
ब्रह्मचर्य की सिद्धि
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शास्त्र कहता है- ‘मरणं विन्दुपातेन जीवनं विन्दुधारणात्” अर्थात् वीर्य का पात करना ही मृत्यु और वीर्य धारण करना ही जीवन है।
भगवान शंकर कहते हैं-
न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मर्च्यं तपोत्तमम्।
ऊर्ध्वरेता भवेद् यस्तु से देवो न तु मानुषः॥
अर्थात्- ब्रह्मचर्य से बढ़कर और कोई तप नहीं है। ऊर्ध्वरेता (जिसका वीर्य मस्तिष्क आदि द्वारा उच्च कार्यों में व्यय होता है।) पुरुष मनुष्य नहीं प्रत्यक्ष देवता है।
समुद्र तरणे यद्वत् उपायो नौः प्रकीर्तिता।
संसार तरणे तद्वत् ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम्॥
अर्थात् जिस प्रकार समुद्र को पार करने का नौका उत्तम उपाय है, उसी प्रकार इस संसार से पार होने का उत्कृष्ट साधन ब्रह्मचर्य ही है।
ये तपश्चतपस्यन्त कौमाराः ब्रह्मचारिणः।
विद्यावेद ब्रत स्नाता दुर्गाण्यपि तरन्ति ते॥
अर्थात्- जो ब्रह्मचारी, ब्रह्मचर्य रूपी तपस्या करते हैं और उत्तम विद्या एवं ज्ञान से अपने को पवित्र बना लेते हैं, वे संसार की समस्त दुर्गम कठिनाइयों को पार कर जाते हैं।
सिद्धे बिन्दौ महायत्ने किन सिद्धयति भूतले।
यस्य प्रसादान्महिमाममाप्ये तादृशो भवेत्॥
अर्थात्- महान परिश्रम पूर्वक वीर्य का साधना करने वाले ब्रह्मचारी के लिए इस पृथ्वी पर भला किस कार्य में सफलता नहीं मिलती? ब्रह्मचर्य के प्रताप से मनुष्य मेरे (ईश्वर के) तुल्य हो जाता है।
‘ब्रह्मचर्य परं तपः।’
ब्रह्मचर्य ही सबसे श्रेष्ठ तपश्चर्या है।
“एकतश्चतुरो वेदाः ब्रह्मचर्य तथैकतः।”
अर्थात्- एक तरफ चारों वेदों का फल और दूसरी ओर ब्रह्मचर्य का फल, दोनों में ब्रह्मचर्य का फल ही विशेष है।