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Magazine - Year 1946 - Version 2

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वैराग्य की विवेचना

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वैराग्य का अर्थ है- रोगों को त्याग देना। राग मनोविकारों को, दुर्भावों और कुसंस्कारों को कहते हैं। अनावश्यक मोह, ममता, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, शोक, चिन्ता, तृष्णा, भय, कुढ़न आदि के कारण मनुष्य जीवन में बड़ी अशान्ति एवं उद्विग्नता रहती है। कितने ही लोग अपने को बड़ा दीन दुखी, अभाव ग्रस्त, संतप्त, अभागा समझते हैं और यह रोना रोते रहते हैं कि हमारे पास अमुक वस्तु नहीं, अमुक स्थिति अनुकूल नहीं, अमुक त्रास है। परन्तु असली बात दूसरी ही होती है। अन्तः करण में रहने वाले राग द्वेष भीतर से उठते हैं और मन में घुमड़ते हैं उन्हीं की विषैली गर्मी से मनुष्य संतप्त रहता है।

तत्वदर्शी सुकरात का कथन है कि-”संसार में जितने दुख हैं उनमें तीन चौथाई काल्पनिक हैं।” मनुष्य अपनी कल्पना शक्ति के सहारे उन्हें अपने लिए गढ़कर तैयार करता है और उन्हीं से डर-डर कर खुद दुखी होता रहता है। यदि वह चाहे तो अपनी कल्पना शक्ति को परिमार्जित करके अपने दृष्टि कोण को शुद्ध करके इन काल्पनिक दुखों के जंजाल से आसानी से छुटकारा पा सकता है। आध्यात्म शास्त्र में इसी बात को सूत्र रूप में इस प्रकार कह दिया है कि-”वैराग्य से दुखों की निवृत्ति होती है।” हम मनचाहे भोग नहीं भोग सकते। धन की, संतान की, अधिक जीवन की, भोग की, एवं मनमानी परिस्थिति प्राप्त होने की तृष्णा किसी भी प्रकार पूरी नहीं हो सकती, एक इच्छा पूरी होने पर दूसरी नई दस इच्छाएं उठ खड़ी होती हैं। उनका कोई अन्त नहीं, कोई सीमा नहीं। इस अतृप्ति से बचने का सीधा साधा उपाय अपनी इच्छाओं एवं भावनाओं को नियंत्रित करना है। इस नियंत्रण द्वारा, वैराग्य द्वारा ही दुखों से छुटकारा मिलता है। दुखों से छुटकारे का वैराग्य ही एक मात्र उपाय है।

वैराग्य हिन्दू धर्म की शिक्षाओं में आदि से अन्त तक ओत-प्रोत है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हर मनुष्य को वैरागी रहने का आदेश है। क्योंकि वैरागी मनुष्य ही को वैरागी रहने का आदेश है। क्योंकि वैरागी मनुष्य ही अपने मानसिक संतुलन को ठीक रख सकता है, जीवन के सच्चे आनन्द का उपभोग कर सकता है, उन्नत, समृद्ध, यशम्बी, प्रतापी एवं पारलौकिक सम्पन्नता के लिए भी वैराग्य की प्राथमिक आवश्यकता है। एक शब्द में यों कह सकते हैं-”जीवन की सुसम्पन्न बनाने का एक मात्र आधार वैराग्य है।” गीता का कर्मयोग, वैराग का ही दूसरा नाम है।

हर स्थिति के व्यक्ति को सदैव अपना दृष्टि कोण वैराग्यमय रखना चाहिए, यह भारतीय दर्शन शास्त्र का सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त की चर्चा प्राचीन ग्रन्थों में हमें सविस्तार मिलती है। पर कितने दुख की बात है कि आज वैराग्य के अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है। उसका तात्पर्य कुछ से कुछ निकाला जाने लगा है। आज हमें वैरागी कहलाने वालों की एक भारी जनसंख्या निरुद्देश्य बेकारी में समय काटती हुई, मुफ्त की रोटियाँ खाती हुई, इधर से उधर मारी-मारी फिरती दीखती है। आज के वैराग्य का अर्थ यह समझा जाता है घर छोड़कर चल देना, कुटुम्ब के महान उत्तरदायित्व को तिनके के समान तोड़ कर फेंक देना, संसार को मिथ्या बताना, फिर भी संसार के अन्न, वस्त्र, मकान, धन आदि का उपभोग करना, लोक सेवा से सर्वथा दूर रह कर अपनी निजी मुक्ति या स्वर्ग प्राप्ति की खुदगर्जी की बातें सोचते रहना, भाँग चरस, गाँजा, तमाखू आदि नशीले पदार्थों की भरमार रखना, पात्र कुपात्र का विचार न करके दीनतापूर्वक भीख माँगना, भाग्यवादी अकर्मण्यता का उपदेश करना, विचित्र प्रकार का वेष बना लेना, आदि।

