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Magazine - Year 1941 - Version 2

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कहाँ बैठूँ!

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(श्री सत्य भक्तजी संपादक ‘नई दुनिया’)

(1)

मनमाड़ से गाड़ी चली ही थी, मेरी बगल में ही हिन्दू बैठे थे, थोड़ी देर बाद आपस में ही चर्चा चल पड़ी। चर्चा इस बात पर थी कि इस्लाम को और मुसलमानों को इस देश से बाहर कैसे निकाला जाय? बड़ी-बड़ी बातें हो रही थीं, इनका सार इतना ही था, कि मुसलमान सब शैतान हैं, इस्लाम में ये खराबियाँ और वे खराबियाँ हैं। मैं उनकी बातें सुनते-सुनते ऊब गया। जब स्टेशन आया, तो उतरने के लिये उठा। तो भाई ने पूछा-क्या आप येवला उतरिएगा!

मैं-नहीं, मैं दूसरे किसी ऐसे डब्बे में जा रहा हूँ वहाँ हिन्दू बैठे हों।

उनमें से एक-भाई बिगड़कर बोले-क्या आप हमें हिन्दू नहीं समझते?

मैंने जरा खेद बतलाते हुए कहा, आप ही बतलाइये मैं आपको हिन्दू कैसे समझूँ? हिन्दू तो वह धर्म है, जिसमें करोड़ों तरह के देवी-देवताओं के लिए स्थान है, आस्तिक और नास्तिक सारे निर्धन जिसके भीतर हैं, पशुबलि से लेकर पानी चढ़ाने तक सब तरह की कुर्बानी जिसमें हैं, आर्य और अनार्य, शक और हूण सब का रक्त जिसमें लाल हुआ है, जिसने हिन्दू के भीतर आई हुई एक जाति, हर एक मज़हब और हरएक सभ्यता को मिलाकर एक कर लिया है, वही तो हिन्दू आप लोगों की बातों से मैं नहीं समझ सका। हिन्दुत्व का सौवाँ टुकड़ा भी आप लोगों के भीतर है। इसलिए माफ कीजिये अब मैं दूसरे डिब्बे में ही जाऊंगा।

(2)

दूसरे डब्बे में पहुँचा, वहाँ कुछ मुसलमान जन बैठे हुये थे, उनकी कुछ बातें चल रही थीं, मुझे देख कर पहले तो वे लोग कुछ चुप से हो गये, लेकिन मैंने किताब पढ़ने का कुछ ऐसा ढोंग किया कि उन लोगों को यह विश्वास हो गया कि उनकी बातों पर मेरा ध्यान नहीं हैं। वे लोग पाकिस्तान बनाने की फिक्र में थे और इस तरह बहस कर रहे थे कि मानों इस बहस में पाक-स्थान बनाना तय हो जाय, तो ब्रिटिश सरकार और खुदाबन्द करीम की पाकिस्तान बनाने में कोई अड़चन न रह जायगी।

एक भाई बोले-पाकिस्तान बन जाने पर हम हिन्दुओं को अच्छी तरह देख लेंगे, इन काफिरों की अक्ल ठिकाने ला देंगे। फिर देखें राम, कृष्ण की सवारी कैसे निकल पाती है, मन्दिरों में पूजा कैसे हो पाती है। उनकी बातें, सुनकर मेरा दिल खिन्न हो गया और दूसरे डब्बे में जाने की सोचने लगा। मुझे उठता हुआ देख कर कुछ संतोष के साथ एक भाई ने पूछा, क्या आप बेलापुर तशरीफ ले जाइएगा।

मैंने कहा-नहीं जनाब, मुझे जाना तो दूर है पर मैं किसी ऐसे डब्बे में बैठना चाहता हूँ जहाँ मुसलमान बैठे हों।

वे लोग चौंके, उनमें से एक साहब बोले, यह आप क्या फरमा रहे हैं, हम लोग तो मुसलमान ही हैं।

मैंने कहा-माफ कीजिये, इस्लाम को मैं जहाँ तक समझ सका हूँ, उसके माफिक जैसा मुसलमान होना चाहिये, आप लोग ठीक उससे उलटे हैं। इस्लाम का तो कहना है कि हर मुसलमान किसी में फर्क नहीं कर सकता। वे तो जैसे मुहम्मद साहब को मानते हैं, वैसे ही ईसा, मूसा, इब्राहीम, राम, कृष्ण की सवारी के नाम से चिढ़ने वाले आप लोग मुसलमान कैसे हो सकते हैं। इस तरह तो मुल्क का अमन नष्ट हो जायगा। इस्लाम का मतलब तो अमन या शान्ति है। जब आप इस्लाम के नाम पर ही अमन की बर्बादी करेंगे तो आप मुसलमान कैसे कहला सकेंगे। इसलिए आप लोग आराम से बैठिये, मैं दूसरे कम्पार्टमेंट में चला जाता हूँ।

