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Magazine - Year 1945 - Version 2

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महान जागरण

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(डॉ. श्री रामचरण महेन्द्र एम. ए. डी. लिट् डी. डी.)

(गताँक से आगे)

पूर्ण मतैक्य हमारी वास्तविक स्थिति है- आज के समाज का सभ्य मनुष्य निज वास्तविक मनः स्थिति से दूर जा पड़ा है। उसके मनः क्षेत्र में भावनाओं तथा आकाँक्षाओं के अनेक खंडहर, कब्रें तथा टूटे हुए अंश पड़े हैं। अनेक वासनाएँ अतृप्तावस्था में ही कुचल दी गई हैं, कितनी ही हसरतों, आशाओं, दबी हुई भावनाओं पर तुषारापात हो चुका है। उसकी आज की आकाँक्षाएँ तो उन पुरातन आकाँक्षाओं की छाया मात्र रह गई हैं।

आदि काल का पूर्व पुरुष देश-काल-समाज के बंधनों से मुक्त था। सभ्यता का मिथ्याडंबर, समाज के वज्र जैसे कठोर नियम, लोक निंदा का भय, सम्प्रदाय की थोथी उलझनें, उचित अनुचित का सीमा बंधन या विवेक का नियंत्रण न होने के कारण उसकी भीतरी रागात्मक प्रवृत्तियों, वासनाओं तथा मनोविकारों का वाह्य सृष्टि के साथ उचित सामंजस्य था। अव्यक्त (nconscious mind) की वासनाओं को पूर्ण परितृप्ति का खुला अवसर मिलता था। प्रेम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, ह्रास, उत्साह, आश्चर्य, करुणा इत्यादि मनोवेगों का प्रवाह अबाधपूर्ण उन्मुक्त था। उनमें विवेक, सत् असत् तथा प्रयत्न की अनेक रूपता का स्फुरण नहीं हुआ था। विशुद्ध सुख की अनुभूति होने पर, दाँत निकाल कर, हंसकर, कूदकर सब व्यक्त कर दिया जाता था। दुःख की अनुभूति पर, हाथ पाँव पटक कर, रोकर चिल्लाकर मन की चोट पर मरहम लगा लिया जाता था। दंड का भय और अनुग्रह का लोभ या शासन का नियंत्रण न होने के कारण मनोभाव स्पष्ट रूप से व्यंजित होते थे। इस उन्मुक्त काल में हमारे पूर्व पुरुष के मानसिक संस्थान में पूर्ण मतैक्य या समस्वरता (Harmony) विद्यमान थी। व्यक्त (Conscious) तथा अव्यक्त (n conscious) मन के पूर्ण मतैक्य (Harmony) का नाम ही मोक्ष है। यही अवस्था पूर्ण शान्ति पूर्ण आनन्द, पूर्ण प्रसन्नता की मनः स्थिति है।

व्यक्ताव्यक्त के संघर्ष का प्रतिफल- अनुभूति के द्वन्द्व से ही सभ्यता का जन्म होता है। उत्कृष्ट कहलाने वाला प्राणी उचित अनुचित का द्वन्द्व लेकर जन्म लेता है। ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता है, मानव जीवन की जटिलता, इच्छा की अनेकरूपता तथा विषय बोध की विभिन्नता बढ़ती है। मनुष्य का विवेक तथा औचित्य अनौचित्य का ज्ञान विकसित होता है, शुभ अशुभ, यश अपयश की भावना के कारण मनुष्य का आत्म गौरव उद्दीप्त हो उठता है। तत्पश्चात् समाज का नियन्त्रण बढ़ता है। जैसे-जैसे हमारा मनःक्षेत्र विवेक द्वारा संचालित होता है, वैसे-वैसे देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार अभद्र, प्रतिकूल, समाज से असम्बद्ध वासनाएँ कुचल दी जाती हैं।

मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण- समाज में प्रचलित नैतिक वातावरण (Moral At Mosphere) के कारण दबी हुई वासनाएँ (Suppressed impulses) अव्यक्त मन में बैठी रहती हैं। विवेक उन्हें दबाये रहता है। इस प्रकार की प्रत्येक वासना दबकर एक मानसिक ग्रन्थि या गुत्थी (Complex) बन जाती है। ऊपर आकर परितृप्ति की बाट देखती रहती है। जब विवेक की नियन्त्रण न्यून होता है तो उभर आती है और परितृप्ति का प्रयत्न करती हैं। मनोवैज्ञानिकों ने हमारी सब गालियाँ, मजाक, ठिठोली, नाच, कूद, अश्लील व्यवहार, स्वप्न उन्माद, कायरता इन्हीं मानसिक ग्रन्थियों के फलस्वरूप माना है।

