
मानवता की पुकार
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अब न रक्त का प्यासा मानव, मानव का संहार करे।
हँसें दिशाएँ मोदमयी अब पुलक उठे नीलाभ गगन,
रसमय कर दे शुष्क हृदय को मादक-परिमल-मलय-पवन,
क्रन्दन-क्रीड़ा-भूमि बने यह नन्दन का सुख-शान्ति सदन,
मुक्त-कुन्तला मानवता फिर हो विमुक्त शृंगार करे।
हो न प्रवाहित वसुधा-तल पर मानव-शोणित की धारा,
मिटे विषम-यन्त्रणा-मयी यह क्रूर शिलाओं की कारा,
पेट काटकर मानव का घर भरे न दानव हत्यारा,
दो दाने के लिए न मानव अब यों आर्त पुकार करे।
जहाँ बरसती आग वहाँ अब बरसें सुन्दर मदुल सुगन,
छिड़े प्रेम-संगीत, गूँजता जहाँ शतघ्नी का गर्जन,
बिखरे निर्मल हास, जहाँ हैं तलवारें करतीं झन झन,
बँधा बन्धुता के बन्धन में विश्व विमुक्त विहार करे।
मानव को देखे मानव जब पलक-पाँवड़े बिछ जाएँ,
रुला-रुला कर हा! न किसी को हम अपना मन बहलाएँ,
यों न अस्थि-कंकालों को हा! जठरानल में तड़पाएँ,
जय-जयकार समोद सत्य का अब सारा संसार करे।
यों बोल रहा है रे प्राणी! क्यों गरल सुधामय जीवन में,
बना रहा है कुण्ड नर्क को तू ही तो अपने मन में,
चुभन मिलेगी शूलों की तब ही फल मिलेंगे इस बनमें,
रहे द्वेष-व्यापार न, मानव मानव से अब
अब न रक्त का प्यासा मानव, मानव का संहार करे॥
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*समाप्त*