
‘शठे शाठ्यं समाचरेत्’
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(श्री स्वामी चिन्दानंदजी सरस्वती)
महाराजा धृतराष्ट्र के लघु भ्राता नीति के महा पण्डित विदुर ने अपने नीति वाक्यों (विदुर-नीति) में बड़े जोरदार शब्दों में जैसे से तैसा बरतने की आज्ञा दी है। यथा-
कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्।
तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत्॥
(महाभारत विदुरनीति)
अर्थात्- जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही बर्ताव करो। जो तुम्हारी हिंसा करता है, तुम भी उसके प्रतिकार में उसकी हिंसा करो! इसमें मैं कोई दोष नहीं मानता, क्योंकि शठ के साथ शठता ही करने में उपाय पक्ष का लाभ है। श्रीकृष्ण जी ने भी ऐसा ही कहा है। यथा-
ये हि धर्मस्य लोप्तारो वध्यास्ते मम पाण्डव।
धर्म संस्थापनार्थ हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया॥
(महाभारत)
हे पाण्डव! मेरी प्रतिज्ञा निश्चित है, कि धर्म की स्थापना के लिए मैं उन्हें मारता हूँ, जो धर्म का लोप (नाश) करने वाले हैं।
वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों से यह तो निश्चय हो गया कि आत्मरक्षा अथवा देशहित के लिए दुष्टों, आततायियों तथा राक्षसों का मारना पुण्य है।
यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि कभी-कभी कोई किसी निरपराधी पर आक्रमण करे तो इस पर आर्य का विचार है कि छली को छल से मारने में कभी संकोच न करें- अर्थात् छल, कपट, आदि से भी शत्रु को मार देना चाहिए। ऐसे समय में यदि नियम और अनियमों के गोरखधन्धे में फँसा रहेगा, तो कार्य सिद्धि नहीं होगी।
इसके लिए वेद में आज्ञा है कि जो मायावी, छली, कपटी अर्थात् धोखेबाज है, उसे छल, कपट अथवा धोखे से मार देना चाहिए। यथा-
‘मायाभिरिन्द्रमायिनं त्वं शुष्णमवातिरः।
ऋग्वेद 1।11। 6।
अर्थात् हे इन्द्र! मायावी, पापी, छली तथा जो दूसरों को चूसने वाले हैं, उनको तू माया से पराजित करता है। इसमें ‘मायाभिरिन्द्र मायिनं’ वाक्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए। स्पष्ट लिखा है कि मायावी को माया से मार दो।
महाभारत में भी श्रीकृष्ण जी ने-दुर्योधन-भीम गदा युद्ध के अवसर पर भीम को यही मंत्रणा दी थी कि हे भीम दुर्योधन ने तुम्हारे से बहुत छल किये हैं, अब तू यदि इसे जीतना चाहता है तो छल कपट से मारो अन्यथा इसे नहीं जीत सकोगे। यथा-
मायिनं तु राजानं माययैव निकृन्ततु।
भीमसेनस्तु धर्मेण युध्यमानो न जेष्यति॥
अन्यायेन तु युध्यन् वै हन्यादेव सुयोधनम्।
भीमसेन धर्म से युद्ध करता हुआ दुर्योधन को नहीं जीत सकता। यदि तू छल से युद्ध करेगा तो सुयोधन (दुर्योधन) को जीतेगा अतः छली दुर्योधन को तुम्हें छल से ही मारना चाहिये।
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि सत्य और अहिंसा को मानने वाले ऋषि-महर्षि भी देश व जाति की रक्षा के लिए जैसे को तैसा उत्तर देने और मिथ्या हिंसा न करने की आज्ञा देते रहे हैं। वेदादि शास्त्रों की दृष्टि से और लोक कल्याण दृष्टि से असत्य हुए और हिंसा भी वास्तव में सत्य और अहिंसा हैं।