डॉक्टर फ्राइड के क्रान्तिकारी विचार- प्रसुप्त वासनाओं तथा मानसिक ग्रन्थियों के विषय में पाश्चात्य विद्वान डॉ. फ्राइड के विचार सर्वथा क्रान्तिकारी हैं। डॉ. फ्राइड ने हमारी समस्त क्रियाओं को अव्यक्त की प्रसुप्त वासनाओं के फलस्वरूप माना है। इनमें काम वृति (Sex) को उन्होंने सबसे सबल ग्रन्थि माना है। माता का शिशु का माता के स्तन से दुग्धपान, से लेकर कवियों की कवित्व शक्ति प्रायः सब ही को उन्होंने दबी हुई अव्यक्त की कामवासनाओं के फलस्वरूप माना है। मनुष्य की काम वृत्ति या काम पिपासा शान्त न हो सकी। उसका प्रवाह रुद्ध (Obstructed) हो गया और अव्यक्त (nconscious) में पैठ कर वह ग्रन्थि बन गया। यह प्रसुप्त वासना जब अवसर मिलता है या जब विवेक ढीला पड़ता है व्यक्त मन में आ जाती है और विभिन्न प्रकार से विकार तथा विचित्र मानसिक तथा शारीरिक चेष्टाओं में प्रकट होती है। डॉक्टर फ्राइड ने अनेक स्वप्नों का विश्लेषण करके सिद्ध किया है कि मन में पड़ी हुई गाँठ के फलस्वरूप ही ऐसी विचित्र चेष्टाएँ होती हैं।

मानसिक ग्रन्थियों का प्रभाव- मानसिक ग्रन्थि के अनेक प्रकार हैं। जितनी भावनाएँ हैं उतने ही प्रकार की ग्रंथियाँ बन सकती हैं। कुछ ग्रन्थियाँ तो प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में ही होती हैं, कुछ किसी विशिष्ट व्यक्ति में ही होती हैं। इसी प्रकार, कुछ ग्रन्थियाँ सबल तथा कुछ साधारणतः निर्बल होती हैं, कुछ ग्रंथियाँ आनन्ददायक तथा कुछ दुःखदायिनी होती है। जब मानसिक ग्रंथि सबल हो जाती है तो उसकी शक्ति-रूपांतर से व्यक्त होने का उद्योग करती है। साधारण विवेक को तोड़ कर प्रायः वह बाहर निकल पड़ती है। कभी-2 इसका फल पागलपन होता है। अनेक अद्भुत चेष्टाएँ, मन की प्रतिक्रियाएं तथा स्वप्न चेतना का नियंत्रण तोड़ कर मन की दबी हुई वासनाओं के प्रकाशित होने के प्रयत्न मात्र हैं।

मानसिक ग्रन्थियों का प्रभाव अंतर्मन से चेतन मन पर दैनिक व्यवहार में चलता रहता है। एक नवयुवक एक युवती के प्रेमपाश में आबद्ध होता है। प्रथम दृष्टि मिलने में ही उसके अंतर्मन में काम की भावना जाग्रत हो उठती है। नैतिक बुद्धि उसके मार्ग में बाधा उपस्थित करती है। देश, काल परिस्थिति को देखकर वह उसे दबा डालता है। बस, मानसिक संस्थान में एक गाँठ सी पड़ जाती है। अंतर्मन से उस ग्रन्थि से संयुक्त कामोत्तेजक विचार उसके चेतन मन के सम्पूर्ण क्षेत्र को आवृत्त कर लेते हैं। शनैः-2 उसके चेतन मन पर उन्हीं विचारों का आधिपत्य स्थिर हो जाता है, जिनकी जड़ें अन्दर बैठी हुई हैं। उसकी सम्पूर्ण मानसिक क्रियाओं के पीछे कामवासना की झलक दीखती रहेंगी। उस पर बीतने वाली प्रत्येक घटना मस्तिष्क में आने वाले सब विचार, उसी ग्रन्थि में जुड़ते जायेंगे। अन्तस्थल की भूमि पर ये विचार उस ग्रन्थि से जुड़कर अंकुरित, पल्लवित एवं फलित हो उठेंगे। ये वृक्ष काँटेदार या मधुर दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। यदि ये काँटेदार हैं तो इनका उन्मूलन करने से मनः शान्ति प्राप्त होगी है। ग्रन्थियों की यह परवशता आज के सभ्य मनुष्य को पिंजर बद्ध पक्षी बनाये हुए हैं।

मानसिक ग्रन्थियों से ग्रस्त व्यक्तियों के उदाहरण- हमारे दैनिक जीवन के अन्तर्द्वन्द्व अनेक घटनाओं को लेकर ग्रंथियों का निर्माण करते हैं। हमारे एक अध्यापक मित्र की पत्नी को स्नान व धोने का रोग (Washing Mania) हो गया था। वे प्रत्येक वस्तु को तनिक सा छू जाने पर धोने लगती। शौच के पश्चात् सब वस्त्र धोती। बाल कटा डाले। नल पर मिट्टी की पट्टी लगाई, खाने पीने की तमाम वस्तुओं को बार-बार धोती। उन्हें यह बहम हो गया कि अन्य सब वस्तुएँ अपवित्र हैं। बहम की अनिष्टकारी ग्रन्थि की छानबीन करने पर प्रतीत हुआ कि एक बार अनजाने में वे मेहतर की झाडू से छू गई थीं। अपवित्रता की ग्लानि क्रमशः एक सबल ग्रन्थि बन गई। उसी की यह प्रतिक्रिया थी।