आज के वैरागियों ने वैराग की जो दुर्दशा कर रखी है, आइए, उस पर विचार करें और यह देखें कि उनकी कार्य पद्धति ठीक है या नहीं? छोटे-छोटे बाल बच्चों को अनाथ बनाकर, तरुण पत्नी, वृद्ध माता-पिता को छोड़कर कई लोग घर से भाग खड़े होते हैं, यह कर्म परित्याग किसी भी दृष्टि में उचित नहीं ठहराया जा सकता। प्राचीन समय में ऐसे उदाहरण हमें देखने को नहीं मिलते। साधारण जनता अपना साधारण गृहस्थ जीवन बिताते हुए ही वैराग्य का दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास करती थी। पर जो विशेष रूप से वैराग्य साधन का कार्यक्रम बनाते थे वे भी कुटुम्ब को त्यागते न थे। योगेश्वर भगवान शंकर ने दो बार विवाह किया उनकी पहली स्त्री सती और दूसरी पार्वती थी। गणेश और स्वामी कार्तिक दो पुत्र उनके थे। गीता के प्रवक्ता योगिराज कृष्ण की कई स्त्रियाँ और कई संतानें थीं। शुकदेव जी को ब्रह्मविद्या सिखाने वाले राजा जनक की एक सौ पत्याँ थीं। याज्ञवल्क ऋषि की कात्यायल्की और मैत्रेयी दो स्त्रियाँ थीं। गौतम ऋषि की अहिल्या पत्नी थी, जमदग्नि की रेणुका स्त्री और परशुराम पुत्र थे। च्यवन ऋषि की सुकन्या पत्नी थी। अत्रि ऋषि की स्त्री अनुसूया थी, जिन्होंने सीताजी को पतिव्रत धर्म का उपदेश किया। व्यासजी की पत्नी मत्सोदरी ने शुकदेव को जन्म दिया। वशिष्ठजी के शत पुत्रों को विश्वामित्र जी ने मार डाला। लोमश ऋषि के पुत्र ऋंगी ऋषि ने परीक्षित को शाप दिया। दुर्वासा ऋषि की शकुँतला कन्या थी। पुलिस्त्य ऋषि का पुत्र रावण हुआ। उद्दालक ऋषि के पुत्र नचिकेता थे। उद्दालक, वाजश्रवा के पुत्र थे। द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा था। छान्दोग्य उपनिषद में उपमन्यु के पुत्र प्राचीनशाल, पुलुष के पुत्र सत्ययज्ञ, भल्लव के पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्कराक्ष के पुत्र जन और अश्वतराश्विका के पुत्र वुडिल इन पाँचों को महाशाल अर्थात् वेद पढ़ाने वाले महा अध्यापक लिखा है वे पाँचों ऋषिकुमार थे। अरुण के पुत्र आरुणि उद्दालक के श्वेतकेतु पुत्र था। इन सबकी माताओं के नाम अविदित हैं तो भी उनकी माताऐं रही अवश्य होंगी। इस प्रकार उन ऋषियों का समत्नीक होना निश्चित है। यह आम प्रथा थी। गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए ऋषि लोग वैराग्य भरा जीवन बिताते थे। इसमें न तो कोई दोष है और न कभी कोई दोष समझा गया है। आज का वैराग्य तो विचित्र वैराग्य है, उसमें उत्तरदायित्व और कर्त्तव्य कर्मों का त्याग ही त्याग समझा जाने लगा है।