(3)

नये कम्पार्टमेंट में एक पादरी महाशय अपने भक्तों को लिये बैठे थे। वे सब ईशु की वाणी सुनाने के लिये अहमदनगर जा रहे थे। पर उनका प्रचार रेल में भी चालू था, वे कह रहे थे-बपतिस्मा लेने के सिवाय पाप से और नरक से बचने का कोई रास्ता नहीं। इस देश के लोग बड़े नासमझ हैं। हम इनके उद्धार के लिये करोड़ों रुपया खर्च करते हैं पर ये कुछ नहीं समझते। अगर इस मुल्क के सब आदमी ईसाई हो जाएं तो कोई झगड़ा फसाद न रहे। ये लोग परमात्मा के पुत्र को छोड़ कर झूठे देवताओं को पूज कर दोजख की तैयारी कर रहे हैं।

वे बड़े जोश से पाप-मुक्ति का सन्देश पास में बैठे हुए आदमियों को सुना रहे थे। यहाँ भी मुझे चैन न मिला और जब मैं उतरने को हुआ तो पादरी साहब ने पूछा क्या आपका स्टेशन आ गया। मैंने कहा-जी नहीं, स्टेशन तो काफी दूर है, पर मैं दूसरे कम्पार्टमेंट में जा रहा हूँ, शायद वहाँ कोई ईसाई लोग बैठे होंगे, तो उनके पास बैठूँगा, या किसी दूसरे धर्म वाले के पास बैठूँगा, क्योंकि ईसाई का मिलना सबसे ज्यादा मुश्किल है।

पादरी साहब मुस्करा कर बोले, क्या आपने अभी तक मेरी बातें नहीं सुनी! मैं खुद ईसाई हूँ, ईसाई धर्म का प्रचारक हूँ, मुझ से बढ़ कर ईसाई आपको कहाँ मिलेगा!

मैंने कहा- हो सकता है कि न मिले, पर इसका मतलब यही होगा कि आज दुनिया में ईसाई नहीं हैं। आपकी सब बातें मैंने सुनी हैं, इसलिए मुझे भी ईसाई का मिलना मुश्किल मालूम होता है। ईसाई मजहब को जितना समझा है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि यह तो प्रेम ओर सेवा का मजहब हैं। पर आज तो बात उलटी ही है। आप कहते हैं, यह मुल्क ईसाई हो जाय, तो सब झगड़े शान्त हो जायें, पर सारा योरोप तो आज ईसाई है, लेकिन वहाँ जैसा कहर बरस रहा है वैसा दुनिया के किस देश में बरस रहा है? ईसाइयों ने प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिक बनकर परस्पर में करोड़ों आदमियों का जिस निर्दयता से खून बहाया है, उसे देखकर कौन कह सकता है कि आज इस दुनिया में ईसाई होते, तो दुनिया में साम्राज्यवाद न होता, रणचडी का नंगा नाच न होता, आदमी की शक्ति एक दूसरे को लूटने में नहीं, किन्तु सेवा करने में खर्च होती।

मेरी बात सुनकर पादरी महाशय का मुँह कितना फीका हो गया, इसकी परवाह किये बिना मैं डब्बे से उतर पड़ा और दूसरे डब्बे में जा बैठा।

(4)

अबकी बार मैं जिन लोगों के बीच में पहुँचा वे अपने को जैनी कहते थे। अपने किसी मुनि के दर्शनों के लिये कहीं जा रहे थे। कह रहे थे, धर्म तो बस है तो जैन है, बाकी सब पाखण्ड है, मिथ्यात्व है। इस धर्म में जैसी वैज्ञानिकता है, वैसी किसी में नहीं। दुनिया विषयों में फाँसी है, इसलिये वह इस वीतराग धर्म को नहीं चाहती। जगत के करोड़ों आदमी मिथ्यामतों में फंसकर नरक और निगोद में जाएंगे, सो जायें अपना क्या कर सकते हैं। जैसी भवितव्यता होगी, वैसा ही होगा।

उनकी बातें सुन कर मैं आँखें फाड़ फाड़ कर उन्हें देखने लगा, सोचा, क्या ये सचमुच जैन हैं? कपड़े तो बड़े चमकीले हैं, गहने भी कुछ कम नहीं हैं, क्या ये महावीर की निष्परिग्रहता के पुजारी हैं। उनकी बातों में मुझे अनेकान्त की थोड़ी भी गंध न आई। मुझे उनका दंभ और एकान्तवाद देख कर कुछ घृणा भी होने लगी और मैं डब्बा बदलने के लिये उतरने की तैयारी करने लगा। इतने में उनमें से एक ने पूछा, क्या आप यहाँ उतरिएगा है?

