
देखते हैं-ईश्वर है।
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(महामना पं मदनमोहन मालवीय)
हमारे सामने जन्म से लेकर शरीर छूटने के समय तक बड़े-बड़े चित्र-विचित्र दृश्य दिखाई देते हैं जो हमारे मन में इस बात के जानने की बड़ी उत्कण्ठा उत्पन्न करते हैं कि वे कैसे उपजते हैं और कैसे विलीन होते हैं? हम प्रति दिन देखते हैं कि प्रातः काल पौफट होते ही सहस्र किरणों से विभूषित सूर्य मण्डल पूर्व दिशा में प्रकट होता है और आकाश-मार्ग से विचरता, सारे जगत को प्रकाश, गर्मी और जीवन पहुँचाता, सायंकाल पश्चिम दिशा में पहुँच कर नेत्र पथ से परे हो जाता है गणित शास्त्र के जानने वालों ने गणना कर यह निश्चय किया है कि यह सूर्य पृथ्वी से नौ करोड़ अट्ठाईस लाख तीस सहस्र मील की दूरी पर है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि यह इतनी दूरी से इस पृथ्वी के सब प्राणियों को प्रकाश, गर्मी और जीवन पहुँचाता है! ऋतु-ऋतु में अपनी सहस्र किरणों से पृथ्वी के जल को खींचकर सूर्य आकाश में ले जाता है और वहाँ में मेघ का रूप बनकर फिर जल को पृथ्वी पर बरसा देता है और उसके द्वारा सब घास, पत्ती, वृक्ष, अनेक प्रकार के अन्न और बान तथा समस्त जीव धारियों को प्राण और जीवन देता है। गणित शास्त्र बतलाता है कि जैसा यह एक सूर्य है ऐसे असंख्य और हैं और इससे बहुत बड़े-बड़े भी हैं जो सूर्य से भी अधिक दूर होने के कारण हमको छोटे-छोटे तारों के समान दिखाई देते हैं। सूर्य के अन्त होने पर प्रतिदिन हमको आकाश में अनगिनत तारे-नक्षत्र ग्रह चमकते दिखाई देते हैं। सारे जगत को अपनी किरणों से सुख देने वाला चन्द्रमा अपनी शीतल चाँदनी से रात्रि को ज्योतिष्मयी करता हुआ आकाश में सूर्य के समान पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा को जाता है। प्रतिदिन रात्रि के आते ही दंशों दिशाओं को प्रकाश करती हुई नक्षत्र-तारा-ग्रहों की ज्योति ऐसी शोभा धारणा करती है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ये सब तारा-ग्रह सूत में बंधे हुए गोलकों के समान अलंघनीय नियमों के अनुसार दिन से दिन, महीने से महीने, वर्ष से वर्ष, बंधे हुए मार्गों में चलते हुए आकाश में घूमते दिखाई देते हैं। यह प्रत्यक्ष है कि गर्मी की ऋतु में यदि सूर्य तीव्र रूप से नहीं तपता तो वर्षा काल में वर्षा अच्छी नहीं होती, यह भी प्रत्यक्ष है कि यदि वर्षा न हो तो जगत में प्राणीमात्र के भोजन के लिये अन्न और फल न हों। इससे हमको स्पष्ट दिखाई देता है कि अनेक प्रकार के अन्न और फल द्वारा सारे जगत के प्राणियों के भोजन का प्रबन्ध मरीचि माली सूर्य के द्वारा हो रहा है। क्या यह प्रबन्ध किसी विवेकवती शक्ति का रचा हुआ है जिसको स्थावर-जंगम सब प्राणियों को जन्म देना और पालना अभीष्ट है अथवा यह केवल जड़ पदार्थों के अचानक संयोग मात्र का परिणाम है? क्या यह परम आश्चर्यमय गोलक मण्डल अपने आप पदार्थों के एक दूसरे के खींचने के नियम मात्र से उत्पन्न हुआ है और अपने आप आकाश में वर्ष से वर्ष सदी से सदी, युग से युग घूम रहा है, अथवा इसके रचने और नियम से चलाने में किसी चैतन्य शक्ति का हाथ है? बुद्धि कहती है कि ‘है’ वेद भी कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा को आकाश और पृथ्वी को परमात्मा ने रचा। गीता में स्वयं भगवान का वचन है-वही पंडित है जो विनाश होते हुए मनुष्यों के बीच में, विनाश न होते हुए सब जीवधारियों में बैठे हुए परमेश्वर को देखता है।
सब ज्योतिषों की वह ज्योति, समस्त अन्धकार के परे चमकता हुआ, ज्ञान स्वरूप, जानने के योग्य जो ज्ञान से पहचाना जाता है, ऐसा वह परमात्मा सबका सुहृद्, सब प्राणियों के हृदय में बैठा है।
ऐसे घट-घट व्यापक उस एक परमात्मा की मनुष्य मात्र को विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिए और यह ध्यान कर कि वह प्राणिमात्र में व्याप्त है हमें प्राणी मात्र से प्रेम करना चाहिए।