आज के वैरागी दुनिया को मिथ्या बताते हैं और लोक सेवा से नाक भौं सिकोड़ कर अपने निजी स्वर्ग मुक्ति की तरकीबें लड़ाते हैं। पर प्राचीन काल में यह विचार धारा बहुत बुरी दृष्टि से देखी जाती थी। यह तो एक विशुद्ध खुदगर्जी है। व्यापारी लोग अपने निजी लाभ के लिए धन कमाते हैं ऐसी दशा में उनके लिए भिक्षा माँगने का कोई अधिकार नहीं और वे माँगते ही हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने निजी स्वर्ग या मुक्ति की साधना में लगे हुए हैं उन्हें दूसरों से भिक्षा माँगने या दूसरों पर अपना किसी प्रकार का कोई भार डालने का अधिकार नहीं है। प्राचीन काल में ऋषि गण इस प्रत्यक्ष सत्य को भली भाँति जानते थे और वे अपने जीवन को लोकोपयोगी कार्यों में लगाये रहते थे। जब अपना सारा जीवन जनता जनार्दन के चरणों में अर्पण कर दिया तो प्रसाद स्वरूप दान या भिक्षा के रूप में निर्वाह साधन लेने का भी उन्हें अधिकार था। आज तो वैरागी कहे जाने वाले लोग लोक सेवा से कोसों दूर भागते हैं और दूध मलाई उड़ाने के लिए तैयार रहते हैं।

प्राचीन काल में ऋषि लोग लोक सेवा में तल्लीन रहते थे। धंवन्तरि, अश्विनीकुमार, चरक, सुश्रूत, वाँगभट्ट, शाँर्गधर आदि ऋषियों ने शरीर विज्ञान स्वास्थ्य, औषधि अन्वेषण और चिकित्सा में अपने सारे जीवन लगाये। जनता को रोग मुक्त करके उसे सुखी बनाने के लिए उन्होंने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। नागार्जुन सरीखे कितने ही वैज्ञानिक रसायन विद्या की शोध करके जनता के लिए उपयोगी ज्ञान सामने लाये। आर्य भट्ट सरीखे ऋषि खगोल विद्या के अन्वेषणों में लगे रहे और ग्रह नक्षत्रों की गतिविधि की महत्वपूर्ण जानकारी जनता के सामने रखी। नालन्दा, तक्षशिक्षा जैसे पचासों विश्वविद्यालय उन्हीं के द्वारा चलते थे और संसार में विद्या का प्रकाश किया जाता था। वात्स्यायन जैसे कामशास्त्र के अन्वेषक वैरागी ही थे। बाण विद्या द्रोणाचार्य सिखाते थे। नारद जी सदा भ्रमण ही करते रहते थे और एक स्थान के समाचारों से दूसरे स्थान की जनता को अवगत कराते थे। विश्वकर्मा ऋषि शिल्प विद्या के आचार्य थे। चाणक्य राजनीति के अनुपम महारथी थे। समय पड़ने पर परशुराम जी ने अत्याचारी शासकों के विरुद्ध स्वयं फरसा उठाया और उन्हें मिटा कर जनता को अभय किया। असुरों के नाश के लिए दधीचि ने अपनी अस्थियाँ तक निकाल कर दे दी। व्यासजी ने अनुपम काव्य पुराण लिखे, सूत जी कथा और उपदेशों द्वारा धर्म प्रचार करते थे। संगीत साहित्य, व्याकरण, सर्वविद्या, मल्लविद्या, विमान विद्या, शस्त्र विद्या, अर्थ शास्त्र, युद्धविद्या, मंत्र विद्या, रसायन विद्या, पशु विद्या आदि अनेकानेक प्रकार के वैज्ञानिक अन्वेषण ऋषियों के आश्रमों में होते थे और वहाँ से बड़ा महत्वपूर्ण ज्ञान संसार को मिलता था। वे एकान्त सेवा नहीं थे वरन् संसार की गतिविधि पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे, राजाओं के शासन उनकी इच्छानुसार चलते थे। दशरथ के गुरु बृहस्पतिजी निमंत्रण जीम कर दक्षिणा लेने वाले गुरु नहीं थे। उनके नियंत्रण में ही राजसत्ता की सारी गतिविधि चलती थी।

