
संगठन और लक्ष्मी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री मंगलचन्द भंडारी, ‘मंगल’ अजमेर)
सेठ जी पर लक्ष्मी की कृपा थी। उनका व्यापार-व्यवसाय अच्छी उन्नति कर गया था। लाखों करोड़ों का कारोबार होता था, तिजोरियाँ सोने चाँदी से सदा भरी रहतीं। ईश्वर की कृपा से उन्हें चार सुन्दर पुत्र प्राप्त हुए थे। चारों ही एक से एक बढ़ कर चतुर थे। घर सब प्रकार के आनन्दों से परिपूर्ण था।
बेटे बड़े हुए और उनके धूमधाम के साथ विवाह किये गये। बहुएं अपने साथ खूब दान-दहेज लाईं। सेठ जी और सेठानी प्रसन्नता से फूले न समाते थे।
समय का चक्र बड़ा प्रबल है। आज जहाँ आनन्द है, कल वहाँ दुख हो सकता है, आज जहाँ बाग है, कल वहाँ मरघट हो सकता है। सेठ जी के आनन्द से भरे हुए घर में भी विनाश की छाया झाँकने लगी। बहुओं में मनमुटाव बढ़ने लगा। सम्मिलित रहने का एक ही सिद्धान्त है कि हर मनुष्य अपने सुख की अपेक्षा दूसरे का अधिक ध्यान रखे, किन्तु जहाँ ‘आपापूर्ति’ शुरू हो जाती है, अपने लिये अधिक लेने और दूसरे को कम देने की प्रवृत्ति चल पड़ती है, वहाँ साझा नहीं चल सकता। एक न एक दिन कलह और विद्रोह जरूर पनप उठेगा। बहुओं में कुछ ऐसे ही विचार घर करने लगे थे। हर एक अपने लिए अधिक सुख चाहती थी और दूसरों की उपेक्षा करती थी। फलस्वरूप घर में लड़ाई के बीजाँकुर बढ़ने लगे। स्त्रियों के मन मुटाव की छूत पुरुषों में पहुँची और वे भी एक दूसरे से असन्तुष्ट रहने लगे। भीतर ही भीतर सब में रोष था, कभी-कभी वह लड़ाई के रूप में बाहर भी प्रकट होने लगा।
जहाँ कार्यकर्ताओं के चित्त में उद्विग्नता है, वहाँ कार्य ठीक प्रकार पूरा नहीं हो सकता और व्यापारी के काम अधूरे और कच्चे पड़े रहते हैं, उसको घाटा होना निश्चित है। जैसे-जैसे कलह बढ़ने लगा वैसे ही वैसे व्यापार में घाटा भी बढ़ने लगा। दिन-दिन आर्थिक दशा कमजोर होने लगी।
एक दिन सेठ जी ने स्वप्न देखा कि दिव्य रूप धारण किये हुए तेज मूर्ति लक्ष्मी जी उनके घर को छोड़ कर अन्यत्र जाने की तैयारी कर रही हैं -”पुत्र, मैं तेरे यहाँ बहुत दिन रही पर अब यहाँ नहीं रहूँगी।” सेठजी लक्ष्मी के अनन्य सेवक थे। जीवन भर उन्होंने उसी की उपासना की थी, जब उन्होंने यह देखा कि मेरी संपदा जा रही है, वेदना से तड़फड़ा कर वे लक्ष्मी के चरणों में लोट गये और फूट-फूट कर रोने लगे। लक्ष्मी को उन पर दया आ गई। उसने कहा-पुत्र, मेरा जाना तो निश्चित है, पर तेरी भक्ति को देख कर एक वरदान तुझे दे सकती हूँ। मुझे छोड़ कर अन्य जो वस्तु चाहे सो तू माँग ले।
स्वप्न में ही सेठ जी ने कहा-माता इस समय मेरा चित्त स्थिर नहीं हैं। मैं शोक से व्याकुल हो रहा हूँ, इसलिए क्या माँगू क्या न माँगू इसका ठीक निर्णय नहीं कर सकता। आप कल तक का अवसर मुझे दें। कल मैं माँग लूंगा। लक्ष्मी जी दूसरे दिन फिर स्वप्न में दर्शन देने का वचन देकर अन्तर्ध्यान हो गईं। सेठजी का स्वप्न टूटा तो उनका कलेजा धकधका रहा था।
प्रातःकाल सेठ जी ने अपने सब पुत्रों और पुत्र-वधुओं को बुलाया और रात के स्वपन् का सारा हाल कह दिया। उस जमाने में लोगों के मन अधिक गंदे न होते थे, इसलिये उन्हें जो दिव्य स्वप्न दिखाई देते थे वे प्रायः सत्य ही होते थे। सब को विश्वास हो गया कि स्वप्न सत्य ही है। अब सब विचार करने लगे कि लक्ष्मी जी से क्या माँगना चाहिए। लड़कों में से किसी ने कोठी, किसी ने मोटर, किसी ने कुछ किसी ने कुछ माँगा। इसी प्रकार बेटों की बहुएं भी संतान, आभूषण, महल आदि माँगने लगीं। किन्तु छोटे बेटे की बहू ने नम्रतापूर्वक कहा-पिताजी मेरी सलाह तो यह है कि आप ‘ऐक्य’ का वरदान माँगे। हम लोग चाहे जिस परिस्थिति में रहें पर सब में प्रेम बना रहे और सब मिल जुल कर रहें।
छोटी बहू की बात सेठ जी को पसन्द आ गई। रात को उन्होंने लक्ष्मी जी से यही वरदान माँगा कि-माता! हम लोग चाहे जैसे दुख सुख में रहें, परन्तु सब में प्रेम भाव बना रहे सब मिल जुल कर रहें। लक्ष्मी इस याचना को सुन कर अवाक् रह गई। उनने कहा -यही तो मेरे जाने का कारण था। कलह और द्वेष के कारण ही तो मैं तुम लोगों के यहाँ से जा रही थी पर जब तुम्हें यह वरदान दूँगी तो किस प्रकार जा सकूँगी? लक्ष्मी जी वचन बद्ध थीं, उन्हें यह वरदान देना पड़ा। परन्तु साथ ही अपने चले जाने का विचार भी छोड़ देना पड़ा। क्योंकि जिस परिवार में प्रेम और संगठन है, लक्ष्मी उसे छोड़ कर जा ही नहीं सकती।
समझा जाता है कि पैसे के अभाव में गृह कलह होती है, यदि घर में खूब पैसा हो तो लड़ाई झगड़े न होंगे। परन्तु यह धारणा भ्रमपूर्ण है। गरीबी में भी हम प्रेम और संगठन के साथ रह सकते हैं। यदि आपस के सम्बन्ध सुहृदयतापूर्ण और निस्वार्थ रहें, तो अवश्य ही धन-वैभव की वृद्धि हो सकती है इसके विपरीत कलह से बड़े-बड़े धनपति भी भिखारी बन जाते हैं।