डॉक्टर दुर्गाशंकरजी ने एक ऐसे व्यक्ति का रोचक वृत्तान्त लिखा है जिसकी मुट्ठी बंधी हुई रहती थी। यह व्यक्ति कभी-2 दो तीन घंटे पश्चात् मुक्का मारने का उपक्रम करते। इस चेष्टा से वह बड़े क्षुब्ध थे। मानसिक विश्लेषण में उनसे अपने जीवन की विशेष-2 घटनाओं को स्मृति पट पर लाने को कहा गया। बड़े प्रयत्न के उपरान्त उन्हें बहुत दिन पूर्व की एक घटना याद आई। उनका किसी ने बड़ा अपमान किया था। उसका स्मरण करते ही इनका शरीर जकड़ जाता था। इस विद्वेष की, भावना की ग्रन्थि बनकर अव्यक्त में बैठ गई और मुट्ठी बंधी रहने लगी। यह घटना तो मस्तिष्क के किसी उसकी कोष्ठ में विस्मृति के गर्त में प्रतिष्ठ हो गई किन्तु उसकी प्रतिक्रिया मुट्ठी बंधी रह कर हुई। अन्तःकरण से विरोधी भावना को हटाने पर कुछ दिन बाद वह पूर्ववत् हो गए।

कुछ दिन पूर्व मैं हरिद्वार में एक ऐसे व्यक्ति से मिला जो हर की पौड़ी पर बिना गंगाजल में प्रवेश किये लौटे से स्नान कर रहा था। देखकर बड़ी उत्सुकता हुई। पूछने पर कहने लगे कि जल में हड्डियाँ इत्यादि पड़ी हैं अतः दूर से ही स्नान करना ठीक है। अधिक जान पहचान हो जाने पर उन्होंने निम्न वृत्तांत सुनाया “बचपन में कुछ मित्रों के साथ मैं नदी पर सैर करने गया। कुछ लड़के लंगोट बाँध कर जल में तैरने उछल कूद कर अनेक क्रीड़ाएँ करने लगे। एक ने कहा-आओ न, दूर क्यों खड़े हो? इतने में पीछे से आकर दूसरे साथी ने मजाक में उठाकर गहरे जल में पटक दिया। मैं बहुत छटपटाया, नाक मुँह कान में पानी भर गया और मैं डूब गया। जब पुनः ठीक हुआ तब से मैं पानी के निकट जाता डरता हूँ।

मिस्टर मायर ने अनेक ऐसे स्वप्नों के अध्ययन प्रस्तुत किये हैं जिनकी जड़े मन की किसी ग्रन्थि में ही प्राप्त हुई हैं। एक नवयुवती को स्वप्न में दिखा मानों वह सुनहरे जूते पहने हुए है ‘स्वप्न विशेषज्ञ को विश्लेषण करने पर ज्ञात हुआ कि उसने एक दिन पहले अपने प्रेमी को वैसे जूते पहने देखा था।

एक मनः रोगी मेरे पास आया और उसने अपने पिता के क्रूर व्यवहार की कथा रो रोकर सुनाई। उसने मुझे बताया कि यद्यपि वह पिता को बहुत आदर की दृष्टि से देखता है किन्तु पिता उससे क्रुद्ध ही है। पिता का रूखा व्यवहार उसके अंतर्मन में ग्रन्थि बन गया। कुछ दिनों पश्चात् वह पुनः मेरे पास आया। मुझे वह कुछ फीका (Depressed) सा प्रतीत हुआ। उसने बताया कि- मैंने आज दो व्यक्तियों को बड़ी बुरी तरह सताये जाते देखा है। उसी का प्रभाव मुझ पर हुआ है। मन भारी-2 सा हो रहा है। विश्लेषण करने पर ज्ञान हुआ कि उस दिन प्रातः काल उसके पास उसके पिता जी का पत्र आया था जिसमें उस पर अनेक दुर्व्यवहारों, कटुवचनों की मार पड़ी थी। मन भारी-2 सा होने का कारण तो यह कटु पत्र था किन्तु उसका आरोप दूसरों को अपमानित होते देखना था।

कितनी ही बार देखा जाता है कि काम वासना की ग्रन्थि से ग्रस्त व्यक्ति अपने आपको ब्रह्मचारी दिखाने की चेष्टा करता है। वह दूसरों को ब्रह्मचर्य के नियमों का माहात्म्य समझाता है तथा बाह्य दृष्टि से स्त्रियों को घृणा की दृष्टि से देखता है।

कितने ही व्यक्तियों के अव्यक्त मनःक्षेत्र में हीनत्व की ग्रन्थि (Inferiorit Complex) बन जाती है। ऐसा व्यक्ति अपने आपको नगण्य, दीन हीन मानता है। सभा में बोलते शर्माता है, दूसरों से नजर मिलाते डरता है और किसी बड़े दोषी की तरह छिपा-छिपा फिरता है।

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