आज के तथा कथित वैरागी “दुनिया से हमें क्या मतलब” की रट लगाते हैं। पर प्राचीन काल में इस दूषित, ओछे संकीर्ण दृष्टिकोण को कोई सच्चा वैरागी पास भी नहीं फटकने देता था। भगवान बुद्ध कहा करते थे कि- ‘मैं तब तक स्वर्ग या मुक्ति नहीं चाहता जब तक कि संसार का एक भी प्राणी बन्धन में है। कहाँ वह बोधिसत्वमयि ऋषि उचित भावनाएं, कहाँ आज के वैरागियों का खुदगर्ज दृष्टि कोण? दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। आज देश ओर जाति की जो दुर्दशा है उसे देख कर सच्चे संत का हृदय पानी की तरह पिघल पड़ता है। प्रति वर्ष लाखों गौओं के सिर-धड़ से अलग हो जाते हैं, असंख्यों स्त्री, बच्चे उदर की ज्वाला शान्त करने के लिए विधर्मी बन जाते हैं। बीमारी, गरीबी, विदेशी शासन की रक्त शोषक दासता, अविद्या, साम्प्रदायिक कलह, आदि के कारण भारत माता जर्जर हो रही है। जिसके हृदय में संत पन का एक कण भी मौजूद है वह चुप नहीं बैठ सकता, अपनी शक्ति और समर्थ के अनुसार पंडित जनता की सेवा के लिए कुछ न कुछ किये बिना उससे रहा ही नहीं जा सकता। 56 लाख वैरागी जिस काम को भी हाथ में ले लें उसे बात की बात में पूरा कर सकते हैं। पर करें तब न, जब संत पन या वैराग की सचाई उनके पास हो।

वेष की नकल करने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। सिंह की खाल ओढ़ कर गधा सिंह नहीं बन सकता। जिस वेष की नकल करके आज लोग वैरागी कहलाते हैं वह प्राचीन समय में सर्व-साधारण का गृहस्थों का वेष था। प्राचीन समय के महापुरुषों की या देवताओं की तस्वीरें या मूर्तियाँ जो आजकल प्राप्त होती हैं उनमें हम देखते हैं कि वे प्रायः नंगे बदन रहते थे, धोती और बहुत हुआ तो कंधे पर दुपट्टा यही भारतीय पहनावा था। सिर पर सब कोई लंबे बाल रखते थे। आबादी कम थी जंगल अधिक थे। छोटे-छोटे गाँवों में झोंपड़ी बना कर वनवास करना पड़ता था। लकड़ी की खड़ाऊँ आसानी से बिना खर्च और कठिनाई के बन जाती थीं, वस्त्रों के अभाव में अपने आप मरे हुए मृग आदि पशुओं का चर्म आसन आदि के काम में ले लिया जाता था। दियासलाई उस वक्त थी नहीं, जंगली हिंसक पशुओं को डराने के लिए अग्नि जलती रखी जाती थी, लकड़ियों की कमी थी नहीं, यह धूनी हर घर में सदा ही जलती रहती थी। यह सब रहन-सहन आम जनता का था। संतों का वैरागियों का भी वही रहन-सहन था। आज स्थिति बदल गई है पुरानी रहन-सहन की नकल करना उतना उपयोगी नहीं रहा है पर आज तो वह नकल वैरागी होने के साइन बोर्ड की तरह काम में लाई जाती है। इस अवैध अनुकरण में क्या विवेकशीलता है इसे वे नकलची ही समझ सकते हैं। जब कि न तो हिंसक पशुओं के आक्रमण का भय है, न लकड़ियों की बहुतायत, दियासलाई से अग्नि प्राप्ति की असुविधा भी नहीं रही ऐसी दशा में धूनी जलाने का क्या प्रयोजन है इसे वे ही समझ सकते हैं।

विवेकशीलता हमें पुकारती है। प्राची से प्रकाश का उदय हो रहा है। हमें हर समस्या पर विवेक के आधार पर विचार करना पड़ेगा। वैराग्य जैसे महातत्व को हमारे दैनिक व्यवहार में उपयोग करके जीवन को सच्चे अर्थ में आनन्दित बनाना लाभ दायक है या वैराग का ऊटपटाँग आडंबर करना उचित है? इस प्रश्न का भी हमें सही उत्तर प्राप्त करना होगा। तभी हम सत्य की दिशा में अग्रसर हो सकेंगे।

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