़ा देना यह प्रेम नहीं हुआ। उसकी सच्ची सेवा उसका पाप हटा देने में है। प्यासा आदमी धूप से परेशान है, उसे गर्मी नहीं शीतल जल देना चाहिए। पापी को उसकी पाप वासनाएं पूर्ण करके और अधिक तप्त नहीं करना चाहिए; वरन् उसके विकारों को हटा कर निर्मल बनाना चाहिए। इस शुद्धि के कार्य में यदि उसे दण्ड देना पड़े, तो देना ही कर्तव्य है। डॉक्टर प्रेम और सेवा की भावना से बीमारों के फोड़ चीरता है। समाज और अपराध के प्रति प्रेम भावनाएं रखकर न्यायधीश दुष्टता का कठोर दण्ड देता है। यह धर्म है। सत्कर्म और सात्विकता की ओर दूसरों को प्रवृत्त करना उनके साथ में सब से बड़ा उपकार करना है, सब से उत्तम प्रेम और सेवा से भरा हुआ कार्य है।

जहाँ दुष्टों की दुष्टता छुड़ाने का प्रयत्न करना कर्तव्य है। वहाँ असहायों की सहायता करना भी धर्म है। संसार में अनेक प्राणी ऐसे है, जिन्हें हमारी सहायता की जरूरत है। प्रभु ने पृथ्वी पर असहायों की सृष्टि इसलिए की है कि समर्थ लोग उन्हें सहायता देकर अपना आत्मकल्याण करें। यदि सभी जीव सम्पन्न होते तो दया और सेवा के सद्गुणों की आवश्यकता न रहती और उनके लोप के साथ आध्यात्मिक महत्व ही नष्ट हो जाता। प्रत्येक पीड़ित की कराह में हमें यह सुनना चाहिए कि प्रभु हमें सेवा और सहायता के द्वारा आत्मोन्नति करने के लिए आह्वान कर रहें हैं। असहायों की ओर से जब हम मुँह मोड़ कर चलते हैं, तो ईश्वर की पुकार का निरादर करते हुए चलते हैं। मित्रो! यह मानव का कर्तव्य नहीं है।

संसार को ईश्वर की प्रतिमा के रूप में देखिए। हर प्राणी के ऊपर अपने प्रेम का अमृत छिड़ किये। दुष्ट और दुराचारियों को दया का पात्र समझ कर उनके पापों को मिटाने का प्रयत्न एक प्रेमी डाकू की तरह कीजिए। पीड़ियों और असहायों के स्वर में ईश्वर का आह्वान सुनिये और जो कुछ आप संसार की भलाई के लिए कर सकते हैं, कीजिये। प्रेम और सेवा धर्म को अपने जीवन का अंग बना लीजिए। ध्यान रखिए कि ईश्वर के साथ दम्भ और दुर्भावनाओं के साथ व्यवहार न हो। जैसे भावुक भक्त राधेश्याम और सीताराम का स्मरण करते हैं, आप उसी तरह प्रेम-सेवा की रट लगाइए।

यह प्रत्यक्ष धर्म है। नकद सौदा है। जितना करते चलिए, उतनी ही मजदूरी दूसरे हाथ से लेते चलिए। इसमें अन्धविश्वास और बहकावे की भी कोई बात नहीं है। अविश्वास, अवैज्ञानिकता या पछतावे जैसी कोई चीज भी यहाँ नहीं है। जरा शान्त चित्त से-एकान्त स्थान में-आँखें बन्द करके कुछ देर प्रेम और सेवा का स्मरण तो कीजिए। आपके सूखे हुए मानस में एक हरियाली की छटा दिखाई देगी। प्रेमी बनिये, पाप आप से हजारों कोस दूर भाग जायेंगे, सेवक बनिये, वासनाएं आप से योजनों दूर हट जायेंगी। प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शनों से आप कृत्य-कृत्य हो जायेंगे।

अखण्ड-ज्योति के पाठकों! अपनी आध्यात्मिक साधनाओं में इन दो साधनाओं का समावेश करना मत भूलना। हृदय पलट पर इन शब्दों को अंकित कर लो-

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Type: SCAN
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Type: TEXT
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