मैंने कहा- सफ़र तो लम्बा है, पर मैं चाहता हूँ, कि थोड़ी देर जैनियों की संगति में काटूँ?

वे हँसे! बोले-साहब, जैन ढूंढ़ने के लिये कहाँ जाते हैं? हम सब जैनी ही जैनी है!

मैंने अचरज का भाव दिखाते हुए कहा क्या आप लोग जैनी हैं, निष्परिग्रहता के अवतार महावीर स्वामी के पुजारी हैं! तीन सौ तिरेसठ मतों का समन्वय करने वाले, अनेकान्त को मानने वाले? मेरे ख्याल में तो एकान्तवाद ही पाखंड हैं, मिथ्यात्व हैं। अगर आप सब धर्मों का समन्वय नहीं कर सकते, देश का विचार करके अब धर्मों के विधि विधानों पर अनेकान्त दृष्टि नहीं डाल सकते, अर्थ-भेद का समन्वय दूर रहे, अगर नाद-भेद का भी समन्वय नहीं कर सकते, तो आप कैसे अनेकान्ती हैं। कैसे जैनी है। आप तो धर्म की महत्ता की ओट में अपने अहंकार की पूजा कर रहे हैं आप अहंकार को नहीं जीत पाए। इतना ही नहीं आप अहंकार को जीतना भी नहीं चाहते, फिर आप जैन कैसे? जो अहंकार आदि आत्म-शत्रुओं को जीत चुका है, वह जिन है और जो जीत रहा है या जीतना चाहता है, वह जैन है। अब मैं नहीं समझ सका कि आप क्या हैं? और कुछ भी हों पर जैन तो नहीं हैं। यह कह कर उनके उत्तर की परवाह किये बिना डब्बे से उतर पड़ा।

(5)

वहाँ से उतरकर मैं एक ऐसे कम्पार्टमेंट में पहुँचा जिसमें कुछ पारसी कुटुम्ब बैठे थे। मैंने दरवाजा खोजा ही था कि सब के सब एक साथ चिल्लाये यहाँ जगह नहीं है, यहाँ जगह नहीं है मैंने सोचा -ऐसे लोगों के पास बैठने में क्या लाभ है? मैं और आगे बढ़ गया।

देखा एक छोटा सा कम्पार्टमेंट खाली पड़ा है मैं उसके भीतर पहुँचा। एक बौद्ध भिक्षु एक खाली बैंच पर लेटे थे। मेरे पहुँचते ही उसने उठ कर स्वागत किया। बोले-आइये, यहाँ काफी जगह है।

मैंने कहा -ईश्वर की दया है कि आपका साथ मिल गया।

ईश्वर का नाम सुन कर भिक्षु जी ऐसे चौंके जैसे कोई कट्टर मुसलमान मूर्ति का नाम सुन कर चौंक पड़ता है। बोले इस कमबख्त ईश्वर ने दुनिया का जितना नाश किया है उतना किसी ने नहीं किया। जो ईश्वर का गुलाम है, वह दुनिया का गुलाम है। जब तक लोग ईश्वर के पीछे पड़े हुए हैं तब तक उनका उद्धार नहीं हो सकता।

मैंने कहा - कम से कम आप तो ईश्वर के पीछे न पड़िये।

वे बोलो - मैं? मैं ईश्वर के नाम पर धिक्कार करता हूँ मैं क्यों उसके पीछे पढूंगा। मैं बौद्ध हूँ बुद्ध का अनुयायी, बुद्धि का बच्चा। मुझे ईश्वर से कोई मतलब नहीं।

मैं- अच्छा हो यदि आप उसके कोई मतलब न रखें। लेकिन आप उनका इतना विरोध करते हैं कि दिन रात वही आपकी आँखों के सामने घूमता रहता है, इससे बढ़कर मतलब और क्या होगा।

भिक्षु -कुछ भी हो पर मैं ईश्वर सरीखे किसी अस्तित्व को महत्व नहीं देना चाहता।

मैं- होना यही चाहिये और महात्मा बुद्ध की नीति भी यही थी। उनके लिये ईश्वर परलोक आदि तत्व नहीं थे, किन्तु चार आर्य सत्य तत्व थे। दुनिया के दुःख दूर करने से उन्हें मतलब था, और आपको मतलब है ईश्वर के बहिष्कार से यह तो महात्मा बुद्ध का मार्ग नहीं है।

मेरी बात सुन कर भिक्षु जी चुप तो हो गये पर प्रसन्न न रह सके। भला इस मनहूस वातावरण में बैठ कर मैं क्या करता। लिहाजा डब्बे से निकल आया। और प्लेटफार्म पर खड़ा होकर सोचने लगा अब कहाँ बैठूँ?

-नई दुनिया

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